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Chikitsa ka Badalta Trend

चिकित्सा का बदलता ट्रेंड

डा.ॅ दीपक प्रकाश

आज सर्जरी ने ‘कैफेटेरिया च्वाइश' तक की मंजिल तय कर ली है। एक रोग की कई तरह की सर्जरी का विकल्प अब मरीज के पास उपलब्ध है। मरीज की मर्जी, चाहे जो विधि अपनाए। यही चिकित्सा—क्षेत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि है। अब तो सिंगल इंसीजन से स्कारलेस, रोबोटिक, डे—केयर सर्जरी भी किये जा रहे हैैं। पित्त की थैली की सर्जरी के लिए मुंह में इंडोस्कोप डाला और कर दी सर्जरी। किडनी की सर्जरी करनी हो,पेशाब की नली से ही हो गई सर्जरी। न रक्तस्राव,न संक्रमण,न चीरे का निशान। इसे कहते हैं स्कारलेस सर्जरी या ब्लडलेस सर्जरी। अब तो सुबह सर्जरी होती है और शाम को छुट्‌टी दे दी जाती है .यह सब और कुछ नहीं, मिनिमली इन्वेसिव और इंडोस्कोपिक सर्जरी का कमाल है।

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आर के सिंह की अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट से पित्त की थैली में पथरी का पता चला और उन्हें सर्जरी की सलाह दी गई। एक कार्पोरेट ऑफिस में उच्च पद पर कार्यरत श्री सिंह समझ नहीं पा रहे थे कि किस विधि से सर्जरी कराएं ? लैप्रोस्कोपिक या रोबोटिक सर्जरी के वे पक्ष में नहीं थे। पेट में तीन—चार छेद से सर्जरी कराना उन्हें मंजूर नहीं था। सिंगल इंसीजन लैप्रोस्कोपिक सर्जरी के बारे में भी उन्हें पता चला । वे नहीं चाहते थे कि सर्जरी के बाद किसी तरह का निशान पेट में रहे। उन्हें कहीं से —नोट्‌स' सर्जरी के बारे में पता चला। ‘नोट्‌स' यानी नेचुरल ओपनिंग ट्रांसल्युमिनल इंडोस्कोपिक सर्जरी। मुंह के द्वारा पेट में नली डालकर पित्त की थैली की सर्जरी। वे ऐसी ही सर्जरी कराना चाह रहे थे। फिर क्या था, अगले दिन ही शनिवार की सुबह एक कार्पेारेट अस्पताल में भर्ती हुए। दोपहर को सर्जरी हुई और शाम को छुट्‌टी। रविवार के आराम के बाद सोमवार से ऑफिस जाने लगे।

41 वर्षीय सुजाता को भी सर्जरी के निशान को लेकर समस्या थी। यूटरस में बड़ी—सी गांठ ;फाइब्रॉइड द्ध का पता चलने के बाद सर्जरी कराना उसे जरूरी था। लेकिन,वह सर्जरी इसलिए टालती जा रही थी कि लेप्रोस्कोपिक सर्जरी के बाद पेट में तीन—चार निशान रह जायेंगें जो उसे एकदम पसंद नहीं था। वह काफी फैशनेबल और फीगर को लेकर कांशस महिला है। एक शादी के सिलसिले में जब वह मुंबई गई तो वहीं पता चला कि यूटरस की सर्जरी वेजाइना ;गुप्तांग द्ध के रास्ते भी होती है। पेट में किसी तरह का चीरा लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। यह जान वह काफी खुश हुई और दिल्ली लौटने के एक सप्ताह के अंदर ही एक बड़े कार्पोरेट अस्पताल में सर्जरी करा ली। अब, सुजाता इसलिए काफी खुश है कि उसकी सर्जरी भी हो गई और शरीर में किसी तरह का कोई निशान नहींं हुआ।

