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ईदा

(कहानी) ईदा...

— एम0 हनीफ मदार

बीस वर्ष लम्बा काल खंड भी ईदा को मेरी मनः—स्मृतियों से मिटा नहीं पाया । उस समय ईदा को समझ पाने की न मेरी उम्र थी न ताक़त । पूरे गांव के लिए आधा पागल ईदा मेरे लिए भी इस से ज्यादा कुछ नहीं था । मैं तब आठवीं ही पास कर पाया था कि, पिता को मजदूरी की तलाश शहर में ले आई और ईदा बहुत आसानी से मेरे बचपन से दूर हो गया । वक्त के अध्ययन के साथ ईदा मेरी जिज्ञासाओं में प्रौढ़ होता रहा या कहूं बचपन की यादों में दर्ज ईदा अपने असल रुप में मेरे भीतर जीवित होता रहा । इधर कुछ समय से ईदा मुझे बहुत बेचैन करता रहा है या कहूं मैं खुद उसके लिए विचलित रहा हूं । मेरी नज़रें आज फिर उस आधे पागल ईदा को खोजती हैं । न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि आज एक नहीं हजारों—हजार ईदाओं की जरुरत है । इन शब्दों में ईदा को जीवित रखने की अपनी ज़िद के आगे विवश होकर आज मैं ईदे को शिद्‌दत से याद कर लेना चाहता हूं.........।

‘‘क्यों रे ईदा ईद कब की है......?'' हरी लाला ने दुकान खोलने को ताले में चाबी लगाते हुए ईदा को छेड़ दिया। ईदा, जो अब तक दुकान के लगभग सामने धुंआते अलाव पर घिरे बैठे लोगों के बीच कहीें फंसा बैठा था एक दम से तुनक गया ‘‘ जब होगी तब होगी मुझे क्या पता....?''

‘‘भले आदमी नाराज क्यों हो रहा है, हरी भय्‌या ने ईद की ही तो पूछी है ।'' ओमप्रकाश साइकिल वाले ने तुरुप चली।

‘‘तो तू बता दे तू ज्यादा होशियार है न......।'' ईदा लगभग उठने को हुआ।

‘‘अरे अब्बा नाराज न हो....।'' कह कर जैसे छोटे ने तो आग में घी डाल दिया । सुनकर ईदा की दोनों भौहें आपस मेें जुड़ गईं । ईदा ने अपना डंडा उठाया और खड़ा हो गया उसके साथ ही, छोटे, ओमप्रकाश, हारुन सब इधर—उधर दौड़ लिए ईदा उनके पीछे दौड़ता ‘‘साले तू अब्बा तेरा बाप अब्बा.....।'' कहता हुआ गांव की गलियों में कहीं खो गया । अलाव पर कुछ गांव के बड़े—बूढ़ों के अलावा दुकान लगाते हरी लाला की हंसी गूंजती रही । फिर अधकचरी जानकारियों पर चर्चा शुरु हो गई ।

गांव में सवेरा जल्दी हो जाता है । दिसम्बर के महीने में सूरज भले ही गर्मियों की तुलना में कितनी ही देर से पहुंचता हो किन्तु ईदा की सुबह होने में कोई फ़र्क नही पड़ता । सुबह की नमाज़ का वक़्त भी सूूरज निकलने के समय के अनुसार बदल जाता है मगर ईदे की जब आंख खुली कि सीधे गढ़ी में बनी मस्ज़िद में पहुंच जाना । वैसे मस्ज़िद में घड़ी टंगी है जिसे पिछले साल शमीम रंगरेज की लड़की की शादी में लड़के वाले दे गये थे मस्ज़िद के लिए मगर ईदा तो इतना भी नहीं पढ़ा कि उसमें समय भी देख पाए और फिर वह वहां घड़ी में समय देखने थोड़े ही आता है वह तो सज़दा करने आता है । हां मन हुआ, तो गढ़ी के दरवाजे के सामने खाली पड़े चौक में लगे सरकारी नल पर मुंह हाथ धो लिया । मन नहीं हुआ तो यूं ही । वैसे उसका मन तो करता है मुंह हाथ धोने को, किन्तु सवेरे के कोहरे के साथ अपने नथुने फैलाए मंडराती ठंडी हवा उसका इरादा बदल देती है जो उसके फैंफड़ों में होकर पार होना चाहती है । हां मस्ज़िद में झाड़़ू अवश्य लगा लेता है और जल्दी में दो चार सज़दे किये और वापस बाज़ार में । ईदा की नमाज़ भी इतनी ही है । गढ़ी के दरवाजे से बाहर आते ही वह चौक में खड़े पीपल व नीम के पेड़ों से गिरे पत्ते इक्ट्‌ठे कर, हरी लाला की दुकान के सामने आग जला कर बैठ जाता है और ठंड से अकड़ चुकीं अपनी हडि्‌डयों को नरम करता है । ईदा का अलाव एक बार जल चुका होता है तब एक—एक कर नमाज़ी गढ़ी की ओर, और कानों में जनेउ लपेटे, हाथ में लोटा लिए जंगल को या पूजा के लिए मन्दिर जाते लोगों का आना—जाना शुरु होता है । मन्दिर या मस्ज़िद से लौटकर लोग इसी अलाव पर बैठ कर जब तक ईदा को खिझाकर उससे गालियां नही सुन लेते तब तक जैसे उनकी नमाज़ या पूजा पूरी ही नहीं होेती ।

उस दिन तो सुबह से ही ईदा का मूड खराब था । नमाज़ को जाते हुए इस्तिआक ने ईदा को डांट दिया था ‘‘क्यों रे ईदा ...! कभी तो नमाज़ का समय देख लिया कर....?''

हालांकि ईदा ने भी इस्तियाक को जवाब दे दिया था ‘‘चुप रह तू...! तू अम्मा के पेट में से भी समय देख कर पैदा हुआ होगा.....?'' इस्तियाक और नमाज़ी तो लगभग हंसते हुए गढ़ी की ओर चले गए थे मगर ईदा देर तक भुनभुनाता रहा । ऊपर से केशव पुजारी ने पूजा को जाते हुए ईदा को छेड़ दिया था ‘‘क्याें र्ईदा ! आज यह आग ढंग से क्यों नहीं जल रही....?'' बस, ईदा अलाव की आग से ज़्यादा खुद के क्रोध से गरमा गया ‘‘उस भगवान के यहां से एक गड्‌डी लकड़ियां ले आना तब बोलना कुछ ...।''

केशव पुजारी दूर जाते—जाते चिल्ला पड़े ‘‘अच्छा अब्बा...।''

