अब कहीं और नहीं Ratan Chand Ratnesh द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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अब कहीं और नहीं

अब कहीं और नहीं

वे अब बहुत बूढ़े हो गये हैं। आंखों से भी बहुत कम दिखने लगा है। रोहित बाबू जब भी हफ्ते-दो हफ्ते बाद एक-दो दिन के लिए उनसे मिलने आते हैं तो वे उनसे हर बार आंखों में उतर आये मोतिया के आॅप्रेशन के बारे में बात करते हैं, पर वे हमेशा हंसकर टाल देते हैं -- ‘काम चल रहा है बेटा। अब इस उम्र में आंखों को जितनी रोशनी चाहिए होती है, उतनी तो मिल ही रही है। फिर काहे को इस चीरफाड़ के पचड़े में पड़ना। ..... और परमात्मा भी तो कुछ सोच-समझकर उम्र की इस ढलान पर आंखे कमजोर कर देता है। आंखें कमजोर, कान से कम सुनाई देना। ऐसे ही नहीं होता। इसमें भी उसका कोई राज छुपा है। है कि नहीं? बापू के तीन बंदरों का जैसे आध्यात्मवादी हो जाना।’ आज वे अपनी ही इस बात पर खूब हंसे।

रोहित भी उनका साथ देने को हल्की-सी हंसी हंसा। पर उनकी बातों की गहराई में जाने के वजाय उन्हें समझाने की जद्दोजहद करने लगे कि अब मोतियाबिंद के लिए आंखों का आॅप्रेशन उतना जटिल नहीं रहा, पर वे नहीं माने। सोचते हैं कि यह लड़का उनका बहुत सम्मान करता है, इसलिए उन्हें लुभाने की कोशिश कर रहा है। आज भी राहुल इसी विषय को छेड़ने पर उतारू थे कि बूढ़े ने उन्हें टोक दिया --

‘देख, तू एक-दो दिन के लिए मेरे पास आता है तो मेरी इच्छा का सम्मान किया कर, अपनी डाक्टरी मत बघारा कर। मुझे देखने में अधिक दिक्कत हुई तो मैं तुझसे खुद ही कह दूंगा। इतनी बड़ी दुनिया में मैं तुझे ही तो अपना समझता हूं रे। तुझसे नहीं कहूंगा तो किसे कहूंगा।’

रोहित। डा0 रोहित निरुतर होकर रह गये। शाम का समय। यही कोई छह-साढ़े छह बजे होंगे। वह उन बुजुर्ग के साथ सैर के लिए निकले हैं और अब वे उस छोटे से कस्बे से कुछ दूर जनविरल मार्ग पर आ गये हैं। इस मार्ग पर पांच बजे एक अंतिम बस कस्बे से निकलकर क्षणभर में ऊंची-ऊंची पहाड़ि़यों के मध्य कहीं विलीन हो जाती है। उसके बाद यह मार्ग सुबह तक के लिए सुस्ता-सुस्ताकर सो जाता है। कभी-कभार भूले भटके कोई कार या जीप इधर आती है तो मार्ग करवट बदलकर कुनमुनाता है और फिर गहरी नींद में चला जाता है।

इस समय हवा नहीं थी पर रात ज्योंही अपना पंख फैलाने का उपक्रम करेगी, चारों ओर की पहाडि़यों और उनसे परे बर्फीली चोटियों से शीतलता समेटे वह नीचे उतर आयेगी। डा0 रोहित को यह जगह बहुत पसंद है। कई कारणों से। हर शनिवार की शाम उसी अंतिम बस से ढाई-तीन घंटे की यात्रा करके यहां चले आते हैं। साल भर पहले ही उनका तबादला उस शहर में हुआ है जो यहां से मात्र बत्तीस किलोमीटर दूर है। यह अंतिम बस बड़े आराम से जगह-जगह रुक कर सवारियों को ढोती-उतारती खिसक-खिसक कर चलती है। कहीं कोई रह न जाये। इसीलिए घुमावदार सड़क पर यहां आते-आते इतना समय लग ही जाता है।