इन दोनों उदाहरणों से एक बात तो स्पष्ट है कि आज सर्जरी ने ‘कैफेटेरिया च्वाइश' तक की मंजिल तय कर ली है। एक रोग की कई तरह की सर्जरी का विकल्प अब मरीज के पास उपलब्ध है। मरीज की मर्जी, चाहे जो विधि अपनाए। यही चिकित्सा—क्षेत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इससे मरीजों के साथ—साथ हेल्थ केयर सेक्टर को भी काफी फायदा होता है। आर के सिंह और सुजाता ने अपनी सुविधानुसार सर्जरी के विकल्पों का चुना और बिना किसी परेशानी के इलाज कराकर रोग से निजात पा लिया।

छुटकारा मिला झमेले से

आज भले ही पारंपरिक ओपन सर्जरी एकदम क्रूड विधि और बीते दिनों की बात मानी जाती है लेकिन ढाई—तीन दशक पहले तक यही विधि सर्वमान्य थी। इसी विधि से सभी तरह की पेट की सर्जरी की जाती थी। यह सर्जरी कैसी थी,मरीज को इस सर्जरी में कितनी परेशानी होती थी,अब इसकी मात्र कल्पना की जा सकती है।

पेट की कोई भी सर्जरी हो, सात आठ इंच लंबा चीरा लगाकर पेट खोला जाता था। आंत,पित्त की थैली, किडनी में पथरी हो, सभी के लिए लंबा—चौड़ा चीरा जरूरी था। सभी सर्जरी में कम से कम तीन से चार घंटे का समय लगता था। इस दौरान काफी रक्तस्राव होने के कारण रक्त की कई कई बोतलें भी चढ़ाने की जरूरत पड़ती थी। सर्जरी के बाद कम से कम एक से डेढ सप्ताह अस्पताल में भर्ती के दौरान रिकवरीभभी पीड़ादायक होती थी। अस्पताल से छुट्‌टी के बाद भी घर में कम से कम तीन माह आराम करने की जरूरत पड़ती थी। कहने का अर्थ यह है कि कोई भी बड़ी सर्जरी कराने के बाद पूरी तरह स्वस्थ होने में कम से कम छह माह लग जाते थे । इसके बाद भी संक्रमण तथा दूसरी जटिलताओं की संभावनाएं हमेशा बनी रहती थी।

हार्ट सर्जरी की जहां तक बात है, दिलली,कोलकाता,वेल्लौर के कुछ गिने चुने अस्पतालों में ही इसकी सुविधा थी। इसमें भी सात—आठ इंच लंबा चीरा लगाने के बाद छाती की हड्डियों को काटकर अलग किया जाता था। उसके बाद, मांसपेशियों के साथ दूसरे टीसू तथा आंतरिक अंगों को काटने के बाद आपरेशन किया जाता था जिसमें आठ से दस घंटे लगते थे। इस पर भी मरीज बचेगा कि नहीं, सफलता की कोई गारंटी नहीं रहती थी । बच भी गया तो कब तक जिंदा रहेगा, इस पर भी हमेशा प्रश्नचिन्ह लगा रहता था।

कामकाजी लोगों के लिए सर्जरी कराना और भी कष्टकारक था। लंबे समय तक विस्तर पर पड़े रहना आसान नहीं था। शारीरिक,मानसिक, मनोवैज्ञानिक कष्ट के साथ आर्थिक स्थिति पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता था। अधिक दिनों तक अस्पताल में भर्ती रहने के कारण कई तरह की पारिवारिक समस्याएं भी आ घेरती थीं। इलाज का खर्चा बढ़ता तो था ही,एटेंडेंट की उपलब्धता भी एक बड़ी समस्या थी। एकल परिवारवालों के कामकाजी या नौकरीपेशा लोगों के लिए कामधाम छोड़कर अस्पताल में भर्ती रहना काफी कष्टकारक था।

