लाल डायरी Khushi Saifi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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लाल डायरी

"लाल डायरी”

मैं कहानी लिखना शुरू कर रही हूँ पर अफ़सोस कि एक खाली कुर्सी से, अगर ये खाली न होती तो मेरा पास कहानी ना होती, पर ये खाली है और अब कहनी की शुरुआत करने का वक़्त हो गया है।। ये कहानी है एक एसे परिवार की जिसमे सिर्फ दो लोग रहते है... एक माँ और एक बेटा।

अभी विनीता का दूजा चल रहा था सब लोग शोक में ग़म में बैठे थे की अचानक क्या हुआ विनीता देवी को जो यूँ परलोक सिधार गयी, अभी कल सुबह ही तो अच्छी भली थी।

"कल सुबह की ही तो बात है, मेरे पास आयी थी बोल रही थी बेटे की शादी कर के तीर्थ यात्रा पर जाऊँगी और देखो दिन चढ़े ही ये मनहूस खबर मिल गयी” पड़ोस की मिसिज़ उषा यादव ने कहा था।

"अभी तो बेटे की कोई ख़ुशी भी नही देखी थी बेचारी ने और इतनी जल्दी चली भी गयी” एक और मोहल्ले की औरत की आवाज़ आयी।

“देखो ज़रा उसके बेटे को कैसे बैठा है.. इतना सा मुह निकल आया है” मोहल्ले की औरतों को तो जैसे गॉसिप करने का बहाना मिल गया था।

"हां बहन! ठीक कहती हो, आखिर माँ तो माँ ही होती है।" मिसिज़ उषा यादव ने हाँ ने हाँ मिलायी थी।

कुछ दूर बेठा विनीता का बेटा राहुल सब सुन रहा था पर नज़रे जमीं पर गड़ी हुई थी और ज़हन में कल माँ से हुए झगड़े की फिल्म सी चल रही थी।

"मां आखिर तुम बताती क्यों नही हो, क्यों छुपाया हुआ है मुझसे मेरे और तुम्हारे अतित का सच, अपने कभी मेरे पापा का नाम नही बताया.. वो कौन है, कहाँ रहते हैं, ज़िन्दा भी है या मर गये"

राहुल बस बोले जा रहा था, गुस्से में उसने अपनी माँ की हालत भी नही देखी जो किसी सकते में थी।

"बताओ माँ! मैं किस जाती का हूँ.. मेरा गोत्रर क्या है, मेरा नाम सिर्फ राहुल ही क्यों है, कोई सर नेम क्यों नही है मेरा”

विनीता देवी बस चुप चाप अपने बेटे को देख रही थी.. उन्हें समझ नही आ रहा था कि क्या कहे।

“कुछ तो बोलो माँ! कब तक चुप रहोगी, आज आपको बताना होगा सब, क्यों छुपा कर रखा है अपने ये राज़”

विनीत देवी बेटे का ये रूप पहली बार नहीं देख रही थी वो अक्सर पूछा करता था ये सवाल और विनीता देवी टाल जाती थी पर आज इतना गुस्सा, अपनी खुद की माँ पर चीखना चिल्लाना वो भी एक परायी लड़की के लिए जिससे मिले उसे सिर्फ चाँद माह हुए थे और माँ का 25 साल का प्याऱ, मेहनत, उसकी अच्छी शिक्षा के लिए की गई जुस्तजू... सब भूल गया वो।।

"मैं अपने जीते जी नही बताऊंगी राहुल, तू मेरा बेटा है क्या इतना काफी नही है तेरे लिये” विनिता देवी अफ़सोस से कह रही थी।

"हाँ! नही है काफी मेरे लिये, लोग पूछते हैं मुझसे.. रीना मुझसे पूछती है की कौन हूँ मैं, मेरे बाप कौन है.. क्या जवाब दूँ मैं जब खुद ही कुछ नही जानता" एक बार फिर राहुल की तेज़ आवाज़ घर में गूंजी थी।

"अगर वो तुझसे सच्ची मोहब्बत करती है तो उसके लिए ये सब चीज़ें मायने नही रखनी चाहिये” विनिता देवी भी गुस्से से चिल्लाई थी।

"बस माँ बस! बोहोत हो गया, अब मैं यहाँ नही रहूंगा, चला जाऊंगा बहुत दूर.. जहाँ लोग मुझसे मेरी पहचान ना पुछें" इतना कह कर रवि गुस्से से पैर पटखटा हुआ घर से बहार चला गया।।