‘‘ तू अब्बा तेरा बाप अब्बा.....।'' ईदा देर तक न जाने क्या—क्या कहता रहा था । पुजारी ने उसके शब्द शायद सुने भी नहीं थे । सुन भी लेते तो क्या था यह तो रोज की बात है । फिर हरी लाला और छोटे ने ईदा को भड़का कर भगा ही दिया ।

आदमी चाहे पागल हो या समझदार उसे सुख अपने मन का काम करने में ही मिलता है । उसके काम को अच्छा या बुरा कहना समाज का काम है । अपने मन को मारकर, दुनिया की मानकर जिए तो अच्छा है । अपने मन का जिए तो बुरा या पागल है जैसे ईदा, सारा गांव उसे पागल समझता है मगर ईदा की सेहत पर इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता । वैसे तो ईदा का नाम राज़ुद्‌दीन रखा गया था । लेकिन ईद वाले दिन पैदा हुआ था तो सब ईदा कहने लगे, फिर ईदे चच्चा । हालांकि ईदे की उम्र इतनी नहीं है कि उसे पचास साल के बूढ़े—बूढ़ी भी चच्चा कहें । उसकी उम्र तो अभी यही कोई तीस, बत्तीस या फिर पैंतीस से ज़्यादा तो बिल्कुल नहीं है मगर पचास क्या अस्सी साल के बूढ़े—बूढ़ी भी उसे चच्चा कहते रहें उसकी सेहत पर तब भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता ।

ईदा की उम्र जब मां का आंचल मुंंह में डाल कर सोने की थी तब मां को एक दिन बुखार हुआ और एक महीने तक रहे बुखार ने ईदा के मुंह से मां का आंचल छीन कर ही दम लिया । बताते हैं कि गांव के ही नहीं दूसरे गांवों के वैद्य—हकीमों ने भी ईदा की मां पर खूब पैसा खर्च कराया था । लेकिन कैसा बुखार था जो समझ में ही नहीं आया ? ईदा के बाप ने न जाने कितने गण्डे ताबीज़ किए और कराए भी । रात—रात भर पीर के मज़ार पर बैठ कर उन्होंने दुआऐं मांगीं । गांव में अस्पताल के लिए छोड़ी गई ग्राम पंचायत की ज़मीन पर, ईदा के अब्बा ने ही यह पीर का मज़ार अपने पीर का मज़ार कह कर बनबाया था । कहा था, ‘मेरे पीर ने मुझे सपना दिया है कि मैं यहां सोया हूं यहां मेरी मज़ार बना दो तो पूरा गांव आबाद रहेगा ।' गांव वालों ने भी उनकी बात इस लिए मान ली थी कि उनको गांव ही नहीं पूरा इला़का सांईं के नाम से जानता था जो हारी—बीमारी में ताबीज़ किया करते थे । कोई ठीक हुआ तो उनका घर आबाद मर गया तो बड़ी सहजता से कहते थे ख़ुदा की यही मर्ज़ी थी ।

इसी मज़ार पर नींद में झीकते हुए माथा पटकने के बाद सांईं की हिम्मत भी जवाब दे गई, तो गांव वालों के कहने पर कि, ‘ख़ुदा के यहां बच्चों की दुआ जल्दी सुनी जाती है' ईदा के अब्बा ने दो साल के ईदा को पीर के क़दमों में रात भर यह सोच कर डाला था कि पीर बाबा ईदे का दूध इसे लौटा देंगे । ईदा की चीख ने ठण्डी होती रात का क़लेजा कई बार चीरा था लेकिन उसकी चीख अब्बा के पीर को नहीं जगा पाई थी । भोर से पहले ही ईदा बिन मां का हो गया था । ईदा की मां के मरने के बाद उसके अब्बा एक साल ही जिए थे और गण्डा—ताबीज़ भी करना छोड़ दिया था । पीर के मज़ार पर मन्नतों का सिलसिला उनकी मौत के बाद भी चलता रहा था । भीड़ पहले से कुछ कम रहने लगी थी । पीर के इसी मज़ार पर लगातार लगती भीड़ के बीच रोता—झीकता ईदा कब बड़ा हो गया उसे ख़ुद भी पता नहीं ।

गांव भर के बच्चों को पैंतीस वर्षीय ईदा अपने बराबरी का लगता है । एक तो ईदा की कद—काठी ऐसी है कि दस—बारह साल के बच्चों में मिल जाय तो पहचान करना ही मुश्किल हो जाए । कमर से झुके शरीर की वज़ह से लम्बाई तो कम दिखती ही है ऊपर से लिबास, ऊंचा कुर्ता, नीचे पायजामा उसका एक पांयचा कमर में खौंसकर घुटने के बराबरी पर । आंखें जैसे पतेल से हल्की सी चीर कर खोली गईं हों उनके भी पलक ज़्यादातर समय आपस में मिचमिचाते हुए । बस चेहरे पर हल्की सूफियों जैसी दाढ़ी ही बच्चोें की भीड़ में ईदा को पहचानने में मदद करती है ।

पीर के मज़ार पर बैठे हुए ईदा को अब्बा कह कर चिढ़ाते हुए बच्चे गांव के चौक तक दौड़ा लाते हैं । पहले—पहल ईदा, अब्बा कहने पर चिढ़ता नहीं था । छोटे—छोटे बच्चे उसे अब्बा कह कर ही बुलाते रहे । एक दिन तारा चन्द सेठ ने कह दिया ‘‘क्यों रे ईदा...! यह बालक अब्बा कह रहे हैं... तुझे पता है अब्बा किससे कहते हैं...... अब्बा गधा से कहते हैं ।'' बस तभी से ईदा, अब्बा शब्द से चिढ़ने लगा । किसी बच्चे ने ईदा को अब्बा कहा और ईदा दौड़ लिया उसके पीछे । गांव के चौक तक आते—आते बच्चों की एक भीड़ ईदा के इर्द—गिर्द इकट्‌ठी हो जाती है । फिर बारी—बारी ‘‘ओ अब्बा ।'' कह कर इधर—उधर दौड़ा कर उसे खिझाने का आनन्द लेते हैं ।

कोई ईदा को डांट देगा ‘‘क्यों रे ईदा इन बच्चों को क्यों परेशान कर रहा है..?''

