एक छूटा हुआ हस्ताक्षर Ratan Chand Ratnesh द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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एक छूटा हुआ हस्ताक्षर

एक छूटा हुआ हस्ताक्षर

आज वे समय से दस मिनट पहले यूनिवर्सिटी पहुंच गए। वैसे भी कहीं भी समय से पहले पहुंचना उनकी आदत है और पैंसठ वर्ष की उम्र में नौकरी से रिटायर होने के बाद भी यह कायम है। अपने जीवनकाल में वे कहीं भी गए, उन्होंने देखा है कि निर्धारित समय पर न ही लोग पहुंचते हैं और ही कार्यक्रम की शुरुआत होती है। हर जगह दस-पन्द्रह मिनट से लेकर आधे घंटे तक का विलम्ब। उन्होंने स्वयं भी कई बार निर्णय लिया कि अब से वे भी इत्मीनान से ही कहीं पहुंचेंगे पर वे ऐसा कभी नहीं कर पाए।

यूनिवर्सिटी की कला-विभाग की क्लर्क ने उन्हें आज ठीक दस बजे आने के लिए कहा था। दो दिन पहले गत शुुक्रवार वहां अपनी भतीजी सुगंधा के इम्प्रूवमेंट फार्म पर अध्यक्ष के हस्ताक्षर के लिए गए थे। उस दिन अध्यक्ष महोदय विभाग में उपलब्ध नहीं थे। वे कहां थे इस बारे में विभाग के क्लैरिकल स्टाफ को कुछ नहीं पता था, पर मीना नाम की उस महिला क्लर्क ने उन्हें आश्वस्त किया था कि सोमवार यानी कि आज दस बजे हर हाल में उनका काम हो जाएगा। वैसे भी आज ही फार्म जमा करने का अंतिम दिन था। अतः वे ठीक समय पर तैयार होकर चल दिए थे यह सोचकर कि अध्यक्ष से हस्ताक्षर कराने के बाद बैंक में पैसे जमाकर फार्म जमा कर आएंगे।

भतीजी शिमला से पिछले हफ्ते आई थी। पिछली परीक्षा में वह पास तो हो गई थी पर अंक पचास प्रतिशत के लगभग ही आए थे। वह पहले सेमेस्टर की परीक्षा फिर से देना चाहती थी ताकि उसके पास प्रतिशत कुछ और बढ़ जाय।

उस दिन फार्म भरकर जब वह विभाग में पहुंची थी तो वहां बैठी इसी क्लर्क मीना ने फार्म में अध्यक्ष के रबर-स्टैम्प कई जगह लगाकर कहा था कि जाकर साइन करवा लो और पैसे जमाकर इसे प्रशासनिक ब्लाक में जमा कर दो।

वह अध्यक्ष के कमरे में गई। अध्यक्ष ने अपनी पूर्व छात्रा को पहचाना। उसका कुशलक्षेम पूछा। विवाह होने के बाद वह शिमला में रह रही है, इसकी जानकारी ली। सुगंधा जल्दी में थी। उसने कहा, ‘‘सर, मैं कुछ देर आपके पास बैठती पर फार्म जमा करने की जल्दी है और मुझे आज ही शिमला लौटना है।’’

इस पर अध्यक्ष महोदय ने कहा कहा, ‘‘फार्म विभाग की ओर से ही जाएगा, तुम्हें स्वयं जमा करने की जरूरत नहीं।’’

सुगंधा ने उन्हें बताया कि क्लर्क तो फार्म मुझे खुद जमा करने के लिए कह रही है। इस पर उन्होंने क्लर्क को अपने कक्ष में बुलाया और इस बारे में पूछा तो वह मान गई कि फार्म विभाग की ओर से ही भिजवा दिया जाएगा।

फार्म पर हस्ताक्षर करने के बाद अध्यक्ष ने सुगंधा से कहा कि विभाग में पैसे जमा कर दे और इत्मीनान से शिमला लौट जाए, परंतु जब वह लौटकर कार्यालय में पुनः आई तो क्लर्क ने फार्म तो ले लिया पर पैसे नहीं लिए। कहा कि जिस दिन फार्म जमा होंगे उसके एक दिन पहले फोन पर सूचित कर देगी। सुगंधा ने उसे यह कहकर उनके घर और मोबाइल का नंबर लिखवाया कि वे इसी शहर में रहते हैं। फोन करने पर वे पैसे दे जाएंगे।