ऐसी स्थिति में चिकित्सा के आधुनिक तकनीक के आ जाने से सभी तरह की सर्जरी काफी आसान हो गई है। लैप्रोस्कापिक,इंडोेस्कोपिक,‘नोट्‌स' तथा रोबोटिक सर्जरी की बदौलत कंप्लीकेटेड,बड़ी या दुरूह सर्जरी की सीमा समाप्त हो गई है। सभी सर्जरी एक जैसी और काफी आसान हो गयी है। पहले जहां कुछ खास तरह की ही सर्जरी होती थी,अब खतरनाक से खतरनाक भी बड़ी आसानी से और धड़ल्ले से हो रही है। आधुनिक उपकरणों के उपयोग की वजह से पहले जो सर्जरी नहीं होती थी,अब आसानी से हो रही है। लीवर,पैंक्रियाज,हार्ट ,रीढ़ की हड्‌डी या ब्रेन की सर्जरी के बारे में पहले जहां सोचा भी नहीं जा सकता था,इंडोस्कोप की सहायता से आजकल आसानी से हो रही है। सभी तरह की सर्जरी में एक से दो सेमी का ही चीरा लगाया जाता है और दो—तीन दिनों के बाद छुट्‌टी दे दी जाती है। किसी में भी चीरा का गहरा निशान,संक्रमण,रक्त चढ़ाने की समस्या नहीं रहती।

उच्चस्तरीय टेक्नीक का कमाल

प्रश्न उठता है कि सर्जरी के क्षेत्र में इतनी बड़ी क्रांति कैसे आयी? पहले जिन अंगों की सर्जरी होती ही नहीं थी या काफी खतरनाक मानी जाती थी,अब कैस इतनी आसानी के साथ होने लगी? इन सब के पीछे उच्चस्तरीय कंप्युटर टेक्नोलॉजी का हाथ है।

उन्नीसवीं सदी के मध्य में जब कंप्युटर का आविष्कार हुआ तभी से चिकित्सा—वैज्ञानिक इस फिराक में लगे थे कि कैसे इसका उपयोग चिकित्सा के क्षेत्र में किया जाए। अथक प्रयास की वजह से मात्र दो—तीन सालों के दौरान ही इसमें सफलता मिलने लगी। कहना न होगा कि चिकित्सा—विज्ञान में जब से कंप्युटर और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का प्रयोग होने लगा, रोगों की डायग्नोसिस ही नहीं, इलाज के तरीके भी काफी आसान हो गये। अब कोई भी सर्जरी के लिए बड़ा चीरा लगाने या पेट खोलने की जरूरत नहीं पड़ती। एक से डेढ़ सेमी का चीरा का की—होल बनाकर उसी से रोगग्रस्त अंगों तक वीडिया कैमरा,लाईट,इंडोस्कोप,विशेष गैस और सर्जरी के उपकरण पहुंचा कर और बाहर रखे मॉनिटर पर आंतरिक अगों को अपनी आंखों से देखकर रोगग्रस्त अंगों की सर्जरी की जाती है। यह विधि पेट,आंत,हार्ट,लीवर,स्पाइन,ब्रेन जैसे सभी तरह के अंगों के लिए अपनाई जाती है। रोबोटिक सर्जरी में भी इसी सिद्धांत का पालन किया जाता है।

इसमें प्रयोग होनेवाले सारे सर्जिकल इंस्ट्रुमेंट लंबे,पतले,लचीले ट्‌यूब से जुड़े अत्यंत छोटे,पतले,काफी तेज तथा उच्च क्वालिटी के होते हैंं। जिसकी सहायता से रोगग्रस्त अंगों को सर्जरी कर निकाला जाता है। चूंकि सर्जरी में इस्तेमाल होनवाले औजार लंबे,पतले और काफी धारदार होते हैं अतः इसके लिए बड़ा चीरा लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। एक से दो सेंमी के ही लगाना पड़ता है। इससे न सर्जन और न ही मरीज को किसी तरह की परेशानी होती है। अत्यंत छोटे चीरे की वजह से आपरेशन के बाद किसी तरह के दर्द का अहसास नहीं होता। रिकवरी भी जल्दी हो जाती है। रक्तस्राव तथा संक्रमण की संभावनाभनहीं रहती। मरीज दूसरे या तीसरे दिन ठीक होकर काम में लग जाता है। अत्यंत छोटे चीरे से सर्जरी करने के कारण इस विधि को मिनिमली इन्वेसिव सर्जरी कहा जाता है।

