दायित्व Dr kavita Tyagi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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दायित्व

दायित्व

नियुक्ति के पश्चात् जब सुजाता महाविद्यालय में प्रथम दिन अध्यापन हेतु गयी तो महाविद्यालय के हॉल में एक छब्बीस-सत्ताईस साल की युवती कुछ छात्रों पर बिगड़ रही थी। वह छात्रों को झुँझलाहट युक्त कठोर शब्दों में डाँट रही थी और उसकी प्रतिक्रियास्वरूप छात्र उपेक्षापूर्ण मुद्रा में हँस रहे थे। छात्रों के इस व्यवहार से उस स्त्री की झुँझलाहट ऊर्ध्वाधर बढती जा रही थी। वह जितना अपनी झुँझलाहट को अभिव्यक्त करती थी, छात्रों को उसी अनुपात में आनंद आ रहा था। महाविद्यालय में अपना प्रथम कार्य-दिवस होने के कारण सुजाता ने उनके बीच में पड़ना उचित नहीं समझा, इसलिए छात्रों की आनंदानुभूति और उस युवती की कटु भावाभिव्यक्ति में बाधा डाले बिना वह प्राचार्य—कक्ष में चली गयी।

दोपहर को अपना कार्य समाप्त करके सुजाता को इच्छा हुई कि उस युवती से मिलकर उसके नाम-काम के बारे में जानकारी प्राप्त करे। अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए उसने चपरासी से कहकर युवती को अपने पास बुलवा लिया । युवती से मिलने पर सुजाता को ज्ञात हुआ कि उसका नाम निशा है और महाविद्यालय में चपरासी के रूप में कार्यरत है। सुबह की घटना के बारे में पूछने पर निशा ने बताया कि छः—सात लड़के कक्षा में तो कभी नहीं बैठते हैं, यहाँ बैठकर प्रतिदिन उसकी ओर संकेत करके फब्तियाँ कसते हैं और उसका उपहास करके हँसते रहते हैं। सुजाता के यह पूछने पर कि उसने प्राचार्य महोदय से शिकायत की या नहीं, निशा ने कहा —

“प्राचार्य महोदय का ऑफिस सामने ही तो है। उन्हें सामने बैठे हुए ये सब सुनता—दीखता नहीं है क्या ? शिकायत करने के लिए क्या रह गया ? वे सब कुछ देखते—सुनते रहते हैं और फिर भी चुप रहते हैं।”

“कोई बात नही, निशा ! ये उम्र ही ऐसी है । बच्चे थोड़े-से नासमझ और उद्दंड होते ही हैं। तुम इन बच्चों से मत उलझा करो । देखो, इस अवस्था के बच्चों पर कोई आदेश या नियम पूर्णरूपेण काम नहीं करता है,...और फिर तुम्हें तो बलपूर्वक किसी को आदेश देने और पालन कराने का अधिकार ही नहीं है। इसलिए उनसे बचकर रहने में ही भलाई है, राड़ से बाड़ भली होती है।” सुजाता ने निशा को समझाते हुए कहा।

दो दिन बाद महाविद्यालय में स्टाफ की बैठक थी। बैठक के पश्चात् चाय—नाश्ते का आयोजन था। सभी लोग बैठक के गम्भीर मुद्दों को भूलकर चाय—नाश्ते के साथ आपस में गपशप का आनन्द ले रहे थे। तभी प्राचार्य महोदय ने निशा को आवाज दी। निशा किसी अन्य कार्य में व्यस्त थी । सम्भवतः वह आस—पास भी नहीं थी। शायद उसे यह आभास भी नहीं हुआ कि प्राचार्य महोदय ने उसे बुलाया है। थोड़ी देर बाद जब निशा वहाँ आयी, एक प्रवक्ता ने उसे देखकर डाँटते हुए कहा — ‘‘निशा ! तुम्हें सुनता नहीं है, सर कब से तुम्हें आवाज दे रहे हैं।’’

‘‘वो...., मैं उधर लाइब्रेरी में काम रही थी, इसलिए नहीं सुन पायी थी !’’ दयनीय मुद्रा में निशा ने कहा ।

‘‘ देखो तो, कितनी ढ़ीठ है ! अपनी गलती मानने के बजाय सर के सामने उल्टा जुबान लड़ाती है ! शिष्टाचार तो बिलकुल ही नहीं है इसमें !’’ पुनः उसी प्रवक्ता ने कहा।

निशा चुपचाप गर्दन नीचे किए खड़ी रही, तो दूसरे प्रवक्ता ने अपनी प्रभुता का प्रदर्शन करते हुए कहा — “प्राचार्य जी के आदेशों को अनसुना करके भी बुत बनी खड़ी है, जैसेकि बहुत भोली है। गलती करके भी सॉरी नहीं बोल सकती है ! यहाँ कब तक मिट्टी की माधो बनकर खड़ी रहेगी !”