उस दिन से वे रिटायर व्यक्ति फोन की प्रतीक्षा करते रहे पर फोन नहीं आया। शिमला से भतीजी पूछती रही और एक दिन उनसे कहा, ‘‘ताया जी, फार्म जमा करने की अंतिम तिथि समीप आ रही है। आप एक बार स्वयं यूनिवर्सिटी चले जाएं।’’

दो दिन पहले जब वे विभाग में पहुंचे तो क्लर्क मीना ने एक फाइल से भतीजी का फार्म निकाला। फार्म पर ऊपर ही उनका लैंडलाइन और मोबाइल नंबर एक कागज पर नत्थी थे। वे पूछना चाहते थे कि उन्हें फोन क्यों नहीं किया गया, पर चुप ही रहे। क्लर्क ने फार्म उलट-पलट कर देखा और पाया कि एक स्थान पर जहां स्टैम्प लगा था, वहां अध्यक्ष के हस्ताक्षर रह गए हैं। उस दिन उनकी पत्नी भी उनके साथ थी। क्लर्क ने कहा, ‘‘आज तो अध्यक्ष नहीं हैं, अतः दो दिन बाद यानी कि सोमवार को दस बजे आकर अध्यक्ष से हस्ताक्षर कराने के बाद बैंक में पैसे देकर यह फार्म स्वयं जमा कर दें।’’

उन्होंने जानना चाहा, ‘‘क्या फार्म जमा करना विभाग का काम नहीं है?’’ शिमला जाते हुए सुगंधा ने यही कहा था कि यूनिवर्सिटी से फोन आने पर उनका काम वहां जाकर सिर्फ क्लर्क को फीस थमाना है।

इस पर उसने शालीनता से यह कह कर मना कर दिया कि इम्प्रूवमंेट के फार्म खुद जमा करने होते हैं।

फार्म उन्हें दे दिया गया और आज जब वे पौने दस बजे क्लर्क से मिले तो उसने कहा कि सर क्लास में चले गए हैं। उन्हें घंटा भर इंतजार करना पड़ेगा।

वे उठकर क्लर्क के कमरे से बाहर आए और काॅरीडाॅर के साथ लगते एक टूटी कांच की खिड़की के पास पहुंचे जहां से तन-मन को सुकुन देने वाली हवा अंदर आ रही थी। उन्हें घंटे भर इंतजार करना था। सोचा, अध्यक्ष कितनी ईमानदारी से अपना क्लास लेते हैं, पूरे एक घंटे। वे वहां नोटिस-बोर्ड पर लगी सूचनाओं को पढ़ने लगे। कुछ अखबार की कटिंग भी चिपकायी गई थी, पर उनका चश्मा सिर्फ हेडिंग ही पढ़ सका। वे फिर से उस टूटी खिड़की के पास चले गए। खिड़की के बाहर चमकती धूप में हरी-हरी घास मन को भायी। पेड़ों पर बदलते मौसम के चिह्न नज़र रहे थे। वे काॅरीडाॅर में आते-जाते छात्रों को देखने लगे। वे आ रहे थे, जा रहे थे, उन्हें देख भी रहे थे पर किसी ने नहीं पूछा कि एक बूढ़ा व्यक्ति यहां कैसे खड़ा है? शायद सबको इसका उत्तर पहले से मालूम था। सो, प्रश्न पूछकर शब्दों को बर्बाद नहीं करना चाहते थे ताकि उनकी आपसी बातों में शब्द कहीं कम न पड़ जांय।

तभी अचानक उनकी निगाह एक प्रोफेसर पर पड़ी। उन्होंने हाथ जोड़ दिए। प्रोफेसर ने भी उन्हें पहचान लिया। दोनों की कभी एक अस्पताल में मुलाकात हुई थी। अस्पताल में तीन दिनों के लिए दोनों के बिस्तर आस-पास थे।

प्रोफेसर ने अपने कमरे का ताला खोला। उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछा और कहा, ‘‘आप अंदर बैठें, मैं अभी आता हूं।’’

लगभग दस मिनट बाद प्रोफेसर लौटे और उनके यहां आने का कारण पूछा। उन्होंने अध्यक्ष के एक रह गए हस्ताक्षर का जिक्र किया। उन्होंने उनसे फार्म लेकर उनके पन्ने पलटे और आश्वस्त किया, ‘‘अभी आ जाएंगे। आप यहां आराम से बैठें। मैं एक क्लास लेकर आता हूं।’’

