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ग्राम

जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ

जयशंकर प्रसाद


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ग्राम

टन! टन! टन! स्टेशन पर घण्डी बोली।

श्रावण-मास की संध्या भी कैसी मनोहारिणी होती है। मेघ-माला-विभूषित गगन की छाया सघन रसाल-कानन में पड़ रही है! अँधियारीधीरे-धीरे अपना अधिकार पूर्व-गगन में जमाती हुई सुशासनकारिणीमहारानी के समान, विहंग प्रजागण को सुखनिकेतन में शयन करने कीआज्ञा दे रही है। आकाशरूपी शासन-पत्र पर प्रकृति के हस्ताक्षर के समान बिजली की रेखा दिङाई पड़ती है... ग्राम्य स्टेशन पर कहीं एक-दोदीपालोक दिखाई पड़ता है। पवन हरे-हरे निकुंजों में से भ्रमण करता हुईझिल्ली के झनकार के साथ भरी हुई झीलों में लहरों के साथ खेल रहाहै। बुँदियाँ धीरे-धीरे गिर रही हैं, जो जूही कलियों को आर्द करके पवनको भी शीतल कर रही हैं।

थोड़े समय में वर्षा बन्द हो गई। अँधकार-रूपी अंजन केअग्रभाग-स्थित आलोक के समान चतुर्दशी की लालिमा को लिए हुएचन्द्रदेव प्राची में हरे-हरे तरुवरों की आड़ में से अपनी किरण-प्रभादिखाने लगे। पवन की सनसनाहट के साथ रेलगाड़ी का शब्द सुनाई पड़नेलगा। सिग्न ने अपना कार्य किया। घण्टा का शब्द उस हरेभरे मैदान मेंगूँजने लगा। यात्री लोग अपनी गठरी बाँधते हुए स्टेशन पर पहुँचे।

महादैत्य के लाल-लाल नेत्रों के समान अंजन-गिरिनिभ इंजिन का अग्रस्थितरक्तआलोक दिखाई देने लगा। पागलों के समान बड़बड़ती हुई अपनी धुनकी पक्की रेलगाड़ी स्टेशन पहुँच गई। धड़ाधड़ यात्री लोग उतरने-चढ़नेलगे। एक स्त्री की ओर देखकर फाटक के बाहर खड़ी हुई दो औरतें,जो उसकी सहेली मालूम देती हैं, रो रही हैं, और वह स्त्री एक मनुष्यके साथ रेल में बैठने को उद्यत है। उनकी क्रन्दन-ध्वनि से वह स्त्री दीन-भाव से उनकी ओर देखती हुई, बिना समझे हुए, सेकण्ड क्लास की गाड़ीमें चढ़ने लगी; पर उसमें बैठे हुए बाबू साहब - ‘यह दूसरा दर्जा है,इसमें मत चढ़ो’ कहते हुे उतर पड़े, और अपना हण्टर घुमाते हुए स्टेशनसे बाहर होने का उद्योग करने लगे।

विलायती पिक का वृचिस पहने, बूट चढ़ाए, हण्टिग कोट, धानीरंग का साफा, अंग्रेज़ी-हिन्दुस्तानी का महासम्मेलन बाबू साहब के अंग परदिखाई पड़ रहा है। गौर वर्णन, उन्नत ललाट-उनकी आभा को बढ़ा रहेहैं। स्टेशन मास्टर से सामना होते ही शेकहैंड करने के उपरारन्त बाबू साहबसे बातचीत होने लगी।

स्टेशन मास्टर - आप इस वक्त कहाँ से आ रहे हैं?

मोहनलाल - कारिन्दों ने इलाके में बड़ा गड़बड़ मचा रक्खा है, इसलिए मैं कुसुमपुर - जो हमारा इलाका है - इंस्पेक्शन के लिए जा रहा हूँ।

स्टेशन मास्टर - फिर कब पलटियेगा?

मोहनलाल - दो रोज में। अच्छा, गुड ईवनिंग!

स्टेशन मास्टर, जो लाइन-क्लियर दे चुके थे, गुड ईवनिंग करतेहुए अपने ऑफिस में घुस गए।

बाबू मोहनलाल अंग्रेज़ी काठी से सजे हुए घोड़े पर, जो पूर्व हीस्टेशन पर खड़ा था, सवार होकर चलते हुए।

सरल स्वभाव ग्रामवासिनी कुलकामिनीगण का सुमधुर संगीत धीरे-धीरे आम्रकानन में से निकलकर चारों ओर गूँज रहा है। अँधकार गगनमें जुगनू-तारे चमक-चमकर चि्रूद्गा को चंचल कर रहे हैं। ग्रामीण लोगअपना हल कन्धे पर रखे, बिरहा गाते हुए, बैलों की जोड़ी के साथ,घर की ओर प्रत्यावर्तन कर रहे हैं।

