सलीम
जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ
जयशंकर प्रसाद
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सलीम
पश्चिमो्रूद्गार सीमाप्रान्त में एक छोटी-सी नदी के किनारे, पहाड़ियों से घिरे हुए उस छोटे-से गाँव पर, सन्ध्या अपनी धुँधली चादर डाल चुकीथी। प्रेमकुमारी वासुदेव के निमि्रूद्गा पीपल के नीचे दीपदान करने पहुँची।
आर्य-संस्कृति में अश्वत्थ की वह मर्यादा अनार्य-धर्म के प्रचार के बाद भी उस प्रान्त में बची थी, जिसमें अश्वत्थ चैत्य-वृक्ष या वासुदेव का आवास समझकर पूजित होता था। मन्दिरों के अभाव में तो बोधिवृक्ष ही देवता की उपासना का स्थान था। उसीके पास लेखराम की बहुत पुरानी परचून की दुकान और उसी से सटा हुआ छोटा-सा घर था। बूढ़ा लेखराम एक दिन जब ‘रामा रामा जै जै रामा’ कहता हुआ इस संसार से चला गया, तब से वह दुकान बन्द थी। उसका पुत्र नन्दराम सरदार सन्तसिंहके साथ घोड़ों के व्यापार के लिए यारकन्द गया था। अभी उसके आनेमें विलम्ब था। गाँव में दस घरों की वस्ती थी, जिसमें दो-चार खत्रियोंके और एक घर पण्डित लेखराम मिसर का था। वहाँ के पठान भीशान्तीपूर्ण व्यवसायी थे। इसीलिए वजीरियों के आक्रमण से वह गाँव सदासशंक रहता था। गुलमुहम्मद खाँ - स्रूद्गार वर्ष का बूढ़ा - उस गाँव कामुखिया - प्रायः अपनी चारपाई पर अपनी चौपाल में पड़ा हुआ कालेनीलेपत्थरों की चिकनी मनियों की माला अपनी लम्बी-लम्बी ऊँगलियोंमें फिराता हुआ दिखाई देता। कुछ लोग अपने-अपने ऊँट लेकर बनिज-व्यापार के लिए पास की मण्डियों में गये थे। लड़के बन्दूकें लिएपहाड़ियों के भीतर शिकार के लिए चले गये थे।
प्रेमकुमारी दीप-दान और खीर की थाली वासुदेव को चढ़ाकर अभी नमस्कार कर रही थी कि नदी के उतार में अपनी पतली-दुबली कायामें लड़खड़ाता हुआ, एक थका हुआ मनुष्य उसी पीपल के पास आकरबैठ गया। उसने आश्चर्य से प्रेमकुमारी को देखा। उसके मुँह से निकलपड़ा - ‘काफिर...!’
बन्दूक कन्धे पर रखे और हाथ में एक मरा हुआ पक्षी लटकायेवह दौड़ता चला आ रहा था। पत्थरों की नुकीली चट्टानें उसके पैर कोछूती ही न थीं। मुँह से सीटी बज रही थी। वह था गुलमुहम्मद कासोलह बरस का लड़का अमीर खाँ! उसने आते ही कहा - ‘प्रेमकुमारी,तू थाली उठाकर भागी क्यों जा रही है? मुझे तो आज खीर खिलाने केलिए तूने कह रखा था।’
‘हाँ भाई अमीर! मैं अभी और ठहरती; पर क्या करूँ, यह देखन, कौन आ गया है! इसलिए मैं घर जा रही थी।’
अमीर ने आगन्तुक को देखा। उसे न जाने क्यों क्रोद आ गया।उसने कड़े स्वर से पूछा - ‘तू कौन है?’
‘एक मुसलमान’ - उ्रूद्गार मिला।
प्रेमा ने कहा - ‘बाबा! तुमने कुछ और भी कहा था। वह तोनहीं आया!’
बूढ़ा त्यौरी बदलकर नन्दराम को देखने लगा। नन्दराम ने कहा -‘मुझे घर में अस्तबल के लिए एक दालान बनाना है। इसलिए बालियाँनहीं ला सका।’
‘नहीं नन्दराम! तुझको पेशावर फिर जाना होगा। प्रेमा के लिए बालियाँ बनवा ला! तू अपनी बात रखता है।’
‘अच्छा बाबा! अबकी बार जाऊँगा, तो ले ही आऊँगा।’
हिजरती सलीम आश्चर्य से उनकी बातें सुन रहा था। सलीम जैसे पागल होने लगा था। मनुष्यता का एक पक्ष वह भी है, जहाँ वर्ण, धर्मऔर देश को भूलकर मनुष्य मनुष्य के लिए ह्रश्वयार करता है। उसके भीतरकी कोमल भावना, शायरों की प्रेम-कल्पना, चुटकी लेने लगी। वह प्रेमाको ‘काफिर’ कहता था। आज उसने चपाती खाते हुए मन-ही-मन कहा- ‘बुते-काफिर!’
