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भीमसेन

भीमसेन

हिन्दू धार्मिक मान्यता अनुसार महाभारत नामक महाकाव्य में अतिबलशाली परम पराक्रमी पांडु पुत्र भीमसेन का वर्णन किया गया है। महाराज पांडु के पाँच पुत्र युधिस्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव में से भीमसेन आयु में दूसरे नंबर के पुत्र थे। भीमसेन की माता का नाम कुन्ती था। भीमसेन का प्रिय अस्त्र गदा था। भीमसेन नें गदा युद्ध कौशल श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम से सीखा था। भीमसेन को भोजन में अधिक रुचि हुआ करती थी, इसी बात को ले कर अर्जुन, नकुल और सहदेव, भीमसेन को हसी मज़ाक में चिढ़ाते भी थे। गांधारी पुत्र दुर्योधन और भीमसेन में हमेशा घर्षण रहेता था। दुर्योधन भी भीमसेन की तरह बलराम से गदा युद्ध कौशल सीखे थे।

भीमसेन का जन्म

भीमसेन का जन्म भी एक रोचक घटना है। भीमसेन के पिता महाराज पांडु हस्तीनपुर के राजा थे। उनके बड़े भाई ध्रुतराष्ट्र जन्म से अंध होने के कारण महाराज पांडु को हस्तीनपुर राज्य का राजा बनाया गया था। एक समय जब ऋषि किंदम जंगल में अपनी पत्नी के साथ प्रेमालाप कर रहे थे, तो उस वक्त शिकार खेल रहे पांडु राजा ने गलती से उन्हे हिरण समज कर वाण मार दिया था।

ऋषि किंदम ने मरने से पूर्व पांडु राजा को शाप दिया था की... “जब भी तुम अपनी पत्नी से प्रणय करने उसके पास जाओगे तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी। इस शाप के कारण पांडु राजा किसी संतान के पिता नहीं बन सकते थे। और इसी लिए पांडु ने अपने बड़े भाई ध्रुतराष्ट्र को राज्य सौप दिया और खुद अपनी दोनों पत्नि (कुन्ती और मादरी) के साथ वन रहेने चले गए।

वन में पांडु महाराज, कुन्ती और मादरी ऋषि दुर्वासा के आश्रम पर जाते हैं। जहां पर ऋषि दुर्वासा कुन्ती को और मादरी को देवों को प्रससन करने और वरदान मांगने का मंत्र प्रदान करते हैं, पांचों पांडु पुत्र देवों की कृपा से कुन्ती और मादरी के सन्तान के रूप में जन्म लेते हैं। अर्जुन, भीमसेन और युधिस्ठिर कुन्ती के पुत्र और नकुल सहदेव मादरी के पुत्र बन कर जन्म लेते हैं।

भीमसेन का जन्म होते ही आकाशवाणी होती है, की “हे कुन्ती तुम्हारा यह पुत्र परम बलशाली और तेजस्वी होगा।“ इस भविष्यवाणी के साथ ही बालक भीमसेन कुन्ती के हाथ से छूट कर एक बड़ी शीला पर गिरता है, और उस शीला को चकनाचूर कर देता है। भीमसेन पवन देव की कृपा से उत्पन हुए होते हैं।

भीमसेन के अन्य नाम

वृकोदर, गदाधर जरासंघजीत, हिडिंबभिद, कीचकजीत, जिहम्योधीन, बल्लव।

भीमसेन को ज़हर खिला कर गंगा में बहा देने का षड़यंत्र

बचपन में भीमसेन और कौरवों में काफी लड़ाइयाँ हुआ करती थीं। खास कर दुर्योधन और भीमसेन में छत्तीस का आकडा हुआ करता था। दुर्योधन को पता था की भीमसेन एक नंबर का पेटु है। उसे खाने की बात पर किसी भी षड्यंत्र में फसाया जा सकता है। इसी बात का फ़ायदा उठा कर दुर्योधन अपने भाई दुर्शासन की सहायता ले कर भीमसेन को ज़हर मिश्रित खीर खिला देता है। और कंबल / चटाई में लपेट कर गंगा नदी में बहा देता है।

