Pratidhwani Jayshankar Prasad द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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Pratidhwani

प्रतिध्वनि

जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ

जयशंकर प्रसाद


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प्रतिध्वनि

मनुष्य की चिता जल जाती है और बुझ भी जाती है, परन्तु उसकीछाती की जलन, द्वेष की ज्वाला, सम्भव है, उसके बाद भी धक्‌-धक्‌करती हुई जला करे।

तारा जिस दिन विधवा हुई, जिस समय सब लोग रो-पीट रहे थे,उसकी ननद ने, भाई के मरने पर भी, रोदन के साथ व्यंग्य स्वर में कहा- “अरे मैया रे, किसका पाप किसे खा गया रे!” - अभी आसन्नवैधव्य ठेलकर, अपने कानों को ऊँचा करके, तारा ने वह तीक्ष्ण व्यंग्यरोदन के कोलाहल में भी सुन लिया था।

तारा सम्पन्न थी, इसलिए वैधव्य उसे दूर ही से डराकर चलाजाता। उसका पूर्ण अनुभव वह कभी न कर सकी। हाँ, ननद रामा अपनीदरिद्रता के दिन अपनी कन्या श्यामा के साथ किसी तरह काटने लगी।

दहेज मिलने की निराशा से कोई ब्याह करने के लिए प्रस्तुत न होता।

श्यामा चौदह बरस की हो चली। बहुत चेष्टा करके भी रामा उसका ब्याहन कर सकी। वह चल बसी।

श्यामा निस्सहाय अकेली हो गई, पर जीवन के जितने दिन हैं, वेकारावासी के समान काटने ही होंगे। वह अकेली ही गंगा-तट पर अपनीबारी से सटे हुए कच्चे झोंपड़े में रहने लगी।

मन्नी नाम की एक बुढ़िया, जिसे ‘दादी’ कहती थी, रात को उसकेपास सो रहती और न जाने कहाँ से, कैसे उसके खाने-पीने का कुछ प्रबन्धकर ही देती। धीरे-धीरे दरिद्रता के सब अवशिष्ट चिह्न बिककर श्यामाके पेट में चले गए।

पर, उसकी आम की बारी अभी नीलाम होने के लिए हरी-भरी थी!कोमल आतप गंगा के शीतल शरीर में अभी उष्मा उत्पन्न करनेमें असमर्थ था। नवीन किसलय उससे चमक उठे थे। वसन्त की किरणोंकी चोट से कोयल कुहुक उठी। आमकी कैरियों के गुच्छे हिलने लगे।उस आम की बारी में माधवऋतु का डेरा था और श्यामा के कमनीयकवेलर में यौवन था।

श्यामा अपने कच्चे घर के द्वार पर खड़ी हुई मेघ-संक्रांति का पर्व-स्नान करने वालों को कगार के नीचे देख रही थी। समीप होने पर भीवह मनुष्यों की भीड़ उसे चींटियाँ रेंगती हुई जैसी दिखाई पड़ती थी।

मन्नी ने आते ही उसका हाथ पकड़कर कहा - “चलो बेटी, हम लोगभी स्नान कर आवें।”

उसने कहा - “नहीं दादी, आज अंग-अंग टूट रहा है, जैसे ज्वरआने का है।”

मन्नी चली गई।

तारा स्ना करके दासी के साथ कगारे के ऊपर चढ़ने लगी। श्यामाकी बारी के पास से ही पथ था। किसी को वहाँ न देखकर तारा नेसन्तुष्ट होकर सांस ली। कैरियों से गरदाई हुई डाली से उसका सिर लगगया। डाली राह में झुकी पड़ती थी। तारा ने देखा, कोई नहीं है; हाथबढ़ाकर कुछ कैरियाँ तोड़ लीं।

सहसा किसी ने कहा - “और तोड़ लो मामी, कल तो यह नीलामही होगा!”