"नही राहुल! सुन बेटा.. तू अपनी बूढ़ी माँ को अकेला छोड़ कर नही जा सकता.. राहुल"

विनीत देवी की आवाज़ दूर तक गयी पर राहुल चलता चला गया, मुड़ कर देखा भी नही पीछे। विनिता देवी वही कुर्सी पर बैठ गयी, सदमे और सकते की हालत में उनकी ऑंखें बड़ी बड़ी खुली रह गयी।

राहुल घर से निकल कर रीना के ऑफिस गया।

“रीना! मुझे बात करनी है तुमसे ज़रूरी, मेरे साथ चलो” राहुल ने ज़बरदस्ती रीना का हाथ पकड़ कर खड़ा करना चाहा।

“ये क्या बत्तमीज़ी है राहुल, ये तुम्हारा घर नही है, बिहैव योर सेल्फ” रीना ने गुस्से से अपना हाथ छुड़ाया।

सारा ऑफिस स्टाफ उनकी बहस सुन रहा था।

“रीना! मुझे ज़रूरत है इस वक़्त तुम्हारी, तुम्हारे साथ की, प्लीज दो मिनट मेरी बात सुन लो, मैं घर छोड़ कर आया हूँ और अब हम कहीं दूर जा कर रहेंगे जहाँ मुझसे कोई मेरी ज़ात नही पूछेगा” राहुल बोहोत अकेला महसूस कर रहा था।

“कोई नही पूछेगा, पर मैं तो फिर भी पूछूँगी राहुल, मैं एसे लड़के से शादी नही कर सकती जिसने बाप का भी पता नही” रीना गुस्से से बोली थी।

“रीना...” राहुल गुस्से से चिल्लाया था।

तभी ऑफिस के बॉस आये और बोले “क्या हो रहा है ये, ये लडाई झगड़ा अपने घर जाकर करिये, यहाँ नही”

ऑफिस से निकल कर पता नही कहाँ कहाँ सारा दिल राहुल आवारा सा घूमता रहा.. सुबह का निकला राहुल दिन चढ़े घर लौटा तो माँ को कुर्सी पर बैठ देखा, वो विनीता देवी को यूँ ही बैठा छोड़ कर अपने कमरे में चला गया, सुबह का गुस्सा अभी तक दिमाग में जो भरा था।।

कुछ घण्टे कमरे में बंद रहने के बाद उससे कुछ भूख का एहसास हुआ तो माँ की याद आयी और कमरे से बाहर निकला तो माँ अब भी एसे ही कुर्सी पर बैठी थी, पहले वो चोंका कि अब तक माँ ऐसे ही बैठी है लेकिन फिर परिस्तिथि समझ कर वो काफी घबरा गया और भाग कर माँ के पास गया पर अब कुछ नही बचा था, बस नष्ट हो जाने वाला शरीर बचा था।

"मां! क्या हुआ आपको, कुछ बोलो प्लीज.. मैं कहीं नही जा रहा, यहीं हूँ आपके पास, माँ”

राहुल विनीता देवी से बोल रहा पर अब वो कुछ नही सुन रही थी, बस राहुल अकेले बोलता रह गया। अपनी ज़िन्दगी में, घर में अकेला रह गया था।

आखरी उम्मीद के साथ भाग कर फैमिली डॉक्टर को फ़ोन लगाया और तुरंत आने का कहा पर डॉक्टर भी क्या कर सकते थे अब।। विनीता देवी तो उस लोक जा चुकी थी जहाँ से कभी कोई लौट कर नही आता।

राहुल को समझ नही आ रहता कि क्या करे, किसके पास जाये। कहने को तो सब मोहल्ले के लोग जमा हो गए थे पर राहुल किसी अपने तो तलाश रहा था, बस रह रह कर बस रीना का ही ख्याल आ रहा था। राहुल ने रीना को फ़ोन किया..

