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KEYHOLE SURGERY

की—होल सर्जरी बनाम मिनिमली इन्वेसिव सर्जरी

डॉ. दीपक प्रकाश

एक मिनिमली इन्वेसिव कार्डियक सर्जन के शब्दों में :—‘‘मरीजों के लिए मिनिमली इन्वेसिव, की होल या इंडोस्कोपिक सर्जरी नामक शब्द अनजाना नहीं रहा.आजकल हॉट केक की तरह पूरे समाज में प्रचलित है.अब,मरीज सर्जन से इस नाम से सर्जरी कराने की बात करते हैं.‘‘मुझे आपरेशनमिनिमली इन्वेसिव सर्जरी ही करवानी है.'' छोटे अस्पतालों तक के सर्जन उनकी मांग को पूरा भी करने लगे हैं. सर्जरी का कोई एक भी ऐसा क्षेत्र नहीं बचा जहां इसका सहारा नहीं लिया जाता है. हालांकि यह सर्जरी भारत में लगभग एक दशक पहले ही आ चुकी है,पर, पांच—सात—दस साल पहले तक यहबड़े तथा कारपोरेट अस्पतालों तक ही सीमित थी, लेकिन, अब छोटे अौर जिला अस्पतालों में भी धड़ल्ले से हो रही है.

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केस—1

सरला को कई माह से ब्लीडिंग की परेशानी थी. सर्जन उसे यूटरस निकलवाने की सलाह दे रहे थे. लेकिन वह नहीं चाहती थी कि उसका पेट खोला जाए. मिनिमल इन्वेसिव सर्जरी में पेट में तीन से चार सुराक बनाकर सर्जरी की जाती है जो उसे पसंद नहीं था. अंत में उसे वेजाइनल सर्जरी के बारे में पता चला. इसमें पेट में बिना चीरा लगाये गुप्तांग के द्वारा सर्जरी की जाती है. वह यही चाहती भी थी कि ऑपरेशन का कोई निशान नहीं रहे.वह सहर्ष तैयार हो गई. और अगले सप्ताह ही सर्जरी करा ली.

केस—2

लेकिन सरोजनी समस्या दूसरी थी. उसके यूटरस के अंदर बड़ी—सी गांठ थी. इस गांठ की बायोप्सी की सलाह दी गई थी. सर्जरी के पहले सर्जन यह जानना चाह रहे थे कि कहीं यह कैंसर की गांठ तो नहीं है. उसे इंटरनेट के माध्यम से पता चला कि इसके लिए आजकल हिस्टेरोस्कोपिक सर्जरी की जाती है. वह बिना हिचके फोन से एप्वाइंटमेंट लेकर डायग्नोस्टिक सेंटर गई और बायोप्सी कराकर दो—तीन घंटे में लौट गई. सप्ताह भर बाद रिपोर्ट आई तो पता चला कि यह कैंसर की गांठ नहीं है. उसके तीन दिनों के बाद ऑफिस से छुट्‌टी ले सिंगल इंसीजन लेप्रोस्कोपिक सर्जरी करा आई.

मिनिमली इन्वेसिव सर्जरी बीसवीं सदी का अत्याधुनिक एडवांस सर्जिकल प्रोसिड्‌योर है. इनमें मात्र आधा से डेढ सेंमी की सुराख द्वारा बड़ी से बड़ीसर्जरी आसानी से हो जाती है.यह विधि रोगों के डायग्नोसिस के साथ—साथ बायोप्सी के लिए टीसू निकालने के लिए भी प्रयोग में लाई जाती है. इनमेंन सर्जन, न ही मरीज को कोई परेशानी होती है. मरीज कोदर्द का अहसास नहीं होता. रिकवरी तो जल्दी होती ही है,रक्तस्त्राव तथा संक्रमण की संभावना भी नहीं रहती. मरीज दूसरे— तीसरे दिन ठीक होकर अपने काम में लग जाता है.

पहले बड़ी ही नहीं, छोटी सर्जरी भी खतरनाक मानी जाती थी. इसमें मौत की खबरें भी सुनने को मिलती थीं.बड़ीसर्जरीतो जैसे मौत के मुंह में जाने जैसी थी.सात—आठ इंच लंबा चीरा द्वाराकई—कई घंटे चलनेवाली सर्जरी में रक्तस्रााव काफी होता था.कई बार रक्त चढाने की नौवत आती थी. संक्रमण का खतराबना रहता था,सो अलग.महीनों बिस्तर पर पड़े रहने की पीड़ा तथा लंबे चीरे का निशान किसी को दिखाना अच्छा नहीं माना जाता था.सर्जरी के बाद भी जिंदगी आसान नहीं थी. तरह—तरह की परेशानियां पीछा करती रहती थीं.

