लेडीज क्लब
हनीफ मदार
किसी भी देश दुनिया या शहर की सांस्कृतिक विरासत, सामाजिक ताने-बाने को जाने, समझे या लिखे बिना उस देश, दुनिया, या शहर की तस्वीर मुकम्मल नहीं हो सकती। सचनात्मक दृष्टिकोण से रचनाकार पर यह जिम्मेदारी तब और बड़ी हो जाती है ज बवह रचनाकार अपने शहर के हर छोटे-बड़े घावों को सहलाता उसे साहस देता रहा हो। फिर चाहे सामाजिक, राजनैतिक धरातल पर बदलते समीकरण हों, जाति या धर्म के नाम पर साम्प्रदायिक घाव हों या फिर समयानुगत बदलते वैचारिक उलझाव या फिर अलग-अलग सांस्कृतिक, मानसिक या पारम्परिक स्वरुपों के बावजूद होली या ईद के आपसी मिलन हों।
एक शहर के बहाने ही सही अपने समय का इतिहास बनती ऐसी अनेक घटना-परिघटनाओं की आत्मीय एवं गहन पड़ताल सम्पूर्ण भारतीय समाज में समीक्षात्मक दृष्टि से संवेदना को तलाशना है। एक शहर जो विविध भारतीय समाज के प्रतिनिधि के रुप में रचनाकार के हृदय में बसता है। उस शहर की हर गली, हर सड़क, हर चैराहा, अस्पताल, शैक्षिक संस्थान, मौहल्ला, बस्ती जहां तक कि हर घर अपने सुख-दुख को रचनाकार के साथ बांट कर नये रास्ते खोजने की बात कह कर कभी हंसता, ठठाता या रोता समय के साथ आगे बढ़ता रहता है।
“लेडीज क्लब” उपन्यास डा0 नमिता सिंह के सपनों की वह प्रयोगशाला है जहां वे घटित होते सूक्ष्मतम क्षणों का रचनात्मक मूल्यांकन कर पूरे शहर और पूरे भारतीय समाज पर उस रंग की परत चढ़ते आसानी से देख पाती हैं। “अपनी सलीबें” के बाद अपने दूसरे उपन्यास लेडीज क्लब में नमिता सिंह अलीगढ़ शहर को केन्द्र में रखकर अपने समय और समाज की परिक्रमा कर किसी दिव्य दृष्टा की तरह एक सम्पूर्ण रिपोर्ट प्रस्तुत करने की कोशिश करती दिखतीं हैं। उपन्यास को पढ़ते हुए एक लम्बी संस्मरणात्मक यात्रा वृत्तान्त का स्वतः अनुभव लेखिका का वृहद सामाजिक विश्लेषण और रचनाकार का किसी न किसी रुप में प्रस्तुत घटनाओं के साथ निरन्तर जुड़े रहने का नतीजा है।
लगभग ग्यारह छोटे-बड़े अघ्यायों में सिमटा समीक्ष्य उपन्यास एक ऐसे तिलस्म को तोड़ने का प्रयास करता है जिसके परकोटे में घुटन और सहमेपन के साथ एक-दूसरे का चेहरा ताक कर इन्सान होने की पहचान करते आम जीवन की छटपटाहट, खीज, कुण्ठा, सहमतियां-असहमतियां आपस में गड्डमड्ड हो रही है। जहां स्त्रिायों के लिये धार्मिक फतवे या वर्जनाऐं हैं, पुरुषों को हिंसा के लिए उकसाती धर्मध्वजाऐं हैं। समाज को अशिक्षित रखने की धार्मिक शाजिशें, बेरोजगारी और अफवाहों से गर्म बाजार के बीच स्वार्थ भरे राजनैतिक नारे हैं। शंका-अशंकाओं से गजमज करते दिमाग और डर के साये में होली, दशहरा, ईद, दीवाली या मुहर्रम हैं। इस तिलस्मी परकोटे में लेखिका झांकती मात्रा नहीं हैं बल्कि पूरे साहस के साथ उस तिलस्मी दीवारों को तोड़ने को आवाज़ बुलन्द करती हैं। “शहनाज़ आया” दूसरें अध्याय में कठमुल्लावादी धार्मिक फतवों तले रोंदे गये स्त्राी सपने जो इन्सान की शक्ल में तो हैं लेकिन इन्सान होने के लिये छटपटाते हुए। “शादी क्यों तलवार का वार बन जाती है, कहीं धड़ रह जाता है तो कहीं सिर्फ सर” क्यों मुकम्मल इन्सान नहीं रह पाती हैं औरते? ........ फातिमा की कहानी सुनते हुए यह वाक्य स्त्राी वेदना की कराहट ही है।
आगे का बयान इन कराहटों की जड़ें खोदता है “यूनिवर्सिटी............................... हिस्सा लेंगे” पेज 23
यही इन फतवों से टकराने की गूंजती आवाज़ है। ये यूनिवर्सिटी है ............. जहालत नहीं। (पेज वही) या फतवेबाजों ............ मरना नहीं है। (पेज 24) एक इन्कलाबी नारे स उद्घोष सा है।
वहीं डा0 जमालुद्दीन का किस्सा अच्छे सृजन होने के बावजूद वेश-भूषा से मौलवी दिखते पत्नी को बुर्का पहनने को पाबन्द करते सब कुछ अल्ला की मर्जी से है। “अब अगर कुछ ......... पूछा था। पेज (25)” यहां लेखिका का मंतव्य चीजों के प्रति सकारात्मक वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखना भर है न कि किसी धर्म या धार्मिकताओं की वकालत करना है।
उपन्यास को शब्द दर शब्द पढ़ते हुए लगता है जैसे सम्पूर्ण कृति लेखिका में भी की खदबदाहट है एक जिरह है। भारतीय समाज को अपने घेरे में लपेटते हुए साम्प्रदायिकता के काले धुऐं और रक्तिम चीखों के बीच से मानवीय संवेदना के टुकड़े चुनती लेखिका की दृष्टि में साम्प्रदायिक उन्मादी चेहरे मानव नहीं दानव हैं। वे उन्हें उन दहकते अंगारों के रुप में देखती हैं जिन पर राजनैतिक रोटियां सिक रही हैं। अफवाहों की दहक सामाजिक जन-जीवन को पिघला रही है, वहीं गर्म तवे पर मीडिया अपनी टी0आर0पी0 को सेक रही है। ऐसे बवंडरों के बीच से तीसरे अध्याय “विमलेश बेन” के बहाने डा0 नमिता सिंह आम समाज से भी ऐसे चेहरे खोज लेती हैं जो भयानक काली रातों में भी जुगुनू के बराबर ही सही लेकिन रोशनी फैलाने का माद्दा रखते हैं। शाहजमाल से आई बारात पर हुए हमले के समय बिमलेश बेन हमारे भारतीय इतिहास की वीरांगनाओं से कम नहीं दिखती वे बारात में आई लड़कियों को बचा लेने के बाद मीडिया के अजीब भड़काऊ सवालों का जवाब देते हुए विमलेश बेन का यह कथन कि “बताइये दीदी....................बेहूदा आदमी” (पेज 49) अंधेरे से रोशनी खोजने वाला ही है।
