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KIDNEY TRANSPLANTATION

किडनी ट्रांसप्लांटेशन

डॉ. दीपक प्रकाश

किडनी ट्रांसप्लांटेशन एक सर्जिकल प्रोसीजर है. इसमें रोगग्रस्त किडनी को निकालकर स्वस्थ किडनी प्रतिस्थापित किया जाता है और नयी किडनी तुरंत काम करने लगती है.कई बार कुछ सप्ताह का समय लग सकता है.यह एक लाईफ सेविंग सर्जरी है. किडनी बिना मरीज का जीवित रहना मुश्किल है. इसका मुख्य काम रक्त से यूरिक एसिड तथा दूसरे विषैले पदाथोर्ं को फिल्टर कर बाहर निकाल रक्त का शुद्धिकरण करना है. बीमारी की स्थिति में रक्त का शुद्धिकरण प्रभावित होता है और विषैले तथा हानिकारक पदार्थ बाहर नहीं निकल पाते. समय पर इलाज नहीं कराया गया तो जीवन के लिए खतरा बन जाता है.

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पूरी दुनिया में प्रतिवर्ष लगभग 27 हजार किडनी ट्रांसप्लांटेशन होता है. इसमें 6.5 हजार यूनाइटेड स्टेट्‌स, ब्राजील में 1800 तथा भारत में सवा तीन हजार की संख्या भी शामिल है. एक—दूसरे आंकड़ें के अनुसार भारत में इसकी संख्या पांच हजार से भी अधिक है. भारत में कोई अधिकारिक लेखा—जोखा उपलब्ध नहीं होने की वजह से निश्चित आंकड़ा बताना मुश्किल है. चेन्नई के मल्टी आर्गन हार्वेस्टिंग एड नेटवर्क फाउंडेशन के मैनेजिंग डायरेक्टर सुनील श्राफ के शब्दों में :—‘‘यह कटु सत्य है कि हमारे पास कोई राष्ट्रीय रजिस्ट्री नहीं है. इस कारण कोई नहीं जानता की भारत में सही रूप से प्रतिवर्ष कितना किडनी ट्रांसप्लांटेशन होता है. तीन से साढ़े तीन हजार का ट्रांसप्लांटेशन का आंकड़ा अत्यधिक कम है. प्रतिवर्ष करीब डेढ़ लाख कीजरूरत है.''

दुनिया के 69 देशों में जहां इसकी सुविधाएं हैं, गत एक दशक के दौरान पचास फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. दुर्भाग्यवशभारत में इसमें वृद्धि नहीं हो रही है. श्री श्राफ इसके लिए हेल्थ इंश्योरेंस की कमी, संस्थागत तथा वित्तीय सपोर्ट की कमी को जिम्मेदार बताते हैं. मालूम हो कि एक ट्रांसप्लांटेशन में तीन से चार लाख का खर्च होता है. इसके साथ—साथ सर्जरी के बाद दवाइयों में प्रतिमाह करीब 10 हजार का पूरी जिंदगी खर्चा आता है.

अखिल भारतीय चिकित्सा संस्थान के ट्रांसप्लांट सर्जन डा. संदीप गुलेरिया के अनुसार— स्वस्थ इंसान के किडनी को रोगग्रस्त मरीजों में प्रतिस्थापित करने के दौरान कई बार कई तरह की जटिलताएं देखने को मिलती हैं. पश्चिमी देशों में तो मृत लोगों के किडनी को मरीज में प्रतिस्थापित करना शुरु किया गया है. इस वजह से किडनी की कमी को बहुत हद तक पूरा किया जा रहा है. भारत में जीवित इंसान का किडनी ट्रांसप्लांट करने की शुरूआत तो की है, किंतु ट्रांसप्लांट एक्ट के बावजूद अभी तक मृत लोगों की किडनी प्राप्त करने के दौरान कई तरह की अड़चनें आती है. समय पर किडनी भी नहीं नहीं मिल पाती है.

किडनी ट्रांसप्लांटेशन एक सर्जिकल आपरेशन है. इसमें रोगग्रस्त किडनी को निकालकर स्वस्थ किडनी प्रतिस्थापित किया जाता है. और नया किडनी तुरंत काम करने लगता है.कई बार कुछ सप्ताह का समय लग सकता है.यह एक लाईफ सेविंग सर्जरी है.इसके बिना मरीज का जीवित रहना मुश्किल है.