ईदा बिफर जएगा ‘‘तो तू अब्बा कहलवा ले इन से बड़ा हिमायती बना है इनका .....।''

जब तक ईदा हरी लाला की गली में या ओमप्रकाश वाली गली में होकर गांव के पिछवाड़े नहीं चला जाता तब तक गांव के चौक में बच्चों के पैरों तले रुंध कर धूल के गुबार उठते हुए पूरे चौक में घुमड़ते रहते हैं । हरी लाला की गली में छोटे नाई के चबूतरे पर बैठकर ईदा अपनी धौंकनी—सी चलती सांसों को संतुलित करने बैठ जाएगा । छोटे भी न जाने कैसे जान लेता है और काम छोड़ कर घर से बाहर आकर ‘‘अब्बा सलामालेकुम'' जरुर कह देगा जैसे ईदा की गालियां सुने बिना उसकी रोटी हज़म नहीं होती है । ‘‘ तू अब्बा तेरा बाप अब्बा ....।'' सुन कर छोटे तो घर में घुस जाता है और ईदा सीधा गली से निकलता हुआ गांव से बाहर कब्रिस्तान में जाकर घंटों मां की कब्र के पास बैठा रहता है।

ऐसे ही एक दिन ईदा कब्रिस्तान में बैठा था । अम्बेडकर जयन्ती की स्कूलों में छुट्‌टी थी । गांव भर के बच्चे पागलों की तरह ईदा को खोज रहे थे, न जाने कैसे उन्हें पता चल गया कि ईदा कब्रिस्तान में बैठा है । गांव जब वैशाख के महीने की दोपहरी में घरों में या छप्परों में आश्रय लिए हुए था, तब यही गांव के दस—पंद्रह सैनानी जिनकी उम्र तक़रीबन दस या बारह बरस रही होगी, इकट्‌ठे होकर कब्रिस्तान पहुंच गये और छोटी—छोटी कंकड़ियां ईदा को मारनी शुरु कर दीं । ईदा ने अपनी लाठी उठाई और बच्चों के पीछे दौड़ लगा दी । बबुआ ने एक कंकड़ ईदा को पीछे से दे मारा । कंकड़ ईदा के पैर में लगा । ईदा गिर पड़ा, उसे गहरी चोट लगी थी । खून रिसता देखकर सब बच्चे भाग खड़े हुए । ईदा मुश्किल से घर पहुंचा । बात गांव वालों को मालूम हुई तो उन्हाेंने बच्चों को खूब डांटा । ईदा भी दो—तीन दिन घर में ही पड़ा रहा । तीन दिन बाद ईदा जब गांव में घूमने निकला तो डर की वज़ह से कोई बच्चा उससे नहीं बोला । ईदा चौक में कुंए के चबूतरे पर आ बैठा । चेहरे पर जैसे किसी गहरे दर्द की परत चढ़ी हो जैसे तीन दिन पहले की चोट का दर्द आज हो रहा हो । हरी लाला की दुकान के सामने, नीम के पेड़ के नीचे ताश पीट रहे लोगों में से शमशू ने पूछ लिया ‘‘ईदे चच्चा आज कैसे सुस्त बैठे हो.....?''

ईदे का दर्द जैसे किसी के बोलने का इन्तज़ार कर रहा था । ‘‘इस गांव में से सब बालक जाने कहां चले गये हैं.....एक भी नहीं निकल कर अया है...... आज मैं उन से अब्बा कहुंगा ।'' और बस भुनभुनाता और लंगड़ाता हुआ ईदा गांव की गलियों में गालियां देता घूमने लगा । पीर तक पहुंचते—पहुंचते उसके पीछे बच्चों की एक भीड़ फिर इकट्‌ठी हो गई । वे सब ईदा से चिपट गये । ईदा की खिलखिलाहट में, चोट लगे पैर का दर्द कहीं गहरे में दब गया और ईदा को हल्की सी लंगड़ाहट का निशान हमेशा के लिए छोड़ गया ।

ईदा को दुनिया के तमाम रिश्ते नहीं सुहाते । गांव के हर घर से उसका एक ही रिश्ता है भइया और भाभी का । गांव की औरत की उम्र बीस की हो या पचास की सब भाभी और सारे मर्द भइया होते हैं । उसे भूख लगती है तो किसी भी चबूतरे पर जा बैठता । उस दिन भूपसिंह के चबूतरे पर बैठा था उनके बड़े लड़के की बहू जिसकी एक साल पहले ही शादी हुई है, भूप सिंह को हुक्का देकर अन्दर जा रही थी कि ईदा ने आवाज़ लगा दी ‘‘भावी रोटी होगी क्या.....?''

हुक्का गुड़गुड़ाते भूपसिंह ने कहा ‘‘क्यों रे ! यह तो तेरी पुत्र बहू लगती है...... भावी कह रहा है....।''

‘‘अच्छा भइया बहू कहुंगा.....।'' भूपसिंह के लड़के की बहू रोटी देकर जाने लगी तो ईदा ने याद दिलाया ‘‘भावी पानी और .......।'' कहते ही ईदा को याद आया और किसी अपराधी की भांति भूपसिंह की ओर देखकर बोला ‘‘भइया बहू कहुंगा....।'' ईदा को देखकर भूपसिंह ने मुस्कराते हुए होठों से हुक्के के पाइप की नली दबा ली थी ।

‘‘क्यों रे ईदा ! गांव की सब औरतें तेरी भावी लगती हैं... कोई औरत मारेगी किसी दिन तुझे...।'' कभी—कभी ईदा को इस बात पर चिढ़ा लिया जाता । ईदा पर एक ही जवाब होता ‘‘भैन के टके तुझे नहीं मारेगी न......और तू कह ले भावी उनसे...।'' तभी कोई घुड़कता ‘‘पकड़ साले को...।'' और ईदा ‘‘आ भैन के टके....।'' कहता हुआ भाग जाता । लोग ठहाका मार देते ।

वैशाख की फसल कटने के बाद गांव की पैंठ में भी रौनक आ जाती है । क्षणिक आबाद हुए किसानों के लिए भी पैंठ में नया शहरी बाज़ार उतर आता है । नई फैशन के कपड़े, चप्पल—जूते, बिंदी, चोटी, चोली इन सब के लिए औरतों की इच्छाऐं और बच्चों की उमंगें शिखर पर आ जाती हैं । एक बच्चे को कंधे पर बिठाए, प्लास्टिक के जूतों से झांकती फटी बिवाइयों पर चलते किसान, पीछे, हाथ में थैला लपेटे पत्नी और पैरों मेंं लिपटते नंगे—अधनंगे बच्चों के साथ टोल के टोल घरों से निकल कर पैंठ की ओर आने लगते हैं । एक—एक दुकान पर तीन—तीन लोग शहरी फैशन के कपड़े पहन कर कपड़ों के ढेर को उलट—पुलट करते हुए ‘‘हर माल बीस रुपया...हर माल बीस रुपया....।'' चिल्लाते हुए सब दिन गला फाड़ते हैं । शहरों से आए इन दुकानदारों के सामने गांव के दुकानदार खुद को असहाय—सा महसूस करते हैं लेकिन क्या करें बाज़ार को रोक तो नहीं सकते..... खैर....