“ सॉरी सर, मुझसे गलती हो गयी !” निशा ने रूँधे गले से कहा।

अब प्राचार्य महोदय के बोलने की बारी थी। “ पता नहीं, कैसा स्वभाव है इस लड़की का ! सारा दिन अपने ही चिन्तन—मनन में लीन रहती है....! कुछ भी कहा जाए, एक बार में तो यह सुनती ही नहीं है। शायद कुछ कम भी सुनती है ?”

“ नहीं सर, कम नहीं सुनती है। यह कामचोर है ! इसमें घमंड भी इतना है कि कोई कुछ कह दे तो उस पर अकड़ती है और काटने को दौड़ती है।” तीसरे प्रवक्ता ने प्राचार्य महोदय की चाटुकारिता करते हुए कहा। तभी पहले प्रवक्ता ने दूसरे प्रवक्ता से कहा — “सवर्ण जाति की है न ! रस्सी जल गयी मगर बल नहीं गये।”

बेचारी निशा चुपचाप खड़ी हुई सबकी टिप्पणी सुनती रही। नाश्ता करने के पश्चात् सुजाता ने निशा से पूछा — “तुम कहाँ चली गयी थी ? जब सभी लोग यहाँ थे, तब तुम्हें भी यहीं आस—पास रहना चाहिये था, न जाने कब तुम्हारी आवश्यकता पड जाए।”

निशा की आँखों से अश्रुधारा बह चली । रुलाई रोकने के प्रयास में उसकी हिचकी बँध गयी और कंठ अवरुद्ध हो गया । हिचकियों के आरोह—अवरोह में निशा ने रुँधे कंठ से कहा — “दीदी, मैं पुस्तकालय में थी। कल कुछ नयी पुस्तकें आयी थीं, मुझे उन पुस्तकों को अलमारी में सुव्यवस्थित ढंग से रखने का आदेश मिला था । मैं उसी आदेश का पालन कर रही थी। यदि मैं समय पर उस कार्य को नहीं करती, तब भी मुझे डाँट ही पड़ती !..... मुझे तो पता ही नहीं था कि आप सब लोगों की बैठक है या चाय-नाश्ता चल रहा है। मैं तो सुबह से ही पुस्तकालय में व्यस्त थी !”

निशा के उत्तर में औचित्य था । उसके प्रति अपने सहकर्मियों के अभद्र व्यवहार से सुजाता का कोमल हृदय आहत हुआ था । अतः निशा की शोचनीय स्थिति का अनुभव करके सुजाता को उससे सहानुभूति होने लगी। धीरे—धीरे सुजाता की इस आर्द्र सहानुभूति से निशा में भी सुजाता के प्रति विश्वास और आत्मीयता बढ़ने लगी थी।

जनवरी का महीना था और सर्दी अपने चरम पर थी। सुजाता अपना व्याख्यान समाप्त करके महाविद्यालय के प्रांगण में खड़ी होकर धूप का आनंद ले रही थी । निशा भी वहाँ आकर खड़ी हो गयी। सुजाता ने अर्थ भरी दृष्टि से निशा की ओर देखकर पूछा — “निशा तुम्हारा पति क्या काम करता है ?” निशा ने कोई उत्तर नहीं दिया । वह निरीह भाव से चुपचाप सुजाता की ओर देखती रही। निशा को मौन देखकर सुजाता ने पुनः कहा — “अच्छा, ये बताओ, तुम्हारा कोई बच्चा भी है ? ” यह सुनकर निशा का अन्तःकमल खिल उठा। वह तत्परता से बोली — “ हाँ, दीदी ! मेरे दो बच्चे हैं। बड़ी बेटी है, छोटा बेटा है । बेटा अभी डेढ वर्ष का है।”

“ निशा, तुम अपने बच्चों के विषय में जितने उत्साह से बातें करती हो, पति के विषय में बातें करने में उतनी ही उदासीन रहती हो, ऐसा क्यों ?” सुजाता ने आग्रहपूर्वक पूछा। सुजाता का आग्रह सुनकर निशा का मनःपुष्प मुरझा गया। वह उदास होकर कठोर मुद्रा में बोली — “ दीदी, आज के बाद कभी भी मुझसे मेरे पति के विषय में मत पूछना ! वह हमारे साथ नहीं रहता है । जो व्यक्ति हमें प्रेम नहीं करता ; जो अपनी पत्नी और अपने बच्चों के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह नहीं करना चाहता है, मैं उसके विषय में बात भी नहीं करना चाहती हूँ।”

“ क्या तुम्हारा पति तुम्हारे साथ नहीं रहता है ?”

‘‘ नहीं !”

