नूरी Jayshankar Prasad द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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नूरी

नूरी

जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ

जयशंकर प्रसाद


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नूरी

‘ऐ; तुम कौन?’

‘................’

‘बोलते नहीं?’

‘................’

‘तो मैं बुलाऊँ किसी को -’ कहते हुए उसने छोटा-सा मुँह कोलाही था कि युवक ने एक हाथ उसके मुँह पर रखकर उसे दूसरे हाथ सेदबा लिया। वह विवश होकर चुप हो गयी। और भी, आज पहला ही अवसर था, जब उसने केसर, कस्तूरी और अम्बर से बसा हुआ यौवनपूर्णउद्वेलित आलिंगन पाया था। उधर किरणें भी पवन के एक जोंके केसाथकिसलयों को हटाकर घुस पड़ीं। दूसरे ही क्षण उस कुंज के भीतरछनकर आती हुई चाँदनी में जौहर से भरी कटार चमचमा उठी। भयभीतमृग-शावक-सी काली आँखें अपनी निरीहता में दया की, प्राणों की भीखमाँग रही थीं। युवक का हाथ रुक गया। उसने मुँह पर ऊँगली रखकरचुप रहने का संकेत किया। नूरी काश्मीर की कली थी। सिकरी के महलोंमें उसके कोमल चरणों की नृत्य-कला प्रसिद्ध थी। उस कलिका काआमोद-मकरन्द अपनी सीमा में मचल रहा था। उसने समझा, कोई मेरासाहसी प्रेमी है, जो महाबली अकबर की आँख-मिचौली-क्रीड़ा के समयपतंगे-सा प्राण देने आ गया है। नूरी ने इस कल्पना के सुख में अपनेको धन्य समझा और चुप रहने का संकेत पाकर युवक के मधुर अधरोंपर अपने अधर रख दिये। युवक भी आत्म-विस्मृत-सा उस सुख में पल-भर के लिए तल्लीन हो गया। नूरी ने धीरे से कहा - ‘यहाँ से जल्दचले जाओ। कल बाँध पर पहले पहर की नौबत बजने के समय मौलसिरीके नीचे मिलूँगी।’

युवक धीरे-धीरे वहाँ से खिसक गया। नूरी शिथिल चरण सेलड़खड़ाती हुई दूसरे कुंज की ओर चली; जैसे कई ह्रश्वयाले अंगूरी चढ़ाली हो! उसकी जैसी कितनी ही सुन्दरियाँ अकबर को खोज रही थीं।

आकाश का सम्पूर्ण चन्द्र इस खेल को देखकर हँस रहा था। नूरी अबकिसी कुंज में घुसने का साहस नहीं रखती थी। नरगिस दूसरे कुंज सेनिकलकर आ रही थी। उसने नूरी से पूछा -‘क्यों, उधर देख आयी?’

‘नहीं, मुझे तो नहीं मिले।’

‘तो फिर चल, इधर कामिनी के झाड़ों में देखूँ।’

‘तू ही जा, मैं थक गयी हूँ।’

नरगिस चली गयी। मालती की झुकी हुई डाल की अँधेरी छायामें धड़कते हुए हृदय को हाथों में दबाये नूरी खड़ी थी! पीछे से किसीने उसकी आँखों को बन्द कर लिया। नूरी की धड़कन और बढ़ गयी।

उसने साहस से पूछा -

‘मैं पहचान गयी!’

‘..............’

‘जहाँपनाह’ उसके मुँह से निकला ही था कि अकबर ने उसका मुँहबन्दकर लिया और धीरे से उसके कानों में कहा -‘मरियम को बता देना, सुलताना को नहीं; समझी न! मैं उस कुंजमें जाता हूँ।’

अकबर के जाने के बाद ही सुलताना वहाँ आयी। नूरी उसी कीछत्रछाया में रहती थी; पर अकबर की आज्ञा! उसने दूसरी ओर सुलतानाको बहका दिया। मरियम धीरे-धीरे वहाँ आयी। वह ईसाई बेगम उसआमोद-प्रमोद से परिचित न थी। तो भी यह मनोरंजन उसे अच्छा लगा।

नूरी ने अकबरवाला कुंज उसे बता दिया।

घण्टों के बाद जब सब सुन्दरियाँ थक गयीं थीं, तब मरियम काहाथ पकड़े अकबर बाहर आये। उस समय नौबतखाने से मीठी-मीठीसोहनी बज रही थी। अकबर ने एक बार नूरी को अच्छी तरह देखा।

उसके कपोलों को थपथपाकर उसको पुरस्कार दिया। आँख-मिचौनी होगयी!