रचनात्मक क्रिया कलाप, सृजन शीलता और साहित्यिक गतिविधियां या अन्य तरीके जो सामाजिक स्तर पर सकारात्मक दृष्टिकोण स्थापित करने के पहरुऐ समझे जाने वाले काम हमेशा से ही धार्मिक पौंगा पंथियों को हाशिये पर धकेलते रहे हैं और इसीलिये धार्मिक कट्टर पंथियों के सबसे बड़े दुश्मन के रुप में नजर आते रहे, सकारात्मक सोच वाले रचनाशील लोग जो दुनियाभर में इन आतताइयों के हमलों का शिकार भी बनते आ रहे हैं उन्हे अपनी रचनाशीलता की कीमत कभी तस्लीमा की तरह घर से बे-घर होकर चुकानी पड़ती रही कभी अपनी जान कीे कीमत पर भी ये लोग अपनी रचना धर्मिता के बहाने सकारात्मक दृष्टिकोण बचाते नजर आते रहे हैं।
शशिबाला और ज़हरा रिज़वी नामक छटे अघ्याय में ज़हरा पर इसी तरह के हमले होते हैं। जब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का कट्टरपंथी गिरोह खासकर लड़कियों पर यह पाबन्दी लगाता रहा है और पाबन्दी महज रचनात्मकता पर ही नहीं विश्वविद्यालय प्रवेश पर भी। वही धार्मिक शाजिश कि आधी दुनिया किसी तरह शिक्षा से महरुम रहे। लेकिन डा0 नमिता सिंह के सृजित पात्रा इन वर्जनाओं को हर पल हर अध्याय में अपनी सहज रचनाशीलता से तोड़ते नजर आते हैं। उनका आक्रोश ऐसे नाटकों के रुप में निकलता है जिसे ज़हरा रिज़वी लिखती हैं। एक मौलवी की बीबी को केन्द्र में रखकर
मजे की बात देखिये कि नाटक मंचन के लिए अलीगढ़ में जगह नहीं दी जाती। आखिर जफर मंजिल में नाटक मंचन और हफ्तों चले अखबार की सुर्खियां उन कट्टरपंथियों के मुॅह पर तमाचा सी नजर आती है।
छः दिसम्बर की त्रासदपूर्ण घटना के बाद जब पंचवाणी हो रही थी कोई किसी को गद्दार बता रहा था तो दूसरा ताल ठोंक रहा था कि हम यहीं रहे हैं और यहीं रहेंगे। अखबारों में बयानबाजी हो रही थी। कई मन्दिर कमेटियां बन रहीं थीं तो मस्जिद बचाओ कमेटी भी चुप नहीं थी। ये सियासी खेल हैं चलते रहे हैं दनससे डरकर कोई अपना काम थोड़े ही बंद कर देगा। पेज 128 मुल्क के उन भयंकर अमानवीय समय को याद करते हुए लेडीज क्लब का यह वाक्य भयानक मानवीय त्रासदी के समय में भी इन्सानों में मानवीय संवेदना की कोई छोटी सी किरण मात्रा को भी हिम्मत दे कर संवेदना का कोई बड़ा पहाड़ खड़ा करने का काम करती है जिसके सहारे हिन्दुस्तान इन्सानियत के साथ सुकून से सांस ले सके।
बत चाहे मेरठ की रही हो अलीगढ़ या पूरे मुल्क की जब उपन्यास में वर्णित डा0 मेराज साहब कितने लोगों को इस मुल्क में मुसलमान होने की बड़ी कीमत चुकाई राजनैतिक रथ यात्रायें भाषण जो भोली-भाली शान्त फिजा में साम्प्रदायिक जहर घोलते रहे राजनैतिक खेल खेले जाते रहे। अपने ही घर में शरणार्थियों का जीवन जीते लोगों का विलक्षण और मार्मिक चित्राण की विशेषता खुद में समेटे उपन्यास बेहद पठनीय और आत्मिक बन पड़ता है।