हर वृहस्पतिवार को पूरे दिन की इस हाय—तौबा में ईदे चच्चा पैंठ की उस भीड़ को चीरते हुए इधर से उधर किसी पहरेदार की तरह चक्कर लगाते हैं । उस दिन इस भीड़ भरे बाज़ार का पूरा दबाव ईदे के चेहरे पर साफ झलकता है । हालांकि गांव भर में, यह सब करने के लिए ईदे से कोई कहता नहीं है लेकिन न जाने क्यों पैंठ वाले दिन ईदा सुबह से ही बड़ी तेजी में और जल्दी में होता है । जैसे गांव में उस दिन पैंठ न होकर ईदा की बारात आनी हो । सुबह से ही गांव के चौक को अपनी देखरेख में और खुद जुट कर सफाई कराना, दुकानदारों की व्यवस्था करना, साईकिलों पर बंधी भारी गठरियों को उतरवाना, दिनभर दुकानदारों को कुऐ से भर—भर कर पानी पिलाना । इसी सब में पैंठ वाले दिन ईदे के होश फाख़्ता रहते हैं । उस दिन उसे किसी की कोई बात ढंग से सुनने की फुरसत नहीं होती । कोई कुछ कहे तो ईदे का सीधा जवाब होता है ‘‘बाद में बात करना अभी जल्दी में हूं....।''

नवम्बर की सुबह हल्की ठण्डी हो रही थी । मुंह से निकलते बीड़ी के धुंऐं के गुबार सुबह के कोहरे में समाते जा रहे थे । रमज़ान शुरु होने से पहले मस्ज़िद में एक बैठक होनी थी । गांव की मस्ज़िद गढ़ी के अन्दर एक कोने में बनी है । गढ़ी यानी नवाब अमज़द शाह का घर । सल्तनतें, रियासतें और नवाबी चली गई तो गढ़ी भी अब गढ़ी नहीं रही, बस पहाड़ी नुमा खेरा बचा है लेकिन नवाबी सामन्तों की चुगली खाता बड़ा सा दरवाजा किसी सामन्त की तरह आज भी खड़ा है । इसी दरवाजे से होकर मस्ज़िद का रास्ता है।

‘‘क्याें इसाक भैया मीटिंग में क्या तय करोगे....?'' कय्‌यूम ने बीड़ी फैंक कर कहा था ।

‘‘तय क्या करना है सभी से कहेंगे कि हर घर में सेे एक भी मर्द, औरत बिना रोज़ा के नहीं रहना चाहिए ।'' इस्िेतयाक ने सरदार की मुद्रा में चलते हुए जवाब दिया था ।

‘‘रोज़ा तो सब रह लेंगे...... बस, सबेरे जागने की बात है.....?'' नईम चाचा जो अब तक सबसे पीछे चल रहे थे कहते हुए तेज क़दमों से आगे आ गये थे ।

इस्तियाक झटके से पीछे मुड़ा ‘‘जागने की कोई समस्या नहीं है.... गांव में जब तक ईदा है, वह बिना किसी के कहे—सुने हर साल सबके घर—घर जाकर के जगाता है ।'' ईदा का नाम आते ही जैसे सब को एक साथ याद आया हो ‘‘आज यह ईदा है कहां.....?''

‘‘शायद मस्जिद में मिले...।'' इसाक ने लापरवाही से जबाव दिया था ।

‘‘आज नहीं मिलेगा....।'' हारुन की आवाज थी ‘‘आज पैंठ है..... और उस भैन के टके को लगता है कि उसके बिना गांव में पैंठ नहीं लगेगी.... सुबह से शाम तक आज वहीं रहेगा... किसी की गठरी उतरवाएगा किसी को पानी पिलाएगा शाम तक लगा रहेगा.....न मालुम साले को क्या मज़ा है...?''

‘‘इसाक भाई इस सालेे का निक़ाह पढ़वाओ...।'' कय्‌यूम ने आंख मारते हुए कहा ।

‘‘आज ही पढ़वा दें ....चलो ठीक है आज शाम को इसका निक़ाह पढ़ाएेंगे.....।'' इसाक ने पक्का कर दिया । सुन कर कुछ चेहरे मुस्कान में डूबे कुछ चौंक पड़े ‘‘क्या....! ईदा का निक़ाह....?'' नईम चाचा की दोनो आंखें सिकुड़कर चवन्नी सी चमकने लगीं ।

‘‘हां ... हां आज शाम को आ जाना हमारे घर.... बढ़े—बुजुर्गाें का रहना ठीक रहेगा निक़ाह में ।'' इसाक ने कहा और सब मस्ज़िद में चले गये । मस्ज़िद से बाहर निकलते ही बात पूरी पैंठ में फैल गई कि आज ईदा का निक़ाह होना है । ईदे को समझाने की जिम्मेदारी हारुन की थी । उसने ईदे को समझा दिया ‘‘शाम को नहा—धो कर आ जाना चच्चा, आज इसाक भैया तुम्हारा निक़ाह पढ़ाऐंगे .....ठीक है....।'' सुनकर ईदा ऐसे शरमा गया जैसे नई दुल्हन का झटके से घूंघट उठा दिया हो ।

‘‘क्यों रे ईदा...! बहू के लिए क्या लेकर जाएगा....?, आज तो चच्चा रबड़ी ले जाओगे......, ईदा बॉडी ले जाना साले, बहू के लिए...।'' और न जाने क्या—क्या, पैंठ में लोगों ने उससे खूब मज़ाक किया । ईदा बिना कुछ कहे शर्म से मुस्कराता और इधर से उधर निकल जाता । दोपहर के बाद पैंठ में ईदा दिखाई नहीं दिया । कुछ देर बाद पता चला कि ईदा ताल में नहा रहा है । पूछा तो ईदा ने बता दिया कि ‘‘हारुन भैया ने कहा है कि निक़हा के लिए ताल में नहाना पड़ता है ।'' एक के बाद एक बात पूरे गांव में खलिहान में लगी आग की तरह फैली लेकिन बढ़े—बूढ़ों ने इसे मज़ाक समझ कर ध्यान नहीं दिया ।

शाम गलियाें में उतर आई थी । इसाक की लौहसारी पर कुछ मनचले इकट्‌ठे हो गये थे । ईदा भी नहा—धो कर तैयार था । लालटेन की मध्यम रोशनी में कुछ भी स्पष्ट देख पाना मुश्किल होने लगा था तब लाल कपड़ों में लिपटी बैठी एक औरत के साथ इस्तियाक ने ईदा का निक़ाह पढ़ाया और तालियां बजाकर दोनों को एक कमरे में यह कह कर भेज दिया कि, ‘‘ईदा बहू को कल सुबह अपने घर ले जाना आज रात को यहीं रह ले ।'' और ईदा आसानी से मान गया । कमरे में से थोड़ी ही देर में ईदे के चिल्लाने और गालियां देने की तेज़ आवाजें़ आने लगीं । बाहर बैठे सभी लड़के जोर से हंसने लगे । ईदे ने चिल्लाते हुए दरवाजा खोलना चाहा । दरवाजा बाहर से बंद पाकर वह जोर—जोर से चीखने और किसी मासूम की तरह रोने लगा ।