सिकरी की झील जैसे लहरा रही है, वैसा ही आन्दोलन नूरी केहृदय में हो रहा है। वसन्त की चाँदनी में भ्रम हुआ कि उसका प्रेमी युवकआया है। उसने चौंककर देखा; किन्तु कोई नहीं ता। मौलसिरी के नीचेबैठे हुए उसे एक घड़ी से अधिक हो गया। जीवन में आज पहले हीअभिसार का वह साहस कर सकी है। भय से उसका मन काँप रहा है;पर लौट जाने को मन नहीं चाहता। उत्कण्ठा और प्रतीक्षा कितनी पागलसहेलियाँ हैं! दोनों उसे उछालने लगीं।

किसी ने पीछे से आकर कहा - ‘मैं आ गया।’

नूरी ने घूमकर देखा, लम्बा-सा, गौर वर्ण का युवक उसकी बगलमें खड़ा है। वह चाँदनी रात में उसे पहचान गयी। उसने कहा

-‘शाहजादा याकूब खाँ!’

‘हाँ, मैं ही हूँ! कहो, तुमने क्यों बुलाया है?’

नूरी सन्नाटे में आ गयी। इस प्रश्न में प्रेम की गन्ध भी नहीं थी।

नूरी सिसककर रोने लगी। याकूब का कन्धा उसके आँसुओं कीधारा से भीगने लगा। अपनी कठोर बावनाओं से उन्म्रूद्गा और विद्रोही युवकशाहजादा ने बलपूर्वक अभी अपने को रमणी के बाहुपाश से छुड़ाया हीथा कि चार तातारी दासियों ने अमराई के अँधकार से निकलकर दोनोंको पकड़ लिया।

अकबर की बिसात अभी बिछी थी। पासे अकबर के हाथ में थे।

दोनों अपराधी सामने लाये गये। अकबर ने आश्चर्य से पूछा - ‘याकूबखाँ?’

याकूब के नतमस्तक की रेखाएँ ऐंठी जा रही थीं। वह चुप था।फिर नूरी की ओर देखकर शहंशाह ने कहा - ‘तो इसीलिए तू काश्मीरजाने की छुट्टी माँग रही थी?’

वह भी चुप।

‘याकूब! तुम्हारा यह लड़कपन युसूफ खाँ भी न सहते; लेकिन मैंतुम्हें छोड़ देता हूँ। जाने की तैयारी करो। मैं काबुल से लौटकर काश्मीरआऊँगा।’

संकेत पाते ही तातारियाँ याकूब को ले चलीं। नूरी खड़ी रही।अकबर ने उसकी ओर देखकर कहा - ‘इसे बुर्ज में ले जाओ।’नूरी बुर्ज के तहखाने में बन्दिनी हुई।

अट्ठारह बरस बाद!

जब अकबर की नवर्तन-सभा उजड़ चुकी थी, उसके प्रताप कीज्योत आनेवाले अन्तिम दिन की उदास और धुँधली छाया में विलीन होरही थी, हिन्दू और मुस्लिम एकताका उत्साह शीतल हो रहा था, तबअकबर को अपने पुत्र सलीम से भी भय उत्पन्न हुआ। सलीम ने अपनीस्वतन्त्रता की घोषणा की थी, इसीलिए पिता-पुत्र में मेल होने पर भीआगरा में रहने के लिए सलीम को जगह नहीं थी। उसने दुखी होकरअपनी जन्मभूमि में रहने की आज्ञा माँगी।

सलीम फतहपुर-सिकरी आया। मुगल साम्राज्य का वह अलौकिकइन्द्रजाल! अकबर की यौवन-निशा का सुनहरा स्वह्रश्वन - सीकरी का महल- पथरीली चट्टानों पर बिखरा पड़ा था। इतना आकस्मिक उत्थान औरपतन! जहाँ एक विश्वजनीन धर्म की उत्पि्रूद्गा की सूचना हुई, जहाँ उसधर्मान्धता के युग में एक छत के नीचे ईसाई, पारसी, जैन, इस्लाम औरहिन्दू आदि धर्मों पर वाद-विवाद हो रहा था, जहाँ सन्त सलीम की समाधिथी, जहाँ शाह सलीम का जन्म हुआ था, वहीं अपनी अपूर्णता औरखँड़हरों से अस्त-व्यस्त सीकरी का महल अकबर के जीवनकाल में ही,निर्वासिता सुन्दरी की तरह दया का पात्र, श्रृंगारविहीन और उजाड़ पड़ाथा। अभी तक अकबर के शून्य शयन-मन्दिर में विक्रमादित्य के नवरत्नोंका छाया-पूर्ण अभिनय चल रहा था। अभी तक सराय में कोई यात्री सन्तकी समाधि का दर्शन करने को आता ही रहता! अभी तक बुर्जों केतहखानों में कैदियों का अभाव न था!

