पदचाप Hanif Madaar द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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पदचाप

पदचाप

हाथ मुंह धोकर लाखन चाचा, छप्पर के ऊपर से फिसलकर आंगन में फैली थके सूरज की अंतिम किरणों में ठण्ड से सिंकने के खयाल से आ बैठे............. और बैठे क्या लगभग पसर गये। थकान के बाद वैसे भी आदमी बैठ कहां पाता है। उनका शरीर भी थकान से पस्त हो रहा था। सुबह से ही खेत में अकेले लगे रहे थे। वैसे तो महीने भर से उनके दोनों बच्चे भी स्कूल जाना छोड़कर साथ ही लगे रहे हैं। लाखन चाचा तब इतने नहीं थकते थे। अब लाखन चाचा दोनों बच्चों के छमाही इम्तिहान भी तो नहीं छुड़़ाना चाहतेे जो आज से ही शुरू हुए हैं मगर आलू की बुबाई भी पिछाई न रह जाए इसी चिंता में आज अकेले ही लगे रहे।

गांव में लाखन चाचा को बुबाई के लिए ट्रेक्टर भी कहां मिल पाता है, ट्रैक्टरों वाले बड़े किसान अच्छी तरह जानते हैं कि लाखन चाचा पर ट्रैक्टर का भाड़ा भी फसल तक उधार करना पड़ेगा। आलू खुदाई के बाद भी लाखन चाचा जैसे छोटे किसान आलू को कोल्डस्टोर में रखकर अच्छी कीमत का इंतजार करें.............. या उसे बेचकर खाद, बीज और पानी का पैसा चुकाऐं........? ट्रैक्टर का किराया चुकाने को लाखन चाचा पर इस समय पैसा आयेगा कहां से.......?

बीड़ी को अंगुलियों तक राख बना कर झाड़़ देने के बाद लाखन चाचा ने वहीं लेटे—लेटे बड़े लड़के धीरज को आवाज दी। धीरज पुरानी पैन्ट कमीज पहने बाहर आया। लाखन चाचा ने धीरज के लिए ये कपड़े सर्दी शुरू होते ही पैंठ से पुराने कपड़ों के ढेर से खरीदे थे। धीरज ने खुश होकर इन्हीं कपड़ों को पहनकर दो—तीन रिश्तेदारों की शादियां भी की हैं। इन्हीं को पहनकर वह स्कूल भी चला जाता है। स्कूल में और बच्चे तो पूरी बांह की ऊनी जरसी पहन कर भी ठण्ड से सिरसिराते हैं लेकिन लाखन चाचा या उनके बच्चों की हडि्‌डयां तो जैसे पत्थर की बनी हैं इसलिए इन्हें तो सर्दी लगती ही नहीं है। लाखन चाचा भी तो खालिस अद्‌धा बांधे ऊपर से पुराना कुर्ता ही पहने जमीन पर टाट बिछा कर लेटे हैं। इनके पैरों के तलवों को भी इनकी गरीबी और बेबसी ने इतना कठोर और मजबूत बना दिया है कि जूते—चप्पल की जरूरत ही नहीं है, कांटे भी इनके पैरों में चुभने से मुंह मोड़ लेते हैं।

लाखन चाचा के पांच में से बुढ़ापे की संतान के रूप में सबसे पीछे के दो बच्चे ही बचे हैं। तीन बचे नहीं या कहें लाखन चाचा बचा नहीं पाए। उन्होंने तीनों को बीमारी से बचाने की कोशिश की तो खूब की मगर हर बार धनाभाव में बेबस हो गये। और तीनों बच्चे एक—एक कर चलते बने अब बड़ा धीरज और छोटा दीपक ही बचा है। धीरज लाखन चाचा के पास आ बैठा ‘‘का ऐ चाचा ?'' लाखन चाचा ने एक और बीड़ी जला ली जैसे उनकी बूढ़ी हडि्‌डयों को बीड़ी के धुंऐं से शाम की सर्दी में कुछ राहत मिल रही थी। ‘‘तुमारे इंतियान कब खतम हुंगे ?''