ईदे की आवाज़ सुन कर पीछे घेर में से इस्तियाक के अब्बा दौड़े आए । साथ ही कुछ बाहर गली में राह चलते लोग उसकी चीख़ सुन कर रुक गए । इस्तियाक के अब्बा को देखकर बाहर बैठे सब लड़के भाग गए । उन्होंने जल्दी से कमरे का दरवाजा खोला । दरवाजा खुलते ही जनाने कपड़ों में कय्‌यूम तेजी से निकल कर भागा । ईदा दहशत से थरथर कांपता हुआ एक कोने में सिमटा था । इस्तियाक के अब्बा ने उसे हिम्मत दी और बाहर निकाला । बाहर निकलते ही ईदा भी तेजी से पीर की तरफ भाग खड़ा हुआ । इस्तियाक के अब्बा देर तक सब लड़कों को गाली देते और कोसते रहे ।

इस घटना के बाद फिर दो दिन तक ईदा गांव की गलियों में दिखाई नहीं दिया । इससे गांव वालों को बदहज़मी होने लगी तो पता कराया गया । शीशपाल नम्बरदार को जब इस बात की जानकारी हुई तो उन्होने इस्तियाक के घर जाकर इस्तियाक और सब लड़कों को बहुत फटकार लगाई । पूछा ‘‘क्यों इस्तियाक कहां है ईदा....?''

‘‘अपनी हवेली पर होगा.......।'' नीची निगाह किए इसाक ने बता दिया । और फिर शीशपाल नम्बरदार, ओमप्रकाश, मजीद रंगरेज और साथ में खुद इस्तियाक ईदा की हवेली याने पीर पर गये ईदा को मनाने । वहां ईदा को न पाकर सब परेशान होकर इधर—उधर देखने लगे ।

‘‘क्या देख रहे हो काका.....?'' एक बच्चे ने नम्बरदार से पूछा ।

‘‘यह ईदा कहां गया....?''

‘‘वह आ तो रहा है.....।'' बच्चे ने गली की तरफ इशारा करके बताया । सब ने देखा ईदा रोज की तरह बच्चों से उलझता हुआ आ रहा है । नम्बरदार ने अपने सिर में हाथ मारा ‘‘धत... भैन का टका.... इस साले को भी चैन नहीं पड़ता... चलो रे ।'' अब ऐसा होना एक दिन की बात भी तो नहीं थी । लगभग रोज ही ओमा साईकिल वाला तो कभी हरि लाला, बाबू, इसाक, पुत्तन या कभी—कभी खुद शीशपाल नम्बरदार, ईदा को परेशान करने का कोई न कोई बहाना ढूंढ़ ही लेते थे । कुछ और नहीं हुआ तो ईदा से कह दिया ‘‘ईदे चच्चा आज लहरा में दावत है चलोगेे ?''

‘‘चले जाएंगे फिर तुझे क्या है रे.....।'' ईदा भले ही कह दे लेकिन वह चुपके से किसी समय छः किलोमीटर दूर गांव लहरा में जा पहुंचता । वहां कोई दावत नहीं मिलती तो छः किलोमीटर फिर वापस आता । आप गलत समझ रहे हैं....वहां प्राइवेट बस की सुविधा भी है और हर बस के कण्डैक्टर डाइवर ईदे को जानते हैं । कोई पैसा भी नहीं मांगता । और फिर ईदा को तो कोई भी मोटरसाईकिल या अपनी जीप में बिठा ले जा सकता है । दरअसल ईदा कभी किसी गाड़ी या वाहन पर नहीं बैठा यहां तक कि साईकिल पर भी नहीं । उसे लगता है टक्कर हो जाएगी और वह मर जाएगा । इसलिए वह पैदल ही चलता है और लोग उसे ऐसे ही बहका कर परेशान करते हैं ।

ईदा, गांव, गांव वाले, सब कुछ बस ऐसे ही चल रहा था । इस चलने में, गांव में सब एक दूसरे को बस आदमी के रुप में पहचानते थे । अचानक उन्नीस सौ बानबै के बाद इन्सान को हिन्दू—मुस्लिम के रुप में मिलती पहचान से यह गांव भी अछूता नहीं रहा था । बुद्‌धू ईदा के इस गांव में कुछ विद्वान अवतरित हो गये थे । वे कहां से ओर कैसे आये ? कौन लाया ? कोई नहीं जान पाया, हां गहराती शामों में अक्सर ही गांव के मन्दिर में, हिन्दुत्व की गौरवशाली परम्परा और गढ़ी की मस्ज़िद में, दीन की हिदायतों का ज्ञान लोगों को निशुल्क बंटने लगा था । ईदा को इस ज्ञान से कोई मतलब नहीं था । वह इस सब से बेखबर शामों में निपट अकेला—सा हो जाता तो कभी वह गढ़ी के दरवाजे पर जा बैठता और उकता जाता तो गांव की गलियाें के चक्कर लगाता । गलियों में या चौक में पसरा सन्नाटा उसे परेशान करता तो वह खीझकर कहीं किसी चबूतरे पर जा बैठता । कहीं कोई दिखा और उसने पूछ लिया कि ‘‘क्यों रे ईदा तू नहीं गया मस्जिद में.....?'' तो खीझकर बिगड़ जाता ‘‘तू चला जा..! सब साले अब्बा हुए हैं ।'' कहता और फिर वहां से भी निकल जाता ।

उन दिनों ईदा लोगों को खुद छेड़ता । वह ओमा साईकिल वाले की दुकान के सामने जा बैठता, कभी हरिलाला की दुकान के सामने जा खड़ा होता तो कभी इशाक की लौहसारी का पंखा घुमाता लेकिन किसी के पास जैसे उसके लिए वक्त ही नहीं रहा था । सब जैसे कहीं खोए हुए से दो—दो, चार—चार के टोल में आंखें फैला—फैला कर कुछ और ही बतियाने में ज़्यादा व्यस्त रहते । ईदा लोगों की चितवन से अक्सर सहम—सा जाता हालांकि आंखें वही हमेशा और रोज वाली ही थीं लेकिन न जाने क्यों एक दूसरे को देखने का भाव कुछ बदल—सा गया था । हां.. गांव के तीज—त्यौहारों के आने पर किसी का बस तब भी नहीं था । रमज़ान का महीना शुरु होना था और गांव का सालाना देवी जागरण भी उसी महीने होना था । यह सब किसी को याद रहा था या नहीं लेकिन ईदा को जरुर याद था । गांव भर में इन त्यौहारों की कहीं कोई चर्चा या तैयारियां न होती देखकर ईदा किसी बच्चे—सा परेशान रहता ।