“हेल्लो रीना! मैं अकेला रह गया हूँ, माँ मुझे छोड़ कर चली गयी” राहुल की आवाज़ में दुःख साफ़ झलक रहा था।

“ओह! सुन कर बोहोत दुःख हुआ राहुल, अच्छा मैं फोन रखती हूं मुझे कुछ काम है” रिना ने जान छुड़ानी चाही।

राहुल समझ गया था कि अब रीना भी जा चुकी है, माँ की तरह अब वो भी लौट कर नही आएगी।

अंतिम संस्कार के बाद मोहल्ले के लोग भी दुःख जता कर अपने अपने घर लौट रहे थे। एक एक कर के सब लोग जा चुके थे, सब लोगो में था भी कौन, बस कुछ एक पडोसी ही तो थे जो दुःख सुख में विनिता देवी का साथ दिया करते थे। २५ साल में यही रिश्ते कमाए थे कोई खून ला रिश्ता नही था किसी से पर अपनों से भी बढ़ कर थे।

राहुल अकेला बैठा था उसी कुर्सी के सामने जिस पर कुछ दिन पहले उसकी माँ बैठा करती थी। माँ के ग़म में वो सब भूल गया था खाना पीना ऑफिस यहाँ तक की रीना को भी। रीना ने भी पलट कर उसकी खैर खबर नही ली थी। शायद वो समझ गया था की माँ सही कहती थी, अगर रीना सच्ची मोहब्बत करती राहुल से तो वो उसे एसे ही अपनाती जैसा वो था, उसका अतीत जानने की कोशिश नही करती।

“बेटा! तुम कुछ देर हमारी तरफ आ जाओ, अकेले कैसे रहोगे यहाँ” मिसेज़ उषा यादव ने राहुल से कहा।

“नही मोसी! मैं ठीक हूँ यहीं, मैं कुछ देर अकेले रहना चाहता हूँ”

“ठीक है बेटा! मैं आती हूँ थोड़ी देर में, तुम परेशान नही होना, हम सब तुम्हारे साथ हैं, किसी भी चीज़ की ज़रूरत को तो आवाज़ लगा लेना बेटा, मैं आ जाउंगी” मिसेज़ उषा ने मोहब्बत से कहा।

“जी मौसी” राहुल ने बस इतना ही कहा।

जाने से पहले पड़ोस की मिसिज़ उषा यादव ने ज़बरदस्त थोड़ा खाना उसकी मुह में डाला था जिसे उसने बोहोत बेदिली से गले से नीचे उतरा था। मिसेज़ उषा यादव कुछ देर बाद आने का कह कर चली गयी और राहुल अपनी माँ के कमरे में आ गया। माँ बोहोत याद आ रही थी उसे।

कमरे में सब सामान एसे ही रखा था जैसे माँ रखा करती थी, सब सामान अपनी जगह धूल मिट्टी से साफ। राहुल माँ के बिस्तर पर बैठा कमरे को चारों ओर से देख रहा था जैसे अपनी माँ को तलाश कर रहा हो कि अभी आ जायेगी उसकी माँ और कहेगी “बेटा! खाना खा ले कितनी देर से कुछ नही खाया तूने”

राहुल बिस्तर से उठा और विनीत देवी की अलमारी खोल कर काफी देर तक उसकी साड़ी देखता रहा, माँ की साड़ी को एसे छूता जैसे वो अपनी माँ के हाथों को छू रहा हो। कभी मुस्कुरा रहा था तो कभी उदास हो जाता। मिले जुले भाव उसके आँखों में और चेहरे पर आ रहे थे।

अचानक उसकी नज़र हरी साड़ी पर पड़ी, ये वही साड़ी थी जो उसने अपनी माँ के लिए पहली सेलरी से ली थी, विनीता देवी बेटे की पहली कामियाबी पर बोहोत खुश थी, साथ ही साथ उससे बोहोत सी दुआएं भी दे रही थी। राहुल को पिछली सब बातें याद आ रही थी।

उसने वो हरी साड़ी उठाई, उस साड़ी में माँ उसे बोहोत अच्छी लगा करती थी उसने साड़ी को हाथ में उठाया तभी उसमे से एक पुरानी सी लाल डायरी नीचे गिरी।

"माँ डायरी लिखा करती थी" जैसे वो अपने आपसे बोला था, ये काफी चोकाने वाली बात थी उसके लिये, उसने तो कभी नही देखा माँ को लिखते हुए।।

मन में जिग्ज्ञासा जगी कि देखे क्या लिखा है इसमे, लेकिन दिमाग ने डांटा कि नही किसी की डायरी नही पढनी चाहिये पर दिमाग की अनसुनी कर के राहुल ने डायरी निकाल ली और पढ़े के लिए खोली।

पहले पन्ने पर ही उसकी माँ का नाम लिखा था पर जिस तरह लिखा था वो राहुल को चोंका गया।।

"विनीता बसु"

राहुल ने जल्दी से दूसरा पन्ना खोला..