“ क्यों ? तुम अपने बच्चों के साथ अकेले ही रहती हो ?”

“ हाँ ! कहानी बहुत लम्बी है दीदी ! मेरी व्यथा—कथा सुनकर आप व्यर्थ में ही परेशान होंगी!”

“ नहीं, मैं सुनना चाहती हूँ !”

सुजाता के आग्रह पर निशा ने बताया — “दीदी, विवाह के छः—सात महीने तक तो वह मेरे साथ प्रेमपूर्वक रहा था । फिर दिन—प्रतिदिन रात में बारह बजे के बाद में नशे में धुत् होकर घर आने लगा और आते ही मुझ पर गालियों की बौछार कर देता । मैं यदि कुछ भी बोलती थी, तो वह मुझे मारता था। सुबह उठकर मैं कमरे के बाहर आती, तो सास-ननद-जेठानी पहले से ही मेरी प्रतीक्षा करती मिलती। उन सबको मेरे पति में कोई दोष नही दिखता था। वे सदैव मुझे ही दोषी ठहराती थी — “कैसी औरत है तू, अपने पति को वश में नहीं रख सकती ! कलिहारी होती हैं वे औरतें, जो मर्दों से पिटती हैं ! अरी, औरत में गुण होते हैं, तो अपने क्या, पराये मर्द भी उसके वश में हो जाते हैं ! जहाँ गुड़ होता है, मक्खियाँ वहाँ दौड़कर आती हैं ! हमें तो लगता है, तुझमें ही कुछ खोट है, तभी तो छः महीने की विवाहिता है और हर रात को पिटती है, गाली खाती है !”

रोज—रोज के क्लेश और मारपीट से तंग आकर मैं कुछ दिन के लिए अपने पिता के घर चली आयी। वहाँ रहते हुए मुझे पता चला कि हमारे विवाह से पहले से ही मेरे पति का अन्य स्त्री के साथ प्रेम—प्रसंग चल रहा था और अब भी यथावत् चल रहा है। इन सभी बातों से मेरा तनाव बढ गया । मेरा स्वास्थ्य भी बिगड़ने लगा था। मेरी माँ ने डॉक्टर से जाँच करायी तो पता चला, मैं माँ बनने वाली हूँ। यह सुनकर पिताजी की चिन्ता और अधिक बढ़ गयी। वे हर समय इसी प्रयास में रहने लगे कि कैसे भी मेरी ससुराल वालों से सुलह—समझौता हो जाए और मैं ससुराल वापिस चली जाऊँ। वे दिन में कई—कई बार मुझसे कहा करते थे —

“बेटी अब तू अकेली नहीं है, एक और नन्हीं—सी जान तेरी कोख में पल रही है। अब तेरा यहाँ रहना ठीक नहीं है ! बच्चे को कुछ हो गया, तो हम समाज में मुँह दिखाने लायक नहीं रहेंगे !” अपने सिर पर दूसरों की जिम्मेदारी का बोझ मानकर पिताजी ने मुझे अपने घर पाँच महीने रखा । उसके बाद मेरी ससुराल भेज दिया ! बेटी को प्रसव के समय अपने घर में रखने से शायद उन्हें अपनी सामाजिक मान-प्रतिष्ठा कम होने का भय था।

ससुराल में वापिस आने पर मेरे साथ पहले की तरह ही मार—पीट और दिन—रात क्लेश रहने लगा। वह मुझे निर्दयता से पशुओं की भाँति पीटता था। एक दिन तो उसने पशुता की भी सारी सीमाएँ तोड़ डाली । शराब के नशे में उसने मुझे गालियाँ देते हुए धरती पर गिरा दिया। वह मेरी कमर और पेट पर लात घूँसो से प्रहार करते हुए चीख रहा था — “ मैं इस बच्चे को जन्म नहीं लेने दूँगा ! मै इसे जन्म से पहले ही मार डालूँगा !” इतनी मार के बाद भी मैं और मेरा बच्चा बच गये — ‘जाको राखे साँईया मार सके न कोय ।’ उस घटना के कुछ समय पश्चात् ही मैने एक बेटी को जन्म दिया। माँ बनने के बाद मुझे एक अभूतपूर्व अनुभव हुआ। अब मैं किसी भी स्थिति में अपनी ससुराल में रहना चाहती थी, क्योंकि मैं अपनी बच्ची को उसके परिवार से अलग, उसके पिता से अलग नहीं करना चाहती थी। इसीलिए अपने पति के किसी अन्य स्त्री के साथ सम्बन्धों की जानकारी होते हुए भी मैं अपने दाम्पत्य-सम्बन्ध को ढोती रही ।