‘‘अबई तौ आठ दिन लगिंगे चाचा। '' धीरज लाखन चाचा के शरीर से चिपककर गर्माहट महसूस करने लगा।

‘‘लाला तीन—चार दिना कौ काम रह गयौ ऐ, खेत में.......... सब डौर बन जाते तौ पहलौ पानी लगि जातौ।'' चाचा ने कश खींच कर नाक से धुआं बाहर उड़ेला।

‘‘चाचा तुम ऊं ट्रैक्टर ते चौं नांय करवाय लेत, सब ट्रैक्टर ते करवाय रऐं।''

‘‘बेटा हम छोटे किसानन कूं ट्रैक्टर बारे कहां मिल्त ऐं !'' लाखन चाचा के इस जबाव ने धीरज

सूरज को छिपते ही छप्पर के पीछे बने कमरे में आ गये। बाहर आंगन में रात उतर आयी।

दिन के ग्यारह बजे तक लाखन चाचा तीन—चार डौर ही बना पाए थे कि धीरज की अम्मा बदहवास सी दौड़ती खेत पर आयी। वह अपनी सांसों पर काबू पाते हुए अटकती सी बोली ‘‘घर पै दो पुलिस बारे आए ऐं, और तुमें बुलाय रऐं।'' पुलिस का नाम सुनते ही लाखन चाचा को धूप में भी कंपकंपी आ गयी। वे फावड़ा वहीं छोड़कर शंका—आशंकाओं से घिरे घबराते से घर पहुंचे। आंगन में बिछी चारपाई पर दो खाकी वर्दीधारी भूखे भेड़िये की तरह लाखन चाचा को ही ताक रहे थे। लाखन चाचा लगभग हाथ जोड़े सामने जा खड़े हुए। एक सिपाही गरजा ‘‘तेरा ही नाम है लाखन ?''

‘‘हां साब'' शब्द ही मुश्किल से फूट पाया लाखन चाचा के हलक से

‘‘बाबूजी का बात है ?''

‘‘अभी पता लग जायेगा।'' दूसरे सिपाही ने एक डायरी में लाखन चाचा का नाम लिखते हुए कहा। दूसरे सिपाही के शांत होते ही पहला सिपाही बोल पड़ा ‘‘तू खेत में बच्चों से काम करवाता है, तुझे पता नहीं सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में भी बाल श्रम पर प्रतिबंध लगा दिया है।''

लाखन चाचा पूरी बात तो नहीं समझ पाये, हां इतना जरूर समझ गये कि किसी सरकारी पचड़े में फंस गये हैं। मगर क्यों............? यह अभी तक उनकी समझ से परे था। वे इस पचड़े से बचने के लिए हकलाते से बोले ‘‘नांय साब मैं तो अकेलौई काम करूूं, बालक तौ पढ़वै जामें।''

दूसरा सिपाही सुनते ही भड़का ‘‘झूठ बोलता है!'' और उसने एक अखबार का पेज फैला दिया ‘‘देख ये तेरा और तेरे बच्चों का ही फोटो है न जो खेत में काम कर रहें हैं, चल अब ज्यादा होशियारी मत दिखा, जल्दी से बच्चों के नाम बता।'' लाखन चाचा को अखबार का पेज देखते ही याद आ गया। ये तो वही फोटो है जिसे तीन—चार दिन पहले मोटर साइकिल पर आए दो आदमी खेत पर से ही खींच कर ले गये थे। वे खुद को पत्रकार बता रहे थे। लाखन चाचा के भीतर की उथल—पुथल में वे सब बातें उभर कर ऊपर आ गयीं जो उन पत्रकारों से हुईं थीं। उनका दिमाग भी तेज दौड़ने लगा। ‘‘बालक तब काम कां कर रऐ वु तो मेरी रोटी लै कें खेत में गए और बैठे। उन आदमीन नेईं बच्चनकूं काम में लगाय कें फोटू खैंचौओ और जि कई के जातें तुमारो फायदा होगो। मैंनेऊं जेई सोची के चलौ सरकार ते कछू बीज—फीजुई मिल जाइगौ।'' बस यही सोचकर लाखन चाचा उनको वे सब बातें बताते रहे थे ‘‘फसल के बखत पै हम इनकौ स्कूल छुड़वाय कें खेत में लगाय लैमे। एकाध महीना में काम खतम है जाय तौ फिर स्कूल भेजवे लगें। इन बालकन के स्कूल के मास्साबऊ तौ अपने खेत के काम कूं पन्द्रह—पन्द्रह दिन की छुट्‌टी कर लेत ऐं।'' किंतु अब लाखन चाचा को अपने इस लालच पर बहुत गुस्सा आने लगा वे सिपाहियों के सामने गिड़गिड़ाने लगे ‘‘साब ऐसी भूल नांय होगी, अबके माफ कर देउ।''