सेम के आकार के करीब 10 सेमी लंबा तथा 6.4 सेमी चौड़ा किडनी रक्त से यूरिया, मिनरल्स,विषैला तथा दूसरे हानिकारक पदार्थों को अलग करता है और पानी, नमक तथा जरूरी लवण का संरक्षण करता है.इसका मुख्य काम रक्त से यूरिक एसिड तथा दूसरे विषैले पदाथोर्ं को फिल्टर कर बाहर निकालरक्त का शुद्धिकरण करना है.जब कोई मरीज किडनी की बीमारी से जूझ रहा होता है तो रक्त का शुद्धिकरण प्रभावित होता है और विषैले तथा हानिकारक पदार्थ बाहर नहीं निकल पाता. इससे मरीज को कई तरह की परेशानियां होने लगती हैं. समय पर इलाज नहीं कराने पर जीवन के लिए खतरा भी बन जाता है. शरीर में किडनी की संख्या दो होती है .किंतु जीवित रहने के लिए एक किडनी ही काफी होती है. प्रत्येक किडनी में पर्याप्त रीनल टीसू होती है, जो प्रतिदिन के कार्यों को निष्पादित करने में सक्षम होता है.

किडनी रोग के कारण

किडनी रोग मूलतः दो तरह के होते हैं— क्रानिक तथा एक्यूट. क्रानिक डिजीज मूलतः शरीर के दूसरे अंगों की समस्याओं की वजह से होती है जिसे ठीक होने के बाद किडनी की समस्या भी दूर हो जाती है.एक्यूट डिजीज में किडनी खुद रोगग्रस्त होता है. कई बार ठीक होने की संभावना कम होती है और मरीज किडनी फेल्योर या एण्ड स्टेज रीनल डिजीज का शिकार हो जाता हैं.

डायबिटीज, उच्च रक्तचाप,संक्रमण तथा क्रानिक ग्लोमिरुलो नेफ्राइटिस जैसी कुछ ऐसी बीमारियां हैं जिसका पूरा प्रभाव किडनी की कार्यक्षमता पर पड़ता है. जैसे—जैसे बीमारी बढती जाती है उसी अनुपात में बीमारी भी बढती जाती ह.ै एक समय ऐसा आता है जब किडनी सामान्य कार्य करना सदा के लिए बंद कर देता है.इसे किडनी फेल्योर कहते है.ं ऐसी स्थिति में हानिकारक पदार्थों को सही तरह से फिल्टर नहीं होने के कारण रक्त में अत्यधिक मात्रा में उत्सर्जित पदार्थ तथा कैमिकल्स का जमाव होने लगता है. इन विषैले पदार्थें का शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है. जब इसकी मात्रा अत्यधिक ज्यादा हो जाती है तो किडनी स्थायी रूप से काम करना बंद कर देती है. इसे रीनल फेल्योर कहते हैं.

क्रानिक किडनी फैल्योर पुरानी बीमारियों की वजह से होती है. उच्च रक्तचाप, ग्लोमिरूलो नेफ्राइटिश, किडनी में पत्थरी या ट्‌्यूमर की वजह से किडनी धीरे—धीरे रोगग्रस्त होने लगती है. एक समय ऐसा आता है, जब किडनी अपना काम पूरी तरह बंद कर देती है.ऐसी स्थिति में डायलिसिस या किडनी प्रत्यारोपण के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं रहता.

उच्च रक्तचापके कारण भी किडनी की कार्यशीलता बुरी तरह प्रभावित होती है अर्थात्‌ उच्च रक्तचापके प्रति किडनी काफी संवेदनशील होता है और सीधे तौर पर किडनी को हानि पहुंचाता है. जब किसी कारणवश किडनी की क्षमता में 30 फीसदी से ज्यादा की कमी आ जाती है तभी मरीज में बीमारियों के लक्षण दीखने लगते हैं. इसका भी पता रक्तजांच से ही चलता है, इसकी वजह से मरीज को जब मितली या अपच की शिकायत होनेे लगती है तो शुरूआती दिनों में किडनी रोग की ओर किसी का भी ध्यान नहीं जाता. कई बार फेमिली डॉक्टर को भी लगने लगता है कि ऐसा पेट की गड़बड़ी के कारण हो रहा है.किंतु जब किडनी की कार्यक्षमता 10 फीसदी से ज्यादा कम हो जाती है, किडनी फेल्योर या एण्ड स्टेज रीनल डिजीज की स्थिति आ जाती है. .