इसी प्रकार चार वर्ष बीत गये। इस दौरान मैं एक और बच्चे की माँ बन गयी। इस बार मैंने बेटे को जन्म दिया। बेटा होने से मुझे जितनी प्रसन्नता हुई थी, मेरे पति को उतना ही दुख हुआ । इसका कारण मैं उस समय नहीं समझ पायी थी । उसके चार महीने बाद ही.... वह हम सबको छोड़कर उस स्त्री को लेकर भाग गया। मैंने बहुत कठिनाई से उसका पता ज्ञात करके उससे मिलने का प्रयास किया, किन्तु तब तक उसने अपना निवास बदल दिया और मुझे अपने प्रयास में असफलता मिली। उस दिन मेरी ससुराल का वह घर, जो समाज ने मेरे जन्म से ही निश्चित कर दिया था, मुझे छोड़ना पड़ा। विवश होकर मैं अपने बच्चों को लेकर वहाँ से बहुत दूर, यहाँ आ गयी । अब मैं इस महाविद्यालय के निकट ही किराये पर एक कमरा लेकर रहती हूँ।” थोड़ी देर चुप रहने के बाद निशा ने पुनः बोलना आरम्भ किया— “दीदी, मैं उस व्यक्ति को दुनिया में सबसे अधिक पतित मानती हूँ, जिसने पंकिल प्रेम के लिए अपने छोटे—छोटे बच्चों को बेघर करके छोड़ दिया। मेरे पति कहलाने वाले उस व्यक्ति से आज मैं बहुत घृणा करती हूँ ! सब कहते हैं, बच्चों के भरण—पोषण का कानूनी दायित्व पिता का होता है, इसलिए मैं बच्चों के खर्चे के लिए कोर्ट में उसके खिलाफ केस डाल दूँ ! आप बताइये, जिस पिता की आत्मा ने उसको तब नहीं धिक्कारा, जब उसने अपने अबोध बच्चों को छोड़ा था, क्या कानून अब उस पत्थर दिल में संवेदना जगा सकता है ? ऐसे संवेदनाहीन व्यक्ति के साथ कोर्ट में खींच—खचेड़ करके पत्थर में सिर मारना है... ! मेरी मातृ—शक्ति ऐसा करने की अनुमति नहीं देती !

“ कोर्ट जाकर उस धोखेबाज को उसकी गलती का तो अनुभव कराना ही चाहिए !” सुजाता ने कहा।

—“ दीदी, मेरे पास उससे जरूरी कई कार्य हैं। मुझे मात्र पन्द्रह सौ रुपया मासिक वेतन मिलता है, .....उसमें बच्चों का पालन—पोषण भी करना होता है और मकान का किराया भी देना पड़ता है। आप ही बताइये, मैं कोर्ट—कचहरी के चक्कर में पड़ी तो वकील की फीस और किराये—भाड़े के लिये पैसा कहाँ से आयेगा ? मेरा समय जब कोर्ट के झंझटों में बीतेगा, तब मेरी यह नौकरी भी चली जायेगी ! उस स्थिति में मेरे बच्चों का क्या होगा ? उस धूर्त आदमी के पीछे मैं अपने बच्चों की बलि नहीं दे सकती ! मैं अब उस व्यक्ति को अपने जीवन और मन से निकाल चुकी हूँ और उसकी परछायी से भी दूर रहना चाहती हूँ। आप भी उसके विषय में कोई चर्चा न करें तो अच्छा होगा । ‘पति’ शब्द कानों में पड़ते ही मेरे पुराने दिनों की स्मृति ताजी हो जाती है और मुझे तनाव होने लगता है !” निशा ने घृणा और उदासीनता के स्वर में कहा।

“ निशा, तुम्हारे मायके वाले तो तुम्हें सहयोग देते होंगे ?” सुजाता ने सहानुभूति पूर्ण स्वर में पूछा।

“ नहीं दीदी !...... कौन करेगा वहाँ से सहयोग ! मेरे माता—पिता मेरी बड़ी बेटी के जन्म से एक वर्ष बाद ही स्वर्ग—सिधार गये थे। अब भैया—भाभी हैं, उनकी अपनी गृहस्थी हैं। किसको अवकाश है, जो मेरी सुध ले ! मैनें भी अब उन सब लोगों से सम्बन्ध बहुत सीमित कर लिया है। बिगड़ी बात में अपने भी पराये हो जाते हैं !......बुरे समय में सहायता माँगने से सहायता नहीं मिलती, अपमान भले ही मिल जाए ! इसलिए न तो मैं किसी से सहायता माँगती हूँ और न ही किसी की सहायता पर निर्भर रहना चाहती हूँ। मैं अपने बच्चों को अपनी मेहनत के बल पर बड़ा करुँगी और उन्हें पढ़ाउँगी भी ! मैं उन्हें अच्छी शिक्षा के साथ—साथ अच्छे संस्कार भी दूँगी, ताकि मेरे दोनों बच्चे किसी के अच्छे जीवन—साथी बनकर एक अच्छे समाज का निर्माण करें।”