‘‘अब कुछ नहीं होगा जुर्माना तो भरना पड़ेगा।''

‘‘पांच सौ रुपये।'' एक सिपाही ने फैसला सुना दिया।

पांचसौ रुपये का नाम सुनकर लाखन चाचा के चेहरे पर सर्दी में भी पसीना चमकने लगा। ‘‘पांचसौ रुपया कांते लांंगौ साब ?''

‘‘चल तेरे लिए सौ कम करे देते हैं।'' पहले सिपाही ने हमदर्दी दिखाई। ‘‘मगर आगे से ध्यान रहे ऐसी भूल ना हो।'' इससे लाखन चाचा की गिड़गिड़हाट कम नहीं हुई ‘‘बाबूजी मौपै तौ चारसौऊ नांय!''

‘‘ तो जेल जाने को तैयार होजा।'' दूसरे सिपाही ने कड़ककर कहा। जेल का नाम सुनते ही लाखन चाचा का दिमाग सुन्न होने लगा। उन्हें अपना उजाड़ होता खेत और भूखे बच्चों के चेहरे नजर आने लगे। धीरज की अम्मा ने उन्हें इशारे से अंदर बुलाना चाहा जो छप्पर में घूंघट किये खड़ी थी। मगर लाखन चाचा को तो जैसे कुछ दिख ही नहीं रहा था। वे पूरे शरीर का साहस बटोरकर बोले ‘‘साब एकाध दिन में दे दूं तौ ?'' पहला सिपाही उठ खड़ा हुआ ‘‘एकाध नहीं, हम कल आऐंगे, मगर कल यातो चार सौ... नहीं तो जेल, समझे।'' दूसरे सिपाही ने सहमति में सिर हिलाया और दोनों चले गये।

लाखन चाचा को काटो तो खून नहीं, उनका माथा यह सोच—सोच फटने लगा कि ‘‘सबेरे तक चार सौ आंगे कांतेे.......? नांय तो अब जा उमर में जेल जानौ पड़ेगौ, लोग न जाने कहा—कहा बातें करिंगे के लाखन ने

न जाने का जुरम करौ ऐ।'' ऐसी बातें उन्हें भीतर तक परेशान तो करने ही लगीं मगर इससे भी ज्यादा वे इस बात से बैचेन होने लगे कि सरकार कहती है कि बच्चों से काम मत करवाओ उन्हें पढ़ाओ, मगर गांव के शास्त्री जी कहते हैं, ‘‘लाखन इन्हें क्यूं पढ़ा रहा है, नौकरी तौ कहीं है नहीं, इससे तो इन्हें मजदूरी करना सिखा..... आखिर हमारे खेतों में काम कौन करेगा.....? पढ़—लिख कर इनकी कमर नहीं लचेगी।'' लाखन चाचा को तो समझ में ही नहीं आ रहा कि आखिर वे किसकी मानें। उन्होंने अपने दिमाग पर फिर से जोर डाला ‘‘अगर शास्त्री जी की नांय मानी तौ बीज बुआई कूं पैसा नांय मिलनौ..... और अगर सरकार की नांय मानी तौ जुरमानौ भुगतनौ पड़ैगौ।'' दोनों ही तरफ से जान आफत में है। वे लगातार बीड़ी पर बीड़ी फूंकने लगे जैसे इसी से कोई समाधान निकलेगा।

