चक्करघिन्नी Hanif Madaar द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

चक्करघिन्नी

चक्कर-घिन्नी (कहानी)

- हनीफ मदार

रहमत भाई वर्षों से सुभाष नगर में किराये के मकान में रह रहे हैं। परिवार के नाम पर एक अदद बीवी और एक बच्ची उसका भी नाम गिल्लू और उतनी ही शरारती। सुभाष नगर में बड़े-बड़े मकान हैं वहीँ है खटाना जी का मकान उनके पेट की तरह खूब फैला हुआ । खटाना जी बिजली विभाग में बड़े बाबू रहे थे । अब तो रिटायर हैं। नौकरी पर थे तब न जाने क्या करते थे कि शाम को आते तो पत्नि के सामने थैला पटक देते उसमें कितना रुपया है उन्हें खुद नहीं पता होता था। उन्हें खबर भी कैसे रहती वह उनकी तनख्वाह की रकम तो थी नहीं जिसकी गिनती उन्हें मालूम हो यह तो ऊपर वाली थैली थी जो टेबिल के नीचे रहती थी। उन्हें क्या पता चल पाता होगा कि कौन ग्राहक ने कितना डाला है ? हाँ इतनी जानकारी जरुर रखते थे कि जितने भी आ रहे हैं सब डाल रहे हैं कि नहीं। कोई बड़ा केस होता था तो उसमें जरुर चुपके से तय कर लेते थे, लेकिन हराम में नहीं लेते थे काम भी कराते थे। ग्राहक का बिल भले ही तीस हजार का हो मगर उनकी थैली में पांच हजार गये हैं तो तीस का बिल तीन हजार में ही सिलटवा देते थे। अब, खटाना जी यह सब कैसे करते थे यह तो पता नही.... शायद बिजली विभाग जानता हो | और अगर नहीं जानता तो जान जायेगा लेकिन उससे खटाना जी की सेहत पर कोई भी असर नहीं पड़ना । वे तो पिछले दो सालों से रिटायर होकर घर पर हैं बस सुरसा के मुंह की तरह लम्बे-चौड़े फैले मकान में किरायेदार रखते हैं और मस्त रहते हैं । पहली मंजिल में खुद रहते हैं, दूसरी और तीसरी किराये पर उठा रखी हैं ।

रहमत भाई दूसरे माले के किरायेदार हैं। दो कमरे, रसोई एक बरामदा पर उनका कब्जा है, बाईस सौ रुपये प्रतिमाह, बिजली का तीन सौ अलग से, अलग तो केवल लिया जाता है जाता तो खटाना जी की जेब में है। अब जिस विभाग से रिटायर हुऐ हैं उसके काम की आदत कोई दो साल में थोड़े ही छूट जायेगी। विभागीय व्यक्ति हैं इसलिए उनकी बिजली पैसों से नहीं सैटिंग से जलती है |

खैर जी हमें क्या हम तो रहमत भाई की बात कर रहे हैं जो प्राइवेट नौकरी की कम तनख्वाह से जूझते और खटाना जी की इन हरकतों को जानते हुए भी बिजली का पैसा अलग से चुकाते हैं | रहमत भाई को लगता है कि खटाना जी को बिजली का पैसा न देना उनके कर्मों में हिस्सेदारी करना है | रहमत भाई ने कितनी बार खुद का छोटा सा घर बनाने के लिए हाथ-पैर मारे, जब लोन लेने की सोची तो उनके पास गारन्टी के तौर पर कुछ नहीं था। सिवाय इस प्राईवेट नौकरी के जिसकी बैंक में कोई औक़ात ही नहीं है । यहाँ से वापस घर जाकर बाप से कुछ मांग नहीं सकते उन्होंने तो उसी दिन कह दिया था जब रहमत भाई की बीवी के गिल्लू पैदा हुई थी । पत्नी की सहमती पर रहमत भाई ने इस पहले ही बच्चे के बाद पत्नी का बच्चा बंदी का आपरेशन करा दिया था, तब घर में बड़ा हंगामा हुआ | बाप ने साफ कह दिया अब तेरी बीवी इस्लाम से खारिज हो गई, अब वह इस घर में नहीं रह सकती | तू या तो इसे तलाक देकर इस घर में रह सकता है नहीं तो तुझसे भी हमारा कोई वास्ता नहीं है । हालांकि रहमत भाई ने भी यूं ही हार नहीं मानी थी घर वालों को खूब तर्क दिए थे "बाबूजी ! बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और परवरिश खालिश आपके इस इस्लाम से नहीं होती | एक बच्चे की पढ़ाई पर कितना खर्चा होता है आपको अंदाजा भी है ?"