उस दिन के बाद निशा तीन दिन तक महाविद्यालय नहीं आयी। सुजाता ने उसको फोन करके न आने का कारण पूछा तो उसने बताया कि उसे तीन दिन से पेट—दर्द के साथ तेज बुखार है। यदि कुछ राहत मिली तो वह कल अवश्य ही आयेगी। अगले दिन निशा कॉलेज आयी । उसका चेहरा मलिन तथा शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था। सुजाता के पूछने पर निशा ने बताया कि डॉक्टर ने टाइफाइड बताया है, सम्भवतः तीन—चार दिन में ठीक हो जायेगा। किन्तु एक सप्ताह बाद भी निशा के स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ, बल्कि दिनोंदिन बिगड़ता ही जा रहा था। अब वह कॉलेज से कई-कई दिन की छुट्टी करने लगी । जब कभी आती थी, तो सारा दिन चुपचाप-सी रहती । सुजाता ने उसकी कुशलक्षेम पूछी, तो उसने काँपती आवाज में कहा — “दीदी, दवाइयों से कुछ भी राहत नहीं है ! दवा लेने के बाद केवल तीन—चार घंटे तक ही आराम मिलता है । उसके बाद फिर तेज बुखार हो जाता है और पेट—दर्द तो कभी कम ही नहीं होता है। डॉक्टर तीसरे दिन बुलाता है और हर बार बदल कर दवाई दे देता है, पर मुझे किसी भी दवा से लाभ नहीं हुआ। अभी आधा महीना ही बीता है और दवाइयों में मेरा सारा वेतन समाप्त हो गया है। मुझे चिन्ता है, पूरा महीना बच्चों का गुजारा कहाँ से करुँगी !”

सुजाता ने निशा की इस दयनीय स्थिति की चर्चा प्राचार्य महोदय से की और उसका वेतन बढ़वाने हेतु निवेदन किया। प्राचार्य महोदय ने आश्वासन दिया कि उपयुक्त समय देखकर वे प्रबन्धक—समिति से इस विषय में बात करेंगे। एक सप्ताह बाद प्राचार्य महोदय ने अपने स्टाफ को प्रबन्ध-समिति के नकारात्मक उत्तर के विषय में बताया कि इस वर्ष तो निशा का वेतन बढ़ाना सम्भव नहीं है, इसके विषय में अगले वर्ष सोचा जा सकता है।

स्ववित्तपोषित महाविद्यालय होने के कारण वैसे तो वहाँ पर कार्यरत सभी कर्मचारियों का वेतन कम था, किन्तु निशा की अपेक्षा सबकी आर्थिक स्थिति बेहतर ही थी। यही सोचकर सुजाता ने उनके समक्ष निशा को कुछ सहायता राशि देने का प्रस्ताव रखा। यद्यपि इस प्रस्ताव पर कुछ सहकर्मियों ने तो यह कहते हुए असहमति प्रकट की, कि उनको भी अपनी आवश्यकता और योग्यता की अपेक्षा कम ही वेतन मिलता है और वे भी उसी में गुजारा करने के लिए विवश हैं।.....जब अपना ही काम कठिनाई से चल पाता है, तो निशा की सहायता कहाँ से करें ! तथापि उनमें से चार सहकर्मी निशा की स्थिति से द्रवित होकर उसकी सहायता करने के लिए तैयार हो गये। इन सहायकों में सुजाता, एक अन्य महिला प्रवक्ता गायत्री, पुस्तकालयाध्यक्ष अनीषा, तथा वरिष्ठ कार्यालयाध्यक्ष हबीब खाँ ने उसी समय निशा को दो—दो सौ रुपये दे दिये। तत्पश्चात् प्राचार्य महोदय ने हबीब खाँ को पाँच—सौ रुपये देकर निशा के लिए दाल- चावल आदि खाद्य सामग्री मँगवायी और निशा को उस महीने के खर्च की चिन्ता से मुक्त कर दिया।

अगले माह वेतन मिलने में बहुत विलम्ब हुआ। अब तक वेतन महीने के प्रथम कार्यदिवस को मिलता रहा था, किन्तु इस बार कुछ अप्रत्याशित कारणों से एक सप्ताह से भी अधिक समय बीत चुका था। सभी कर्मचारी बड़ी व्यग्रता से वेतन मिलने की प्रतीक्षा कर रहे थे, परन्तु न तो अब तक वेतन ही मिला था और न कोई निश्चित सूचना ही मिली थी कि वेतन कब मिलेगा ? वेतन मिलने में विलम्ब होने से निशा सबसे अधिक व्यथित थी, पर उसने अपनी व्यथा किसी से प्रकट नहीं की।