15 मार्च 1988

“आज पापा ने मुझ कॉलेज जाने की परमिशन दे दी है, अब कल से मैं कॉलेज ज्वाइन करुँगी, ई ऍम सो हैप्पी, थैंक यू सो मच पापा, लव यू"

"ये तो मेरे जन्म से पहले की डेट है” राहुल मान ही मान बोला था।।

और ज़्यादा उत्साहित हो कर राहुल ने अगला पन्ना खोला..

1 मई 1988

आज मेरा दिन बोहोत अच्छा गुज़रा, यूनिट टेस्ट में टॉप जो किया था और पापा ने मुझे गिफ्ट में वाच दी और मां ने 101 रुपये।। कितनी लकी गर्ल हूँ मैं जो मुझे इतना प्यार करने वाले मम्मी और पापा मिले है। मेरे मम्मी पापा बेस्ट मम्मी पापा हैं।

20 अगस्त 1988

पापा भी हद करते हैं, कोई पार्टी में सलवार कमीज पहन के जाता है, वो भी मेरी बेस्ट फ्रंड की बर्थडे पार्टी में। क्या था जो मम्मी मेरी सिफारिश कर के मुझे एक फेन्सी ड्रेस दिला देती। कितना मज़ाक बनाया सब ने मेरा, बिलकुल बहन जी लग रही थी मैं सलवार कमीज में। बाकि सब लड़कियां भी तो आयी थी फेन्सी ड्रेस में, उनके मम्मी पापा ने तो नही मना किया उन्हें "

राहुल एक के बाद एक पेज पलटता गया और पेज दर पेज विनीता की ज़िन्दगी उसके सामने आती गयी।

25 अगस्त 1988

सुमित कितना हैंडसम है, हाय! काश कि वो मुझसे बात करता, काश कि वो मेरा दोस्त बन जाये। अगली बात मिलूंगी तो हेल्लो बोलूंगी उससे मगर कैसे मेरी तो हिम्मत ही खत्म हो जाती है कुछ भी बोलने की उसके सामने आते ही।

3 सितम्बर 1988

सुमित ने आज पहली बार मुझे नोटिस किया, कितना अच्छा लगता हैं न जिससे हम पसंद करें वो भी आपको उन्ही नज़रों से देखे, जैसे मुझे सुमित से मोहब्बत हो गयी है तो क्या वो भी मुझ से प्यार करने लगा है, काश एस ही हो।।

14 सितम्बर 1988

मेरा दिल सही गवाही देता था, सुमित भी मुझे पसंद करता है वरना आज वो मेरी साइड क्यूँ लेटा। एक मंजू है कहती है सुमित अच्छा लड़का नही है दूर रहो उससे, हुं.. जलती है वो मुझसे, सुमित मुझे जो पसंद करता है उससे नही और ये शुष्मा की तो मैं जान ले लूंगी किसी दिन, कैसे चिपक चिपक कर चलती है सुमित के साथ और सुमित भी तो माना नही करता उसे। हो सकता है सुमित के लिए नार्मल बात हो, मैं भी कितनी पागल हूँ पता नही क्या क्या सोचती रहती हूं।

राहुल जैसे कुछ सोचने के लिए रुका, अब उसे समझ आने लगा था कि आखिर क्या हुआ होगा। उसने आगे पेज खोला।

10 अक्टूबर 1988

आज मैं बोहोत खुश हूँ, सुमित भी मुझसे मोहब्बत करता है। जिस रोमेंटिक अंदाज में उसने शादी के लिए प्रपोस किया मैं मना ही नही कर पायी, शायद एसा ही मैंने एक फिल्म में देखा था। ख्वाब एसे भी पुरे हो जाते हैं मुझे तो यकीन ही नही आ रहा, ई लव यू टू सुमित।

25 अक्टूबर 1988

कल कॉलेज जाते ही मैं उससे बोल दूंगी कि अपने पेरेंट्स को भेज दे हमारे घर, पाप मेरे कहने से नही माने पर जब अच्छे घर से रिश्ता आयेगा तो ज़रुर मान जायँगे। हाँ! एसा ही होगा.. मुझे यकीन है पापा मान जाएंगे।