सलीम घुमक्कड़ी-जीवन की लालसाओं से सन्तह्रश्वत, व्यक्तिगत आवश्यकताओं से असन्तुष्ट युक्तप्रान्त का मुसलमान था। कुछ-न-कुछ करते रहने का उसका स्वभाव था। तब वह चारों ओर से असफल हो रहा था,तभी तुर्की की सहानुभूति में हिजरत का आन्दोलन खड़ा हुआ था। सलीमबी उसी में जुट पड़ा। मुसलमानी देशों का आतिथ्य कड़वा होने का अनुभव उसे अफगानिस्तान में हुआ। वह भटकता हुआ नन्दराम के घरपहुँचा था।
मुस्लिम उत्कर्ष का उबाल जब ठण्डा हो चला, तब उसके मन में एक स्वार्थपूर्ण कोमल कल्पना का उदय हुआ। वह सूफी कवियों-सासौन्दर्योपासक बन गया। नन्दराम के घर का काम करता हुआ वह जीवन बिताने लगा। उसमें भी ‘बुते-काफिर’ को उसने अपनी संसार-यात्रा काचरम लक्ष्य बना लिया।
प्रेमा उससे साधारणतः हँसती-बोलती और काम के लिए कहती।
सलीम उसके लिए खिलौना था। दो मन दो विरुद्ध दिशाओं में चलकर भी नियति से बाध्य थे, एकत्र रहने के लिए।
अमीर ने एक दिन नन्दराम से कहा - ‘उस पाजी सलीम क े अपनेयहाँ से भगा दो, क्योंकि उसके ऊपर सन्देह करने का पूरा कारण है।’नन्दराम ने हँसकर कहा - ‘भाई अमीर! वह परदेश में बिना सहारे आया है। उसके ऊपर सबको दया करनी चाहिए।’
अमीर के निष्कपट हृदय में यह बात न जँची। वह रूठ गया।तब भी नन्दराम ने सलीम को अपने यहाँ रहने दिया।
सलीम अब कभी-कभी दूर-दूर घूमने के लिए भी चला जाता।
उसके हृदय में सौन्दर्य के कारण जो स्निग्धता आ गयी थी, वह लालसामें परिणत होने लगी। प्रतिक्रिया आरम्भ हुई। एक दिन उसे लँगड़ा वजीरीमिला। सलीम की उससे कुछ बातें हुइर्ं। वह पिर से कट्टर मुसलमान होउठा। धर्म की प्रेरणा से नहीं, लालसा की ज्वाला से!
वह रात बड़ी भयानक थी। कुछ बूँदें पड़ रही थीं। सलीम अभीसशंक होकर जाग रहा था। उसकी आँखें भविष्य का दृश्य देख रही थीं।घोड़ों के पद-शब्द धीरे-धीरे उस निर्जनता को भेदकर समीप आ रहे थे।
सलीम ने किवाड़ खोलकर बाहर झाँका। अँधेरी उसके कलुष-सी फैलरही थी। वह ठठाकर हँस पड़ा।
भीतर नन्दराम और प्रेमा का स्नेहालाप बन्द हो चुका था। दोनोंचन्द्रालस हो रहे थे। सहसा गोलियों की कड़कड़ाहट सुन पड़ी। सारे गाँवमें आतंक फैल गया।
उन दस घरों में से जो भी कोई अस्त्र चला सकता था, बाहर निकल पड़ा। अस्सी वजीरियों का दल चारों ओर से गाँव को घेरे मेंकरके भीषण गोलियों की बौछार कर रहा था।
अमीर और नन्दराम बगल में खड़े होकर गोली चला रहे थे।कारतूसों की परतल्ली उनके कन्धों पर थी। नन्दराम और अमीर दोनों के निशाने अचूक थे। अमीर ने देखा कि सलीम पागलों-सा घर में घुसाजा रहा है। वह भी भरी गोली चलाकर उसके पीछे नन्दराम के घर में घुसा। बीसों वजीरी मारे जा चुके थे। गाँववाले भी घायल और मृतक हो रहे थे। उधर नन्दराम की मार से वजीरियों ने मोर्चा छोड़ दिया था।
सब भागने की धुन में थे। सहसा घर में से चिल्लाहट सुनाई पड़ी।
नन्दराम भीतर चला गया। उसने देखा; प्रेमा के बाल खुले हैं।उसके हाथ में रक्त से रंजित एक छुरा है। एक वजीरी वहीं घायल पड़ाहै। और अमीर सलीम की छाती पर चढ़ा हुआ कमर से छुरा निकालरहा है। नन्दराम ने कहा - ‘यह क्या है, अमीर?’
‘चुप रहो भाई! इस पाजी को पहले...’
‘ठहर अमीर! यह हम लोगों का शरणागत है।’ कहते हुए नन्दरामने उसका छुरा छीन लिया; किन्तु दुर्दान्त युवक पटान कटकटाकर बोला-‘इस सूअर के हाथ! नहीं नन्दराम! तुम हट जाओ, नहीं तो मैं तुमको ही गोली मार दूँगा। मेरी बहन, पड़ोसिन का हाथ पकड़कर खींच रहा था। इसके हाथ...’
नन्दराम आश्चर्य से देख रहा था। अमीर ने सलीम की कलाईककड़ी की तरह तोड़ ही दी। सलीम चिल्लाकर मूर्च्छित हो गया था।प्रेमा ने अमीर को पकड़कर खींच लिया। उसका रणचण्डी-वेश शिथिलहो गया था। सहज नारी-सुलभ दया का आविर्भाव हो रहा था। नन्दरामऔर अमीर बाहर आये।
वजीली चले गये।
एक दिन टूटे हाथ को सिर से लगाकर जब प्रेमा को सलाम करते हुए सलीम उस गाँव से विदा हो रहा था, तब प्रेमा को न जाने क्योंउस अभागे पर ममता हो आयी। उसने कहा - ‘सलीम, तुम्हारे घर पर कोई और नहीं है, तो वहाँ जाकर क्या करोगे? यहीं पड़े रहो।’
सलीम रो रहा था। वह अब भी हिन्दुस्तान जाने के लिए इच्छुक नहीं था; परन्तु अमीर ने अकड़कर कहा - ‘प्रेमा! इसे जाने दे। इस गाँव में ऐसे पाजियों का काम नहीं।’
सलीम पेशावर में बहुत दिनों तक भीख माँगकर खाता और जीतारहा। उसके ‘बुते-काफिर’ वाले गीत को लोग बड़े चाव से सुनते थे।