‘सवेरा गांव में अब भी पहले की तरह ही उतर रहा है । सूरज की किरणें भी बिल्कुल वैसे ही बड़े पीपल के सहारे उतर कर गलियों में पहुंच रहीं हैं । अब भी गढ़ी की छतरी पर मोर कूकते हैं । पेड़ों पर चिड़ियां छोटे बच्चों की तरह ही शोर मचाती हैं । हरी फसलों को सहलाती ठन्डी हवा अब भी फेफड़ों को चीर कर पार निकलना चाहती है । खेतों को जाते जानवरों के पैरों से रुंधती धूल के गुबार भी पहले की तरह ही आसमान छूते लगते हैं । बैलगाड़ी के पहियों से निकलती चैं.....चैं.... की आवाज़ के साथ बैलों के गले में बंधी घंटियों की और गाड़ी हांकते हुए दुल्ली लाला के मुंह से निकलते चल....चल.... आ...आजा...ला..... के शब्दों में भी वही पहले जैसी संगत है...... फिर..... इस पूरे गांव को क्या हो गया है ?'

गांव के बाहर पक्की सड़क पर बनी पुलिया की मुडेर पर बैठा ईदा, सोच पाता तो शायद यही सोचता । सूरज ठीक उसकी कनपटी पर आ खड़ा हुआ था । नवम्बर का चमकीला सूरज अपनी तपिश से उसके अन्दर की बेचैनी को जैसे और बढ़ा रहा था । उसने पहलू बदला और सूरज को अपनी पीठ पर सवार कर लिया । अब उसके सामने गढ़ी का वह टूटा हुआ उंचा बुर्ज़ था जो बहुत दूर से दिखता ही नहीं बल्कि इस हमीदपुर गांव की एक मुकम्मल पहचान भी है ।

ईदे की नज़र गढ़ी के बुर्ज़ पर स्थिर हो गयी । अब उसकी पसलियों में जीम सुबह की सर्दी सूरज की गर्मी से कुछ पिघली तो उसे राहत मिली । यकायक वह फिर से कुछ उदास, कुछ गुस्सा होने लगा । उस दिन वह सुबह से ही परेशान था । जब रोज की तरह वह सुबह जल्दी अपनी नमाज़ पढ़ कर गढ़ी के बाहर आया और नीम और पीपल के पत्तों से उसने आलाव जलाया तो उस पर कोई आकर क्यों नहीं बैठा ? ईदा सोच कर बेचैन था कि ‘‘वह भैन का टका हरिलाला दुकान खोल कर श्यामा, रतना, और छिंगा से तो खूब बात कर रहा था ..... और मैं क्या उसे दिखा नहीं था......? वह ओमप्रकशा उसे क्या आज ठंड नहीं लगी.... ? और वह केशव पुजारी उसे क्या सांप सूंघ गया था..... रोजाना तो मुझसे रामबरात में लक्ष्मण बनाने की कहता था..... आज उस से भी मैने सलाम किया तो कैसा उंट की तरह मुंह उठा कर चला गया..... क्या उसने सुनी नहीं होगी...? सब साले अब्बा हो रहे हैं ......। ना बोलो... मैं भी रामबरात में लक्ष्मण नहीं बनुंगा...... और... और साले औ जागरण में बेला कोन बजाएगा... ? उसे भी नहीं बजाउंगा......।'' रामबरात की बात याद आते ही ईदा उठ खड़ा हुआ ‘‘बरात में बाजे तो फईम भैया ही बजाएंगे ..... पुजारी भैया ने उसे तो बताया होगा कि यह सब मुझसे क्यों नहीं बोल रहे...?'' ऐसे ही सोचता बुदबुदाता—सा ईदा गांव की तरफ चला गया ।

फईम के आंगन में कव्वालियों का रियाज़ होता देख ईदे का माथा चढ़ गया । उसकी मिची—सी आंखों के ऊपर बेतरतीबी से बड़ी भौंहें आपस में जुड़ गयीं । ईदा एकदम चिल्ला पड़ा ‘‘क्यों रे भैन के टके औ यह कव्वाली इस समय क्यों बजा रहे हो.....?'' ईदा सीधा फईम के पास जाकर बैठ गया ‘‘क्यों फईम भैया इस बार रामबरात में कव्वाली बजेंगी जो तुम ....?''

फईम ईदा को अंदर कमरे में ले गया ‘‘हम अब की बार रामबरात में बाजे नहीं बजाएंगे ।''

ईदा ज़ोर से हंसा और बोला ‘‘क्यों भैन के टके बिना बाजे के रामबरात अच्छी लगेगी.......?''

‘‘तू साले कु़छ जानता भी है..... कल मौलवी साहब ने क्या—क्या हिदायत की थीं.....?'' फहीम ने ईदा की नासमझी पर उसके सिर में एक चपत लगा दी ।

‘‘चल हट......।'' कहता हुआ ईदा वहां से भी तुनक कर निकल गया ।

फहीम के घर से निकलते—निकलते ईदे के माथे पर पड़ती सलवटें और ज़्यादा गहरा गईं थीं । ‘‘यह भैन का टका कौन मौलवी है उससे यह पूछो कि बाजे के बिना बारात काहे की .....? जो इसे अच्छी बात बता रहा है । और यह इस्तियाक क्या अब्बा हो गया है...... अब इसे यह पूछो कि बाजे नहीं बजैंगे तो नाचेगा कैसे.......? फिर पुजारी भैया कैसे मान गये कि बरात बिना बाजे के निकलेगी.....?'' लाख कोशिशों के बाद भी ईदे की समझ में कुछ नहीं आ पा रहा था । तो वह खुद पर और गुस्सा करने लगा । इस झल्लाहट में बुदबुदाने लगा ‘‘बिना बाजे की बरात में, मैं लक्ष्मण नहीं बनूंगा ।''

ईदा छोटे नाई की गली में होकर मंदिर की तरफ चल दिया ‘‘पुजारी भैया वहीं होंगे.....।'' पुजारी मन्दिर के बाहर अपने ट्‌यूबवैल पर चारपाई पर लेटे थे । खेतों में पानी चल रहा था । ‘‘कौन ईदा !ं क्यों रे, कहां रहता हैे...? कई दिन से इधर आया भी नहीं ।''

ईदा अक्सर वहां पुजारी के ट्‌यूबवैल पर नहाने चला जाता था साथ ही मन्दिर की धुलाई और सफाई करने में ईदा को बड़ा आनन्द आता था । ईदा की वज़ह से पुजारी भी मन्दिर की धुलाई सफाई से मुक्त रहते थे । आते ही ईदा ने बाल्टी उठाई और मन्दिर की धुलाई में जुट गया । पुजारी ने ही फिर आवाज लगाई ‘‘क्यों रे ईदा बोल क्यों नहीं रहा है.....?''

