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Sahyog

सहयोग

जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ

जयशंकर प्रसाद


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सहयोग

मनोरमा, एक भूल से सचेत होकर जब तक उसे सुधारने में लगतीहै, तब तक उसकी दूसरी भूल उसे अपनी मनुष्यता पर ही सन्देह दिलानेलगती है। प्रतिदिन प्रतिक्षण भूल की अविच्छिन्न श्रृंखला मानव-जीवन कोजकड़े हुए है, यह उसने कभी हृदयंगम नहीं किया। भ्रम को उसने शत्रुके रूप में देखा। वह उससे प्रति-पल शंकित और संदिग्ध रहने लगी।

उसकी स्वाभाविक सरलता, जो बनावटी भ्रम उत्पन्न कर दिया करती थीऔर उसके अस्तित्व में सुन्दरता पालिश कर दिया करती थी, अब उससेबिछुड़ने लगी। वह एक बनावटी रूप और आवभगत को अपना आभरणसमझने लगी।

मोहन, एक हृदय-हीन युवक उसे दिल्ली से ब्याह लाया था। उसकीस्वाभाविकता ने अपने आतंक से क्रूर शासन करके उसे आत्मचिन्ता शून्यपतिगत-प्राणा बनाने की उत्कट अभिलाषा से हृदय-हीन कल से चलतीफिरती हुई पुतली बना डाला और वह इसी में अपनी विजय और पौरुषकी पराकाष्ठा समझने लगा था।

धीरे-धीरे अब मनोरमा में अपना निज का कुछ नहीं रहा। वह उसेएक प्रकार से भूल-सी गई थी। दिल्ली के समीप का यमुना तट कागाँव, जिसमें वह पली थी, बढ़ी थी, अब उसे कुछ विस्मृत-सा हो चलाथा। वह ब्याह करने के बाद द्विरागमन के अवसर पर जबसे अपनीससुराल आई थी, वह एक अद्‌भुत दृश्य था। मनुष्य-समाज में पुरुषों केलिए वह कोई बड़ी बात न थी, किन्तु जब उन्हें घर छोड़कर कभी किसीकाम से परदेश जाना पड़ता है, तभी उनकी उस कथा के अधम अंशका आभास सूचित होता है। वह सेवा और स्नेहवृि्रूद्गावाली स्त्रियाँ ही करसकती हैं। जहाँ अपना कोई नहीं है, जिससे कभी की जान-पहचान नहीं,जिस स्थान पर केवल वधू-दर्शन का कुतूहल मात्र उसकी अभ्यर्थना करनेवाला है, वहाँ वह रोते और सिसकते किसी साहस से आई और किसीकोअपने रूप से, किसी को विनय से, किसी को स्नेह से उसने वश करनाआरम्भ किया। उसे सफलता भी मिली। जिस तरह एक महाउद्योगी किसीभारी अनुसन्धान के लिए अपने घर से अलग होकर अपने सहारे अपनासाधन बनाता है, या कथा-सरित्सागर के साहसिक लोग बैतालयाविद्याधर्रूद्गव सिद्धि के असम्भवनीय साहस का परिचय देते हैं, वह इनप्रतिदिन साहसकारिणी मनुष्य-जाति की किशोरियों के सामने क्या है,जिनकी बुद्धि और अवस्था कुछ भी इसके अनुकूल नहीं है।

हिन्दू शास्त्रानुसार शूद्रा स्त्री मनोरमा ने आश्चर्यपूर्वक ससुराल मेंद्वितीय जन्म ग्रहण कर लिया। उसे द्विजन्म कहने में कोई बाधा नहीं है।

मेला देखकर मोहन लौटा। उसकी अनुराग-लता, उसकी प्रगल्भाप्रेयसी ने उसका साथ नहीं दिया। सम्भवतः वह किसी विशेष आकर्षकपुरुष के साथ सहयोग करके चली गई। मेला फीका हो गया, नदी केपुल पर एक पत्थर पर वह बैठ गया। अँधेरी रात धीरे-धीरे गम्भीर होतीजा रही थी। कोलाहल, जनरव और रसीली तानें विरल हो चलीं। ज्योंज्यों एकान्त होने लगा, मोहन की आतुरता बढ़ने लगी। नदी-तट की शरदरजनी में एकान्त, किसी की अपेक्षा करने लगा। उसका हृदय चंचल होचला। मोहन ने सोचा, इस समय क्या करें? विनोदी हृदय उत्सुक हुआ।

वह चाहे जोहो, किसी की संगति को इस समय आवश्यक समझने लगा।

ह्रश्वयार न करने पर भी मनोरमा का ही ध्यान आया। समस्या हल होतेदेखकर वह घर की ओर चल पड़ा।