बाल भीमसेन बहेते बहेते पाताल लोक में पहौंच जाता है। जहां पाताल लोक के नाग-राजा वासुकि भीमसेन की रक्षा करते हैं। और उन्हे वहाँ सुधा रस पिलाते हैं। सुधा रस पीने से भीमसेन को दस हज़ार हाथी का बल प्राप्त हो जाता है। इस तरह भीमसेन दुर्योधन के जानलेवा षड्यंत्र से बच जाते हैं, और अति बलशाली हो कर सही सलामत वापिस लौट आते हैं।

भीमसेन और उनकी पत्नियाँ

भीमसेन का विवाह द्रौपदी, हिडिंबा, और वलनधारा से हुआ था। द्रौपदी को अर्जुन ने स्वयंवर में जीता था, परंतु घर आने पर पांडव बोले की माता आज हम अति सुंदर भिक्षा लाये हैं। उसके जवाब में कुन्ती नें देखे बिना ही कहा की जो भी लाये हो उसे आपस में पांचों भाई बाँट लो। इस प्रकार फिर द्रौपदी पांचों पांडवों की पत्नी बनी। हिडिंबा ने राक्षस हिडिंब के संहार करने में भीमसेन की सहायता की थी और हिडिंबा भीमसेन पर उस वक्त मोहित भी हुई थी, इस किए कुन्ती नें भीमसेन और हिडिंबा का विवाह करा दिया था।

भीमसेन के सन्तान

भीम और हिडिंबा का एक तेजस्वी महाकाय पुत्र था, जिसका नाम घटोत्कच्छ था। पांडवों और कौरवों के बिछ हुए धर्मयुद्ध में घटोत्कच्छ की अहेम भूमिका थी। अपने विशाल शरीर और आसुरी शक्तियों के प्रभाव से घटोत्कच्छ कौरवों की सेना को कुचले जा रहा था। दुर्योदन को भी उसने लहूलहान कर दिया था। तभी दुर्योधन अपने परम पराक्रमी मित्र कर्ण के पास जाता है और घटोत्कच्छ का वध शक्ति अस्त्र से करने का दबाव बनाता है।

कर्ण उस शक्ति अस्त्र का प्रयोग अर्जुन पर करना चाहता है, परंतु दुर्योधन की ज़िद के आगे उसे जुकना पड़ता है। और वह घटोत्कच्छ पर शक्ति अस्त्र से घात कर के उसका अंत कर देते हैं। इस तरह शक्ति अस्त्र के प्रयोग से घटोत्कच्छ के वीरगति प्राप्त होने से अर्जुन सुरक्षित हो जाते हैं। चूँकि शक्ति अस्त्र का प्रयोग एक ही बार संभव होता है।

भीमसेन को द्रौपदी से भी एक पुत्र था, द्रौपदी और भीम का वह पुत्र पांडवों और कौरवों के बिछ हुए महा युद्ध के बाद रात को सोते हुए अष्व्त्धमा के हाथ मारा जाता है। उस शिबीर में द्रौपदी और बाकी चारों पांडवों के एक एक पुत्र भी अष्व्त्धमा के हाथों मारे जाते हैं।

हनुमानजी के द्वारा भीमसेन का अभिमान भंग

एक बार भीमसेन नाराज़ हो कर वन में विचरने निकल जाते हैं। रास्ते पर एक वृद्ध वानर अपनी पुंछ पसारे बैठा होता है। भीमसेन उसे अपनी पुंछ रास्ते से हटा लेने को कहेते हैं। पर वानर कहेता है की मै तो वृद्ध हु मुझसे ज़्यादा हिला-डुला नहीं जाता, तुम ही थोड़ा कष्ट कर के पुंछ हटा लो।

भीम पुंछ उठाने का प्रयत्न करते हैं पर वृद्ध वानर की पुंछ तिनका भर भी नहीं हिला पाते हैं। तब भीमसेन का बाहुबल अभिमान उतर जाता है। और फिर हनुमानजी अपने असल रूप में आ कर भीमसेन को आशीर्वाद देते हैं।