निशा की दयनीय स्थिति को समझते हुए सुजाता ने उससे इस विषय में पूछा, तो उसने बताया —“स्वास्थ्य में कोई संतोषजनक सुधार नहीं हो पाया है ! वेतन न मिलने के कारण मैं आटा भी उधार लेकर आयी थी कि जब वेतन मिलेगा तब उसका पैसा चुका दूँगी, पर ...।” सुजाता कुछ मिनट तक निशा से बातें करती रही तो अनीषा तथा हबीब खाँ भी वहाँ पहुँच गये और तीनों ने एक बार फिर दो—दो सौ रुपये निकाल कर निशा को दे दिये । किन्तु, निशा की दशा देखकर आभास होता था कि उसकी बीमारी बहुत अधिक बढ़ चुकी है और तत्काल उसको किसी अच्छे चिकित्सक के इलाज की आवश्यकता है, जिसके लिए बहुत अधिक पैसा चाहिये, जबकि उसको दी गयी सहायता राशि बहुत ही कम अर्थात ऊँट के मुँह में जीरे से अधिक नहीं थी।

दो दिन पश्चात् रात के आठ बजे सुजाता रसोईघर में व्यस्त थी, तभी उसका मोबाइल बजा। सुजाता ने मोबाइल रिसीव किया । दूसरी ओर से दर्द से निमज्जित अत्यन्त कृश स्वर सुनाई दिया — ‘‘ हैलो, दी...दी....मैं...निशा बोल रही हूँ।’’

“ हाँ, निशा ! ... कैसी हो ? अभी स्वास्थ्य ठीक नहीं है क्या ?” सुजाता ने बात को आगे बढाने के लिए कहा।

“ दीदी, मुझे आपको परेशान करना अच्छा तो नहीं लगता है, किन्तु मेरा अपना कोई ऐसा नहीं है, जिसे मैं अपना दर्द बता सकूँ या पूरे आशा-विश्वास के साथ अपनी कुछ बात कह सकूँ ! इसलिए बड़ी आशा लेकर आपको फोन किया है !” निशा ने अपनी पीड़ा को दबाने का प्रयास करते हुए भर्राये स्वर में कहा। “ हाँ—हाँ, कहो निशा ! क्या कहना चाहती हो तुम ? मैं अपनी सामर्थ्य-भर तुम्हारी सहायता करुँगी !” सुजाता का आश्वासन मिला तो निशा ने पुनः बोलना आरम्भ किया — “ दीदी, आप तो जानती हैं, मेरा स्वास्थ्य पिछले कई महीने से ठीक नहीं है । पिछले तीन दिन से मेरे पेट में और छाती में असहाय दर्द हो रहा है। मेरे शरीर का ताप भी बहुत अधिक बढ़ गया है। मुझे ऐसा लग रहा है कि मृत्यु मेरे अत्यधिक निकट आ गयी है.....और आज रात ही वह अपने क्रूर कठोर पंजे में मुझे जकड़कर मेरे बच्चों को अनाथ कर देगी....! थोड़ी देर चुप रहकर निशा ने पुनः कहा — दीदी ! .....मेरी आपसे प्रार्थना है कि यदि नियति ने मेरे बच्चों के साथ ऐसा क्रूर खेल खेला, तो आप उन्हें उनके मामा के घर भिजवा देना ! मेरी अलमारी में एक काली जिल्द की डायरी रखी है, उसमें उनका पता मिल जायेगा । शेष सब कुछ मैंने मेरी बेटी को समझा दिया है। दी.....दी, आप मुझ पर यह कृपा कर दीजिए ! आपकी हाँ से मेरे प्राण आसानी से निकल सकेंगे ! निशा ने हाँफते हुए कहा।

निशा ते आग्रह से उसकी मनःस्थिति का अनुमान करते हुए सुजाता कुछ क्षण के लिए शान्त रही । फिर निशा को सांत्वना देते हुए बोली — ‘‘नही निशा ! इतनी हारी हुई बात नहीं कहते हैं ! यह नकारात्मक विचार छोड़कर विषम परिस्थितियों से संघर्ष करके जीतने की हिम्मत रखो ! देखो, मेरा घर बहुत दूर है । मेरे बच्चे भी छोटे हैं, इसलिए अब रात में मैं तो तुम्हारी सहायता करने के लिए नहीं आ सकूँगी ! सुबह कॉलिज टाइम से पहले आकर मैं तुमसे तम्हारे घर मिलूँगी, तब मिलकर बातें करेंगे ! समस्या का कुछ न कुछ समाधान निकल ही आयेगा ! ... इस समय तुम अपने पास-पड़ोस से किसी को बुला लो, जो रात में तुम्हारी देखभाल कर सके और आराम से सो जाओ !” यह कहकर सुजाता ने फोन का संपर्क काट दिया।