ईदा तुनक कर बाहर निकला और ‘‘इस बार रामबरात में बाजे नहीं बजेंगे..... पुजारी भैया.... ?''

‘‘कौन कह रहा था .....?''

‘‘वही भैन का टना फईमा...... कह रहा था हम बाजे नहीं बजाएंगे ।''

ईदा की बात सुनकर पुजारी समझ गये फहीम की शैतानी सो बोले ‘‘नहीं बजाएगा तो रहने दे.... हम बिना बाजे के बारात निकाल लेंगे ...?''

‘‘तो मैं नहीं आउंगा...।'' कह कर ईदा तुनक कर चल दिया । पुजारी ने आवाज लगाई ‘‘ओ ईदा सुन तो....।''

‘‘मैं नहीं सुन रहा..... और बना लेना चाहे किसी को भी लक्ष्मण मैं नहीं बनुंगा...।'' कहता हुआ चला गया । पुजारी देर तक हंसते रहे । ‘‘उसे रामबरात की पड़ी है, पहले जागरण होगा ।'' ईदा सीधा पीर पर गया और बीमारों की तरह पड़ गया, फिर कई दिन तक गांव की गलियों में दिखाई नहीं दिया ।

गांव का सालाना देवी जागरण बडे़ जलसे के रुप में आयोजित होता था । भले ही कोई जागरण मंडली बाहर से नहीं आती थी गांव के ही लोग गाते और बजाते थे । उस दिन पूरे गांव के किसी घर में चूल्हा नहीं जलता था । सब उसी जागरण के भंडारे में ही प्रसाद पाते थे, न केवल पूरा गांव, बल्कि आस—पास के गांवों में भी दावत दी जाती थी । देवी का विशाल मंच बनता और पुजारी पूजा करते ।

सालाना जागरण की चर्चाऐं गांव में शुरु हो गईं थीं । प्रधान जी के घर पर बैठक हुई जागरण का दिन तय हो चुका था । पुजारी ने ईदे के मुंह से सुनी बात बैठक में रख दी कि ‘‘इस बार फईम रामबरात में बाजे नहीं बजाएगा ।''

‘‘कौन कह रहा था.....?'' प्रधान जी ने सवाल किया।

‘‘ईदा बता रहा था....।''

‘‘अरे मज़ाक की होगी फईमा ने ईदा को चिढ़ाने के लिए .....।'' प्रधान जी अभी कह ही रहे थे कि बीच में ही रतना बोल पड़ा ‘‘मज़ाक नहीं है प्रधान जी...! सब मियों की सलाह हुई होगी, और नहीं फईमा क्या अकेला कह देगा ?'' उसके बाद वहां कई मुंह कई बातें । नई पुरानी पीढ़ी की बहसें होती रहीं और यह तय हुआ कि अगर वे हमारे साथ नहीं हैं तो हम भी उनके साथ नहीं होंगे । अब उन्होंने शुरुआत कर ही दी है तो यही सही । बैठक में यह फैसला हुआ कि किसी भी मियां को भंडारे में नहीं बुलाया जाएगा । यह बात हवा में उड़ती हुई पूरे गांव में फैल गई कि इस बार कोई मियां जागरण में शामिल नहीं होगा । गांव में न्यौता देने का काम भी रतना को दिया गया यह मानते हुए कि हो सकता कि वे ईदा को न्यौता देने से भी रोक लें ।

रतना जिस घर पर भी न्यौता देने जाता तो पता चलता कि ‘‘ईदा दे तो गया न्यौता अब क्यों दोबारा—दोबारा आ रहे हो...।'' तीन—चार घरों पर जाने के बाद रतना वापस आ गया बोला ‘‘सब जगह ईदा ने न्यौते दे दिये हैं ।''

‘‘क्या ईदा ने.....? चलो ठीक है दे आया है तो ।'' प्रधान जी ने मुहर लगा दी ।

कहां क्या बैठकें और पंचायतें हुईं इस से भी ईदे की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा । जागरण हर साल की तरह उसके सिर पर सवार था । पूरा दिन इधर से उधर दौड़ता रहा । पानी भरा है कि नहीं । छिड़काव हुआ कि नहीं । कुल्लहड़ सकोरे पानी में होकर निकाले कि नहीं । सब चिन्ताऐं अकेले ईदे को ही थीं ।

शाम होते होते इस्तियाक के घर बैठक हुई यह तय करने को कि हमें जागरण में चलना चाहिए कि नहीं। ‘‘अगर बुलाया है तो जाना चाहिए ।'' शमीम रंगरेज ने सुझाया ।

‘‘हां और क्या, वैसे भी ईदा क्या अपनी मर्जी से न्यौते दे जाएगा, उन्होंने कही होगी न्यौते देने की । और फिर वह ईदा तो वहां कल से ही लगा हुआ है । उसे तो होश भी नहीं है इतनी मेहनत कर रहा है जैसेे देवी उसके बिना मनेगी ही नहीं।'' कहकर इस्तियाक ने अपनी बात रखी।

खैर यहां भी लम्बी बहस और चकल्लस के बाद तय हुआ कि चलो जब उन्हें ही कोई परहेज नहीं है तो क्योें रुकें । देखते ही देखते जागरण में फिर पहले की तरह पूरा गांव इक्ट्‌ठा हो गया । रतना, प्रधान जी के कान में फुसफुसाया भी कि ‘‘यह मियां तो सब आ गए अब .....?'' प्रधान जी ने भी पूरे धीरज से कह दिया कि जब खुद ही आ गये हैं तो अच्छा है फहीम से भी पूछ लो कि वह....... प्रधान जी बात पूरी भी नहीें कर पाए कि

पुजारी बोल पड़े ‘‘कोर्ई जरुरत नहीं है... जब वे सब आ गये तो सब ठीक—ठाक ही है ।''

खैर, जागरण भी हो गया और भंडारा भी । एक हफ्‌ते बाद रमज़ान शुरु होनेे थे । ईदे पर एक और जिम्मेदारी बढ़ गई । रात को घर—घर जाकर लोगों को जगाना। अफ़्‌तारी के समय मस्ज़िद में जाकर गढ़ी के ऊंचे टीले पर चढ़कर चिल्लाना कि रोज़ा खोल दो।लेकिन र्ईदा को इससे भी कोई परेशानी नहीं थी। वह सालों से यह सब खुशी से करता आ रहा था ।