लेकिन, मिनिमली इन्वेसिव सर्जरी सेये सारी परेशानियां समाप्त हो गयीं. सर्जरीके नाम पर डर—भय नहीं लगता. आराम से लोग बड़ी से बड़ीसर्जरीकराकर घर चले जाते हैैें. एक दो दिनों के आराम के बाद काम पर फिर वापस. सर्जरी के निशान दिखाने में अब,संकोच नहीं होता.

एक मिनिमली इन्वेसिव कार्डियक सर्जन के शब्दों में :—‘‘मरीजों के लिए मिनिमली इन्वेसिव, की होल या इंडोस्कोपिक सर्जरी नामक शब्द अनजाना नहीं रहा.आजकल हॉट केक की तरह पूरे समाज में प्रचलित है.अब,मरीज सर्जन से इस नाम से सर्जरी कराने की बात करते हैं.‘‘मुझे आपरेशनमिनिमली इन्वेसिव सर्जरी ही करवानी है.'' छोटे अस्पतालों तक के सर्जन उनकी मांग को पूरा भी करने लगे हैं. सर्जरी का कोई एक भी ऐसा क्षेत्र नहीं बचा जहां इसका सहारा नहीं लिया जाता है. हालांकि यह सर्जरीभारत में लगभग एक दशक पहले ही आ चुकी है,पर, पांच—सात—दस साल पहले तक यहबड़े तथा कारपोरेट अस्पतालों तक ही सीमित थी, लेकिन, अब छोटे अौर जिला अस्पतालों में भी धड़ल्ले से हो रही है.

उच्चस्तरीय टेक्नीक का प्रयोग

मिनिमली इन्वेसिव सर्जरीमें उच्चस्तरीय कंप्युटर टेक्नोलॉजी पर आधारित सर्जिकल इंस्ट्रुमेंट के साथ अत्यंत छेाटे—छोटे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जैसे—टेलीविजन मॉनिटर,विडियेा कैमरा,टेलीस्कोप ;इंडोस्कोप,लेप्रोस्कोपद्ध,आधुनिक लाइट सिस्टम लगे होते हैं.

विडियो कैमरा,टेलीस्कोप तथा केबुल तार की मदद से सामने रखे टेलीविजन स्क्रीन पर रोगग्रस्त अंगों की हाई रिजोल्युशन तस्वीर आसानी से दिख जाती है जिससे छोटी से छोटी बीमारी की डायग्नोसिस आसानी से हो जाता है और सर्जरी के दौरान जटिलता की संभावना कम हो जाती है.फाउंटेन पेन जैसे पतले लंबे हाई रिजोल्युशन टेलीस्कोप से आपरेटिंग फिल्ड का अत्यधिक बड़ा व्यू इनके आखिरी छोर पर लगे कैमरा तथा लाईट सिस्टम रोगग्रस्त अंगों को पहचानने में मदद करता है. कहने का तात्पर्य यह है कि पूरा इंडोस्कोपिक या लैप्रोस्कोपिक मशीन टेलीस्कोप, विडियो कैमरा, हैलोजन लाइट सिस्टम तथा फाइवर आप्टिक सिस्टम से लैस होता है पूरा उपकरण संचालित होता है.मिनिमली इन्वेसिव सर्जरी में प्रयोग होनेवाले सारे उपकरण लंबे,पतले,लचीले ट्‌यूब से जुड़े होते हैं जो सर्जरी के लिए पेट में बनाई गई आधा से डेढ सेंमी छोटी सुराख में आसानी से चला जाता है.

इस विधि से किये जानेवाले सभी तरह की सर्जरी के लिए अत्यंत छोटे,पतले,काफी तेज तथा उच्च क्वालिटी के सर्जिकल इंस्ट्रुमेंट होते हैं ताकि इस छेटे—से छिद्र जिसे पोर्ट कहते हैं, से आसानी से चला जाए और रोगग्रस्त अंग के आसपास की रचना को किसी तरह की कोई क्षति न हो. पोर्ट में पहले लंबा,पतला तथा खोखला ट्रॉकरडाला जाता है.फिर इसी ट्रॉकर के द्वारा टेलीस्कोप,लाईट सिस्टम,विडियो कैमरा,केबुल तार तथा इंस्ट्रुमेंट्‌स को आपरेट्रिग फिल्ड तक पहुंचाकर लाईट, विडियो कैमरा द्वारा टेलीविजन मॉनिटर पर आपरेटिंग फिल्ड की तस्वीर देखकर सर्जरी की जाती है.पोर्ट की संख्या सर्जरी की प्रकृति तथा उनमें प्रयोग होनेवाले आपरेट्रिग इंस्ट्रुमेंट पर ही नहीं आपरेट्रिग सर्जन की काबिलियत,दक्षता,अनुभव तथा आपरेटिंग उपकरण की क्वालिटी पर निर्भर करता है.आजकल सिंगल इंसीजन इन्वेसिव सर्जरी भारत के बड़े अस्पतालों में धड़ल्ले से हो रहे हैं. इसमें केवल एक पोर्ट के द्वारा ही पूरी सर्जरी की जाती है.

