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माँ के नाम पत्र

Amit Paul

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माँ के नाम एक पत्र
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मेरी माँ,
चरण स्पर्श,
तुम्हारी याद आ रही थी.बहुत-बहुत-खूब-खूब तुम याद आ रही थी.मन में तुम्हारी स्मृतियाँ स्वच्छ आकाश में चैती बादलों की तरह थी.रूई का फ़ाहा रेशे में बिखर रहा था.सार्थकता है भी नहीं भी.आज मैं तिरपन साल का हो गया,अब मैं भी समय के साथ बड़ा हो रहा हूँ.बीस साल हो गये,जब तुम हमें छोड़ चली गयी थी,जहाँ से कोई नहीं लौटता. कोई बात नहीं,मेरी नज़रों में तुम हमेशा साथ हो. दिन -रात,सुख-दु:ख,हर्ष-विषाद सबमें पाता हूँ. क्या यही माँ होती है,माँ ? मन में उठते भाव को तुम तक पहुचाऊँ,सोचता था.समाधान मिला.जो मन में आये लिख डालूँ और आकाश के पते पर तुम्हें भेज दूँ. माँ तुम्हें याद होगा मेरे जन्मदिन पर तुम खीर जरूर बनाती थी और मंदिर में अर्चना के बाद एक चम्मच मेरे मुँह में डालती थी,क्या वैयक्तिक का अर्थ यही होता है माँ ? आज सजे केक, दुबलाई कनिष्ठा सी मोमबत्तियों की पाँत,तालियों की ध्वनि से कहीं अधिक जानदार थी वह एक चम्मच खीर.हर साल मैं फिर एक बार बुद्ध बन जाता था,कितने बुद्ध ओढ़ा दिये थे तुमने एक-एक चम्मच कर. हर जलती मोमबत्ती की लौ में, मैं तुम्हारा अक्स देखता हूँ. तालियों और गीत गाते लोगों की आवाज़ नहीं सुन पाता.तुम जहाँ हो वहाँ आवाज़ नहीं है,बस प्रकाश है,और उस रौशनी के सहारे मैं इस दुनिया के पार कई दुनिया देख लेता हूँ. माँ तुम्हें याद है,छब्बीस साल पहले जब मेरी शादी हुयी थी और तुम्हारी नई बहू हमारे घर के द्वार पर खड़ी थी.घर की लड़कियाँ और सधवा स्त्रियाँ द्वारोपचार के लिये कुंकुम सजे थाल लिये खड़ी थी.तुम आँगन के दरवाज़े की झिर्री से झाँक रही थी,सफेद साड़ी में लिपटी,सिर के अधपके बालों में मुस्कराती. तुम सामने नहीं आ रही थी. पिताजी नहीं थे न.तुम अब सधवा नहीं थी.मैं तुम्हें पकड़कर सामने लाया था नई बहू को वरण करने के लिये. तुम बहुत खुश हो गयी थी.तुम्हारे साँवले हल्के झुर्रीदार चेहरे पर आनंद की लक़ीरे देखी थी मैने उस दिन.बचपन मे स्कूल से जब लौटता था और घंटी बजाने पर कोई और दरवाज़ा खोलता था,तो मैं रूठ जाता था. उस दिन भी कुछ वैसा ही हुआ था. फिर हम दोनों एक साथ खुश हो गये थे. माँ तुम जब गयी,मेरी बेटी श्वेता पाँच साल की थी. अब वह बड़ी हो रही है.हँसने पर ठीक तुम्हारी ही तरह दोनों गाल मे गढ्ढे बनते हैं. तुमने उसे पहली बार श्वेता कहा था,कुछ वैसी ही है जिसके कारण उसके बारे में चिंतित हो जाता हूँ. पर है मजबूत लड़की,तुम्हारी तरह.याद है माँ एक बार जब देर रात तेज आँधी आयी थी और आँधी के हल्के पड़ते ही,अँधेरे में हम दोनों अपने आम के बाग़ीचे के लिये निकल पड़े थे,देखने की कितने आम जमीन पर टपक गये.तुमने मेरे हाथ पकड़ रखे थे.तुम्हारा हाथ मेरा हौसला था,आज भी लगता है तुमने छोड़ा नहीं है वह हाथ..मेरी शादी के बाद तुमने जल्दी रूख़सत ले ली.तुम्हारी बहू अनुराधा के सामने जब कभी तुम्हारी स्मृतियों को हेरता हूँ,वह ध्यान से देखती है,सुनती है.कितना समझ पाती है मैं नहीं जानता.पर हाँ उसके चेहरे से लगता है कि कोई ग्रीक पुरा-कथा सुन रही हो.सब नया,सारे चरित्र नये,कहानी की हर मोड़ नई.