सीकरी की दशा देखकर सलीम का हृदय व्यथित हो उठा। अपूर्वशिल्प बिलख रहे थे। गिरे हुए कँगूरे चरणों में लौट रहे थे। अपनी माता के महल में जाकर भरपेट रोया। वहाँ जो इने-गिने दास और दासियाँऔर उनके दारोगे बच रहे थे, भिखमंगों की-सी दशा में फटे चीथड़ोंमें उसके सामने आये। सब समाधि के लंगर-खाने से भोजन पाते थे।

सलीम ने समाधि का दर्शन करके पहली आज्ञा दी कि तहखानों में जितने बन्दी हैं, सब छोड़ दिये जाएँ। सलीम को मालूम था कि यहाँ कोई राजनैतिक बन्दी नहीं है। दुर्गन्ध से सने हुए कितने ही नर-कंकाल सन्तसलीम की समाधि पर आकर प्रसन्नता से हिचकी लेने लगे और युवराज सलीम के चरणों को चूमने लगे।

उन्हीं में एक नूरी भी थी। उसका यौवन कारागार की कठिनाइयों से कुचल गया था। सौन्दर्य अपने दो-चार रेखा-चिह्न छोड़कर समय केसाथ पंखों पर बैठकर उड़ गया था।

आज न जाने क्यों, इस संगीत ने उसकी सोई हुई मनोवृि्रूद्गा कोजगा दिया। वही मलसिरी का वृक्ष था। संगीत का वह अर्थ चाहे किसीअज्ञात लोक की परम सीमा तक पहुँचता हो; किन्तु आज तो नूरी अपनेसंकेतस्थल की वही घटना स्मरण कर रही थी, जिसमें एक सुन्दर ुयवकसे अपने हृदय की बातों को खोल देने का रहस्य था।

वह काश्मीर का शाहजादा आज कहाँ होगा? नूरी ने चंचल होकर वहीं थालों को रखवा दिया और स्वयं धीरे-धीरे अपने उ्रूद्गोजित हृदय कोदबाये हुए सन्त की समाधि की ओर चल पड़ी।

‘मिले तो कह देना कि एक अभागे ने तुम्हारे ह्रश्वयार को ठुकरा दिया था। वह काश्मीर का शाहजादा था, पर अब तो भिखमंगे से भी...’ कहतेकहते उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।

नूरी ने उसके आँसू पोंछकर पूछा - ‘क्या अब भी उससे मिलनेको मन करता है?’

वह सिसककर कहने लगा - ‘मेरा नाम याकूब खाँ है। मैंने अकबरके सामने तलवार उठाई और लड़ा भी। जो कुछ मुझसे हो सकता था,वह काश्मीर के लिए मैंने किया। इसके बाद बिहार के भयानक तहखानेमें बेड़ियों से जकड़ा हुआ कितने दिनों तक पड़ा रहा। सुना है कि सुलतानसलीम ने वहाँ के अभागों को फिर से धूप देखने के लिए छोड़ दियाहै। मैं वहीं से ठोकरें खाता हुआ चला आ रहा हूँ। हथकड़ियों से छूटनेपर किसी अपने ह्रश्वयार करनेवाले को देखना चाहता था। इसी से सीकरीचला आया। देखता हूँ कि मुझे वह भी न मिलेगा।’

याकूब अपनी उखड़ी हुई साँसों को सँभालने लगा था और नूरीके मन में विगत काल की घटना, अपने प्रेम-समर्पण का उत्साह, फिरउस मनस्वी युवक की अवहेलना सजीव हो उठी।

आज जीवन का क्या रूप होता? आशा से भरी संसार-यात्रा किस सुन्दर विश्रामभवन में पहुँचाती? अब तक संसार के कितने सुन्दर रहस्यफूलों की तरह अपनी पंखुड़ियाँ खोल चुके होते? अब प्रेम करने का दिनतो नहीं रहा। हृदय में इतना ह्रश्वयार कहाँ रहा, जो दूँगी, जिससे यह ठूँठहरा हो जाएगा। नहीं। नूरी ने मोह का जाल छिन्न कर दिया है। वहअब उसमें न पड़ेगी। तो भी इस दयनीय मनुष्य की सेवा; किन्तु यहक्या? याकूब हिचकियाँ ले रहा था। उसकी पुकार का सन्तोषजनक उ्रूद्गारनहीं मिला। निर्मम-हृदय नूरी ने विलम्ब कर दिया। वह विचार करने लगी थी और याकूब को इतना अवसर नहीं था।

नूरी उसका सिर हाथों पर लेकर उसे लिपटाने लगी। साथ हीअभागे याकूब के खुले हुए ह्रश्वयासे मुँह में नूरी के आँसू टपाटप गिरने लगे।