फोन का संपर्क काटकर सुजाता अजीब सी व्यग्रता अनुभव करने लगी थी। वह निशा से कही हुई बातों का विश्लेषण करके सोचने लगी — “ कितनी खोखली तथा औपचारिक बातें थीं मेरी ! उसको लगता है, मैं बनावटी बातें नहीं करती हूँ !.....ये सभी बातें जो मेंने अभी मृत्यु को निकट अनुभव करती हुई निशा से कही थी, कोरा उपदेश नहीं थीं क्या ? तेज बुखार से तपता शरीर, पेट और छाती में असह्य दर्द, और इससे भी अधिक मर्मान्तक पीड़ा — अपनी अनुपस्थिति में अपने बच्चों की चिन्ता.....कौन छोटे—छोटे बच्चों की छोटी—छोटी गलतियों को अनदेखा करके उनका भरण—पोषण कौन करेगा ?.....यदि समाज की निन्दा से बचने के लिए-दया भाव दिखाते हए किसी सम्बन्धी ने उन्हें रख भी लिया, तो क्या वहाँ रहते हुए उन बच्चों के जीवन में अपना घर, अपनी माँ, अपने लोग, अपना ये.... अपना वो.... का अभाव कभी भावों के अहसास में परिणत हो सकेगा ?.... फिर भी बड़ी सहजता से मैंने निशा को कह दिया कि नकारात्मक सोच छोड़ दो ! क्या यह सम्भव है ? निशा को मैंने कह दिया कि आराम से सो जाओ ! क्या निशा की-सी स्थिति में किसी को नींद आ सकती है ?

निशा के विषय में सोच—सोचकर सुजाता की व्यथा बढती ही जा रही थी। वह निशा की सहायता करना चाहती थी, परन्तु अकेले अपने बल पर वह कुछ नहीं कर सकती थी। अतः उसने अपने पति रवि से निशा की स्थिति का वर्णन किया। सुजाता के पति ने भी सुबह होने पर उसकी सहायता करने का आश्वासन देते हुए उसको सोने का परामर्श दिया और स्वंय भी सो गए।

सुजाता की आँखों से नींद कोसों दूर थी। वह रात भर करवटें बदलती रही और निशा के बारे में ही सोचती रही। प्रातः वह शीघ्रातिशीघ्र उठकर नियत समय से पूर्व किंकर्तव्यविमूढ़-सी तैयार हो गयी। वह घर से महाविद्यालय के लिए प्रस्थान करने ही वाली थी, तभी उसके पति रवि के साथ तीन लड़कों ने घर में प्रवेश किया। उनमे सें एक संजय राय किसी कम्पनी में कार्यरत थे, विजय यादव एम॰एस॰सी॰ इलैक्ट्रोनिक्स तथा अनुज जैन सी॰ए॰ में अध्ययनरत थे। उन तीनों ने आते ही निशा की स्थिति के विषय में विस्तार से जानने की इच्छा प्रकट की । सुजाता ने निशा से सम्बन्धित अब तक की सारी घटना उन्हें सुना दी। सारी स्थिति को विस्तार से सुनकर—समझकर संजय राय जी ने पूछा —

“भाभीजी, क्या निशा कुछ पढ़ी—लिखी भी है ? यदि वह कुछ शिक्षित हो तो एक प्राइवेट स्कूल में मेरा अच्छा परिचय है, वहाँ उसको योग्यता अनुसार कुछ काम भी मिल सकता है और संभवतः वेतन भी उचित ही मिलेगा।”

“हाँ भैया, शिक्षित है । वह बता रही थी, दस वर्ष पहले उसने प्रथम श्रेणी में बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण की थी।” सुजाता ने यह कहते हुए उनके सहायता प्रस्ताव का अनुमोदन किया । तभी विजय ने अपना विचार प्रस्तुत करते हुए कहा — “ मैं समझता हूँ, हमें पहले उसकी चिकित्सा के विषय में सोचना चाहिए। नौकरी की व्यवस्था उसके स्वस्थ होने के पश्चात् करेंगे तो बेहतर होगा।” विजय यादव की इस बात का सभी ने एकमत से समर्थन किया और निशा की चिकित्सा कराने के लिए कार्यक्रम बनाने लगे।

कार्यक्रम यह निश्चित हुआ कि संजय राय जी के एक मित्र चिकित्सक हैं, उन्हीं के चिकित्सालय में निशा का परीक्षण और इलाज कराया जाए। विजय और अनुज को सुजाता के साथ जाकर निशा को उसके घर से अस्पताल पहुँचाने का दायित्व सौंपा गया। अस्पताल में परीक्षण कराकर दवाइयाँ दिलवाने का दायित्व रवि तथा संजय राय को मिला, जो वहाँ पर पहले से ही निशा की प्रतीक्षा कर रहे होंगे। तत्पश्चात् अनुज जैन तथा विजय यादव को निशा को सुरक्षित वापिस उसके घर पहुँचाना था।