29 अक्टूबर 1988

हमारे पेरेंट्स क्यों नही समझते की हम एक दूसरे के बिना नही रह सकते, वहां सुमित के पेरेंट्स तैयार नही है और यहाँ मेऱे।। भगवान तू ही बता मैं क्या करूँ अब मैं नही रह सकती सुमित के बिना।

आज अपने पेरेंट्स की मर्ज़ी बताते हुए कितना टुटा हुआ लग रहा था सुमित।। मैं तो शायद उसे सही से तसल्ली भी नही दे पाई।

26 नवम्बर 1988

एक महीना हो गया है और अभी तक कुछ हासिल नही हो पाया और सुमित भी क्या उलटी सीधी बातें बोल रहा है, मैं घर से कैसे भाग सकती हूँ... नही, बिलकुल भी नही, ना मुमकिन बात है ये।

9 दिसम्बर 1988

आज फिर मेरे मम्मी पापा ने मेरी बात नकार दी आखिर क्या कमी है सुमित में। एडुकेटेड है, स्मार्ट है, वेल मेंनेर्ड है फिर क्यों नही मान रहे मम्मी पापा।।

लगता है सुमित ठीक कहता है अब हमें ही कोई ठोस कदम उठना पड़ेगा।

13 दिसम्बर 1988

आज मैं अपना घर छोड़ कर जा रही हूँ वो घर जहाँ मेरा बचपन गुज़रा, वो घर जहाँ मेरे मां पापा रहता हैं।। उन्होंने मेरे लिए कोई और रास्ता ही नही छोड़ा, मुझे हार कर ये कदम उठाना पड़ रहा है।

राहुल जैसे सकते में आ गया.. ये क्या किया माँ ने। राहुल ने दूसरा पेज खोला।

13 दिसम्बर 1988

शाम ढल चुकी थी, रात का सन्नाटा था और साथ में रेल की पटरी की कानो को चीर देने वाली तेज़ आवाज़ थी। सुमित पता नही किस जगह ले आया है, मुझे मां पापा की याद आ रही है।। पता नही उनकी क्या हालत हो रही होगी वहां। अब तक तो उन्हें पता चल गया होगा की मैं घर से भाग चुकी हूँ। क्या मैंने सही किया या नही ? अजीब काशमकाश है मेरे दिल और दिमाग मैंने।

29 दिसम्बर 1988

कुछ ही दिनों में मेरी ज़िन्दगी बदल गयी, मैं क्या थी और क्या बन गयी । उस दिन की मंज़र चाह कर भी आँखों के सामने से नही जाता।। वो मंज़र जब सुमित अजीब नज़रों से देखता हुआ मेरे तरफ आ रहा था।

मैंने उससे कहा भी था कि

"सुमित क्या हुआ तुम्हे.. ये क्या कर रहे हो.. दूर हटो.. मुझे नही पसन्द ये सब शादी से पहले, हम कल शादी कर लेंगे सुमित उसके बाद.." मैं रुवा सी हो कर बोली और साथ ही साथ मुझे किसी अनहोनी का एहसास होने लगा था।।

“शादी तुमसे विनीता.. हाहाहा, तुम उन लड़कियों में से नही हो जिनसे शादी की जाती है, तुम तो बस टाइम पास थी मेरे लिए , शादी तो मैं उसी से करूँगा जो मेरे माँ बाप मेरे लिए पसंद करेंगे” सुमित का असली चेहरा मेरे सामने था। और अब मैं चाह कर भी कुछ नही कर सकती थी। सुमित ने भी तो सारी कसर निकाल छोड़ी थी उसकी नज़र में मैं शादी के काबिल नही थी सिर्फ उसकी शारीरिक भूख को खत्म करने का एक सामान थी, जिस सामान का उसने भरपूर इस्तेमाल किया था।। तार तार कर दी थी मेरी इज़्ज़त, घर से निकलते वक़्त जो कुछ एक मां के जेवर लायी थी वो भी मुझसे चीन लिये और मुझे रोता हुआ अकेला छोड़ कर चला गया।। ये भी नही सोचा कि उसके भरोसे घर छोड़ कर आयी थी।

कहाँ जाती मैं, घर कैसे जाती, क्या मुह ले कर जाती.. फिर भी हिम्मत कर के रात के अँधेरे में घर तक पुहंची.. लेकिन वहां भी नफ़रतें मेरे इंतज़ार कर रही थी। दरवाज़ा पापा ने खोला और मेरी हालात देखकर समझ गये कि मेरी मनमानी करने का फल मिला है मुझे..