किडनी फेल्योर के लक्षण

किडनी फेल्योर की स्थिति में मरीजों में कई तरह के लक्षण देखने को मिलते हैं. जो बीमारी की गंभीरता, प्रभावित अंगों की स्थिति पर निर्भर करते हैं. कई मरीजों में शुरूआत में किसी तरह के लक्षण देखने को नहीं मिलते. दोनों किडनी मिलकर लक्षण को दबाये रखते हैं अौर एक—दूसरे की कमी की पूर्ति करती रहती हैं. जैसे—जैसे समय बीतता जाता है अौर गड़बड़ियां बढ़ती जाती हैं, लक्षण धीरे—धीरे दिखने लगते हैं. ऐसी स्थिति में कई बार इसके रोग की सही—सही जानकारी चिकित्सकों को भी नहीं हो पाती. फिर भी कई सामान्य लक्षण हैं जैसे चेहरे, हाथ, पांव में सूजन, डिहाइड्रेशन (शरीर में पानी की कमी), बार—बार प्यास लगना, धड़कन तेज होना, पेशाब की मात्रा कम होना,बार—बार पेशाब लगना,कन्फ्यूजन, थकान, उल्टी, मिचली,भूख का न लगना, मांसपेशियां, जोड़, छाती में दर्द, खुजली,त्वचा नीला होना, खून की कमी जैसे लक्षणों से इसकी पहचान होने लगती है.

किडनी ट्रांसप्लांटेशन

एण्ड स्टेज रीनल डिजीज या किडनी फेल्योर के मरीजों का डायलिसिस या किडनी ट्रांसप्लांटेशन से इलाज किया जाता है. डायलिसिस में रोगग्रस्त मरीज के प्रदूषित रक्त को कृत्रिम किडनी की सहायता से साफ किया जाता है.इसके लिए एक विशेष प्रकार की डायलिसिस मशीन की सहायता ली जाती है.ऐसा सप्ताह में तीन बार करने की जरूरत पड़ती है.दूसरी विधि है किडनी ट्रांसप्लांटेशन.इसमें रोगग्रस्त किडनी को ऑपरेशन कर निकाल दिया जाता है और उसकी जगह किसी इंसान का स्वस्थ किडनी प्रतिरोपित कर दी जाती है.यह विधि भारत में ही नहीं,पूरी दुनिया में अपनायी जा रही है. यहां यह ध्यान देना जरूरी है कि हर मरीज को ट्रांसप्लांटेशन नहीं किया जा सकता.मरीज को टीबी या बोन का संक्रमण,हार्ट, फेफड़े या लीवर की बीमारियां,कैंसर,दूसरी जानलेवा बीमारी,स्मोकिंग,शराब या नशीली दवाओं की बुरी लत वाले मरीजों केा किडनी ट्रांसप्लांटेशन नहीं किया जाता.

प्रतिरोपण के लिए किडनी तीन तरीकों से प्राप्त किया जाता है—

जीवित रिलेटेड डोनर—मरीज के नजदीकी रिस्तेदार माता,पिता,भाई,बहन,बेटा,बेटी से एक किडनी निकालकर प्रतिरोपित किया जाता है.

जीवित अनरिलेटेड डोनर—मरीज के दोस्त या पत्नी से किडनी प्राप्त किया जाता है.

मृत डोनर—वैसे व्यक्ति जिसकी मौत तुरंत हो गयी हो और जिन्हें कोई ज्ञात क्रानिक किडनी रोग न हो.हेल्दी किडनी को 48 घंटे तक सेलाइन वाटर में सुरक्षित रखा जा सकता है और एक जगह से दूसरी जगह ट्रांसपोर्ट भी किया जा सकता है.इस बीच डोनर तथा मरीज के रक्त तथा टीसू टाइपिंग तथा मैचिंग के लिए काफी समय मिल जाता है.