आजकल इस आधुनिक टेक्नोलॉजी का प्रयोग रोगों की डायग्नोसिस के लिए की जानेवाले टेस्ट में भी इसका इस्तेमाल हो रहा है। सीटी स्कैन,एमआरआइ,अल्ट्रासाउंड टेस्ट,एैजियोग्राम के अतिरिक्त लीवर,पैंक्रियाज,स्पाइन,ब्रेन आदि की डायग्नोसिस में भी आधुनिक कंप्युटर टेक्नोलॉजी का प्रयोग हो रहा है।

मिनिमली इन्वेसिव से रोबोटिक सर्जरी तक

एक मिनिमली इन्वेसिव कार्डियक सर्जन के शब्दों में :—‘‘मरीजों के लिए मिनिमली इन्वेसिव, की—होल या इंडोस्कोपिक सर्जरी नामक शब्द अनजाना नहीं रहा। आजकल हॉट केक की तरह पूरे समाज में प्रचलित है। अब,मरीज सर्जन से इस नाम से सर्जरी कराने की बात करते हैं—‘‘मुझे आपरेशन मिनिमली इन्वेसिव सर्जरी ही करवानी है। '' छोटे अस्पतालों तक के सर्जन उनकी मांग को पूरा भी करने लगे हैं। सर्जरी का कोई एकभभी ऐसा क्षेत्र नहीं बचा जहां इसका सहारा नहीं लिया जाता है। हालांकि यह ऑपरेशन भारत में लगभग एक दशक पहले ही आ चुका है,पर, पांच—सात—दस साल पहले तक यह बड़े तथा कारपोरेट अस्पतालों तक ही सीमित था, लेकिन, अब छोटे अौर जिला अस्पतालों मेंभभी धड़ल्ले से हो रहा है।

आजकल मिनिमली इन्वेसिव सर्जरी के अंतर्गत डे—केयर सर्जरी मेट्रो के साथ—साथ छेाटे—छोटे शहरों में भी होने लगे हैं। इसकी खासियत यह है कि कई बीमारियों की सर्जरी सुबह में होती है और शाम तक मरीज अपने घर लौट जाता है। न तो ऑपरेशन के दौरान और न ही बाद में मरीज को किसी तरह की कोई परेशानी होती है। यह सब और कुछ नहीं,मिनीमली इन्वेसिव सर्जरी का ही कमाल है। आजकल गॉल—स्टोन,अपेंडिक्स,हर्निया से लेकर लीवर,लिम्फनोड बायोप्सी के लिए टीसू निकालने के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है। किडनी की कई तरह गॉल ब्लडर की पथरी से लेकर यूटरस,सर्विक्स का ट्‌यूमर,ओवेरियन सिस्ट,ट्‌यूवल ब्लॉक जैसी गाइनोकॉलोजिकल बीमारियों की सर्जरी सुबह कराकर लोग शाम को अपने घर लौट जाते हैं और एक—दो दिनों के बाद मरीज अपने काम पर लौट जाते हैं।

