गुण्डा Jayshankar Prasad द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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गुण्डा

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जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ

जयशंकर प्रसाद


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गुण्डा

वह पचास वर्ष से ऊपर था। तब भी युवकों से अधिक बलिष्ठऔर दृढ़ था। चमड़े पर झुर्रियाँ नहीं पड़ी थीं। वर्षा की झड़ी में, पूसकी रातों की छाया में, कड़कती हुई जेठ की धूप में, नंगे शरीर घूमनेमें वह सुख मानता था। उसकी चढ़ी मूँछें बिच्छू के डंक की तरह,देखनेवालों की आँखों में चुभती थीं। उसका साँवला रंग, साँप की तरह चिकना और चमकीला था। उसकी नागपुरी धोती का लाल रेशमी किनारादूर से ही ध्यान आकर्षित करता। कमर में बनारसी सेल्हे का फेंटा, जिसमेंसीप की मूठ का बिछुआ खुँसा रहता था। उसके घुँघराले बालों पर सुनहलेपल्ले के साफे का छोर उसकी चौड़ी पीठ पर फैला रहता। ऊँचे कन्धेपर टिका हुआ चौड़ी धार का गँडासा, यह थी उसकी धज! पंजों केबल जब वह चलता, तो नसें चटाचट बोलती थीं। वह गुण्डा था।

ईसा का अठारहवीं शताब्दी के अंतिम भाग में वही काशी नहीं रह गयी थी, जिसमें उपनिषद्‌ के अजातशत्रु की परिषद्‌ में ब्रह्मविद्या सीखनेके लिए विद्वान्‌ ब्रह्मचारी आते थे। गौतम बुद्ध और शंकराचार्य के धर्मदर्शन के वाद-विवाद, कई शताब्दियों से लगातार मन्दिरों और मठों केध्वंस और तपस्वियों के वध के कारण प्रायः बन्द-से हो गये थे, यहाँतक कि पवित्रता और छूआछूत में कट्टर वैष्णव धर्म भी उस विश्रृंखलतामें, नवागन्तुक धर्मोन्माद में अपनी असफलता देखकर काशी में अघोर रूपधारण कर रहा था। उसी समय समस्त न्याय और बुद्धिवाद को शस्त्र-बल के सामने झुकते देखकर काशी के विच्छिन्न और निराश नागरिकजीवन ने एक नवीन सम्प्रदाय की सृष्टि की। वीरता जिसका धर्म था।

अपनी बात पर मिटना, सिंह-वृि्रूद्गा से जीविका ग्रहण करना, प्राण-भिक्षा माँगनेवाले कायरों तथा चोट खाकर गिरे हुए प्रतिद्वन्द्वी पर शस्त्र न उठाना,सताये निर्बलों को सहायता देना और प्रत्येक क्षण प्राणों को हथेली परलिए घूमना, उसका बाना था। उन्हें लोग काशी में गुण्डा कहते थे।

उलाँकी पर बैठकर जाओ, दुलारी को बुला लाओ।’ मलूकी वहाँ मजीराबजा रहा था। दौड़कर इक्के पर जा बैठा। आज नन्हकूसिंह का मन उखड़ाथा। बूटी कई बार छानने पर भी नशा नहीं। एक घंटे में दुलारी सामनेआ गयी। उसने मुस्कराकर कहा - ‘क्या हुक्म है बाबू साहब?’

‘दुलारी! आज गाना सुनने का मन कर रहा है।’

‘इस जंगल में क्यों? उसने सशंक हँसकर कुछ अभिप्राय से पूछा।‘तुम किसी तरह का खटका न करो।’ नन्हकूसिंह ने हँसकर कहा।‘यह तो मैं उस दिन महारानी से भी कह आयी हूँ।’

‘क्या, किससे?’

‘राजमाता पन्नादेवी से’ - फिर उस दिन गाना नहीं जमा। दुलारीने आश्चर्य से देखा कि तानों में नन्हकू की आँखें तर हो जाती हैं। गाना-बजाना समाह्रश्वत हो गया था। वर्षा की रात में झिल्लियों का स्वर उसझुरमुट में गूँज रहा था। मन्दिर के समीप ही छोटे-से कमरे में नन्हकूसिंहचिन्ता-निमग्न बैठा था। आँखों में नींद नहीं। और सब लोग तो सेने लगेथे, दुलारी जाग रही थी। वह भी कुछ सोच रही थी। आज उसे, अपनेको रोकने के लिए कठिन प्रयत्न करना पड़ रहा था; किन्तु असफल होकर वह उठी और नन्हकू के समीप धीरे-धीरे चली आयी। कुछ आहट पातेही चौंककर नन्हकूसिंह ने पास ही पड़ी हुई तलवार उठा ली। तब तकहँसकर दुलारी ने कहा - ‘बाबू साहब, यह क्या? स्त्रियों पर भी तलवारचलाई जाती है!’

छोटे-से दीपक के प्रकाश में वासना-भरी रमणी का मुख देखकरनन्हकू हँस पड़ा। उसने कहा - ‘क्यों बाईजी! क्या इसी समय जाने कीपड़ी है। मौलवी ने फिर बुलाया है क्या?’ दुलारी नन्हकू के पास बैठगयी। नन्हकू ने कहा - ‘क्या तुमको डर लग रहा है?’

‘नहीं, मैं कुछ पूछने आयी हूँ।’

‘क्या?’