घर के सामने जो दो आँवले के पेड़ लगाये थे तुमने वे अब बड़े हो गये हैं.उनपर कई सालों तक फल नहीं आये.अब झूम के आते हैं.किसी रात बरसात के बाद,बिजली की रौशनी में,इनकी पत्तियों पर पानी की बूँदें लटक जाती हैं जो हीरे के कणों जैसी दिखती हैं.तुम देखती तो खुश होती.सुंदर चीजे तुम्हें अच्छी लगती थी,भले ही वह छोटी हों.तुमने एकबार कहा था-रोना मत,तुम रोने पर कम सुंदर लगते हो.माँ तबसे मैं हमेशा सुंदर दिखना चाहता हूँ और सुंदर..और सुंदर. तुम्हारी कई बातें आज मेरे लिये स्वंयसिद्ध जैसी खड़ी रहती है.तुमने कहा था एक बार शुचिता के बारे में.कहा था शुचिताआचारमुखी हैं,विचारमुखी नहीं ,विचार में परिवर्तन सहज है,आचार में कठिनाई है.आचारमुखी रहो.बहुत ताकत मिली ,आज भी पाता हूँ. तुम्हे कुत्ते पसंद नहीं थे,पर उस दिन जब हमारी पालतू लूसी के गले में हड्डी का एक टुकड़ा अटक गया था तो तुमने उसके मुँह में हाथ डालकर वह टुकड़ा बाहर निकाल दिया था.तुम घृणा पर विजय कैसे पा लेती थी,जानने से मैं रह गया. घर के बड़े वाले मटके में जिसमें पानी रहता था,अब वह सूखा पड़ा है.फ्रीज बड़ा हो गया है,उसमे ठंडे पानी की टोंटी भी लगी है. अब मटके में कुछ पुराने कपड़े हैं. कोई भिखारी आने पर उसमे से मुताबिक कपड़ा उसे निकाल कर दे देते हैं.बहुत शीतल था माँ मटके का पानी ! दु:ख के क्यारियों में भी खुशियों के मेंड़ बाँधना तुम कैसे सिखाती थी.बहुत अच्छा लगता था.जानती हो माँ,अब इस धरती पर जमीन घट गये हैं,क्यारियों के लिये भी जगह नहीं बच पा रही है. तुम मुस्करा रही होगी की ज़मीन तो वही है,गणित में तुम्हारा बेटा कमज़ोर ही रह गया.जानता हूँ माँ संख्या बड़ी हो गई है और बढ़ने पर संख्यायों को भी लिखने के लिये बड़ी जगह की जरूरत होती है. संख्या बढ़ी लोग सिकुड़ गये.अब एक हँस दो न.
यहाँ और सब तो ठीक है माँ पर एक बात हुई है ,तुम्हारे जाने के बाद इन उन्नीस सालों में, लोग पहले झगड़ते थे,नाराज़ होते थे,रूठते थे,हँसते थे,रोते थे.अब भी वैसा ही करते हैं-पर वे लोग जैसे नहीं दिखते.आदमी से कुछ ऊपर या नीचे दिखते हैं.तुम्हारी वह बात याद आती है माँ की तुमने कहा था-वहीं बने रहना जहाँ तुम्हें छोड़ जा रही हूँ,रंग मत लगाना,तुम्हारा अपना रंग है,अपनी खुशबू है.सब वैसा ही है माँ' पर रंग पर कुछ गर्द हैं. शायद धूप और धूल से हुआ हो,पर मैं वैसा ही हूँ माँ.सुना है की तुम जहाँ हो वहाँ शांति है,पर एक बात कहो न की, मैं तुम्हें याद आता हूँ की उस असीम शांति में भी तुम धरती की व्यथा और पीड़ा को एकबार सहलाना चाहती हो.किसी उदास चेहरे या मन को एकबार मुस्कराते देखना चाहती हो. तुम इस अर्थ में मोह से मुक्त नहीं हो सकी न ?
अब बहुत रात हो गई है माँ.अब मैं सोना चाहता हूँ.मन हल्का लग रहा है.कल रात मैं तुम्हें फिर एक पत्र लिखूँगा,जब सब सो जायेंगे और तुम्हारी स्मृतियाँ मुझे और जाग्रत कर देंगी.तुम्हारा पता तो अब मुझे मिल ही गया है,अब हर रात लिखूँगा.अपना ख़्याल रखना.माँ मैं ठीक हूँ.

-तुम्हारा,

वही जो तुम हो.

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