इतिहास के आइने में

सन्‌ 1902 ई. में ड्रेसडेन के जार्ज केलिंग नामक सर्जन ने एक कुत्ते के ऑपरेशन में सर्वप्रथम लेप्रोस्कोपिक प्रोसिड्योर अपनाया था. सन्‌ 1910 ई. में स्वीडेन के चिकित्सक हैंस क्रिश्चन जैकोवाडेस को पहली बार इंसान में इस विधि के प्रयोग करने का श्रेय मिला. उसके बाद, कई दशकों तक कई वैज्ञानिकों ने इसे विकसित करने में अपना योगदान दिया, लेकिन आंठवें दशक के प्रारंभ तक इसमें विशेष सफलता नहीं मिली. सन्‌ 1985 ई में कम्प्यूटर तथा टेलीविजन कैमरा के अविष्कार के साथ वैज्ञानिक, चिकित्सक तथा कंप्यूटर, टेलीविजन निर्माता इन उपकरणों का उपयोग चिकित्सीय क्षेत्र में करने का प्रयास करने लगे. दो वर्षों के अथक प्रयास के बाद सन्‌ 1987 ई में फ्रांस में किसी भी इंसान में लेप्रोस्कोपिक विधि से गॉल ब्लाडर को निकालने में सफलता मिली. पहली बार पेट के अंदर के आपरेटिंग फील्ड को टेलीस्कोप की सहायता से मैग्नीफाइ कर विडियो कैमरा की मदद से मॉनिटर पर देखने का मौका मिला. शुरूआती दिनों में इसका प्रयोग केवल रोग की पहचान तथा सिंपल आपरेशन के लिए किया जाता था, लेकिन जैसे—जैसे आपरेटिंग उपकरणों का अविष्कार तथा विकास होता गया, बड़े तथा जटिल आपरेशन में भी सफलता मिलने लगी.

डायग्नोस्टिक सर्जरी

डायग्नोस्टिक सर्जरीबीमारियों के डायग्नोसिस के लिए की जाती है. मिनिमली इन्वेसिव सर्जरी के आने पहले आंतरिक अंगों के ट्‌यूमर ही नहीं, कई तरह के रोगों के डायग्नोसिस में परेशानी होती थी.कईबार डायग्नोसिस ही नहीं होनेे के कारण मरीज की मौत भी हो जाती थी. पेट,आंत,लीवर,किडनी,गाल ब्लडर,जोड़ो,हार्ट,फेफड़े आदि के ट्‌यूमर के साथ इस तरह की परेशानियां ज्यादा होती थंींं.कई बार अल्ट्रासोनोग्राफी या एक्स—रे के द्वारा ट्‌यूमर का पता चल भी जाता था तो इसका पता नहीं चल पाता था कि यह ट्‌यूमर कैंसर है या नहीं. पेट के अंदर स्थित ट्‌यूमर का वायोप्सी लेने के साधन नहीं थे। इस कारण रोग का इलाज सही ढंग से नहीं हो पाता था.लेकिन अब इंडोस्कोप या लेप्रोस्कोप की मदद से बायोप्सी के लिए शरीर के आंतरिक अंगों के रोगग्रस्त टीसू निकाली जाती है.कुछ डायग्नोस्टिक सर्जरी में इंसीजन की जरूरत पड़ती है किंतु कई में इसकी जरूरत नहीं पड़ती.लेप्रोस्कोपी में पेट तथा आर्थे्रास्कोपी में जोड़ों की त्वचा में चीरालगाना पड़ता हैऔर आंतरिक अंगों में उपकरणोें को पहुंचाकर डिजीज की डायग्नोसिस की जाती है या जरूरत के हिसाब से बायोप्सी की जाती है. इंडोस्कोपिक,गैस्ट्रोस्कोपिक,हिस्टेरोस्कोपिक,टीयूआरपी,कॉलकोस्कोपी आदि में किसी भी तरह का चीरा लगाने या की—होल की जरूरत नहीं पड़ती. गैस्ट्रोस्कोप को मुंह से पेट तथा आंत के उपरी भाग तक पहुंचाया जाता है और अंदर की रचना केा अपनी आंखें से देखकर सर्जन रोग का डायग्नोसिसया कैंसर या इसके फैलाव का पता लगाने के लिए वायेप्सी का सैंपुल निकालते हैं. सिग्मायडोस्कोप को गुदामार्ग से,हिस्टेरोस्कोपको गुप्तांग,मूत्रनली तथा मूत्रथैली के रोगों की पहचान के लिए सिस्टोस्कोप को मूत्रनली से ब्लडर या यूरेटर में पहुंचाकर डायग्नोसिस किया जाता है. ब्रोंकोस्कोपी तथा लैरिंजियोस्कापी के लिए इंडोस्कोप केा मुंह से पेट के आंतरिक अंगों में डाला जाता है.