षहर से हटकर एक छोटी-सी डिस्पेंसरी में वे नियुक्त हैं। हर शनिवार डिस्पेंसरी बंद होने पर दो बजे के बाद वे अपने केबिन में बैठे उस बस की प्रतीक्षा करने लगते हैं। खिड़की से दूर एक पहाड़ से उसके अवतरित होते ही वह अपना ब्रीफकेस संभाल लेते हैं। यों तो उस समय कोई भी मरीज उनकी केबिन में नहीं होता क्योंकि आसपास के गांवों में रहने वाले लोगों को पता है कि शनिवार को डाक्टर साहब अपने घर चले जाते हैं। कभी कोई आपातकालीन स्थिति हो तो बस का चालक थोड़ी देर इंतजार कर लेता है या फिर डा0 रोहित को मरीज की खातिर रुकना पड़े तो चपरासी या अन्य किसी व्यक्ति के जरिये सूचना भिजवा दी जाती है कि वे आज जा नहीं पाएंगे, कोई एमरजेंसी केस है। डा0 रोहित ने पूछा, ‘आपको ठंड तो नहीं लग रही। लौट चलें क्या?’

प्रत्युत्तर में कुछ कहने के वजाय बुजुर्ग उसी से कहने लगे, ‘तुमने तो स्वेटर भी नहीं पहना है।’

‘मेरी कमीज गर्म है और मैंने एक मोटी-सी बनियान भी अंदर पहन रखी है।’ डा0 रोहित ने उन्हें आश्वस्त किया।

’’’’’’’’

सात या आठ वर्ष पहले की घटना है। यही बुजुर्ग एक दिन छः घंटे का सफर बस में तय करने के बाद पास के राज्य के एक शहर में रोहित के घर पहुंचते हैं। उन दिनों रोहित अभी स्कूल के अंतिम पड़ाव पर थे। बुजुर्ग दरवाजे पर आकर उनके पिता का स्नेहसिक्त नाम लेकर पुकारते हैं, ‘रूल्दु, ओ रूल्दु.. घरे ही हो क्या ?’

रोहित के पिताजी यानी कि रूल्दु राम, जो शहर में आर.आर.शर्मा के नाम से जाने जाते हैं, उस समय घर पर ही थे और ड्राइंग-रूम में अपनी पत्नी के साथ चाय की चुस्कियां ले रहे थे। उनका यह समय दफ्तर से घर पहुंचने का है। दफ्तर से लौटकर शर्मा जी सोफे पर बैठकर सुस्ताते हैं। टेबल पर करीने से रखे हिन्दी और अंग्रेजी के समाचारपत्रों का संपादकीय पन्ना अपने सामने खोलते हैं और साथ में गर्मागर्म चाय पीते हैं। बाहर का कोई कार्यक्रम न हो तो फिर वे कपड़े बदल डालते हैं और इत्मीनान से संपादकीय पन्ना पढ़ते हैं।

शर्मा जी को अपना नाम अतीत की किसी अभेद गुफा से आता प्रतीत होता है। चाय का प्याला बीच में ही छोड़कर वे दरवाजे पर आते हैं और उस बुजुर्ग को पहचानकर उपेक्षा से बाहर चले जाते है। जाते-जाते अपनी पत्नी से यह कहना नहीं भूलते कि उनके गांव के हैं।

पीछे से बुजुर्ग का याचक-स्वर उनका पीछा करता है--‘बेटा, तू क्या अब भी मुझसे नाराज़ है?’

अपने रीडिंग-रूम में बैठे रोहित और दरवाजे तक आ पहुंची उसकी मम्मी को सब कुछ अप्रत्याशित और अटपटा-सा लगता है। कौन हैं ये बुजुर्ग और अचानक उन्हे देखते ही रोहित के पिता के चेहरे पर इतने सारे भाव यकबयक कहां से उग आए ? ऐसे भाव जो अनजाने-अनपहचाने से थे। और इस तरह उनका चाय छोड़कर अचानक घर से चले जाना.... ? एक साथ इतने ढेर सारे प्रश्न जैसे कोई उलझा हुआ धागा। पर बुजुर्ग ने कमरे में आकर सारे धागे एक-एक कर खोल दिए। वह धागा जो मानो कई वर्षों से गांव के किसी पुराने पुश्तैनी घर में कहीं धूल-धूसरित पड़ा रहा हो।

उस दिन की इस घटना के लगभग एक घंटे बाद कहीं से शर्मा जी अपने घर पर फोन करते हैं।

‘बुजुर्ग सज्जन चले गए क्या ?’

