क्या होगा आन्दोलन से... Hanif Madaar द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • You Are My Choice - 41

    श्रेया अपने दोनो हाथों से आकाश का हाथ कसके पकड़कर सो रही थी।...

  • Podcast mein Comedy

    1.       Carryminati podcastकैरी     तो कैसे है आप लोग चलो श...

  • जिंदगी के रंग हजार - 16

    कोई न कोई ऐसा ही कारनामा करता रहता था।और अटक लड़ाई मोल लेना उ...

  • I Hate Love - 7

     जानवी की भी अब उठ कर वहां से जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी,...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 48

    पिछले भाग में हम ने देखा कि लूना के कातिल पिता का किसी ने बह...

श्रेणी
शेयर करे

क्या होगा आन्दोलन से...

क्या होगा आन्दोलन से...?

हनीफ़ मदार

आज जिस दौर में हम जी रहे हैं वहां सांस्कृतिक आंदोलन की भूमिका पर सोचते हुए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि एक दूसरे के पूरक दो शब्दों के निहितार्थों के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता शिद्दत से महसूस होने लगी है। क्यों कि आज सांस्कृतिकता का पूरक आंदोलन शब्द ही हाशिये पर जा पहुंचा है। तब इस पड़ताल की आवश्यकता इस लिए और बड़ जाती है जब इन दोनों शब्दों के बीच रिक्तता की खाई को बड़ी संजीदगी से, वे बाजारू ताकतें अपनी चमकीली हलचलों को, सांस्कृतिक आंदोलन बताकर, पूरे वर्गीय संघर्ष को भरमाने और पलीता लगाने में जुटी हैं। जब देश के बड़े मध्य वर्ग के बीच नवजागरण का स्थान दैवीय जागरण ने ले लिया है और पूरा मध्य वर्ग आंखें मूंदे किसी समतामूलक समाज की कामना में तल्लीन है। ठीक उसी समय सांप्रदायिकता का खतरनाक खेल, बाज़ारबाद, निजीकरण और सबसे ऊपर विकास का नाम देकर अपने संसाधनों को, कॉर्पोरेट के लिए जमकर लूटने की खुली छूट देने के उभार बेचैन करते हैं।

मैं निर्विकल्प होकर किसी निराशावाद से घिरे होने की बात नहीं कर रहा लेकिन, प्रेमचन्द, मुक्तिबोध, कैफी आज़मी, भीष्म साहनी, यशपाल, साहिर लुधियानवी, नागार्जुन, अली सरदार जाफरी, फ़ैज़, मज़ाज़ जैसे नामों की रोशनी में खड़ा हुआ साहित्य सांस्कृतिक क्षेत्र का प्रगतिशील आंदोलन जो एक समय देश का सबसे बड़ा सांस्कृतिक आंदोलन था, जैसे किसी आंदोलन जिससे किसी बड़े बदलाव की उम्मीद की जा सके, के बिना कोरे आशावाद से सहमत होना भी आज के दौर में कम-अज-कम तर्क संगत नहीं लगता।

हमेशा से ही सांस्कृतिक आंदोलन के कुछ निश्चित लक्ष्य तय रहे हैं लेकिन इन आंदोलनों की सबसे बड़ी भूमिका जनमानस को एक दिशा देने की रही है। हालांकि आज इसका कई स्तरों पर फैलाव हुआ है लेकिन आपसी बिखराव ने भी इसे कम नुकसान नहीं पहुंचाया। आज हमारे भीतर की उलझन एक और एक ग्यारह के बजाय तीन तेरह के सिद्धांत की होने लगी है। व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा हमारे सांस्कृतिक आंदोलन के सामाजिक लक्ष्यों पर भारी पड़ रही है जो न केवल उन परिवर्तनगामी बिन्दुओं को ही पीछे धकेल रही है बल्कि हमारी सामाजिक व राजनैतिक दृष्टि भी धुंधली कर रही है। इसी का परिणाम है कि आज हमारे बीच क्षणिक सांस्कृतिक प्रतिबद्धता नजर आती है जो छोटी-छोटी महत्त्वाकांक्षाओं के पूरे होते ही गायब हो जाती है और फिर वही लाभ और स्वार्थ के सौदे होना शुरू हो जाता है।