भीमसेन और निर्जला एकादशी

ऐसा कहा जाता है की भीमसेन भूखे रह नहीं सकते थे। उन्हे खाने में अधिक रुचि थी। और वह साल में कोई व्रत नहीं रहेते थे। इस बात से उनकी माता कुन्ती काफी दुखी थीं। फिर उन्होने भीमसेन से कहा की तुम अगर बहुतसारे व्रत ना रख पाओ तो कोई बात नहीं पर वर्ष में एक दिन बिना खाये और पानी पिये रहो। भीमसेन ने अपनी माताकी उस बात का पालन करना शुरू किया। और तभी से निर्जला एकदाशी अस्थितव में आई।

भीमसेन और राक्षस हिडिंब का युद्ध

पांडवों के वनवास काल के दौरान एक घने जंगल में मानव भक्षी राक्षश हिंडिंब, मानव गंध आने पर अपनी बहन हिडिंबा को पांडवों का शिकार करने भेजता है। जहां हिडिंबा भीमसेन को देख कर मोहित हो जाती है, और खाली हाथ लौट आती है।

क्रोधी हिडिंब फिर खुद पांडवों का शिकार करने जाता है, और तभी भीमसेन और हिडिंब में भीषण युद्ध होता है। उसी भीषण लड़ाई में भीमसेन हिडिंब का वध कर देते हैं, और इस लड़ाई में हिडिंबा भीमसेन की सहाय भी करतीं है। उसी वक्त कुन्ती के पैर छु कर हिडिंबा खुद का विवाह भीमसेन से कराने का प्रस्ताव कुन्ती को देतीं है। और इस तरह हिडिंबा से भीमसेन का विवाह हो जाता है।

भीमसेन और राक्षस बकासुर का युद्ध

एक समय की बात है जब एकचक्रा नगरी में भयानक राक्षस बकासुर का आतंक हुआ करता था। बकासुर एकचक्रा नगरी के नागरिकों को खा जया करता था और उनके खेत घर और संपत्ति उजाड़ दिया करता था। तभी उन दिनों पांचों पांडव और कुन्ती अज्ञात वास में एक चक्रानगरी में रहेने आते हैं। वह सब एक ब्राहमिण परिवार के घर शरण लेते हैं। पांचों पांडव भिक्षुक ब्राहमिण के रूप में ही वहाँ रहेते हैं।

एक दिन आतेथ्य ब्राहमिण परिवार रो रहा होता है। कुन्ती उनके रोने की आवाज़ सुन कर उनके दुख का कारण पूछती है। ब्राहमिण बताता है की हमारे नगर के पास जो बकासुर राक्षस रहेता है उस से हमारी संधि है, की हम हर रोज़ एक जीवित इन्सान और ढेर सारा खाना उसे देंगे और उसके बदले में बकासुर हमारे नगर में आतंक नहीं फैलाएगा।

आज हमारे घर की बारी है। इसी लिए हम दुखी हैं। कुन्ती फौरन कहती है की इस बार खाना ले कर मेरा पुत्र जाएगा। बकासुर के भोजन के लिए में अपना पुत्र भेजूँगी, अगर खा सके तो मेरे पुत्र को खा ले। ब्राहमिण परिवार कुन्ती को मना करता है, पर कुन्ती यह कह कर उन्हे मना लेती है की अतिथि को आतेथ्य के घर की मुसीबत अपनी मुसीबत समजनी चाहिए।

इस तरह भीमसेन बकासुर की गुफा पर भोजन ले कर जाता है। और बकासुर के गुफा के बाहर आते ही उसकी बख़ियाँ उधेड़ देता है। भीमसेन वहाँ बकासुर का वध कर देता है और बकासुर के लिए ले गया सारा खाना खुद का कर वापिस आ जाता है।