जाने के पहले एक छात्र से उनके लिए चाय-बिस्कुट का प्रबंध करना नहीं भूले।

वे अकेले उस कमरे में बैठे अध्यक्ष की प्रतीक्षा करने लगे। वे आएं तो उनसे छूटा हस्ताक्षर करवाएं और फार्म जमा करने की अन्य औपचारिकताएं पूरी कर लें। इसी बीच वह छात्र उन्हें चाय दे गया। वे धीरे-धीरे चाय की चुस्कियों के साथ प्रोफेसर के उस कक्ष का जायजा लेने लगे। किसी तरह ग्यारह बजे तक समय जो बिताना था। छत पर एक पंखा अपनी आदतानुसार मंथर गति से चल रहा था। जगह-जगह किताबें रखी हुई थीं। कुछ किताबें और पत्रिकाएं जमीन पर भी बिखरी पड़ी थीं। शायद उनकी छंटाई का काम चल रहा था। उनमें से कई बहुत पुरानी थीं और उन पर धूल पसरी थी। चाय पीने के बाद उन्होंने जमीन पर पड़ी दो पत्रिकाएं उठा लीं। उनकी धूल साफ की। उन्होंने गौर किया कि जमीन पर बिखरी इन पुस्तक-पत्रिकाओं पर ही नहीं, मेज पर, कुर्सियों पर सभी जगह धूल की एक परत जमी थी जैसे कई दिनों से यह कमरा नहीं खोला गया हो और धूल खिड़कियों-दरवाजों से कहीं रास्ता ढूंढकर जहां-तहां पतझड़ के पत्तों की तरह उड़कर फैल गई थी।

उनका कुछ समय उन पत्रिकाओं के पन्ने पलटने और मन-मुताबिक पढ़ने में बीता । इसी बीच ग्यारह भी बज गए। एक आशा की किरण का सहारा लेते हुए वे धीरे-धीरे उठकर अध्यक्ष के कमरे की ओर बढ़े। दुुर्योग से वहां पूर्ववत् ताला लटक रहा था। वहां खड़े-खड़े पांच मिनट इंतजार किया और फिर कार्यालय में जा पहुंचे।

‘‘क्या अध्यक्ष महोदय अभी तक क्लास से नहीं आए ?’’

क्लर्क ने बेरूखी से ना कहा और बिना उनकी ओर देखे-कहे अपने काम में व्यस्त हो गई। अतः हारकर वे पुनः प्रोफेसर साहब के कमरे की शरण में चले गए। संयोग से इस विभाग में उन्हें एक स्थान ऐसा मिल गया था जहां मजबूरीवश प्रतीक्षा की घडि़यां इत्मीनान से गिनी जा सकती थीं।

एक नये दृष्टिकोण से वे पुनः कमरे का जायजा लेने लगे। सामने दीवार पर नज़र डाली तो वहां कई श्वेत-श्याम चित्रों को फ्रेम में जड़ा पाया। उनके नीचे मोटे अक्षरों में कुछ लिखा था। वे पहली तस्वीर के समीप जा पहुंचे। वह तस्वीर हिंदी के कवि कुंवर नारायण की थी। नीचे ‘एक जन्मदिन जन्म-स्थान’ पर से उद्धृत कविता की ये पंक्तियां लिखी थीं--

‘मेरे ही दुर्दिन हैं, उनका तो क्या होगा

लेकिन मुंह ढांपकर ऐसा भी क्या सोना

आज नहीं कल सही --लड़ना तो होगा ही

कहां तक न बोलेगी आखिर बेगुनाही ?’