‘कहां जाएंगे वे और मैं जाने भी कैसे दे सकती हूं? न जाने क्यों आप अपने पिताजी से ऐसा रूखा व्यवहार कर रहे हैं?’ उनकी पत्नी का बेबस स्वर था।

‘मैंने कहा न, वे मेरे गांव के रिश्तेदार हैं। वे मेरे पिता जी नहीं हैं।’

‘देखिए, उन्होंने मुझे सब कुछ बता दिया है। आपने तो कभी जिक्र ही नहीं किया। यही कहते रहे कि बचपन में ही माता-पिता गुजर गए हैं। दूर के एक-दो रिश्तेदारों के नाम लिये थे पर उनसे भी न कभी भेंट हुई और न आप कभी गांव गए।’

‘देखो, अब इस बारे में फिर बात करेंगे। तुमने घर में पनाह दी है तो अब तुम ही उन्हें संभालो।’

इस बात पर उनकी पत्नी का गला रूंध गया, ‘‘वे यहां रहने नहीं आये हैं। बस, एक बार आपसे क्षमा मांगना चाहते हैं। उन्हें यहां का पता ही कहां लगना था। यह तो गांव के किसी व्यक्ति ने बता दिया जिनसे आपकी पिछले दिनों कहीं मुलाकात हुई थी। वे सुबह ही वापस चले जाना चाहते हैं, पर आप कब तक लौटेंगे?’

‘लौट आऊंगा जल्दी ही।’ कहकर शर्मा जी ने फोन काट दिया।

वे लगभग दस बजे घर लौटे, थके-थके से। घर में प्रवेश करते ही रोहित के दादा जी ने कहा, ‘आ गये बेटा?’

प्रत्युत्तर में बिना कुछ कहे शर्मा जी चुपचाप अपने कमरे में इस तरह चले गये जैसे उन्हें देखा ही नहीं हो।

उस समय रोहित अपने दादा जी के पास ही बैठा था। उसने उनके घुटनों पर हाथ रखते हुए कहा, ‘कपड़े बदलकर, हाथ-मुंह धोकर आपके पास आ जाएंगे।’

उसकी मम्मी उनके पीछे-पीछे कमरे में चली आई।

‘आपने इनके साथ ठीक नहीं किया। बेसहारा छोड़ दिया उन्हें। बार-बार आपसे क्षमा-याचना कर रहे

हैं। अब वे यहीं रहेंगे। मैं उन्हें जाने नहीं दूंगी।’

शर्मा जी फफककर रो पड़े। जैसे सदियों से जबरन बांधकर रखी हुई नदी को अचानक बहने का रास्ता मिल गया हो। अपनी हथेली से आंसुओं को पोंछते हुए वे बोले ‘अब तुम्हें क्या बताता कि वे जाकर एक विधवा के साथ रहने लगे थे।’

उन्होंने मुझे सब-कुछ बता दिया है। आप तो उन दिनों दिन-रात अपनी पढ़ाई में व्यस्त रहते थे। मां को गुजरे साल भर हो गये थे। एक नितांत अकेले, उम्रदराज व्यक्ति को उस उम्र में सहारे की जरूरत थी। खासकर आपके लिए। वे उस मां समान महिला के पास जाते थे तो........।

दूसरे दिन सुबह ही रोहित के दादा जी वापस चले गये। उसकी मम्मी ने बहुत रोकने की कोशिश की पर वे नहीं माने। फिर दस दिन बाद ही रोहित मम्मी-पापा से अनुमति लेकर गांव गया। गांव से लगभग तीन किलामीटर की दूरी पर वह कस्बा है जहां अब वे उस विधवा के घर पर ही रहने लगे थे। विधवा का देहान्त हो चुका था। उस कच्चे घर में कुछ भांडे-बर्तन और इक्का-दुक्का सामान ही थे। कच्ची दीवारों पर देवी-देवताओं की तस्वीरे टंगी हुई थीं।

उस दिन वे रोहित को एक ढाबे पर ले गये। भोजन कराया। वहीं रोहित ने पूछा था, ‘दादा जी घर चलें? मेरे पिता के घर। आप के अपने बेटे के घर?’

वे मुस्कुराये--- ‘नहीं रे, मेरा यहां मन लगा हुआ है। इस घर के सिवा मैं अब और कहीं नहीं रह सकता।’

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