Pap ki Parajay Jayshankar Prasad द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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Pap ki Parajay

पाप की पराजय

जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ

जयशंकर प्रसाद


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पाप की पराजय

घने हरे कानन के हृदय में पहाड़ी नदी झिर-झिर करती बह रहीहै। गाँव से दूर, बन्दूक लिए हुए शिकारी के वेश में, घनश्याम दूर बैठा है। एक निरीह शशक मारकर प्रसन्ता से पतली-पतली लकडियों में उसका जलना देखता हुआ प्रकृति की कमनीयता के साथ वह बड़ा अन्याय कर रहा है, किन्तु उसे दायित्व-विहीन विचारपति की तरह बेपरवाही है।

जंगली जीवन का आज उसे बड़ा अभिमान है। अपनी सफलता पर आपही मुग्ध होकर मानवसमाज की शैशवावस्थाकी पुनरावृि्रूद्गा करता हुआ निर्दयघनश्याम उस अधजले जन्तु से उदर भरने लगा। तृह्रश्वत होने पर वन कीसुधि आई। चकित होकर देखने लगा कि यह कैसा रमणीय देश है। थोड़ीदेर में तन्द्रा ने उसे दबा लिया। वह कोमल वृि्रूद्गा विलीन हो गई। स्वह्रश्वनने उसे फिर उद्वेलित किया। निर्मल जल-धारा से धुले हुए प्रूद्गाों का घनाकानन, स्थान-स्थान पर कुसुमित कुन्ज, आनतरिक और स्वाभाविक आलोकमें उन कुन्जों की कोमल छाया, हृदय-स्प्रशकारी शीतल पवन का संचार,अस्फुट आलेख्य के समान उसके सामने स्फुरित होने लगे।

घनश्याम को सुदूर से मधुर झंकार-सी सुनाई पड़ने लगी। उसनेअपने को व्याकुल पाया। देखा तो एक अद्‌भुत दृश्य! इन्द्रनील की पुतलीफूलों से सजी हुई झरने के उस पार पहाड़ी से उतरकर बैठी है। उसकेसहज-कुंचित केश से वन्य कुरुवक कलियाँ कूद-कूदकर जल-लहरियों सेक्रीड़ा कर रही है। घनश्याम को वह वनदेवी-सी प्रतीत हुई। यद्यपि उसकारंग कंचन के समान नहीं, फिर भी साँचे में ढला हुआ है। आकर्षणविस्तृत नेत्र नहीं, तो भी उनमें एक स्वाभाविक राग है। यह कवि कीकल्पना-सी कोई स्वर्गीय आकृति नहीं, प्रत्युत एक भिल्लनी है। तब भीइसमें सौन्दर्य नहीं है, यह कोई साहसके साथ नहीं कह सकता। घनश्यामने तन्द्रा से चौंककर उस सहज सौन्दर्य को देखा और विषम समस्या मेंपड़कर यह सोचने लगा - ‘क्या सौन्दर्य उपासना की ही वस्तु है, उपभोगकी नहीं?’ इस प्रश्न को हल करने के लिए उसने हंटिंग कोट के पाकेटका सहारा लिया। क्लान्तिहारिणी का पान करने पर उसकी आँखों पररंगीन चश्मा चढ़ गया। उसकी तन्द्रा का यह काल्पनिक स्वर्ग धीरे-धीरेविलास मन्दिर में परिणत होने लगा। घनश्याम ने देखा कि अद्‌भुत रुप,यौवन की चरम-सीमा और स्वास्थ्य का मनोहर संस्करण, रंग बदलकरपाप ही सामने आया है।

पाप का यह रूप, जब वह वासना को फाँसकर अपनी ओर मिलाचुकता है, बड़ा कोमल अथच कठोर एवं भयानक होता है और तब पापका मुख कितना सुन्दर होता है! सुन्दर ही नहीं, आकर्षक भी, वह भीकितना प्रलोभन-पूर्ण और कितना शक्तिशाली, जो अनुभव में नहीं आसकता। उसमें विजय का दर्प भरा रहता है। वह अपनी एक मृदु मुस्कानसे सुदृढ़ विवेक की अवहेलना करता है। घनश्याम ने धोखा खाया औरक्षण भर में वह सरल सुषमा विलुह्रश्वत होकर उद्दीपन का अभिनय करनेलगी। यौवनने भी उस समय काम से मित्रता कर ली। पाप की सेनाऔर उसका आक्रमण प्रबल हो चला। विचलित होते ही घनश्याम कोपराजित होना पड़ा। वह आवेश में बाँहें फैलाकर झरने को पार करनेलगा।