‘क्या... यही कि... कभी तुम्हारे हृदय में...’

‘उसे न पूछो दुलारी! हृदय को बेकार ही समझकर तो उसे हाथमें लिये फिर रहा हूँ। कोई कुछ कर देता - कुचलता - चीरता -उछालता! मर जाने के लिए सब कुछ तो करता हूँ, पर मरने नहीं पाता।’‘मरने के लिए भी कहीं खोजने जाना पड़ता है। आपको काशीका हाल क्या मालूम! न जाने घड़ी भर में क्या हो जाए। क्या उलटपलट होनेवाला है, बनारस की गलियाँ जैसे काटने दौड़ती हैं।’

‘कोई नयी बात इधर हुई है क्या?’

‘कोई हेस्टिंग्ज आया है। सुना है उसने शिवालय-घाट पर तिलंगोंकी कम्पनी का पहरा बैठा दिया है। राजा चेतसिंह और राजमाता पन्नावहीं हैं। कोई-कोई कहता है कि उनको पकड़कर कलक्रूद्गाा भेजने...’

‘क्या पन्ना भी... रनिवास भी वहीं है’ नन्हकू अधीर हो उठा था।‘क्यों बाबू साहब, आज रानी पन्ना का नाम सुनकर आपकी आँखोंमें आँसू क्यों आ गये?’

सहसा नन्हकू का मुख भयानक हो उठा। उसने कहा - ‘चुप रहो,तुम उसको जानकर क्या करोगी?’ वह उठ खड़ा हुआ। उद्विग्न की तरहन जाने क्या खोजने लगा। फिर स्थिर होकर उसने कहा - ‘दुलारी! जीवनमें आज यह पहला ही दिन है कि एकान्त रात में एक स्त्री मेरे पलँगपर आकर बैठ गयी है, मैं चिरकुमार! अपनी एक प्रतिज्ञा का निर्वाहकरने के लिए सैंकड़ों असत्य, अपराध करता फिर रहा हूँ। क्यों? तुमजानती हो? मैं स्त्रियों का घोर विद्रोही हूँ और पन्ना...! किन्तु उसका क्याअपराध? अत्याचारी बलवन्तसिंह के कलेजे में बिछुआ मैं न उतार सका।

जब तक राजा भी नाव पर बैठ न जाएँगे, तब तक सत्रह गोली खाकर भी नन्हकूसिंह जीवित रहने की प्रतिज्ञा करता है।’

पन्ना ने नन्हकू को देखा। एक क्षण के लिए चारों आँखें मिलीं,जिनमें जन्म-जन्म का विश्वास ज्योति की तरह जल रहा था। फाटकबलपूर्वक खोला जा रहा था। नन्हकू ने उन्म्रूद्गा होकर कहा - ‘मालिक!जल्दी कीजिए।’

दूसरे क्षण पन्ना डोंगी पर थी और नन्हकूसिंह फाटक पर इस्टाकरके साथ। चेतराम ने आकर एक चिट्टी मनियारसिंह को हाथ में दी।लेफ्टिनेण्ट ने कहा - ‘आपके आदमी गड़बड़ मचा रहे हैं। अब मैं अपनेसिपाहियों को गोली चलाने से नहीं रोक सकता।’

‘मेरे सिपाही यहाँ हैं, साहब?’ मनियारसिंह ने हँसकर कहा। बाहरकोलाहल बढने लगा।

चेतराम ने कहा - ‘पहले चेतसिंह को कैद कीजिए।’

‘कौन ऐसी हिम्मत करता है?’ कड़ककर कहते हुए बाबूमनियारसिंह ने तलवार खींच ली। अभी बात पूरी न हो सकी थी किकुबरा मौलवी वहाँ पहुँचा। यहाँ मौलवी साहब की कलम नहीं चल सकतीथी, और न ये बाहर ही जा सकते थे। उन्होंने कहा - ‘देखते क्या होचेतराम!’

चेतराम ने राजा के ऊपर हाथ रखा ही था कि नन्हकू के सधेहुए हाथ ने उसकी भुजा उड़ा दी। इस्टाकर आगे बढ़े, मौलवी साहबचिल्लाने लगे। नन्हकूसिंह ने देखते-देखते इस्टाकर और उसके कई साथियोंको धराशायी किया। फिर मौलवी साहब कैसे बचते!

नन्हकूसिंह ने कहा - ‘क्यों, उस दिन के झापड़ ने तुमको समझा या नहीं? पाजी!’ कहकर ऐसा साफ जनेवा मारा कि कुबरा ढेर हो गया।

कुछ ही क्षणों में वह भीषण घटना हो गयी, जिसके लिए अभी कोई प्रस्तुतन था।

नन्हकूसिंह ने ललकारकर चेतसिंह से कहा - ‘आप क्या देखते हैं?उतरिए डोंगी पर!’ उसके घावों से रक्त के फुहारे छूट रहे थे। उधरफाटक से तिलंगे भीतर आने लगे थे। चेतसिंह ने खिड़की से उतरते हुएदेखा कि बीसों तिलंगों की संगीनों में वह अविचलित होकर तलवार चलारहा है। नन्हकू के चट्टासदृश शरीर से गैरिक की तरह रक्त की धारावह रही है। गुण्डे का एक-एक अंग कटकर वहीं गिरने लगा। वह काशीका गुण्डा था!