ऑपरेटिव सर्जरी

पहली बार इंडोस्कोपिक कॉलिसिस्टेक्टोमी सर्जरी सन 1987 ई में की गयी. इसलिए इस साल को मिनिमली इन्वेसिव का आगाज माना जाता है.इसमें पेट की मांसपेशियों तथा पेरिटोनियल कैविटी के बीच कार्बन डायक्साइड गैस डालकर आपरेटिंग फील्ड बनाया जाता है.मरीज को वेहोश करने के बाद त्वचा में मात्र आधा सेंमी की एक सुराख बनाई जाती है. इसी से होकर एक पतला ट्यूब (कैनुला) डाला जाता है.फिरइसी कैनुला से पेन की मोटाई का पतला लैप्रोस्कोप पेट के अंंदर रोगग्रस्तहिस्से में पहुंचाया जाता है. लैप्रोस्कोप में अत्यधिक छोटा कैमरा, लाइट सोर्स तथा फाइवर आप्टिक कॅार्ड लगा रहता है जिसे टेलीविजन मानिटर से जोड़ा जाता है. टेलीस्कोप, कैमरा तथा कॉर्ड की सहायता से मानिटर पर पेट के अंदर का मैग्नीफाइड इमेज दिखता है. इसी मानिटर पर देखते हुए सर्जन सर्जरी को अंजाम देते है. पेट के अंदर के अंगों को देखने के बाद दो से तीन छोटी—छोटी सुराख सर्जरी की प्रकृति को ध्यान में रखकर विभिन्न जगहों पर बनाई जाती है. और इन्हीं से उपकरण रोगग्रस्त अंगों तक पहुंचाकर सर्जरी की जाती है.

आजकल भारत में पेट, हार्ट, रिप्रोडक्टिव आर्गन, नर्वस सिस्टम, आंख, कान, नाक, गला, जोड़, छाती, उत्सर्जन तंत्र तथा रक्त नलिकाओं से संबंधित सभी छोटी—बड़ी सर्जरीके साथ प्लास्टिक तथा रिकंस्ट्रक्टिव सर्जरी में भी इसी की सहायता ली जा रही है.

मिनिमली इन्वेसिव सर्जरी के फायदे

1.मिनिमली इन्वेंसिव सर्जरी में अत्यधिक कम रक्तस्राव के कारण रक्त चढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ता.

2.अत्यंत छोटा चीरा से मरीज को दर्द कम होता है तथा जल्दी रिकवरी हो जाती है.

3.आपरेशन के बाद का निशान नहीं रहता. दर्द कम होने से पेनकीलर की कम जरूरत पड़ती है.

4.अस्पताल में ज्यादा दिनों तक भर्ती रहने की जरूरतनहीं पड़ती.

5.अस्पताल एक्वायर्ड संक्रमण की संभावना न्यूनतम होती है.

6.मरीज जल्दी अपना रूटीन काम करने लगता है.

7.आपरेशन के बाद नाममात्र की कमजोरी होती है.

8.छाती के आपरेशन में रिव को कांटने की जरूरत नहीं पड़ती.

9.डायग्नोस्टिक लैप्रोस्कोपी में रोग का डायग्नोसिस तुरंत हो जाता है.

10. आपरेशन के दौरान सर्जन को आपरेटिंग फील्ड अच्छी तरह से विजुयोलाइज होने में गलती की संभावना नाममात्र रहती है.