जबकि वैचारिक रूप से राजनैतिक चेतना को, लोक जनमानस की समझ के स्तर पर, सांस्कृतिक रूप से सही दिशा में ले जाने के महत्त्वपूर्ण सवालों के साथ, सामाजिक, आर्थिक दृष्टिकोण से बदलाव के इस दौर में हमारे सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरतें हमें सांस्कृतिक आंदोलन से भरे अतीत से सबक लेने को विवश करती हैं। अचम्भा नहीं कि उन्नीस सौ तीस-चालीस के दशकों में समूची भारतीय सृजनात्मकता में इन्हीं चिन्ताओं और समतामूलक समाज की गूंज स्पष्ट सुनाई देती है। जिन्हें उस समय के साहित्य, कला और संस्कृति के लोग मिलकर सूत्रबद्ध तरीके से आंदोलन का रूप देकर मुखरित कर रहे थे। हालांकि इन आंदोलनों से पहले कला व साहित्य आधुनिकता से तालमेल कर चुके थे। कहानी, कविता, नाटक और फिल्मों के रूप में, लेकिन एकीकृत रूप में वे स्थानीय आम व लोक जीवन तक नहीं पहुंच पाये थे। ऐसे में लोक जीवन तथा देहातों तक राजनैतिक चेतना को सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में पहुंचाने में इप्टा जैसे संगठनों की जो भूमिका उस समय नजर आती है आज ऐसी सांस्कृतिक लगन और सामाजिक प्रतिबद्धता की ऊर्जा नजर नहीं आती।

ऐतिहासिक दस्तावेजों की रोशनाई में यह बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि उन सांस्कृतिक आंदोलनों का ही असर था कि आम जन की चेतना तक यह बात पहुंच पा रही थी कि स्थानीय जातीयता की बातें करने के बजाय, हमें अपनी स्थानीय संस्कृतियों व सामाजिक मूल्यों के बचाव के लिए, एक बड़ा वैश्विक दृष्टिकोण चाहिए। चूंकि सन तीस-चालीस का दशक भी सांस्कृतिक, सामाजिक, और आर्थिक रूप से बड़े परिवर्तन का समय था। सत्ता परिवर्तन की शंका आशंका और सामन्ती व्यवस्था से जकड़े ऐसे दूभर समय में, इन सांस्कृतिक आंदोलनों का ही नतीजा था कि किसानों के बड़े संगठन बने। छात्रों के संगठन, लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों के संगठन बने जो समाजवादी विचारधारा के प्रसार और उसी वैश्विक जनदृष्टि से पश्चिमी पूंजीवाद तथा भीतरी सामन्तवाद का डटकर मुकाबला करने का स्वर प्रखर कर रहे थे। जो लेखक कलाकार पश्चिमी आधुनिकता के दबाव में बिखरकर अपनी संस्कृति से भटक रहे थे उन्होंने भी सांस्कृतिक रूप से ग्रामीण भारत तथा लोक जन जीवन की ओर रुख किया। कहना न होगा कि हिन्दी, उर्दू के अलावा भारत की भिन्न भाषाओं में लोक जीवन से जुड़ी कहानियां, नाटक, कविताएं तथा गीत, लोकगीत उसी सांस्कृतिक आंदोलन के ताप का परिणाम था।

बात आज की करें तो सवाल उठता है कि आजादी के बाद भी क्या वैचारिक, सामाजिक तथा आर्थिक रूप से हम आजाद हो पाए हैं। क्या हम पश्चिमी पूंजीवाद और भीतरी सामन्तवाद की जकड़न से मुक्त हो पाए हैं। फिर क्यों और किस भ्रम में हम हम अपने सांस्कृतिक आंदोलनों की आग को ठण्डा होते देखकर भी शान्त हैं। सांस्कृतिक रूप से हमारी इसी शिथिलता का नतीजा है कि हमारे पाठ्यक्रम में से प्रेमचंद, यशपाल, परसाई जैसे लेखकों को बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है। नतीजतन वर्तमान युवा पीढ़ी प्रतिरोध से अनभिज्ञ है। वह, भगत सिंह को राजनैतिक रूप से एक विश्वदृष्टा, समाजवादी क्रान्तिकारी के रूप में न जानकर एक आक्रांता के रूप में पहचान रही है। भगत सिंह की आजादी के मायने तथा आजाद भारत के समाजवादी लोकतंत्र में, सामाजिक व्यवस्था के संपूर्ण कार्यक्रम से यह पीढ़ी अनजान है जबकि तब ऐसा नहीं था। इसका अंदाजा भगत सिंह की उस बात से लगाया जा सकता है जो उसने फांसी से पहले अपने साथी सुखदेव से कही थी कि ‘मरा हुआ भगत सिंह अंग्रेज सरकार के लिए जीवित भगत सिंह से ज्यादा खतरनाक सिद्ध होगा।’