एक विशाल तरुवर की शाखा में झूला पड़ा हुआ है, उस पर चारमहिलाएँ बैठी हैं ओर पचासों उनको घेरकर गाती हुई घूम रही हैं। झूलेके पेंग के साथ ‘अबकी सावन सइयाँ घर रहु रे’ की सुरीली पचासोंकोकिल कण्ठ से निकली हुई तान पशुगणोंको भी मोहित कर रही हैं।

बालिकाएँ स्वच्छन्द भाव से क्रीड़ा कर रही हैं। अकस्मात्‌ अश्व के पदशब्द ने उन सरला कामिनियों को चौंका दिया। वे सब देखती हैं, तो हमारेपूर्व-परिचित बाबू मोहनलाल घोड़े को रोककर उस पर से उतर रहे हैं।

वे सब उनका भेष देखकर घबड़ा गइर्ं और आपस में कुछ इंगित करकेचुप रह गइर्ं।

बाबू मोहनलाल ने निस्तब्धता को भंग किया और बोले - भद्रे!यहाँ से कुसुमपुर कितनी दूर है? और किधर से जाना होगा? एक प्रौढ़ाने सोचा कि ‘भद्रे’ कोई परिहास शब्द तो नहीं है, पर वह कुछ कहन सकी, केवल एक ओर दिखाकर बोली - यहाँ से डेढ़ कोस तो बाय,इहै पैंड़वा जाई।

बाबू मोहनलाल उसी पगडण्डी से चले। चलते-चलते उन्हें भ्रम होगया और वह अपनी छावनी का पथ छोड़कर दूसरे मार्ग से आने लगे।

मेघ घिर आए, जल वेग से बरसने लगा, अँधकार और घना हो गया।

भटकते-भटकते वह एक खेत के समीप पहुँचे; वहाँ उस हरे-भरे खेत मेंएक ऊँचा और बड़ा मचान था, जो कि फूस से छाया हुआ था औरसमीप ही में एक छोटा-सा बच्चा मकान था।

उस मचान पर बालक और बालिकाएँ बैठी हुइर्ं कोलाहल मचा रहीथीं। जल में भीगते हुए भी मोहनलाल खेत के समीप खड़े होकर उनकेआनन्द-कलरव को श्रवण करने लगे।

भ्रान्त होने से उन्हें बहुत समय व्यीत हो गया। रात्रि अधिक बीतगई। कहाँ ठहरें? इसी विचार में खड़े रहे, बूँदें कम हो गइर्ं। इतने मेंएक बालिका अपने मलिन वसन के अंचल की आड़ में दीप लिए हुएउसी मचान की ओर जाती हुई दिखाई पड़ी।

बालिका की अवस्था १५ वर्ष की थी। आलोक से उसका अंगअँधकार घन में बिद्युल्लेखा की तरह चमक रहा था। यद्यपि दरिद्रता नेउसे मलिन कर रखा है, पर ईश्वरीय सुषमा उसके कोमल अंग पर अपनानिवास किए हुए है। मोहनलाल ने घोड़ा बढ़ाकर उससे कुछ पूछना चाहा,

पर संकुचित होकर ठिठक गए, परन्तु पूछे के अतिरिक्त दूसरा उपाय हीनहीं था। अस्तु, रूखेपन के साथ पूछा - कुसुमपुर का रास्ता किधर है?

बालिका इस भव्य मूर्ति को देखकर डरी, पर साहस के साथ बोली- मैं नहीं जानती। ऐसे सरल नेत्र-संचालन से इंगित करके उसने ये शब्द कहे कि युवक को क्रोध के साथ पर हँसी आ गई और कहने लगा -तो जो जानता हो, मुझे बतलाओ, मैं उससे पूछ लूँगा।

बालिका - हमारी माता जानती होंगी।

मोहनलाल - इस समय तुम कहाँ जाती हो?

बालिका - (मचान की ओर दिखाकर) वहाँ जो कई लड़के हैं,उनमें से एक हमारा भाई है, उसी को खिलाने जाती हूँ।

मोहनलाल - बालक इतनी रात को खेत में क्यों बैठा है?

बालिका - वह रात-भर और लड़कों के साथ खेत ही में रहताहै।

मोहनलाल - तुम्हारी माँ कहाँ है?