सिंगल इंसीजन लैप्रोस्कोपिक सर्जरी

लेप्रोस्कोपिक सर्जरी की यह नयी विधि है. इसमें मात्र एक से दो सेमी का चीरा लगाकर सर्जरी की प्रक्रिया पूरी की जाती है. हालांकि इसकी शुरूआत एक दशक पहले ही हो गयी थी, किंतु आजकल मेट्रो तथा कारपोरेट अस्पतालों में यह विधि काफी लोकप्रिय है अौर अधिकतर लोग इस विधि से ही सर्जरी कराना चाहते हैं. इसलिए आज की तारीख में इसकी मांग आजकल तेजी से बढ़ रही है.

सिंगल इंसीजन लेप्रोस्कोपिक सर्जरी में सर्जन डेढ़ से दो सेमी का एक ही छिद्र नाभी के नीचे बनाकर आपरेशन की पूरी प्रक्रिया पूरी करते हैं. सिंगल इंसीजन द्वारा ही विशेष रूप से तैयार तीन पतले—पतले पोर्ट एक साथ डाला जाता है. इसी एक पोर्ट में ही टेलीस्कोप, कैमरा, लैप्रोस्कोपिक उपकरण डाले जाते हैं और पारंपरिक लैप्रोस्कोप की तरह आपरेशन की पूरी प्रक्रिया पूरी की जाती है. इस विधि से फिलहाल,भारत में गाल ब्लाडर का आपरेशन ;कोलोसिस्टेक्टोमीद्ध,एपेंडिक्स का आपरेशन—;एपेंडिसेक्टोमीद्ध,इंसिजिनल हर्निया का रिपेयर,ओवरी को निकालना—;उफरेक्टोमीद्ध,डायग्नोस्टिक लेप्रोस्कोपी तथा वायोप्सी आदि के लिए यह सर्जरी की जाती है.

कुछ मरीज इस सुविधा का लाभ नहीं उठा सकते.अत्यधिक मोटे या एक दम दुबले—पतले मरीजों के लिए यह सर्जरी उपयुक्त नहीं है.जिन्हें पहले पेट की सर्जरी हो चुकी है या जिनका रोगग्रस्त अंग काफी बड़ा हो गया है, वैसे मरीजों के लिए पारंपरिक लैप्रोस्कोपिक सर्जरी की सलाह दी जाती है.

यह सर्जरी कई मामलोें के काफी अच्छी है. मात्र एक चीरा के कारण मरीज अपेक्षाकृत जल्दी अौर तेजी से रिकवर करता है. इसमें ऑपरेशन के निशान नहीं पड़ते. इसेस्कारलेस सर्जरी भी कहते हैं. कास्मेटिक प्वाइंट से यह बेहतर ऑपरेशन माना जाता है.यह ऑपरेशन महिलाओं, माडल, फिल्म स्टार आदि के लिए काफी महत्वपूर्ण है. व्यस्त लोग इसे प्राथमिकता देते हैं, ताकि जल्द से जल्द काम पर लौट सकें.आपरेशन की पूरी प्रक्रिया कई बातों पर निर्भर करती हैं जैसे— सर्जन का अनुभव, आपरेटिंग उपकरणों की उपलब्धता,रोग की प्रकृति, मरीज का उम्र, वजन, स्वास्थ्य.

सावधानियां

मरीज को आपरेशन की छुट्टी के बाद चिकित्सक के निर्देश का पालन अच्छी तरह से करना चाहिए. चिकित्सक का निर्देश मरीज के स्वास्थ्य, बीमारी की प्रकृति तथा ऑपरेशन की विधि पर निर्भर करता है. सामान्यतः ऑपरेशन के घाव पर निगरानी रखने की सलाह दी जाती है. दो दिनों के बाद बैंडेज हटाने तथा ड्रेसिंग करवाने की सलाह दी जाती है. इस दौरान चीरा के स्थान को ड्राइ रखा जाना चाहिए. इस पर नये बैंडेज करने की जरूरत नहीं पड़ती. इतना ध्यान रखा जाना चाहिए कि घाव कपड़े से रगड़ न खायें. दो दिनों के बाद बैंडेज हटा दिये जाने की सलाह दी जाती है.

आपरेशन के बाद कब पूरी तरह ठीक होकर सामान्य कार्य करना शुरू करेगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपरेशन की कौन सी विधि अपनायी गयी है. एनेस्थिसिया के कारण चक्कर आने या सर भारी लगने की समस्या दूसरे दिन नहीं रहती. चीरा के स्थान पर खुजली चार—पांच दिनों के बाद ठीक हो जाती है. पेट के ऑपरेशन के बाद पेट में खालीपन का अहसास होता है. यह अनुभव कुछ दिनों के बाद ठीक हो जाता है.