तारा की अग्नि-बाण-सी आंखें किसी को जला देने के लिए खोजनेलगीं। फिर उसके हृदय में वही बहुत दिन की बात प्रतिध्वनित होने लगी- “किसका पाप किसको खा गया, रे!” - तारा चौंक उठी। उसने सोचा,रामा की कन्या व्यंग्य कर रही है - भीख लेने के लिए कह रही है।

तारा होंठ चबाती हुई चली गई।

एक सौ पांच-एक,

एक सौ पांच-दो,

एक सौ पांच रुपये-तीन!

बोली हो गई। अमीन ने पूछा - “नीलामी का चौथाई रुपया कौनजमा करता है?”

एक गठीले युवक ने कहा - “चौथाई नहीं, कुल रुपये लीजिए।”

तारा के नाम की रसीद बना रुपया सामने रख दिया गया।

श्यामा एक आम के वृक्ष के नीचे चुपचाप बैठी थी। उसे औरकुछ नहीं सुनाई पड़ता था, केवल डुग्गियों के साथ एक-दो-तीन कीप्रतिध्वनि कानों में गूंज रही थी। एक समझदार मनुष्य ने कहा - “चलो,अच्छा ही हुआ, तारा ने अनाथ लड़की के बैठने का ठिकाना तो बना रहनेदिया; हींतो गंगा किनारे का घर और तीन बीघे की बारी, एक हजारपांच रुपये में! तारा ने बहुत अच्छा किया।”

बुढ़िया मन्नी ने कहा - “भगवान्‌ जाने, ठिकाना कहाँ होगा।”श्यामा चुपचाप सुनती रही। संध्या हो गई। जिनका उसी अमराईमें नीड़ था, उन पक्षियों का झुंड कलरव करता हुआ घर लौटने लगापर श्यामा न हिली; उसे भूल गया कि उसके भी घर हैं।

बुढ़िया के साथ अमीन साहब आकर खड़े हो गए। अमीन एकसुन्दर कहे जाने योग्य युवक थे और उनका यह सहज विश्वास था किकोई भी स्त्री हो, मुझे एक बार अवश्य देघेगी, श्यामा के सौन्दर्य कोतो दारिद्र्‌य ने ढक लिया था; पर उसका यौवन छिपाने के योग्य न था।

कुमार यौवन अपनी क्रीड़ा में विह्वल था। अमीन ने कहा - “मन्नी! पूछो,मैं रुपया दे दूं - अभी एक महीने की अवधि है, रुपया दे देने से नीलामरुक जाएगा!”

श्यामा ने एक बार तीखी आँखों से अमीनकी ओर देखा। वह पुष्टकलेवर अमीन, उस अनाथ बालिका की दृष्टि न सह सका, धीरे से चलागया। मन्नी ने देखा, बरसात की-सी गीली चिता श्यामा की आँखों मेंजल रही है। मन्नी का साहस न हुआऔ कि उससे घर चलने के लिएकहे। उसने सोचा, ठहरकर आऊँगी तो इसे घर लिवा जाऊँगी, परन्तु जबवह लौटकर आई, तो रजनी के अंधकार में बहुत खोजने पर भी श्यामाको न पा सकी।

तारा का उ्रूद्गाराधिकारी हुआ - उसके भाई का पुत्र प्रकाश।

अकस्मात्‌ सम्पि्रूद्गा मिल जाने से जैसा प्रायः हुआ करता है, वही हुआ- प्रकाश अपने-आप में न रह सका। वह उस देहात में प्रथम श्रेमी काविलासी बन बैठा। उसने तारा के पहले घर से कोस-भर दूर श्यामा कीबारी को भली-भांति सजाया; उसका कच्चा घर तोड़कर बंगला बन गया।

अमराई में सड़कें और क्यारियाँ दौड़ने लगीं। यहीं प्रकाश बाबू की बैठकजमी। अब इसे उसके नौकर ‘छावनी’ कहते थे।

