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बुढ़ापे का दर्द

Kamnigupta

कहानी

Kamni gupta from jammu

आज फिर रीटा और अजय घर देरी से आए थे। लक्ष्मी के देहांत के बाद श्यामलाल बहुत तन्हा और बेबस महसूस करते थे। उनकी तो जैसे ज़िंदगी थम सी गई थी। अपने कमरे में सारा दिन बस घड़ी की ओर निहारते रहते। साठ की आयु थी उनकी जब लक्ष्मी अचानक ही बीमारी से पीड़ित होकर चल बसी थी। लाख कौशिशों के बाद भी वो लक्ष्मी को बचा नहीं पाए। कहने को तो उनके दो बेटे और एक बेटी थे मगर फिर भी वो अपने दिल की बात खुलकर किसी से कह नहीं पाते थे बस सबकी ज़रूरतों में ही उल्झे रहते थे। अपने लिए तो जैसे जीना ही भूल गए थे। बच्चों की ज़रूरत का ध्यान रखना और अपनी पैंशन से भी उनकी मदद करने की कौशिश करते। वह अपने बड़े बेटे के साथ रहते थे क्योंकि बच्चे छोटे थे और स्कूल से जब आते थे तो बहु और बेटा घर पर नहीं होते थे तो उनका ध्यान रखना होता था और घर की रखवाली भी करनी पड़ती थी। छोटे बेटे की शादी को अभी कुछ ही समय हुआ था। कभी कभी उनसे मिलने भी चले जाया करते थे जब बहु या बेटा घर पर होते थे या कभी छोटा बेटा भी मिलने आता था पर वो भी अपनी दुनिया में व्यस्त था पिता के मन की व्यथा या उनसे मन की बात करने का समय उसके पास भी नहीं था पर श्यामलाल कभी किसी से कोई शिकायत नहीं करते थे। बह चुपचाप वक्त के साथ चले जा रहे थे और सबकी ज़रूरत के अनुसार जी रहे थे।

उनकी एक बहन थी जो शहर से बाहर रहती थी कभी वो दो तीन हाल में ही मिलने आ पाती थी। लक्ष्मी की कमी उनके जीवन में बहुत ज्यादा दिखती थी वो खामोश से हो गए थे। उन्हें समझ नहीं आता था कि आखिर वो कैसे खुद को व्यस्त रखें रह रहकर उदासी उनको घेरे रहती थी। कभी कभी कोई दोस्त उनसे मिलने आ जाया करता था।

बेटे और बहु दोनो ही नौकरी करते थे सुबह का खाना बनाकर बहु आफिस के लिए निकल जाती थी। ध्यान तो बहु और बेटा बहुत रखते थे पर उम्र के इस पड़ाव में जो देखभाल जीवन साथी कर सकता है वो शायद कोई नहीं कर सकता। अपनी बात बेहिचक भी वह किसी से नहीं कह पाते थे। श्यामलाल उस दौर से गुज़र रहे थे जब दोनो बेटे अपने अपने गृहस्थ जीवन में व्यस्त थे। हर हाल में बस अपने बच्चों का भला सोचने वाले श्यामलाल बहुत ही अकेलापन महसूस करते थे। कभी कभी उनको लगता था कि क्या वो सिर्फ घर की देखभाल करने के लिए हैं। बहु और बेटा अगर कोई अवकाश दफ्तर में होता भी तो अपने ऊपर व्यतीत करना पसंद करते थे। अपने काम निपटाना और कहीं घूमने जाने में दिन व्यतीत करते थे। श्यामलाल तो बस खाना खाने के ही हिस्सेदार रह गए थे शायद। अगर कोई घर पर नहीं होता तो वो खुद ही जैसे तैसे खाकर गुज़ारा कर लेते थे। न वो अपनी मर्ज़ी से जी रहे थे न ही अपने लिए जी सकते थे अगर कहीं बाहर जाना भी होता था तो बहु और बेटे की छुट्टियों की कोई दिक्कत आ जाती थी। अपने पोता और पोती का भी उनके पीछे से ध्यान रखना पड़ता था। दोनो बेके अलग अलग रहते थे। बेटी भी मां के बिन मायके में कम ही आती थी और जब आती थी तो चाहकर भी श्यामलाल का दर्द हल्का नहीं कर पाती। वो अपने और अपने बच्चों के ही काम मायके आकर निपटाने में मग्न हो जाती थी। भाभी भी व्यस्त रहती थी और कभी उनके मूड को देखकर कम ही आना पसंद करती थी।