भीमसेन और कीचक

कपटी शकुनि और दुर्योधन के साथ द्यूत क्रीडा (जुए) में, युधिस्ठिर अपना सर्वस्व हार चुके थे। और हार की शर्त के अनुसार पांचों पांडवों को बारह वर्ष का वनवास और तेरहवे वर्ष का अज्ञातवास भोगना था। उसी तेरह वे वर्ष के अज्ञातवास में भीमसेन और उनके चारों भाई ने वेश पलटा कर के “विराट” राज्य में शरण ली थी। भीमसेन उस वक्त बावरची “बल्लव” बन कर अज्ञातवास भोग रहे थे। और उनकी पत्नी द्रौपदी शैलेंद्री बन कर वहाँ राजपुत्री की सेविका बन कर रह रही थी।

विराट राज्य का सेनापति कीचक एक अत्याचारी और अधम पापी इन्सान था। यह जानते हुए भी की शैलेंद्री परिणीता है, कीचक उस पर गलत नज़र डालता है। कीचक इतना शक्तिशाली होता है की विराट राज्य के राजा भी उसे दंड देने से गभराते थे। कीचक को बार बार समझने पर भी वह शैलेंद्री का पीछा नहीं छोड़ता है। शैलेंद्री के रूप में छुपी द्रौपदी बल्लव यानी भीमसेन से सारी हकीकत कहे देती है। उसके बाद शैलेंद्री कीचक को नृत्यशाला में प्रणय के लिए अकेले बुलाने का न्योता देती है ताकि भीमसेन कीचक का अंत कर सके। कीचक के आते ही भीमसेन उस पर भूखे सिंह की तरह टूट पड़ता है और उसे वहीं मौत के घाट उतार देता है। इस तरह पापी कीचक का अंत होता है।

भीमसेन की भीषण प्रतिज्ञा

द्यूत में सर्वस्व हार जाने के बाद युधिस्ठिर खुद को और अपने भाइयों तथा अपनी पत्नी द्रौपदी को हार जाते हैं और इस तरह वह सब दुर्योधन के दास हो जाते हैं। दुर्योधन अपने अनुज दुर्शासन के हाथ दासी द्रौपदी को बालों से खिचवा कर भरी सभा में लाने का आदेश देता है। और दुर्शासन के हाथ द्रौपदी का वस्त्रहरण कराता है। उसके बाद अपनी जंघा पीट कर द्रौपदी को अपनी जघा पर बैठाने को आमंत्रित करता है।

तभी भीमसेन खड़े हो कर प्रतिज्ञा करते हैं। की... “जिस जंघा को पीट कर दुर्योधन ने द्रौपदी को उस पर बैठने के लिए आमंत्रित किया है उस जंघा को मै तोड़ूँगा, और नीच दुर्षाशन को मार कर उसकी छाती का लहू पीऊँगा।“ और भीमसेन नें यह भी कहा था की जब तक वह अपनी प्रतिज्ञा पूरी नहीं करेंगे तब तक वह अपने मृत पूर्वजों को अपना मुह नहीं दिखाएंगे।

भीमसेन के द्वारा दुर्शासन तथा दुर्योधन का वध

महाभारत के अंतिम भीषण धर्म युद्ध में भीमसेन अपनी प्रतिज्ञा अनुसार दुर्शाशन को मार मार कर उसकी छाती फाड़ देता है। और अपने हाथों में दुर्शाशन की छाती का लहू ले कर पीता है। फिर थोड़ा लहू अंजुली में ले कर द्रौपदी की शिविर की और भागता है। वहाँ द्रौपदी दुर्शाशन के खून से अपने बाल धोती है।

चूँकि दुर्शाशन नें उसे बालों से घसीट कर सभा में लाया था। इसी लिए उसने ऐसी प्रतिज्ञा कर रखी थी की, वह दुर्शाशन के लहू से अपने केश धो कर अपना अपमान धोएगी।