अब तो सिंगल इंसीजन से स्कारलेस, रोबोटिक, डे—केयर सर्जरी भी किये जा रहे हैैं। पित्त की थैली की सर्जरी के लिए मुंह में इंडोस्कोप डाला और हो गई सर्जरी। किडनी की सर्जरी करनी हो,पेशाब की नली में इंडोस्कोप डाला और उसी से कर दी सर्जरी। न रक्तस्राव,न संक्रमण,न चीरे का निशान। इसे कहते हैं स्कारलेस सर्जरी या ब्लडलेस सर्जरी। इतना ही नहीं, सुबह सर्जरी होती है ओर शाम को छुट्‌टी दे दी जाती है। एक दिन आराम किया और दूसरे दिन काम पर चल दिये। यह सब और कुछ नहीं, मिनिमली इन्वेसिव और इंडोस्कोपिक सर्जरी का कमाल है। आजकल इस विधि से मुंह,मूत्र मार्ग,योनि—मार्ग,गुदा—मार्ग जैसे शरीर के प्राकृतिक छिद्रों के द्वारा मुंह से पित्त की थैली की पथरी,अपेंडिक्स, मुत्र—मार्ग से किडनी,प्रोस्टेट,योनि—मार्ग से यूटरस की सर्जरी हो रही है। इससे संक्रमण की संभावना नहीं होती । चीरा नहीं लगने के कारण न तो रक्तस्राव होता है,न अस्पताल में ज्यादा दिनों तक भर्ती रहने की जरूरत पड़ती है। चार—पांच घंटे निगरानी के बाद छुट्‌टी।

रोबोटिक सर्जरी भी मिनिमली इन्वेसिव और इंडोस्कोपिक सर्जरी का परिवर्तित रूप है। इसमें भी प्रयोग होनेवाले इंस्ट्रुमेंट मिनिमली इन्वेसिव सर्जरी की तरह अत्यंत छोटे—छोटे होते हैं। इसका कार्य पूरी तरह सर्जन के हाथ का विस्तारित रूप है। अंतर बस यह है कि इसकी सहायता से सर्जन सर्जरी की जटिल प्रक्रिया को आसानी से पूरा करता है। इसमें देा मत नहीं कि सर्जन के हाथ तथा उंगलियाें की एक सीमा है। न हाथ और न ही उंगलियां अत्यंत छोटे से चीरा के अंदर नहीं जा सकते। जबकि रोबोटिक आर्म में लगे उपकरण आसानी से जा सकते हैं। रोबोटिक आर्म में लगे पतले, धारदार तथा लंबे उपकरण रोगग्रस्त अंग के एकदम पिछले भाग तक आसानी से पहुंच सकते हैं। इन्हें आगे,पीछे,उपर,नीचे,दायें,बायें किसी भी दिशा में आसानी से घुमाया जा सकता है। यह अपने अक्ष पर 360 डिग्री में भी आसानी से घूम सकता है। इससे छोटा से छोटा चीरा भी बिना किसी परेशानी के लगाना आसान है। आजकल इसकी सहायता से दिल्ली,मुंबई,हैदराबाद,बैंगलोर जैसे शहरों में हार्ट, किडनी,लीवर, पैंक्रियाज,ब्रेन आदि की दुरूह और जटिल सर्जरी धड़ल्ले से हो रही है।

बाजार का बादशाह है मरीज

मरीज आज अच्छी से अच्छी सुविधा के एवज में खर्च करने में न तो घबड़ाता है, न ही संकोच करत है। इन्हें अच्छी से अच्छी सुविधा चाहिए और इलाज भी। खर्च चाहे जो हो,इसकी कोई चिंता नहीं। आज मरीज अच्छे से अच्छे इलाज के लिए अस्पतालों का चक्कर लगाते हैं,हेल्थकेयर प्रोवाइडर भी मरीजो को आकर्षित करने के लिए अच्छी से अच्छी सुविधाएं देने का प्रयास करते हैं।