योजनानुसार विजय और अनुज सुजाता के साथ जाकर निशा को उसके घर से अस्पताल ला रहे थे। निशा की गाड़ी के पीछे—पीछे विजय यादव मोटरसाइकिल से चल रहा था। सड़क टूटी होने के कारण गति भी अधिक नहीं थी, परन्तु दुर्भाग्यवश विजय की बाइक का पहिया फिसल गया और विजय को सिर पर गम्भीर चोट आ गयी। इस दुर्घटना में वह अपनी स्मरण शक्ति खो बैठा।....अभी निशा अस्पताल तक पहुँची भी नहीं थी और उसके सहायकों पर विपत्ति आनी आरम्भ हो गयी थी । यह देखकर उसकी आँखें छलक आयीं — “ दीदी ! मेरी सहायता करने वालों को भी मेरा दुर्भाग्य अपनी चपेट में ले लेता है ! यही सब सोचकर मेरा जीने को मन नहीं होता, परन्तु मेरे बच्चों के लिये मुझे जीना पड़ रहा है !’’

सुजाता ने उसे सांत्वना देते हुए समझाया — “ यह मात्र एक सड़क दुर्घटना है, और कुछ नहीं !.... यह दुर्योग ही है कि दुर्घटना तब घटी, जब तुम्हें चिकित्सालय ले जा रहे थे और इसका शिकार तुम्हारी सहायता करने वाला था। वरना सड़क दुघर्टनाएँ तो अक्सर होती ही रहती हैं ।”

थोड़ी देर बाद निशा तथा विजय को हॉस्पिटल ले जाकर डॉक्टर से उनका परीक्षण कराया गया। डॉक्टर ने दोनों में से किसी को भी भर्ती करने की आवश्यकता नहीं समझी, रोगानुसार उचित दवाइयाँ और परामर्श देकर घर भेज दिया।

अगले दिन सुजाता ने कॉलिज में पिछले दिन की घटना का जिक्र किया, तो हबीब खाँ ने रहस्योद्घाटन की मुद्रा में कहा — “ मैड़म आपको याद है, एक हफ्ता पहले मेरे सिर और छाती में चोट लगी थी ? आपको शायद पता नहीं है, उस दिन निशा की बेटी कहीं खो गयी थी। निशा ने मेरे पास फौन किया, तो मैं उसकी बेटी को तलाश करवाने के लिए घर से चल दिया। ....मैं अपनी बाइक से आ ही रहा था, तभी रास्ते में मेरा सीरियस एक्सीडेंट हो गया।.....मैड़म ! मुझे लगता है, निशा पर किसी जिन्न का चक्कर है ! जो भी इसकी सहायता करेगा, उसको अपने ऊपर भुगतना पड़ेगा !.... मेरी राय से हमारे लिये बेहतर यही होगा कि हम इससे दूरी बनाकर रखें ! हबीब खाँ की बातों ने सभी सहकर्मियों के दिलोदिमाग पर इतना शक्तिशाली प्रभाव डाला कि उस समय उनके चेहरे पर भय स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था। सुजाता ने उन्हें समझाने का भरसक प्रयास किया, किन्तु वह असफल ही रही। अब वे निशा के बारे में कुछ बात नहीं करना चाहते थे। उन्होंने एक वाक्य में अपने दायित्व की इतिश्री करते हुए कहा — “ हम कहाँ तक और कब तक इसकी सहायता कर सकते हैं ? कहीं कोई इसका नाते-रिश्तेदार होगा, दूर का ही सही, इस स्थिति में इसको उनसे सम्पर्क करना चाहिये !”

दूसरी ओर विजय और निशा के स्वास्थ्य में तेजी से सुधार हो रहा था। स्वास्थ्य में थोड़ा सा लाभ मिलते ही निशा ने पुनः महाविद्यालय आना आरंभ कर दिया। उसका वेतन तो नहीं बढ़ सका, परन्तु जीवकोपार्जन के लिये उसने अपने आस-पास के छोटे-छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया और प्रसन्नचित्त होकर अपने बच्चों का दायित्व-निर्वहण करने लगी। उसको प्रसन्नचित् मुद्रा में कार्य करते हुए देखकर स्टाफ के मनोमस्तिक में प्रविष्ट भय का भूत भाग गया और समस्त स्टाफ ने यह संकल्प लिया कि अब वे सदैव अंधविश्वासों से मुक्त रहेंगे और भविष्य में कभी भी किसी को आवश्यकता पड़ेगी, तो उसकी सहायता करने से पीछे नहीं हटेंगे ।

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