ट्रांसप्लांट के पहले—

जब किसी मरीज को रीनल सेंटर भेजा जाता है तो ट्रांसप्लांट टीम मरीज की पूरी तरह जांच कर यह जानने का प्रयास करते हैं कि बाकई मरीज ट्रांसप्लांट के लिए उपयुक्त कंडिडेट है या नहीं. जब टीम को विश्वास हो जाता है कि मरीज ट्रांसप्लांट के लिए उपयुक्त है तो मरीज को जांच की लंबी प्रक्रिया के दौर से गुजरना पड़ता है. जब सभी जांच सही होती है तो ट्रांसप्लांटेशन की तैयारी शुरू की जाती है और डोनर की जांच शुरू होती है. डोनर का भी भी ब्लड ग्रुप,टीसू टाइपिंग से लेकर हार्ट,लंग आदि तमाम अंगो ंकी पूरी जांच की जाती है.

यदि डोनर की सारी रिपोर्ट ठीक होती है तो ट्रांसप्लांट का प्रोसिड्‌यार आगे बढाया जाता है.अन्यथा वेटिंग लिस्ट में डाल दिया जाता है. और उनयुक्त डोनर मिलने तक इंतजार करने को कहा जाता है.

आपरेशन के बाद—

किडनी ट्रांसप्लांट में लगभग तीन से चार घंटे का समय लगता है.मरीज की सर्जरी की शुरूआत तभी की जाती है जब डोनर किडनी मिल जाती है.यदि मरीज डायबिटीज से भी जूझ रहा है तो किडनी के साथ—साथ पैंक्रियाज का भी ट्रांसप्लांट किया जाता है. दोनों आपरेशन एक साथ करने पर लगभग छह घंटे का समय लगता है. आपरेशन के बाद मरीज को सात से दस दिनों तक अस्पताल में भर्ती रखने के बाद छुट्‌टी दे दी जाती है. लेकिन,मरीज को डस्ट तथा प्रदूषण फ्री एरिया में अस्पताल के नजदीक ही कम से कम तीन माह तक रहने की हिदायत दी जाती है और नियमित रूप से एक से दो महीने तक डॉक्टरों की निगरानी में रखा जाता है.इस दौरान रक्त और दूसरी जांच एक से दो माह तक की जाती है और देखा जाता है कि ट्रांसप्लांट की स्थिति क्या है? किडनी का शरीर रिजेक्ट तो नहीं कर रहा है? या कहीं दूसरी जटिलताएं तो नहीं विकसित हो रही हैं.

रिस्क फैक्टर—

ब्लीडिंग

डीप वेन थ्रेाम्बोसिस

स्ांक्रमण

हार्ट एटैक या स्ट्रोक

सफलता की दर—

साइक्लोस्पोरीन नामक नई मेडिसिन के मार्केट में आने के बाद आर्गन ट्रांसप्लांट प्रोग्रम में एक क्रांति—सी आ गयी. इसकी सफलता की दर मरीज तथा डोनर के टीसू टाइपिंग तथा एचएलए मैचिंग के अनुसार निर्धारित होने लगी. निकट के संबंधियों जैसे माता,पिता ये बेटे,बेटी के कारण ट्रांसप्लांट में सफलता की दर काफी ज्यादा होने लगी. उसके बाद ही अनरिलेटेड तथा मृत डोनर के किडनी ट्रांसप्लांट का नंबर आता है. यदि पूरी तरह टीसू मैच कर गया तो ट्रांसप्लांटेशन के बाद मरीज पच्चीस वषोर्ं तक जीवित रह सकता है. हाफ मैच की स्थिति में जीवन काल 12 तथा अनरिलेटेड तथा मृत डोनर की स्थिति में साढे छह वर्ष जीवन काल होता है.चेन्नई स्थित अपोलो हॉस्पिटल के चीफ यूरोलाजिस्ट डा. जे.वी थाचिल की माने तो साइक्लोस्पोरीन के पहले जीवित संबंधियों के टीसू पूरी तरह मैच कर जाने की स्थिति में 90 फीसदी मरीज का जीवन काल पांच वषोर्ं का रहता था.लेकिन, अब इसमें अभूतपूर्व बढोत्तरी हो गयी है. ऐसे मरीजों को पच्चीस वषोर्ं तक जीवित देखा गया है. साइक्लोस्पोारीन के पहले अनरिलेटेड या मृत डोनर के किडनी ट्रांसप्लांट के बाद 35 से 40 फीसदी मरीजों का जीवन—काल लगभग तीन वर्षा था लेकिन अब 78 से 80 फीसदी मरीज मरीज आराम से 5—6 वर्ष तक जीवित रहते हैं.