पेज 134-137 तक में लिखित मेजर इन्सान के व्यक्तिवादी होने की स्पष्ट तस्वीर तब भी पेश करता है जब आदमी को आदमी की सबसे ज्यादा जरुरत होती है। कायमपुर के लोगों का अपने घर खाली करके मेडीकल कैम्पस में शरण लेने पर वहाॅ रहने वाले डाक्टरों या अन्य कुलीन तबके को वे शरणार्थी इन्सान कम काम वाली मशीनें और गन्दगी फैलाने वाले वाले जंगली नजर आते हैं। मानवीय अमानवीय दो ध्रुवीय समाज के शर्मनाक क्षणों में भी लेखिका अपने विवेक को नहीं छोड़ती वहाॅ तब लीगी जमात के नसीर साहब का यह कहते हुए कि क्या है जनाब थोड़ा अपने सोफिस्टिकेशन पर काबू पायें। मुसीबत के मारे लोग हैं इन्हें हम पनाह भी नहीं दे सकते पेज सं0 135 नसीर साहब का यह विरोध खुद आदिम भीड़ से इन्सान खोजने की कवायद ही है।
उस बरस तरबूज खूब फला समीक्ष्य उपन्यास का अध्याय लेखिका के संवेदनशील हृदय पर सामाजिक वर्जनाओं कुरीतियों पाखंडों के अनेकों दंशों का समूल नासूर बनकर फूट पड़ने जैसा है। जहां धर्म और राजनीति की सामूहिक चैसर बिछाने वाले लोगों का यह भ्रम बार-बार टूटता नजर आता है। स्त्रिायां समाज की सबसे निरीह और दोयम दर्जे की प्रजाति मात्रा है जिन पर धर्म के बहाने वे सब वर्जनाऐं, नियम, कायदे-कानून आसानी से लागू किये जा सकते हैं जिनका अन्ततः राजनीतिक लाभ हो। निश्चित ही ऐसी चैसर बिछाने वाला वर्ग इस बात से अनिभिज्ञ नहीं है कि मानव स्वभाव से ही स्त्राी अत्यन्त संवेदनशील होती है और संवेदना राजनीति और धर्म की सबसे बड़ी दुश्मन है इसलिए स्त्रिायों को बंधन में रखने के लिए आपस में से प्रतिबन्ध यहां बखूबी नजर आते हैं जिन्हें स्त्राी समझ और देख रही है।
हालांकि यह प्रतिबन्ध पुरुषों के लिए नहीं था। दो अलग-अलग सूचियां (148-149)
वहीं जवान और पढ़े-लिखे बेटों के हाथों मारी गई लाली की हत्या बेटों के हाथों नहीं बल्कि धार्मिक पाखंडों के और झूठ से बने उस किले के नीचे दबकर होती है जिसके खंडहर में और कितनी ही स्त्रिायों की लाशें हैं जिन्हे डायन या चुड़ैल का नाम देकर निर्दयता पूर्वक मार दिया गया। झूठ का एक ऐसा किला “जो है वह नहीं है..............” इतिहास बनकर रह गई। (157-158)
अतीत से वर्तमान तक को बूँद-बूँद समेटता उपन्यास घटनाओं का ऐतिहासिक दस्तावेज बनता है। लगता है जैसे समय और समाज की परिक्रमा से ही यह वाक्य उभरा हो “यही तो कमाल है हमारे समय का................. बहरा भी है” (156)
बावजूद इसमें लेखकीय सामर्थ्य और सार्थकता के धरातल पर लेखिका मानवीय साहस का दामन नहीं छोड़ती इसी रोचकता और असमंजस के साथ उपन्यास कई सवाल खड़े करता है जो पूरी मानव जाति को झकझोरते से प्रतीत होते हैं। उपन्यास पढ़ते हुए पढ़ने का क्रम बतियाने का ऐहसास करता है और तमाम सवाल-जवाबों की भीड़ से अनेक चीख, पुकारों के बीच भी राहुल गुप्ता की यह पंक्ति सुनाई देती है “हर जुल्मो सितम की रवायत का मैं विरोधी हूँ न मैं बदलूंगा न मेरा काम बदलेगा”।
हनीफ मदार
मथुरा, यू0 पी0
०८४३९२४४३३५