जाति के हिसाब से उच्च वर्गीय इस किशनपुर गांव के लिए एक तो लाखन चाचा का अकेला घर है निचली जाति का, ऊपर से अनपढ़ — जैसे कोढ़ में खाज।

सिपाही तो कब के चले गये मगर लाखन चाचा अपनी धुनामुनी में वहीं बैठे रह गये।

‘‘अब मईं बैठे रहोगे या जा लंगकूं आओगे ?'' लाखन की पत्नी ने आवाज दी जो पुलिस के जाते ही छप्पर मे ंचूल्हे पर रोटियां पकाने में लगी थी।

‘‘चौं तोय मां को खाए जाय रौऐ ?'' लाखन चाचा ने वहीं बैठे—बैठे सारा गुस्सा पत्नी पर उड़ेल दिया।

‘‘ठीक है मईं गढ़े रहौ।'' पत्नी भी खीझ पड़ी।

अचानक लाखन चाचा उठे और सीधे शास्त्री जी के घर जा पहुंचे। शास्त्री जी भकाभक धोती—कुर्ता पहने हाथ में छड़ी लिए कहीं जाने को निकल ही रहे थे कि ‘‘शास्त्री जी राधे—राधे !'' सामने लाखन चाचा को देखकर एकदम ठिठक गये। उनकी दोनों भौंहें सिकुड़कर आपस में जुड़ गयीं। ‘‘धत्‌ तेरे की, सब शगुन का सत्यानाश कर दिया।'' धीरे से उनके मुंह से निकला फिर भी लाखन चाचा ने सुन लिया सो थोड़ा सा झेंप गये अगले ही पल लाखन चाचा ने हिम्मत जुटाकर अपनी समस्या सुनाने को मुंह खोल ही दिया शास्त्री जी के सामने।

शास्त्री जी ने लाखन चाचा की परेशानी पूरे ध्यान से सुनी और गम्भीर हो कुर्सी पर बैठ गये ‘‘हो तो सब जाएगा लाखन, तेरे घर पुलिस आऐगी भी नहीं................. मगर तू हमारी माने तब ना।'' उन्होंने लाखन चाचा को गौर से देखा और घूरते हुए बोले ‘‘तुझसे कितनी बार कहा कि इस जमीन को हमें बेच दे और बच्चों को स्कूल भेजने के बजाय मजदूरी में डाल।'' शास्त्री जी शांत हो गये फिर अपनी बड़ी और गोल—गोल अठन्नी सी आंखें फैलाकर बोले ‘‘मैं तो कह रहा हूं खेत बेचकर भी तीनों बाप—बेटे उसी में काम करते रहो अपना समझकर और मजदूरी भी मिलती रहेगी।''

लाखन चाचा फिर चकरा गये। ‘‘शास्त्री जी पुलिस बारे तौ कै रऐें कै बच्चनते काम करायौ तौ जेल जाऔगे, और जुरमानौ अलग ते।''

‘‘वो सब तू हम पर छोड़ दे और हमारी बात मान ले।'' अब शास्त्री जी कुर्सी से उठकर लाखन चाचा के करीब आ गये — ‘‘वैसे भी गांव में पांचवीं तक का ही सरकारी स्कूल है, उसमें भी मास्टर कितने दिन पढ़ाने आते हैं। उसके बाद यहां कौन से बड़े कॉलेज रखे हैं जिसमें तू बच्चों को पढ़ाएगा।''

शास्त्री जी लाखन की पीठ थपथपाते हुए बाहर ले आए ‘‘तू सोच ले और शाम को बता देना, मैं लौटते में तुझसे पूछता आऊंगा।''

शास्त्री जी के घर से लौटते हुए लाखन चाचा के अंदर रास्ते भर मथनी सी चलती रही। वे अपने घर से शास्त्री के घर कितनी जल्दी पहुंच गये थे, मगर वापसी में उनका अपना घर उन्हें कोसों दूर लग रहा था।