किडनी ट्रांसप्लांटेशन कानून

भारत सरकार के कानून के मुताबिक केवल संबंधी जिसका किडनी मेडिकली रोगी के लिए देने के कंपेटेबुल है, ही किडनी दान कर सकते हैं. निकट कि संबंधियों में माता—पिता,बेटा,बेटी, बच्चे,भाई,बहन तथा दादा,दादी शामिल हैं.निकट के संबंधियों का किडनी बिना सरकारी इजाजत के प्रतिस्थापित की जाती है.दूर के संबंधियों तथा दूसरे लेाग किडनी दान करने के लिए इच्छुक रहने के बावजूद ऐसा नहीं कर सकते. इसके लिए सरकार से इजाजत लेने की जरूरत होती है.मृत डोनर के लिए भी सरकार से इजाजत लेनी पड़ती है.

दलाल का शिकंजा

मानव अंग प्रत्यारोपण का मार्केट भारत में दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है. कई लोग इसे अधिक से अधिक पैसा कमाने का जरिया बना रहे हैं. देश के मेट्रो सिटी में इसका कारोबार नियम—कानून को ताक पर रखकर बड़े पैमाने पर किया जा रहा है. इसके अंतर्गत गरीब लोगों की किडनी को मोटी रकम का लालच देकर जरूरतमंद मरीजों को बेचा जा रहा है. इसमें बड़े पैमाने पर रुपयों का लेन—देन होता है. भारत में प्रतिवर्ष पांच हजार प्रत्यारोपण होता है. यहां के सभी बड़े तथा कारपोरेट अस्पतालों में प्रत्यारोपण किया जाता है. निकट संबंधियों द्वारा किडनी दान कानून सम्मत भी हैं.

जो लोग धन देकर अपनी किडनी बेचते हैं, विक्रेता अौर खरीदनेवाले के बीच एक गुप्त समझौता होता है. दानकर्ता को अस्पताल जाकर ट्रांसप्लांट सर्जन को बताना होता है कि वे मरीज के निकट संबंधी हैं अौर अपनी एक किडनी मुफ्त में दान करना चाहते है. उसके बाद सीनियर डाक्टर की टीम उस डोनर की पूरी जांच करते हैं, तरह—तरह के टेस्ट करवाते हैं. डोनर के सभी तरह से फिट होने का बाद ही उसकी किडनी मरीज को प्रत्यारोपण के लिए निकाली जाती है.

प्राइवेट अस्पतालों में भर्ती होने वाले मरीजों की किडनी खरीद—बिक्री का मुख्य स्रोत आसपास की दवा दुकान होता है. ये इसमें मुख्य भूमिका अपनाते हैं. दक्षिण दिल्ली के एक ख्यातिप्राप्त अस्पताल में किडनी प्रत्यारोपण करने वाले रमेश कुमार के शब्दों में :— जब मेरा भाई पास की एक दवा दुकान से डायलिसीस ड्रग खरीदने गया तो दुकानदार ने उनसे पूछा कि मरीज किस वार्ड के किस बेड पर भर्ती है. उसके बाद से वहां का दलाल ने मेरे परिवार से मिलना शुरू किया. मुझे तत्काल एक किडनी की जरूरत थी अौर मेरे डॉक्टर यह कह चुके थे कि मेरे माता—पिता की किडनी आपसे मैच नहीं करता है.

अंत में, लगभग सभी ट्रांसप्लांट के बाद अच्छी जिंदगी व्यतीत करते हैं. जीवित सगे संबंधियों के किडनी वाले मरीज का स्वास्थ्य मृत डोनर की तुलना में ज्यादा स्वस्थ,प्रसन्न और सुखी रहते हैं.ट्रांसप्लांट के बाद हमेशा रिजेक्शन की संभावना बनी रहती है.इससे बचने के लिए मरीज को हमेशा इम्युनोसप्रेसिव दवा का सेवन करते रहना पड़ता है.ये दवाइयां मरीज की किडनी को रिजेक्ट करने से रोकती हैं. किंतु इनकी वजह से मरीज को हमेशा संक्रमण तथा कैंसर होने की संभावना बनी रहती है. यही कारण है कि मरीज को बीच—बीच में कैंसर की जांच कराते रहना पड़ता है. इन दवाओं की वजह से उच्च रक्तचाप,डायबिटीज होने की भी संभावना होती है. किसी भी अनहोनी से बचने, अच्छे तथा दीर्घजीवन के लिए नियमित फॉलो अप तथा दवाओं का नियमित सेवन जरूरी है.

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