"क्यों हमने नहीं पढ़ाया तुम चारों बहन भाइयों को.....जो तू नहीं पढ़ा पाता...?"

"बाबूजी हम सब सरकारी स्कूलों में पढ़े.... वे सरकारी स्कूल अब भैसों के तवेले बने हुए हैं....... बाबूजी...! अब शिक्षा उद्योग है बड़ा उद्योग, तालीम भी अब किसी महंगे प्रोडक्ट की तरह बिक रही है प्राइवेट स्कूलों में |"

"अबे चल..! कल का लौंडा हमें चला रहा है, भला बताओ.... तू क्या कम पढ़ा लिखा है जो मरा जा रहा था, तेरी सरकारी नौकरी लग जायेगी, तू तब भी नहीं पढ़ा पाता क्या.... जो काँप गया और कर डाला इतना बड़ा गुनाह |"

"बाबूजी आपको कुछ भी खबर नहीं है | अब सरकारी नौकरियां बची ही कितनी हैं ...? सब कुछ तो निजी कम्पनियां कर रहीं हैं उन्हीं में मिल रही हैं नौकरियां, वही आठ, दस या पन्द्रह हज़ार की..... अब उतने में, कितने बच्चों को पढ़ा और पाल लेता.....?"

"अरे तो नशबंदी की क्या जरूरत थी .... एक लड़का सा हो जाता तो.... लेकिन तूने तो वह रास्ता ही बंद कर दिया |"

"अम्मा ! असल बात यह है...? फिर बाबूजी इस्लाम से खारिज होने की तोहमत क्यों लगा रहे हैं ?"

"दोनों बातें हैं बाबले....| समाज में रहते हैं तो कुछ उसूल भी मानने होते हैं जबाव भी देने होते हैं ......| खैर अब जो हुआ सो हुआ हम कुछ और सोचेंगे तेरे लिए |”

बिफर गये थे रहमत भाई उस वक़्त "मुझे कुछ नहीं सुचवाना न ही मुझे परवाह है ऐसे समाज की जो हमारी निज़ी जिंदगियों के लिए जबाव मांगे | कोई बात नहीं, मैं चला जाउंगा आपके घर से लेकिन मैं अपनी बीवी को नहीं छोड़ सकता और फिर आप विवश भी नहीं होगे मेरी बजह से अपने समाज को जबाव देने के लिए |" बस.... उस के बाद रहमत भाई चले आये थे इस शहर में |

वो तो भला हुआ कि बाप से लड़-झगड़ कर रहमत भाई कुछ पढ़ लिख गये थे जो शहर आकर एक ग्लास इन्डस्ट्री में काम मिल गया, नही तो क्या हाल होता । रहमत भाई ग्लास इन्डस्ट्री में मैनेजिंग इन्चार्ज हैं | उन्हें हर महीने बारह हजार मिलते हैं । रहमत भाई चाहते तो मकान उन्हें सस्ते किराये पर भी मिल जाता आज़ाद नगर में और कम्पनी के पास भी रहता | सुभाष नगर से कम्पनी जाने-आने में महीने में करीब सात-आठ सो के खर्च से भी बच जाते मगर, उस आज़ाद नगर में उन्हें रहना बिल्कुल पसन्द नहीं है | पहला तो गिल्लू का स्कूल दूर पड़ जाएगा जिसके लिए उन्हें स्कूल बस का मंहगा खर्चा उठाना पड़ेगा | यहाँ तो गिल्लू का इग्लिश स्कूल सुभाष नगर से बिल्कुल जुड़ा हुआ है । दूसरा, उनका वह अंदेशा जिसे वे अपनी पत्नी से कहना नहीं चाहते | दरअसल आज़ाद नगर में उनकी पत्नी रूबी के कुछ रिश्तेदार रहते हैं | वहां रहने की बात सोचते हुए उन्हें हमेशा एक डर सालता है कि 'वे लोग रोजाना रूबी को अजीब-अजीब सवाल जबावों से परेशान करेंगे | और शाम को घर आते ही रूबी चाय से पहले उन्हें मेरे सामने परोस देगी | वैसे ही कौन से कम टेंशन हैं जो और बढ़ा लिए जांय | फिर मैं भी तो इंसान ही हूँ, रोजाना की चिक चिक, न जाने कब धैर्य टूट जाय और कुछ उल्टा-सीधा मुंह से निकल जाय, फिर नौबत मेरे परिवार के टूटने की आ बने |' शायद रहमत भाई इसलिए अक्सर ही यह कह देते हैं ‘अंधे को न्यौतो तो दो आते हैं |’