युद्ध के अंत में दुर्योधन अपने शरीर की अग्नि शांत करने के लिए सरोवर में जा छिपता है। जहां पांचों पांडव और श्री कृष्ण उसे खोजने आते हैं, ताकि उसका वध कर के धर्मयुद्ध जीता जा सके। दुर्योधन को ललकारने पर दुर्योधन सरोवर से बाहर आ जाता है। और गदा युद्ध के लिए अपने परम शत्रु भीमसेन को चुन लेता है।

भीमसेन और दुर्योधन के बिछ भीषण गदा युद्ध होता है। माँ के आशीर्वाद के प्रताप से दुर्योधन का शरीर वज्र का हो चुका होता है। केवल उसकी जंघायेँ ही सामान्य होती हैं चूँकि उन्होने माँ की आज्ञा का पालन नहीं किया था। उन्हे सम्पूर्ण नग्न हो कर माँ के सन्मुख जाना था, ताकि उनकी माता अपनी आँखों के तेज से उन्हे वज्र का बना दे। पर वह शर्म की वजह से केलों के पत्ते जांघों पर लपेट कर माँ के सन्मुख गए थे। इसी लिए उनकी जांघे वज्र की नहीं हुई थी।

गदा युद्ध कमर से नीचे वर्जित होता है। फिर भी भीमसेन श्रीकृष्ण की सलाह से दुर्योधन की जंघा पर वार कर के उसे ज़मीन दोस्त कर देते हैं। दुर्योधन अधर्म और अन्याय का प्रतीक था, इस लिए उसका अंत किसी भी प्रकार करना आवश्यक था। और इस प्रकार भीमसेन की दोनों प्रतिज्ञा पूरी हो जाती हैं।

भीमसेन और ध्रुतराष्ट्र आलिंगन

महाभारत के महायुद्ध की समाप्ती के बाद भगवान श्री कृष्ण, माता कुन्ती, विदुर, पांचों पांडव, और द्रौपदी सब मिल कर हस्तीनपुर आते हैं। और राजमहेल में ध्रुतराष्ट्र और उनकी पत्नी गांधारी से मिलने और उनका अशीस लेने आते हैं। पांचों पांडव जब ध्रुतराष्ट्र के पैर छूने आते हैं तो उनमे से जब भीमसेन आगे बढ़ते हैं तब ध्रुतराष्ट्र भीमसेन को पैर छूने से रोक लेते हैं। और भीमसेन को कहेते हैं की “पुत्र तुम पैर मत छूओ.... मेरे गले मिलो... आओ मुझसे आलिंगन करो...”

परंतु श्री कृष्ण यह जान गए थे की अपने प्रिय पुत्र दुर्शाशन, और दुर्योधन के कपट वध पर और उनके शव के साथ किए गए दुर्व्यवहार के लिए ध्रुतराष्ट्र अब भी भीमसेन पर क्रोधित हैं। ध्रुतराष्ट्र की भुजाओं में इतना बल था की वह क्रोधाग्नि में आ कर भीमसेन को अपनी बाहों में ले कर, कूचल कर मार डालते।

इसी भीती के चलते श्री कृष्ण ने भीमसेन को आलिंगन करने से रोक लिया, और खुद की जगह एक धातु के पुतले को ध्रुतराष्ट्र से आलिंगन करने के लिए आगे करने को कहा। भीमसेन ने ठीक वही किया। ध्रुतराष्ट्र ने दुर्योधन का नाम ले कर उसे याद करते हुए... उस धातु के पुतले को अपनी भुजाओं में ले कर इस तरह मसल दिया जैसे की वह रेत का ढेर हो।

इस तरह भीमसेन श्री कृष्ण की कृपा से ध्रुतराष्ट्र के घात से बच जाते हैं।

विषेस

युधिस्ठिर के राज में भीमसेन हस्तीनपुर के युवराज और हस्तीनपुर सेना के सेनापति बनते हैं। पांचों पांडव कुछ समय हस्तीनपुर का राज भोग कर देहांत करने और स्वर्ग प्रस्थान के लिए हिमालय चले जाते हैं। ऐसा कहा जाता है की उन सब में से केवल एक, धर्मराज युधिस्ठिर ही सदेह (जीवित) स्वर्ग पहोंच पाये थे।

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