आषाढ़ का महीना था। सबेरे ही बड़ी उमस थी। पुरवाई सेघनमंडल स्थिर हो रहा था। वर्षा होने की पूरी सम्भावना थी। पक्षियोंके झुंड ाकाश में अस्तव्यस्त घूम रहे थे। एक पगली गंगा के तट केऊपर की ओर चढ़ रही थी। वह अपने प्रत्येक पाद-विक्षेप पर एकदो-तीन अस्फुट स्वर में कह देती, फिर आकाश की ओर देखने लगतीथी। अमराई के खुले फाटक से वह घुस आई और पास के वृक्षों केनीचे घूमती हुई “एक-दो-तीन” करते गिनने लगी।

लहरीले पवन का एक झोंका आया; तिरछी बूँदों की एक बाढ़ पड़गई। दो-चार आम भी चू पड़े। पगली घबरा गई। तीन से अधिक वहगिनना ही नहीं जानतीथी। इधर बूँदों को गिने कि आमों को! बड़ीगड़बड़ी हुई, पर वह मेघ का टुकड़ा बरसता हुआ निकल गया। पगलीएक बार स्वस्थ हो गई। ममहोखका एक डाल से बोलने लगा। डुग्गीके समान उसका “डूप-डूप-डूप” शब्द पगली को पहचाना हुआ-सामालूम पड़ा। वह फिर गिनने लगी-ेक-दो-तीन? उसके चुप हो जाने परपगली नेन डालों की ओर देखा और प्रसनन होकर बोली-एक-दो-तीन!

इस बार उसकी गिनती में बड़ा उल्लास था, विस्मय था और हर्ष भी।

उसने एक ही डाल में पके हुए तीन आमों को वृं्रूद्गाों-सहित तोड़ लियाऔर उन्हें झुकाते हुए गिनने लगी। पगली इस बार सचमुच बालिका बनगई, जैसे खिलौने के साथ खेलने लगी।

माली आ गया। उसने गाली दी, मारने के लिए हाथ उठाया।

पगली अपना खेल छोड़कर चुपचाप उसकी ओर एकटक देखने लगी।वह उसका हात पकड़कर प्रकाश बाबू के पास ले चला।प्रकाश यक्ष्मा से पीड़ित होकर इन दिनों यहाँ निरन्तर रहने लगाथा। वह खांसता जाता था और तकिए के सहारे बैठा हुआ पीकदान मेंरक्त और कफ थूकता जाता था। कंकाल-सा शरीर पीला पड़ गया था।मुख में केवल नाक और बड़ी-बड़ी आँखें अपना अस्तित्व चिल्लाकर कहरही थीं। पगली को पकड़कर माली उसके सामने ले आया।

विलासी प्रकाश ने देखा पागल यौवन अभी उस पगली के पीछेलगा था। कामुक प्रकाश को आज अपने रोग पर क्रोध हुआ और पूर्णमात्रा में हुआ, पर क्रोध धक्का खाकर पगली की ओर चला आया।

प्रकाश ने आम देखकर ही समझ लिया और फूहड़ गालियों की बौछारसे उसकी अभ्यर्थना की।

पगली नेन कहा - “यह किस पाप का फल है? तू जानता है,इसे कैन खाएगा? बोल! कौन मरेगा? बोल! एक-दो-तीन।”

“चोरी को पागलपन में छिपापना चाहती है! अभी तो तुझे बीसोंचाहने वाले मिलेंगे! चोरी क्यों करती है?” - प्रकाश ने कहा।

एक बार पगली का पागलपन, लाल वस्त्र पहनकर उसकी आँखोंमें नाच उठा। उसने आम तोड़-तोड़ कर प्रकाश के क्षय-जर्जज हृदय परखींचकर मारते हुए गिना - एक-दो-तीन! प्रकाश तकिए पर चि्रूद्गा लेटकरहिचकियाँ लेने लगा और पगली हँसते हुए गिनने लगी - एक-दो-तीन।

उनकी प्रतिध्वनि अमराई में गूँज उठी।