मम्मी ने रोते हुए सीने से लगाया पर जो उन्होंने कहा उससे मेरी रही सही हिम्मत भी खत्म हो गयी,

“विनीता! यहाँ सब को पता चल चुका है कि तू घर से भाग गई है, सब मोहल्ले वाले हमारे मुँह पर थू थू कर रहे है, तेरे पापा और मैं कल सवेरे ये शहर छोड़ कर जा रहे हैं वर्ना ये लोग हमें जीने नही देंगे। तू चली जा जहाँ से आयी है वहीँ चली जा, हम दोनों मान चुके हैं कि हमारी बेटी मर चुकी है, सवेरे होने से पहले चली जा इससे पहले की कोई तुझे देख ले चली जा” इतना कह कर माँ ने दरवाजा बंद कर लिया। बस माँ के रोने की आवाज़ आ रही थी।

जो मैंने किया था वो तो अब भुगतना था मुझे, मेरे पास पैसे भी नही थे, ज़ेवर सब सुमित छीन ले गया था बस कान में पहनी सोने की बालिया थी जिनको बेच कर जैसे तैसे मुम्बई से निकल कर झारखण्ड की एक खूंटी नाम की जगह आ कर रहने लगी जहाँ कोई मुझे नही जानता था।

15 जनवरी 1989

आज पडोस की दाई अम्मा ने बताया कि मेरे अंदर एक नन्ही सी जान पल रही है।। मैं समझ नही पा रही थी कि मैं खुश हों या दुखी।। पर मैंने भी फैसला कर लिया था कि इन सब में इस नन्ही सी जान का क्या कुसूर है।

28 जून 1989

आज मेरे मालिक ने बोहोत बुरा सुलूक किया मेरे साथ, उनके घर खाना बनाती हूँ इसका मतलब ये नही कि हर जायज़ न जायज़ मांगे पूरी करूँ, अकेली औरत को कोई नही जीने देता। भगवान् से दुआ है कि मेरे बच्चे के नसीब से कोई अच्छी इज़्ज़त वाली नोकरी मिल जाये ताकि मैं आने वाले मेहमान की अच्छे से देख भाल कर सकूँ।

6 सितम्बर 1989

आज के दिन नन्ही सी जान को दाई अम्मा ने मेरी गोद में दिया था।। कितना प्यारा एहसास था पर बोहोत सारे खाली पन के साथ, उसकी आँखों में कितनी चमक थी पर जब वो अपनी माँ का और बाप का सच जानेंगा तो क्या ये चमक रह पायगी उसकी आँखों में, नही नही... मैं कुछ नही बताऊंगी उससे, कभी कुछ नही बताउंगी। मैं खुद इसे इतना प्यार दूँगी की कभी इसे उस इंसान की कमी महसूस नही होने दूंगी जो बद-किस्मती से इसका बाप है।“

अभी विनीता की ज़िन्दगी के और पन्ने खुलने बाकी थे पर राहुल आगे और पढ़ने की हिम्मत नही रखता था.. नमकीन पानी उसकी आँखों से बह रहा था.. माँ उसे ओर शिद्दत से याद आने लगी थी।

"हां माँ ! अपने बोहोत प्यार दिया है मुझे।। कभी मुझे बाप की कमी महसूस नही होने दी पर न जाने मैं क्यों इतना खुद गरज़ बन गया था की कुछ समझ नही पाया और इस खुदगर्ज़ी में आपको खो दिया।। बस अपनी ज़िद और अना में खड़ा रहा ये भूल कर कि सामने मेरी अपनी माँ है, वो माँ जिसने कभी मुझे ज़िन्दगी में कोई तकलीफ का सामना नही करने दिया, खुद अकेले सारी परेशानिया झेलती रही, मुझे माफ़ कर दो मा।।"

राहुल पर ज़िन्दगी की सचाई खुल चुकी थी और चाहता था कि क्या अच्छा था की वो अनजान ही रहता। अगर जानने की कोशिश नही करता तो आज उसकी माँ उसके पास होती।।

समाप्त !