नील की पुतली ने उस ओर देखा भी नहीं। युवक की माँसल पीनभुजाएँ उसे आलिंगन करना ही चाहती थीं कि ऊपर पहाड़ी पर से शब्दसुनाई पड़ा - ‘क्यों नीला, कब तक यहीं बैठी रहेगी? मुझे देर हो रहीहै। चल, घर चलें।’

घनश्याम ने सिर उठाकर देखा तो ज्योतिर्मयी दिव्य मूर्ति रमणीसुलभ पवित्रता का ज्वलन्त प्रमाण, केवल यौवन से ही नहीं, बल्कि कलाकी दृष्टि से भी, दृष्टिगत हुई, किन्तु आत्म-गौरव का दुर्ग किसी की सहजपाप-वासना को वहाँ फटकने नहीं देता था। शिकारी घनश्याम लज्जित तोहुआ ही, पर वह भयभीत भी था। पुण्य-प्रतिमा के सामने पाप कीपराजय हुई। नीला ने घबराकर कहा - ‘रानी जी, आती हूँ। जरा मैंथक गई थी।’ रानी और नीला दोनों चली गइर्ं। अबकी बार घनश्यामने फिर सोचने का प्रयास किया - ‘क्या, सौन्दर्य उपभोग के लिए नहीं,केवल उपासना के लिए है?’ खिन्न होकर वह घर लौटा, किन्तु बारबार वह घटना याद आती रही। घनश्याम कई बार उस झरने पर क्षमामाँगने गया, किन्तु वहाँ उसे कोई न मिला।

जो कठोर सत्य है, जो प्रत्यक्ष है, जिसकी प्रचण्ड लपट अभी नदीमें प्रतिभासित हो रही है, जिसकी गर्मी इस शामील रात्रि में भी अंकमें अनुभूत हो रही है, उसे असत्य या उसे कल्पना कहकर उड़ा देने केलिए घनश्याम का मन हठट कर रहा है।

थोड़ी देर पहले जब (नदी पर से मुक्त आकाश में एक टुकड़ाबादल का उठ आया था) चिता लग चुकी थी, घनश्याम आग लगाने कोउपस्थित ता। उसकी स्त्री चिता पर अतीत निद्रा में निमग्न थी। निठुरहिन्दू-शात्र की कठोर आज्ञा से जब वह विद्रोह करने लगा था, उसी समयघनश्याम को सान्त्वना हुई, उसने अचानक मूर्खता से अग्नि लगा दी। उसेध्यान हुआ कि निर्दय बादल बरसकर चिता को बुझा देंगे, उसे जलने नदेंगे, किन्तु व्यर्थ? चिता ठण्डी होकर और भी ठहर-ठहर कर सुलगनेलगी, क्षणभर में जलकर राख न होने पाई।

घनश्याम ने हृदय में सोचा कि यदि हम मुसलमान या ईसाई होतेतो? आह! फूलों में मिली हुई मुलायम मिट्टी में इसे सुला देते, सुन्दरसमाधि बनाते, आजीवन प्रति सन्ध्या को दीप जलाते, फूल चढ़ाते, कवितापढ़ते, रोते, आँसू बहाते, किसी तरह दिन बीत जाते, किन्तु यहाँ कुछ भीनहीं। हत्यारा समाज! कठोर धर्म! कुत्सित व्यवस्था! इनसे क्या आशा?

चिता जलने लगी।

श्मशान से लौटते समय घनश्याम ने साथियों को छोड़कर जंगल कीओर पैर बढ़ायाय। जहाँ प्रायः शिकार खेलने जाया करता, वहीं जाकरबैठ गया। आज वह बहुत दिनों में इधर आया है। कुछ ही दूरी पर देखाकि साखू के वृक्ष की छाया में एक सुकुमार शरीर पड़ा है।सिरहाने तकियाका काम हाथ दे रहा है। घनश्याम ने अभी कड़ी चोट खाई है। करुण-कमल का उसके आद्र मानस में विकास हो गया था। उसने समीप जाकरदेखा कि वह रमणी और कोई नहीं है, वह रानी नहै, जिसे उसने बहुतदिन हुए एक अनोखे ढंग में देखा था। घनश्याम की आहट पाते ही रानीउठ बैठी। घनश्याम ने पूछा - ‘आप कौन हैं? क्यों यहाँ पड़ी हैं?’

रानी - ‘मैं केतकी-बन की रानी हूँ।’

‘तब ऐसे क्यों?’