लाखन चाचा छप्पर में पत्नी के पास सिर पकड़ कर जा बैठे। दोनों बच्चे आंगन में टाट पर बैठकर किताब पढ़ने में मस्त थे।

‘‘कां चले गये ?'' पत्नी के सवाल ने जैसे उन्हें नींद से जगा दिया हो।

‘‘शास्त्री के जौरे गयौओ।''

‘‘का कई उन्नै ?‘‘

‘‘वोई जो हमेश कैत रऐं।'' लाखन चाचा के शब्द निराशा में डूबे थे।

‘‘तुमने का सोची ऐ ?''

‘‘मैरो तौ दिमाकुई काम नांय कर रौ।'' लाखन चाचा हथियार डालने की मुद्रा में आ गये।

‘‘तूई बता का करैं ?''

पत्नी जो तब से लगातार सोच रही थी अब उसे कहने का मौका मिला था— ‘‘मैं तौ जे कहूं कै कल जब पुलिस बारे आमें तो उन्ते जि पूछौ कै चौं साब हम किसानन कूं सरकारी नौकरी या काऊ कंपिनी बारेन की तरै बुढ़ापे में कोई पैन्सिल (पैन्शन) या हारी—बीमारी कूं सरकार ते पइसा टका की कोई मदद तौ मिलै नांय। हमारौ सहारौ तौ जि बालकई ऐं, अब खेत में काम जे नांय करिंगे तौ कौ करैगौ। अब वु अपने खेत में काम कर रऐं तौ जुरमानौ कायेकौ ?''

‘‘बा...... री..... बा, मैं उन्ते जबान और चलाऊं सो वे मोय पीटैं।'' लाखन चाचा ने खीझकर खींसे निंपोरी।

‘‘चौं पीटिंगे, का अपनी बात कैवौऊ कोई जुरमें......?'' पत्नी तिलमिला उठी ''हमारी बात तौ उन्नै सुन्नी ई पड़ैगी।''

‘‘तू जादा वकील भई ऐ, तौ तूई करि लियो बात।''

‘‘हां—हां मैं करि लुंगी, तुम चूड़ी पैरि कैं भीतर बैठ जाऔ।''

लाखन की पत्नी लाखन चाचा के भीतर कुछ जगाना चाह रही थी, शाम भी हो चली थी, सूरज लाखन की पत्नी के चेहरे की तरह तमतमा कर लाल हो गया था फिर धीरे से सरक कर गांव के उस पार कहीं छिप गया ।

‘‘लाखन ......!'' आंगन में खड़े शास्त्री ने आवाज लगाई। लाखन चाचा हड़बड़ा गये। वे अब शास्त्री से क्या कहें। उनकी जुबान तो जैसे तालू में ही चिपक गई। पत्नी लाखन चाचा की स्थिति की भांप गयी और घूंघट निकाले छप्पर से बाहर निकली, सिर झुकाए बोली ‘‘शास्त्री काका, हम अपनौं खेत नांय बेच रऐे....... और बालकऊ पढ़िंगें...... जितनैऊ पढ़ि जांय, कम ते कम अपनी बात कैवौ तौ सीखिई जांगे।'' इतना कहकर लाखन की पत्नी ने शास्त्री के सामने हाथ जोड़ दिये। लाखन चाचा को लगा शास्त्री भड़क जाऐंगे मगर शास्त्री जी तो भौंचक थे।

‘‘ठीक है भाई।'' जाते हुए बस इतना ही कह पाए वे। आंगन में दोनों बच्चे कूदने लगे। लाखन चाचा रात भर अपनी निरीह कायरता पर खीझते रहे। सुबह पुलिस वालों के सामने लाखन चाचा झुककर हाथ जोड़े नहीं, हाथ में फावड़ा लिए तन कर खड़े थे।

एम0 हनीफ मदार

हाइब्रिड पब्लिक स्कूल,

तैयवपुर रोड़, यमुनापार, मथुरा—281001

फोनः 08439244335

Email- hanifmadar@gmail.com