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Khandhar Ki Lipi

खंड़हर की लिपि

जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ

जयशंकर प्रसाद


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खंड़हर की लिपि

जब वसन्त की पहली लहर अपना पीला रंग सीमा के खेतों परचढ़ा लाई, काली कोयल ने उसे बरजना आरम्भ किया और भौंरेगुनगुनाकर काना-फूँसी करने लगे, उसी समय एक समाधि के पास लगे हुए गुलाब ने मुँह खोलने का उपक्रम किया, किन्तु किसी युवक के चंचलहाथ ने उसका हौसला भी तोड़ दिया। दक्षिण पवन ने उससे कुछ झटकलेना चाहा, बिचारे की पंखुड़ियाँ झड़ गई। युवक ने इधर-उधर देखा।

एक उदासी और अभिलाषामयी शून्यता ने उनकी प्रत्याशी दृष्टि को कुछउ्रूद्गार न दिया। वसन्त पवन का एक भारी झोंका ‘हा-हा’ करता उसकीहँसी उड़ाता चला गया।

सटी हुई टेकरी की टूटी-फूटी सीढ़ी पर युवक चढ़ने लगा। पचाससीढ़ियाँ चढ़ने के बाद वह बगल के बहुत पुरानी दालान में विश्राम लेनेके लिए ढहर गया। ऊपर जो जीर्ण मन्दिर था, उसका ध्वंसावशेष देखनेको वह बार-बार जाता था। उस भग्न-स्तूप के युवक को आमन्त्रित करतीहुई ‘आओ-आओ’ की अपरिस्फुट पुकार बुलाया करती। जाने कब केअतीत ने उसे स्मरम कर रखा है। मण्डप के भग्न कोण में एक पत्थरके ऊपर न जाने कौन-सी लिपि थी,जो किसी कोरदार पत्थर से लिखीगई थी। वह नागरी तो कदापि नहीं थी। युवक ने आज फिर उसी ओरदेखते-देखते उसे चढ़ना चाहा। बहुत देर तक घूमता-घूमता वह थक गयाथा, इससे उसे निद्रा आने लगी। वह स्वह्रश्वन देखने लगा।

कमलों का कमनीय विकास झील की शोभा को द्विगुणित कर रहाहै। उसके आमोद के साथ वीणाकी झनकार, झील के स्पर्श के शीतलऔर सुरक्ष,ति पवन में भर रही थी। सुदूरर प्रतीचि में एक सहस्रदलस्वर्ण-कमल अपनी शेष स्वर्ण-किरण की भी मृणाल पर व्योम-निधि मेंखिल रहा है। वह लज्जित होना चाहता है। वीणा के तारों पर उसकीअन्तिम आभा की चमक पड़ रही है। एक आनन्दपूर्ण विषाद से युवकअपनी चंचल अँगुलियों को नचा रहा है। एक दासी स्वर्णपात्र में केसर,अगरु, चन्दन-मिश्रित अंगराग और नवमल्लिका की माला, कई ताम्बूललिए हुए, प्रणाम करके उसने कहा - ‘महाश्रेष्ठि धनमित्र की कन्या नेश्रीमान्‌ के लिए उपहार भेजकर प्रार्थना की है कि आज के उद्यान गोष्ठमें आप अवश्य पधारने की कृपा करें। आनन्द विहार के समीप उपवनमें आपकी प्रतीक्षा करती हुई कामिनी देवी बहुत देर तक रहेंगी।’

युवक ने विरक्त होकर कहा - ‘अभी कई दिन हुए हैं, मैं सिंहलसे आ रहा हूँ, मेरा पोत समुद्र में डूब गया है। मैं ही किसी तरह बचाहूँ। अपनी स्वामिनी से कह देना कि मेरी अभी ऐसी अवस्था नहीं हैकि मैं उपवन के आनन्द का भोग कर सकूँ।’ं

‘तो प्रभु, क्या मैं यही उ्रूद्गार दे दूँ?’ दासी ने कहा।

‘हाँ और यह भी कह देना कि - तुम सरीखी अविश्वासिनी स्त्रियोंसे मैं और भी दूर भागना चाहता हूँ, जो प्रलय के समुद्र की प्रचण्डआँधी में एक जर्जर पोत से भी दुर्लबल और उस डुबा देने वाली लहरसे भी भयानक है।’ युवक ने अपनी वीणा सँवारते हुए कहा।

‘वे उस उपवन में कभी जा चुकी हैं, और हमसे यह भी कहाहै कि यदि वे गोष्ठ में न जाना चाहें, तो स्तूप की सीढ़ी के विश्राम-

मण्डप में मुझसे एक बार अवश्य मिल लें, मैं निर्दोष हूँ।’ दासी नेसविनय कहा।

युवा ने रोष-भरी दृष्टि से देखा। दासी प्रणाम करके चली गई।सामनेन का एक कलम सन्ध्या के प्रभाव से कुम्हला रहा था। युवक कोप्रतीत हुआ कि वह धनमित्र की कन्या का मुख है। उससे मकरन्द नहीं,अश्रु गिर रहे हैं। ‘मैं निर्दोष हूँ’ यही भौरे भी गूँजकर कह रहे हैं।

युवक ने स्वह्रश्वन में चौंककर कहा - ‘मैं आऊँगा।’ आँख न खोलनेपर भी उसने उस जीरण दालान की लिपि पढ़ ली - ‘निष्ठुर! अन्त कोतुम नहीं आए।’ युवक सचेत होकर उठने को था कि वह कई सौ बरसकी पुरानी छत घम से गिरी।

बायुमण्डल में - ‘आओ-आओ’ काक शब्द गूँजने लगा।

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