भारत में सरकारी अस्पतालों की बदहाली का अधिक से अधिक लाभ उठाने के उद्‌देश्य से कार्पेारेट अस्पतालों का जाल बिछ गया है। इन अस्पतालों के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा और अधिकाधिक मरीजों को आकर्षित करने के लिए क्वालिटी इलाज मुहैया कराने को लेकर हमेशा होड़ मची रहती है। अब तो छोटे —छोटे शहरों में भी ऐसे—ऐसे आधुनिक और कार्पोरेट अस्पताल खुल गये हैं जो देखने से थ्री स्टार या फाइव स्टार होटल से थोड़ा भी कम नहीं लगते। पूरी तरह वातानुकूलित,आधुनिक साजो—सामान, विश्वस्तरीय सुविधाएं, कठिन और असाध्य रोगों के इलाज के लिए महंगे उपकरणों से लैस।

पहले स्थिति अलग थी। मरीजों के पास इलाज के साधन सीमित थे। अस्पतालों की संख्या सीमित थी। बड़ी सर्जरी के लिए जिला अस्पताल, नही ंतो राज्य की राजधानी के अस्पताल। जो साधन संपन्न होते थे वे ही दिल्ली,मुंबई,कोलकाता,चेन्नई,हैदराबाद आदि का रूख करते थे। वहां भी देशभर से मरीजों के पहुंचने के कारण भीड़ काफी हो जाती थी। इस कारण इलाज में काफी परेशानी होती थी। आज वैसी बात रही नहीं। अपोलो,मैक्स,फोर्टिस जैसे कार्पोरेट अस्पतालों का पूरे देश में जाल बिछ गया है। मुंबई,कोलकाता,बैंगलोर,हैदराबाद,चेन्नई जैसे बड़े शहरों के अतिरिक्त पटना,रांची,लखनउ, भोपाल,जयपुर जैसी राजधानियों के साथ—साथ इलाहाबाद,शिमला,नैनीताल,गोरखपुर जैसे शहरों में भी बड़े—बड़े कार्पोरेट अस्पताल खुल गये हैं और मेट्रोज के कार्पोरेट अस्पतालों जैसी चिकित्सीय सुविधाएं उपलब्ध होने लगी हैं। इसलिए आजकल मरीजों के सामने इलाज के बहुत सारे दरवाजे खुले हुए हैं। अब अस्पताल चुनने का विकल्प मौजूदे है। शहर के किस होस्पिटल में दिखाना है,कहां हार्ट सर्जरी सबसे अच्छी होती है,किस डाईग्नास्टिक सेंटर पर एमआरआई की रिपोर्टिंग अच्छी होती है,किस अस्पताल के नर्सिंग केयर अच्छा है,कहां के डॉक्टर मरीजों के साथ कैसा विहैवियर करते हैं,मरीज अब इन सारी बातों पर भी बारीकी से ध्यान देने लगे हैं। जो अस्पताल उसे अच्छा लगता है या जिस अस्पताल में उसे बेहतर इलाज की सुविधाएं मिलती है, उसी अस्पताल में जाते हैं और जाना भी पसंद करते हैं।

मरीजों की बादशाहत के पीछे बीमा कंपनियों का भी काफी बड़ा योगदान है। पूरे देश में हेल्थ इंसुरेंस कंपनियों का जाल बिछ गया है। मरीजों में हेल्थ के प्रति जागरूकता और आकर्षक पैकेज और सुविधाएं के कारण बहुत बड़ी संख्या में लोग हेल्थ—इंसुरेंस की ओर आकर्षित होने लगे हैं। ऐसे इंसोर्ड मरीजों के आगे खर्चे की तो कोई चिंता तो होती ही नहीं। जहां और जिस अस्पताल में अच्छा इलाज और सुविधाएं मिलेगीं,वहीं का रूख करते हैं। दूसरी बात यह है कि इन इंसुरेंस कंपनियों का एक ही शहर में कई—कई कार्पोरेट अस्पतालों के साथ मरीजों के इलाज के लिए समझौता होता है। इस कारण से हेल्थ इंसुरेंस कराये मरीजों को आकर्षित करने के लिए तरह—तरह के तरीके निकालते रहते हैं और वेहतर से वेहतर सुविधाएं देने का प्रयास करते हैं। इसका फायदा हर हाल में मरीजों को ही होता है।

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