इसके अलावा और जो भी कारण हों लेकिन स्कूल का मंहगा खर्चा, मकान का किराया, रहमत भाई के आने-जाने के खर्चे के बाद, जो बच पाता है बस, उसी में घर चलाना होता है उनकी बीबी को। किसी-किसी महीने में जब तीनों में से कोई बुख़ार-जाड़े में आ जाय तो दवाइयों के खर्च से बजट बिगड़ जाता है तो उनकी पत्नी खीज जाती है | अभी पिछले महीने ही गिल्लू चिकनगुनिया की शिकार हो गई | उसके बहाने रूबी के भाई और भाभियों का आना जाना भी होता रहा | दवाई-दारु से गिल्लू तो ठीक हो गई मगर घर के बजट का स्वास्थ्य बिगड़ गया और रूबी का मन...। उस दिन शाम को रूबी खीज पड़ी और रहमत भाई से भिड़ गयी । रहमत भाई तभी आफिस से लोटे थे “क्यों जी...! आज़ाद नगर में मेरे भाइयों के बच्चे भी तो पढ़ रहे हैं...?”

"हाँ तो....?"

"तो हम वहां नहीं रह सकते...? वहां मेरे मामाज़ात भाइयों का इतना बड़ा मकान है और उन्होंने कितनी बार कहा है कि यहाँ आकर रह लो....।" बीबी ने उलाहना दिया था।

रहमत भाई जैसे बर्फ में डूबे हों “मैनें कितनी बार कह दिया है कि मैं वहां नहीं रह सकता | और फिर, यहां कौन सी आफत टूट रही है...?"

“क्यों...? कम आफत है...? इस महीने एक पैसा नहीं बचा है, अभी महीने में दस दिन बाकी हैं, वहां होते तो किराया तो बचता और फिर तुम्हारा रोज आने-जाने का खर्चा भी । तुम्हारी कम्पनी भी तो कितनी पास है वहां से |” पत्नी का शायद यह आखिरी तर्क था। रहमत भाई ने अपना आपा नहीं खोया | अपनी टाई खोलते हुए बोले - "रुबी मैंने तुम्हें सौ बार समझा दिया है कि हम कितनी भी परेशानी में रह सकते हैं मगर गिल्लू के भविष्य से कोई समझोता नहीं |” रहमत भाई अपने कपड़े खोल चुके थे, पत्नी रसोई में चली गई चूल्हे पर चाय रखने। रहमत भाई ने सोफे पर लगभग गिर कर लम्बी अंगड़ाई भरी और निढाल होकर टिक गये, सोचने लगे कि ‘हमारा काम तो एक कमरे, रसोई से भी चल सकता है मगर कम्पनी के लोग मिलने-जुलने आते रहते हैं, भई वे हमें चाय पिलाते हैं खुद भी पीने की इच्छा के साथ |’