मनोरमा का त्योहार अभी बाकी था। नगर भर में एक नीरवअवसाद हो गया था किन्तु मनोरमा के हृदय में कोलाहल हो रहा था।

ऐसे त्योहार के दिन भी वह मोहन को न खिला सकी थी। लैम्प के मन्दरप्रकाश में खिड़की के जंगले के पास वह बैठी रही। विचारने को कुछभी उसके पास न था। केवल स्वामी की आशा में दास के समान वहउत्कंठित बैठी थी। दरवाजा खटका, वह उठी, चतुर दासी से भी अच्छीतरह उसने स्वामी की अभ्यर्थना, सेवा, आदर और सत्कार करने में अपनेको लगा दिया। मोहन चुपचाप अपने ग्रासों के साथ वाग्युद्ध और दन्तघर्षणकरने लगा। मनोरमा ने भूलकरभी यह न पूछा कि तुम इतनी देर कहाँथे? क्यों नहीं आए? न वह रूठी, न वह ऐंठी, गुरुमान की कौन कहे,लघुमान का छींटा नहीं। मोहन को यह और असह्य हो गया। उसने समझाकि हम इस योग्य भी नहीं रहे कि हमसे यह पूछे - ‘तुम कहाँ इतनीदेर मरते थे?’ पत्नी का अपमान उसे और यन्त्रणा देने लगा। वह भोजनकरते-करते अकस्मात्‌ रुक गया। मनोरमा ने पूछा - ‘क्या दूध ले आऊँ,अब और कुछ नहीं लीजिएगा?’

साधारण प्रश्न था, किन्तु मोहन को प्रतीत हुआ कि यह तो अतिथिकी-सी अभ्यर्थना है, गृहस्थ की अपने घर की-सी नहीं। वह चट बोलउठा - ‘नहीं, आज दूध नहीं लूँगा।’ किन्तु मनोरमा तो तब तक दूधकाकटोरा लेकर सामने आ गई, बोली - ‘थोड़ा-सा लीजिए, अभी गरम है।’

मोहन बार-बार सोचता था कि कोई ऐसी बात निकले, जिसमें मुझेकुछकरना पड़े और मनोरमा मानिनी बने, मैं उसे मनाऊँ; किन्तु मनोरमामें वह मिट्टी ही नहीं रही। मनोरमा तो कल की पुतली हो गई थी। मोहनने - ‘दूध अभी गरम है,’ इसी में से देर होने का व्यंग्य निकाल लियाऔर कहा - ‘हाँ, आज मेला देखने चला गया था, इसी में देर हुई।’

किन्तु वहाँ कैफियत तो कोई लेता न था, देने के लिए प्रस्तुतअवश्य था। मनोरमा ने कहा - ‘नहीं, अभी देर तो नहीं हुई। आधा घण्टाहुआ होगा कि दूध उतारा गया है।’

मोहन हताश हो गया। चुपचाप पलंग पर जा लेटा। मनोरमा नेउधर ध्यान भी नहीं दिया। वह चतुरतासे गृहस्थी की सारी वस्तुओं कोसमेटने लगी। थोड़ी देर में इससे निबटकर वह अपनी भूल समझ गई।

चट पान लगाने बैठ गई। मोहन ने यह देखकर कहा - ‘नहीं, मैं पानइस समय न खाऊँगा।’

मनोरमा ने भयभीत स्वर से कहा - ‘बिखरी हुई चीजें इकट्ठी नकर लेती तो बिल्ली-चूहे उसे खराब कर देते। थोड़ी देर हुईहै, क्षमाकीजिए। दो पान तो अवश्य खा लीजिए।’

बाध्य होकर मोहन को दो पान खाने पड़े। अब मनोरमा पैर दबानेबैठी। वेश्या तिरस्कृत मोहन घबरा उठा। वह इस सेवा से कब छुट्टी पाए?

इस सहयोग से क्या बस चले। उसने विचारा कि मनोरमा को मैंने हीतो ऐसा बनाना चाहा था। अब वह ऐसी हुई, तो मुझे अब विरक्ति क्योंहै? इसके चरित्र का यह अंश क्यों नहीं रुचता - किसी ने उसके कानमें धीरे-से कहा - ‘तुम तो अपनी स्त्री दो दासी बनाना चाहते थे, जोवास्तव में तुम्हारी अन्तरात्मा का ईह्रिश्वसत नहीं था। तुम्हारी कुप्रवृि्रूद्गायों कीवह उ्रूद्गोजना थी कि वह तुम्हारी चिर-संगिनी न होकर दासी के समानआज्ञाकिरणी मात्र रहे। वही हुआ। अब क्यों झँखते हो!’ अकस्मात्‌ मोहनउठ बैठा। मोहन और मनोरमा एक-दूसरे के पैर पकड़े हुए थे।

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