बावजूद इन स्थितियों परिस्थितियों के सामाजिक बदलाव की तीव्र चाह समाज में आज भी मौजूद है, वही स्पिरिट और जुनून के साथ। इसलिए आज ज्यादा विपरीत और चुनौतीपूर्ण हालात के बाद भी सार्थक नाटकों, कविताओं, कहानियों, या फिल्मों के माध्यम से, अलग-अलग जगहों पर सांस्कृतिक आंदोलनों को हवा दी जा रही है। लेकिन, सांस्कृतिक धारा के यह वारिस यूं अलग अलग, अकेले दम पर, क्या वर्तमान परिस्थितियों में उत्पन्न सामाजिक चुनौतियों और उनके तकाजे की पूर्ति कर सकते हैं……। फिर ऐसे हालात में इस पर पुनर्विचार न करने का कोई कारण नहीं है। खासकर तब, जब साहित्य व कलाकर्मी, सांस्कृतिक आंदोलन के इतिहास का पुनर्मूल्यांकन व विश्लेषण करने की दिशा में उतने सक्रिय दिखाई नहीं देते जितनी समय की आवश्यकता है। मुश्किल तब और खड़ी होती है जब ऐसी वर्कशॉप, चर्चा, परिचर्चा के दौरान हम वैचारिक रूप से सार्थक समझ परोसने के बहाने, अपने पूर्वाग्रहों, स्वनिर्मित अवधारणाओं के जरिए दबी हुई किसी व्यक्तिगत अंतर्ग्रंथि के स्थापत्य का मौका ढूंढ लेते हैं और कुछ नामों उनकी सफलता, असफलता उनके लेखन या क्रियाकलापों में सही गलत को ढूंढ़कर, अपना गुस्सा या भड़ास निकालकर खुद को सही साबित करने में अपना वक्त खराब करते हैं। कई दफा तो हम उन्हीं राजनैतिक शक्तियों के प्रति अपनी वफादारी को आच्छादित रखने को प्रगतिशीलता की प्रासंगिकता का नाटक तक रचते हैं जबकि भीतर से उन्हीं शक्तियों के प्रति आस्थावान बने रहते हैं।

आवश्यकता है अपनी व्यक्तिगत संकीर्णताओं को तोड़ने की, और अलग-अलग बिखराव में सांस्कृतिक रूप से छोटे-छोटे आंदोलनों को खाद-पानी देने में जुटे संगठनों को इतिहास से सबक लेकर, एकरूपता में सूत्रबद्ध तरीके से विभिन्न सांस्कृतिक क्रियाकलापों के उत्साह के साथ एक बड़े सांस्कृतिक आंदोलन की भूमिका की दिशा में प्रयासरत होने की। सोचने वाली एक और बात है कि हमारे सांस्कृतिक क्रमों में वर्तमान युवा और नई पीढ़ी की सहभागिता न के बराबर रह गई है। इसके पीछे छिपे कारणों की पड़ताल की आवश्यकता है इस परिप्रेक्ष्य में यहां सज़्जाद ज़हीर द्वारा 1936 में साहित्यिक सांस्कृतिक आंदोलन की इसी विकासयात्रा पर लिखा गया यह कथन ज्यादा प्रासंगिक होगा ‘‘हम बाहर से कोई अजनबी दाना लाकर अपने खेत में नहीं बो रहे थे। नये साहित्य और कला के बीज हमारे देश के ही विवेकशील वुद्विजीवियों के मन में मौजूद थे। खुद हमारे देश की आबोहवा ऐसी हो गयी थी जिसमें नई फसल उग सकती थी। प्रगतिशील साहित्यआंदोलन का उद्देश्य इस नई फसल को पानी देना, इसकी निगरानी करना और इसे परवान चढ़ाना था।’’ कमोबेश आज सार्थक सामाजिक चेतना के लिए कला साहित्य और संस्कृति के प्रति उसी एकनिष्ठ लगाव, जोश, जुनून और हौसले की जरूरत है ताकि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय बाजार, साम्राज्यवाद और भारतीय शासक वर्ग की देने वर्तमान सांस्कृतिक चुनौतियों का जनवादी सांस्कृतिक आंदोलन के जरिए रचनात्मक जवाब दिया जा सके। और यही पूरे सांस्कृतिक क्षेत्र को बदलने की क्षमता का आग़ाज़ होगा। जो भारतीय सांस्कृतिक आंदोलन के इतिहास के पन्नों में दर्ज है।

०००००

हनीफ मदार

मथुरा

०८४३९२४४३३५