चेहरा ऊपर होने की वजह से रहमत भाई की नज़रें कमरे की छत पर जाकर ठहर गयीं | उन्हें कमरे की छत का वज़न कमरे की दीवारों के बजाय अपने सर पर महसूस होने लगा था। असल में यह दूसरा कमरा तो उन पर बोझ ही था | अब से चार महीने पहले तक तो उनका काम एक ही कमरे से ठीक-ठाक चल रहा था मगर भला हो रहमत भाई के सीनियर शर्मा जी का जिनका आग्रह रहमत भाई ठुकरा नहीं पाये। उनका आग्रह ही कुछ इस तरह का था कि कोई भी नहीं ठुकरा पाता । शर्मा जी तभी नये-नये सीनियर मैनेजिंग इन्चार्ज बन कर आये थे | दोनों साथ-साथ ऑफिस से निकले, शर्मा जी बोले "अजी रहमत भाई कहां रहते हो ?"

रहमत भाई ने बड़े सपाट लहजे में बता दिया "सुभाष नगर में।"

"अरे वाह.... रास्ते में ही पड़ता है, कभी चाय पिलाओ यार।"

रहमत भाई ने फिर औपचारिकता पूरी की "कभी भी आ जाइये सर...!"

अगले ही पल शर्मा जी का असल मन बाहर आ गया "यार रहमत भाई ! चाय-वाय तो बहाना है, किसी दिन मुर्गा-वुर्गा बनवाओ...|" तब रहमत भाई ने उनकी ओर सवालिया नज़र डाली। तुरन्त शर्मा जी सफाई की मुद्रा में आ गये "असल में रहमत साहब ! हम, तुम्ही लोगों में ज्यादा रहे हैं | बड़ी गहरी दोस्ती रही है आप लोगों से हमारी |" असलम, जावेद, फ़रीद और इसी तरह से उन्होंने कई और नाम गिनाये "हमारे बड़े अच्छे दोस्त रहे हैं, उन्हीं के साथ हम अक्सर खाते पीते थे | अब पढ़ाई के सिलसिले में बाहर रहे तो सब शुरू हो गया.....| यार ! अब खान-पान पर किसका जोर है, अच्छा लग गया तो बस ..... लेकिन अगर घर में पता चल जाये तो बीवी घर में भी नहीं घुसने देगी, पूरी पंडताइन है...।" शर्मा जी खींसें निपोर कर खें खें करने लगे |

सुनकर रहमत भाई को पहले तो खुद पर खीज हुई फिर शर्मा जी के दोगलेपन पर गुस्सा भी आया | रहमत भाई को उस वक़्त शर्मा जी की उस बात पर बड़ी कोफ़्त भी हुई जब उन्होंने, उनको 'तुम लोग' कहा जैसे, वे इन्सान न होकर कोई मांसाहारी जानवर हों । लेकिन सीनियर बॉस होने के कारण रहमत भाई अपने गुस्से को ज़ज्ब करने को विवश थे | रहमत भाई अपनी खीज व क्रोध को पी गये और “सर आपका चुनाव है हमारे साथ रहना लेकिन...... हमें तो आप ही के साथ रहना है, तो कल ही आ जाइये सर....| " कहकर ही छुटकारा पाया | और शर्मा जी ‘हैं हैं हैं’ करते “कैसी बात करते हो रहमत भाई |” कहते हुए घर निकले |

शर्मा जी के मुंह से रहमत भाई की बीवी की पाक-कला की तारीफें सुनने के बाद कम्पनी के अन्य लोग भी कभी-कभी रहमत के घर आकर जल-पान या मुर्गा की टांग खिंचाई करने आ धमकते और उन्हीं लोगों के कहने पर इस दूसरे कमरे का बोझ रहमत भाई पर और थुप गया । नगरीय सभ्यता के यह चरित्र और स्थितियां रहमत भाई को अक्सर ही विवश करतीं हैं अपनों के बीच अपने गाँव लौटने को | लेकिन वहां भी क्या था गाँव भर की बेगार करके ही तो पेट भर पाता था | उनकी इच्छाओं के खलाफ बेगारी के लिए न कहना अपनी जात के नाम गालियों का बोझा उठाना होता था | गाँव भर की उस बेगार ने कहाँ पढ़ने दिया तीनों बहन भाइयों को , मैंने ही पढने के लिए क्या कुछ नहीं सहा | फिर.... जब उल्टा ‘तवा’ काला ही है तो यहीं सही, कम से कम मेरी बेटी तो पढ़ लिख जायेगी | इस सोच में हर बार ही उन्हें अपना कल उनके आज के सामने कहीं ज्यादा विकृत नज़र आता है |