बालिका - चलिए, मैं लिवा चलती हूँ।

इतना कहकर बालिका अपने भाई के पास गई और उसको खिलाकरतथा उसके पास बैठे हुए बालकों को भी कुछ देकर उसी क्षुद्र-कुरीराभिमुखगमन करने लगी। मोहनलाल उस सरला बालिका के पीछे चले।

उस क्षुद्र कुटीर में पहुँचने पर एक स्त्री मोहनलाल को दिखाई पड़ी,जिसकी अंगप्रभा स्वर्ण-तुल्य थी, तेजोमय मुख-मुण्डल तथा ईषत्‌ उन्नतअधर अभिमान से भरे हुए थे, अवस्था उसकी ५० वर्ष से अधिक थी।

मोहनलाल की आन्तरिक अवस्था, जो ग्राम्य जीवन देखने से कुछ बदल चुकी थी, उस सरल-गम्भीर-तेजोमय मूर्ति को देख और भी सरलविनययुक्त हो गई। उसने न झुककर प्रणाम किया। स्त्री ने आशीर्वाद दियाऔर पूछा - बेटा! कहाँ से आते हो?

मोहनलाल -मैं कुसुमपुर जाता था, किन्तु रास्ता भूल गया...।

‘कुसुमपुर’ का नाम सुनते ही स्त्री का मुख-मण्डल आरक्तिम होगया और उसके नेत्रों से दो बूँद आँसू निकल आए। अश्रु करुणा के नहीं,किन्तु अभिमान के थे।

मोहनलाल आश्चर्यान्वित होकर देख रहे थे। उन्होंने पूछा - आपकोकुसुमपुर के नाम से क्षोभ क्यों हुआ?

स्त्री - बेटा! उसकी बड़ी कथा है, तुतम सुनकर क्या करोगे?

मोहनलाल - नहीं, मैं सुनना चाहता हूँ यदि आप कृपा करकेसुनावें।

स्त्री - अच्छा, कुछ जलपान कर लो, तब सुनाऊँगी।

पुनः बालिका की ओर देखकर स्त्री ने कहा - कुछ जल पीने कोले आओ।

आज्ञा पाते ही बालिका उस क्षुद्र गृह के एक मिट्टी के बर्तन मेंसे कुछ वस्तु निकाल, उसे एक पात्र में घोलकर ले आई और मोहनलालकेसामने रख दिया। मोहनलाल उस शर्बत को पान करके फूस की चटाईपर बैठकर स्त्री की कथा सुने लगे।

स्त्री कहने लगी - हमारे पति इस प्रान्त के गण्य भूमिस्वामी थेऔर वंश भी हम लोगों का बहुत अच्छा था। जिस गाँव का अभी आपनेनाम लिया है, वहीं हमारे पति की प्रधान जमींदारी थी। कार्यवशकुन्दनलाल नामक एक महाजन से कुछ ॠ लिया गया। कुछ भी विचारन करने से उसका बहुत रुपया बढ़ गया और जब ऐसी अवस्था पहुँचीतो अनेक उपाय करके हमारे पति धन जुटाकर उसके पास ले गए, तबउस धूर्त ने कहा - “क्या हर्ज है बाबू साहब! आप आठ रोज में आना,हम रुपया ले लेंगे, और जो घाटा होगा, उसे छोड़ देंगे, आपका इलाकाफिर जाएगा,इस समय रेहननामा भी नहीं मिल रहा है।” उसका विश्वासकरके हमारे पति फिर बैठे रहे और उसने कुछ भी न पूछा। उनकी उदारताके कारण वह संचित धन भी थड़ा हो गया, और उधर उसने दावा करकेइलाका... जो कि वह ले लेना चाहता था, बहुत थोड़े रुपयों मेंनीलाम करालिया। फिर हमारे पति के हृदय में, उस इलाके के इस भाँति निकल जानेके कारण, बहुत चोट पहुँची और इसीसे उनकी मृत्यु हो गई। इस दशाके होने के उपरान्त हम लोग इस दूसरे गाँव में आकर रहने लगीं। यहाँके जमींदार बहुत धर्मात्मा है, उन्होंने कुछ सामान्य ‘कर’ पर यह भूमिदी है, इसी से अब हमारी जीविका है।...

इतना कहते-कहते स्त्री का गला अभिमान से भर आया और कुछकह न सकी।

स्त्री की कथा सुनकर मोहनलाल को बड़ा दुःख हुआ। रात विशेषबीत चुकी थी, अतः रात्रि-यापन करके, प्रभात में मलिन तथा पश्चिमगामीचन्द्र का अनुकरण करके, बताए हुए पथ से वह चले गए।

पर उनके मुख पर विषाद तथा लज्जा ने अधिकार कर लिया था।कारण यह था कि स्त्री की जमींदारी हरण करने वाले तथा उसके प्राणप्रियपति से उसे विच्छेद कराकर इस भाँति दुःख देने वाले कुन्दनलाल मोहनलाल के ही पिता थे।

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