‘समय की प्रतीक्षा में पड़ी हूँ।’

‘कैसा समय?’

‘आपसे क्या काम? क्या शिकार खेलने आए हैं?’

‘नहीं देवी! आज स्वयं शिकार हो गया हूँ।’

‘तब तो आप शीघ्र ही शहर की ओर पलटेंगे। क्या किसीभबिल्लनी के नयनबाण लगे हैं? किन्तु नहीं, मैं भूल कर रही हूँ। उनबेचारियों को क्षुधा-ज्वाला ने जला रखा है। ओह, वह गढ़े में धँसी हुईआँखें अब किसी को आकर्षित करने की सामर्थ्य नहीं रखतीं! हे भगवान्‌,मैं किसलिए पहाड़ी से उतरकर आई हूँ।’

‘देवी! आपका अभिप्राय क्या है, मैं समझ न सका। क्या ऊपरअकाल है, दुर्भिक्ष है?’

‘नहीं-नहीं, ईश्वर का प्रकोप है, पवित्रता का अभिशाप है, करुणाकी वीभत्स मूर्ति का दर्शन है।’

‘तब आपकी क्या इच्छा है?’

‘मैं वहाँ की रानी हूँ। मेरे वस्त्र-आभूषण-भण्डार में जो कुछ था,सब बेचकर तीन महीने किसी प्रकार उन्हें खिला सकी, अब मेरे पासकेवल इस वस्त्र को छोड़कर और कुछ नहीं रहा कि विक्रय करके एकभी क्षुधित पेट की ज्वाला बुझाती, इसलिए...।’

‘क्या?’

‘शहर चलूँगी। सुना है कि वहाँ रूप का भी ीदाम मिलता है। यदिकुछ मिल सके...’

‘तब?’

‘तो इसे भी बेच दूँगी। अनाथ बालकों को इससे कुछ तो सहायतापहुँच सकेगी। क्यों, क्या मेरा रुप बिकने योग्य नहीं है?’

युवक घनश्याम इसका उ्रूद्गार देने में असमर्थ था। कुछ दिन पहलेवह अपना सर्वस्व देकर भी ऐसा रूप क्रय करने को प्रस्तुत हो जाता।

आज वह अपनी स्त्री के वियोग में बड़ा ही सीधा, धार्मिक, निरीह एवंपरोपकारी हो गया था। आर्त मुमुक्षु की तरह उसे न जाने किस वस्तुकी खोज थी।

घनश्याम ने कहा - ‘मैं क्या उ्रूद्गार दूँ?’

‘क्यों? क्या दाम न लगेगा? हाँ तुम आज किस वेश में हो? क्यासोचते हो? बोलते क्यों नहीं?’

‘मेरी स्त्री का शरीरान्त हो गया।’

‘तब तो अच्छा हुआ, तुम नगर के धनी हो। तुम्हें तो रूप कीआवश्यकता होती होगी। क्या इसे क्रय करोगे?’

घनश्याम ने हाथ जोड़कर सिर नीचा कर लिया। तब उस रानी नेकहा - ‘उस दिन तो एक भिल्लनी के रूप पर मरते थे। क्यों, आजक्या हुआ?’

‘देवी, मेरा साहस नहीं है - वह पाप का वेग था।’

‘छिः, पाप के लिए साहस था और पुण्य के लिए नहीं?’

घनश्याम रो पड़ा और बोला - ‘क्षमा कीजिएगा। पुण्य किस प्रकारसम्पादित होता है, मुझे नहीं मालूम। किन्तु इसे पुण्य कहने में...।’

‘संकोच होता है। क्यों?’

इसी समय दो-तीन बालक, चार-पाँच स्त्रियाँ और छः-सात भीलअनाहार-क्लिष्ट, शीर्ण कलेवर पवन के बल से हिलते-डुलतेरानी के सामनेआकर खड़े हो गए।

रानी ने कहा - ‘क्यों, अब पाप की परिभाषा करोगे?’

घनश्याम ने काँपकर कहा - ‘नहीं, प्रायश्चित करूँगा, उस दिन केपाप का प्रायश्चित।’

युवक घनश्याम वेग से उठ खड़ा हुआ, बोला - ‘बहन, तुमने मेरेजीवन को अवलम्ब दिया है। मैं निरुद्देश्य हो रहा था, कर्तव्य नहीं सूझपड़ता था। आपको रूपविक्रय न करना पड़ेगा। देवी! मैं सन्ध्या तक आ जाऊँगा।