रुबी कमरे में चाय ले आयी | रहमत भाई तो आश्वस्त हो गये थे कि हर बार की तरह रुबी सब कुछ भूल गई होगी मगर वे गलत साबित हुऐ जब रुबी ने बड़े गंभीर स्वर में चाय देते हुऐ फिर कहा "देखो जी बच्चे तो वहां भी पढ़ते हैं.....|" रूबी अभी इतना ही बोल पाई थी कि इस बार रहमत भाई का धैर्य जबाव दे गया वे आपे से बाहर हो गये "तुम कहती हो वहां बच्चे पढ़ते हैं..... मैं पूछता हूँ तुम्हें क्यों दिखाई नहीं देता.. कि वहाँ इक्कीसवीं सदी में जीती और जन्मती पीढी को भी पन्द्रहवीं सदी में धकेलने का प्रयास भर होता है और वह भी तालीम के नाम पर | कौन पढ़ाता है उन्हें ? वही सियासती ग़ुलाम धर्म के ठेकेदार वह जो यह तक नहीं जानते कि धर्म का अहदी बन कर भी इंसान वक्त के साथ चल सकता है और अगर जानते हैं तो औरों को नहीं जानने देना चाहते ।" रहमत भाई गुस्से में चीखते हुए काँप गए थे उनका चेहरा सुर्ख हो गया था |

रूबी, रहमत भाई का यह रूप पहली बार देख रही थी उसे लगा जैसे रहमत भाई के

अन्दर कोई शैतान जागा है। रुबी घबरा रही थी कि अगर गिल्लू नीचे से आ गई तो

पापा का यह रुप देखकर घबरा ही जायेगी |

रुबी, रहमत भाई से कुछ कहने को उठी कि रहमत भाई फिर बोल पडे “तुझे नहीं दिखता, आज हम विज्ञान और टैक्नोलौजी की दुनिया में जी रहे हैं, वहीं मैं अपनी गिल्लू को शरीयत के झमेले में फंसा कर 'हिजाब पहनना क्यों जरूरी है, लड़कियों के खिलखिलाने से गुनाह नाज़िल होता है, शौहर की हुक्म-उदीली ख़ुदा की नाफरमानी है, गैर मर्द से बात करना ही कुफ्र है... | फिर मेरे लिए हाफ शर्ट में नमाज जायज़ है कि नहीं, पैन्ट पहन कर नमाज़ पढ़ी जा सकती है कि नहीं ? पायजामा हो तो टखने से कितना ऊॅचा हो, आमीन जोर से पुकारें या धीमे से, चालीस दिन की जमात में जाना क्यों जरुरी है ? चाहे उसमें एग्जाम छूट जायें....., इस तरह की बहसों में उलझा दूं, और खुद भी उलझ जाऊं और.....समय से हजारों कोस पीछे पंहुचा दूं.....अपनी गिल्लू को ? वहां किसको फिकर है यह सोचने की कि हमारे इन हालातों के कारण क्या हैं.... क्या रास्ता हो सकता है उनसे निकलने का.....? कम से कम वह तो नहीं है जिस पर वे अड़े खड़े हैं......| कोई लाख कहे लेकिन, नहीं, हरगिज नहीं..... मैं अपनी बेटी को तमाम इंसानी आज़ादी के साथ खुले आसमान में उड़ने का हौसला देना चाहता हूँ.......और दूंगा ।"

रुबी चुपके से उठकर नीचे गिल्लू को लेने चल दी, “अब शान्त हो जाओ मैं गिल्लू को लेने जा रही हूँ |” रहमत भाई वहीं सोफे में धंस गए, उसके बाद कब रात गई उन्हें नहीं पता आँख खुली तो रुबी चाय लेकर सामने खड़ी थी ।

  • हनीफ मदार
  • मथुरा, २८१००१

    फ़ोन - 08439244335