पहला रोज़ा था, अफ्‌तारी के समय याने सूरज छिपते ही मस्ज़िद से घंटा बजने की आवाज़ आई । मस्ज़िद से घंटा बजने की आवाज़ें अचानक सुनकर पूरे मुस्लिम टोले में सनाका हो गया । सबके हलक़ सूखने लगे सिवाय एक दूसरे का मुंह ताकने के, किसी को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था । पल भर में यह घंटे की आवाज़ एक लहर की तरह पूरे गांव में पहुंच गई । आवाज़ पर सबने कान लगाए, जिसे भी पता चलता आवाज़ मस्ज़िद से आ रही है उसके पांव ठिठक जाते । एक पल में लोगों के मन में अनेक शंका—आशंकाओं के बादल उमड़—घुमड़ गए । एक दहशत की आंधी ने सबके चेहरों को ढक लिया ।

मरता क्या न करता डरते—सहमते धीमे—धीमे सबके पांव गढ़ी की तरफ बढ़ने लगे, क्या हिन्दू क्या मुस्लिम । जहां मुसलमानों की आंखें दहशत और शंका से हिन्दुओं को देखन लगीं वहीं हिन्दू अजीब पशोपेश में कि आखिर यह हरकत कौन कर सकता है । प्रधान जी, पुजारी जी सब ही मुसलमानों को सफाई देना चाह रहे थे लेकिन जैसे सबकी हिम्मत जवाब दे गई थी । इसी उहापोह में एक बड़ी भीड़ बाज़ार में गढ़ी के विशााल दरवाजे पर इकट्‌ठी हो गई । घंटा अभी भी बज रहा था ।

अचानक प्रधान जी से इस्तिआक ने कहा ‘‘देख लो प्रधान जी...! यह क्या हो रहा है.... ? फिर नहीं कहना कि.....?''

‘‘इस्तिआक हम खुद परेशान हैं, जैसा तुम सोच रहे हो वैसा कुछ भी नहीं है । चलो, चल कर देखते हैं, अगर कोई भी लोंडा होगा तो साले को वहीं, मैं खुद गोली मार दुंगा... तुम कैसी बात करते हो ।'' प्रधान जी ने हुंकार भरी और आंखों ही आंखों में इशारा हुआ चलो देखते हैं, देखना तो पड़ेगा ही । प्रधान जी बंदूक लेकर व अन्य लोग लाठी डंडे लेकर मस्ज़िद की तरफ चले । दरवाजे पर जाकर एक पल रुके फिर धड़ाक से मस्ज़िद का दरवाजा खोला और एक रेले के साथ कई लोग मस्ज़िद में घुस गए ।

मस्ज़िद में लोगों के बंदूक और डंडों के साथ घुसते ही एक चीख निकली । बाहर खड़े लोगों ने भी आवाज़ पहचान ली सबके मुंह से अचानक निकला ईदा........? बाहर लोग कुछ ओैर समझते कि प्रधान जी ईदे को पकड़े बाहर निकले ईदे के हाथ में अभी भी घंटा लटक रहा था । देेखते ही इस्तिआक ने दो तमाचे ईदे के मुंह पर जड़ दिए ‘‘बता... साले किसने कहा था यहां घंटा बजाने के लिए...? और...और यह घंटा कहां से आया....?'' इससे पहले कि इस्तिआक ईदे को और मारता, कई और लोग ईदे की तरफ बढ़ते कि पुजारी ने चिल्लाकर सबको रोका ‘‘इस्तिआक रुक जा.... घंटा मैने दिया था....।''

सब चौंक गए ‘‘क्या.....! पुजारी तुमने ......?''

‘‘अरे सुनो यार ....! जागरण में रतिपुरा के मंगल भैया ने माता पर नया घंटा चढ़ाया था, तो यह घंटा फालतू हो गया था, इसने मांगा कि, पुजारी भैया इसे मैं ले जाउं...। मैंने सोचा ठीक है कोई बात नहीं ले जाएगा, बेच लेगा तो इसे कुछ मिल जाएगा तीन दिन से मेहनत कर रहा है सर्दी के लिए कुछ कपड़े ही खरीद लेगा.... लेकिन मुझे क्या मलुम था कि यह यहां.........?''

अब जब पता चल ही गया था तो अब सब का खून खौलने लगा था । मानो कुछ होकर ही रहेगा । इस्तिआक गुस्से से उबलता ईदे की तरफ चिल्लाता हुआ बढ़ा ‘‘क्यों साले...! ब्ता किसने कहा था यहां घंटा बजाने के लिए बोल...बोल क्यों नहीं रहा ।'' ईदा डर से थर—थर कांप रहा था । कुछ भी बोल पाना उसके वश में नहीं था ।

अचानक प्रधान जी आगे बढ़े और ईदे की पीठ थपथपाते हुए उसे हिम्मत देने की कोशिश करते हुए बोले ‘‘बता दे ईदा किसने कहा था यहां घंटा बजाने को...?'' ईदे को हिम्मत मिली तो उसकी घबराहट कुछ कम हुई तो शमीम रंगरेज चिल्ला पढे़ ‘‘बोलता क्यों नहीं है.....?''

अचानक ईदा चिल्लाया ‘‘भैन के टकाऔ किसी ने भी नहीं कही ....... मुझ पर अब चिल्लाया नहीं जाता..... तो तुम्हें कैसे पता चलेगा कि रोज़ा खोलने का समय हो गया है .....।'' ईदे के इस एक वाक्य ने वहां अचानक संनाटा तारी कर दिया । किसी के पास कोई जवाब नहीं था फिर किसी कोने से एक हंसी का ठहाका गूंजा जो पूरी भीड़ पर छा गया ।

प्रधान जी ने पूछा ‘‘ इस्तिआक यहां घंटा बजने से कोई परेशनी है क्या ...?''

इस्तिआक कुछ देर सोचता रहा फिर बोला ‘‘नहीं... कोई परेशानी नहीं...।'' वह ईदे की तरफ बड़ा, उसे पुचकारने को, कि ईदा फिर बिदक गया ‘‘भैन के टके पहले मारता है.... अब बजवा लेना कल से यहां घंटा...।'' कहता हुआ पैर पटकता ईदा किसी गली में समा गया । बोलते—बतियाते भीड़ भी छंट गई । सबको लगा कि अब ईदा घंटा नहीं बजाएगा लेकिन दूसरे दिन शाम को फिर मस्ज़िद से घंटे की आवाज़ आ रही थी ।

एम0 हनीफ मदार

56ध्56 शहजादपुर सोनई टप्पा

यमुनापार, मथुरा— 281001 (यू0 पी0)

फोन— 08439244335

ईमेल— hanifmadar@gmail.com

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