कभी श्यामलाल की अपने दोस्त से मुलाकात होती तो बातों के किस्से शुरू हो जाते थे और वही दर्द उभर कर सामने आता था कि आखिर इस उम्र में इंसान इतना बेबस और लाचार क्यों हो जाता है चाहकर भी अपनी मर्ज़ी से या अपनी खुशी के लिए नहीं जी पाता। जवानी अपने बच्चों की देखभाल करने में गुज़र जाती है और बुढ़ापा अपने बच्चों के बच्चों की देखभाल करने और घर की रखवाली में गुज़र जाता है। श्यामलाल को अकेलेपन से ज्यादा दिक्कत थी। इस उम्र में घर कि ध्यान और इतनी भाग दौड़ से शरीर थक सा जाता था और चाहकर भी किसी से कहा नहीं जाता था कि कोई दबाकर थोड़ा दर्द हल्का कर दे। सभी अपनी अपनी ज़िन्दगी में और अपने आप में व्यस्त थे। वह बस सुबह से शाम का और शाम से फिर अगली सुबह का इंतज़ार करते थे। जैसे कोई अपनी ज़िंदगी के बस दिन गुज़ारता है वैसा ही हाल उनका हो गया था। कभी कभी अकेले मे वो रोया भी करते थे अपने जीवन के बीते दिन याद करके। ऊपर से कठोर दिखाई देने वाले औरों को हिम्मत देने वाले श्यामलाल खुद को संभालने में असमर्थ हो रहे थे पर ज़िंदगी तो जीनी थी चाहे जैसे भी हालात थे उनको हंस के ही निभाना था ऊपर से मुस्कुराहट दिखाने वाले श्यामलाल अपने आंसु छुपाकर जीते थे।

श्यामलाल कभी बहुत उदास होते तो कुछ लिखा भी करते थे और उनकी लेखनी से भी उनके अकेलेपन का दर्द साफ साफ दिखाई देता था। वो चाहते थे कि उनकी वजह से किसी को कोई तकलीफ न हो और वो ही औरों के काम आ सकें तो अच्छा है।

जाने श्यामलाल जैसे कितने और बुज़ुर्ग हैं जो ऐसे ही हालात से गुज़रते हैं और औरतो की भी शायद यही कहानी होगी जो अकेलेपन और तन्हाई से गुज़रते हैं पर अगर ज़रूरत है तो बस इस दर्द को समझने की और उसे सहलाने की। ज़रा सा वक्त निकाल कर अपने व्यस्त जीवन से यदि घर के बड़ों के साथ बैठा जाए तो उन्हें कितना अच्छा लगता है यह हम समझ नहीं सकते। उनकी छोटी छोटी बात का ध्यान रखना , प्यार से बात करना या कभी अपने साथ घुमाने ले जाना उन्हें थोड़ा सा दबा देना उनके अंतर्मन को कितना सुकून दे सकता है और उनके बरसों के दर्द पर मरहम सा बन सकता है जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। क्योकि इस उम्र में भी इंसान को उतनी ही देखभाल और प्यार की ज़रूरत होती है जितनी हम अपने बच्चों की करते हैं उनको अपने बच्चों का सहारा और प्यार भरा साथ भी चाहिए होता है और एक उम्मीद होती है कि वो भी उनकी तकलीफ को और ज़रूरत को बिना कहे भी समझ सकें और अपने व्यस्त जीवन से कुछ पल उनके लिए भी निकालें उनके पास भी बैठे।।।

कामनी गुप्ता ***

जम्मू !

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