वे मुस्कुराए, मन में आशा का संचार हुआ जो दूसरे ही पल निराशा में बदल गया। अब इस उम्र में ऐसे हालातों से कैसेे लड़ें ? प्रतीक्षा करने के सिवा उपाय ही क्या है जब डोर किसी और के हाथ में हो। वे हल्के कदमों से दूसरी तस्वीर के पास पहुंचे और फिर तीसरी के पास। ये तस्वीरें साहित्यकारों की थीं जिनमें से कई को वे नहीं जानते थे। उन्होंने उनके नीचे लिखी काव्य-पंक्तियों से अनुमान लगाया कि ये सब कवि ही हो सकते है। उन्हें यह भी लगा कि शायद प्रोफेसर साहब जिनके कमरे में वे बैठे हैं, वे भी कवि हों। वे तस्वीरों से आगे बढ़े। एक अलमारी के ऊपर टेराकोटा में बनी गणेश जी की मूर्ति रखी हुई थी और दूसरी अलमारी पर मां सरस्वती की कांस्य-प्रतिमा। सामने वाली दीवार पर एक ब्लैकबोर्ड चिपका था जो दो स्थानों से दरक गया था। उन्होंने प्रोफेसर साहब की कुर्सी के पीछे तक जाने का साहस जुटा लिया। वहां एक ओर मेज पर कम्प्यूटर का तामझाम मुंह ढांपकर सो रहा था। उनके मुख से अभी-अभी पढ़ी कविता फूट पड़ी--‘‘लेकिन मुंह ढांपकर ऐसा भी क्या सोना।’’ उन्हें आपनी याददाश्त पर अचरज हुआ। फिर सोचा, ताजा-ताजा है शायद इसलिए। कम्प्यूटर के पीछे दीवार पर धंसी कील पर एक काले कागज पर सफेद रंग से फिर से कोई कविता लटकी हुई थी -- नीचे लिखा था रघुवीर सहाय। उन्होंने सहाय जी को भी सहज ही कवि मान लिया। पास ही दो और सफेद कागज चिपके थे जिस पर दो लड़कियों ने शुभ शिक्षक-दिवस के साथ कविता जैसी लिखी जाने वाली कुछ पंक्तियां उकेरी थीं। उन्होंने अधिक विचार-विश्लेशण नहीं किया बल्कि अब वे अधीर हो उठे थे। कलाई पर बंधी घड़ी साढ़े ग्यारह का समय दे रही थी।

वे ज्योंही कमरे से बाहर जाने को हुए कि प्रोफेसर साहब अंदर आते दिखे। उन्होंने पूछा, ‘‘क्या अध्यक्ष नहीं आए?’’

न कहने पर उन्होंने सलाह दी कि एक बार फिर से क्लर्क से पूछ लें कि कहीं वे आज छुट्टी पर तो नहीं हैं। उन्होंने मन-ही-मन सोचा कि अगर वे छुट्टी पर होते तो भला क्लर्क ऐसा झूठ क्यों बोलती कि क्लास में हैं।

फिर भी न जाने क्या निर्णय लेते हुए वे धीरे-धीरे उस क्लर्क के पास पहुंचे और यही प्रश्न पूछ डाला, ‘‘आज अध्यक्ष छुट्टी पर तो नहीं... ?’’

उसने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया कि नहीं वे छुट्टी पर नहीं है और अब इस पर भी अनभिज्ञता जाहिर करने लगी कि वे कब तक आएंगे। इससे आगे कुछ कहना उन्हें बेमानी-सा लगा। अतः वहां से जाने की इजाजत लेने के लिए शिष्टाचारवश प्रोफेसर साहब के कमरे में गए और कहा, ‘‘अध्यक्ष महोदय का कोई पता नहीं। मैं फार्म जमा करके देखता हूं। शायद एक हस्ताक्षर के बिना भी काम हो जाय। फार्म पर जगह-जगह उनके हस्ताक्षर तो हैं ही।’’

एक आस के साथ प्रोफेसर साहब ने इतना भर कहा, ‘‘कोशिश करके देख सकते हैं। वैसे अगर अध्यक्ष छुट्टी पर नहीं हैं तो अवश्य आएंगे।’’

पर उनका धैर्य अब जवाब दे चुका था। सीढि़यां उतरकर धीरे-धीरे विभाग से बाहर खुली हवा में आ गए। तन-मन में थोड़ी स्फूर्ति आई। विभाग के अंदर कितनी अयाचित घुटन थी, आज की शिक्षा-प्रणाली की तरह बेवजह का लादा गया बोझ। वे धीरे-धीरे जाकर पेड़ की छांह में रखे एक बेंच पर बैठ गए। दूसरी बेंच पर एक युवक दुनिया-जहान से बेखबर मोबाइल की स्क्रीन पर खोया हुआ था। उन्होंने गर्दन उठाकर पेड़ को भलीभांति देखा और पुनः अध्यक्ष की प्रतीक्षा के मूड में आ गए। शायद यह ताजी खुली हवा का असर था।

जेब से मोबाइल निकालकर उन्होंने शिमला फोन मिलाया।

‘‘हां ताया जी, फार्म जमा हो गया क्या ?’’ दूसरे सिरे पर सुगंधा उत्सुक थी।

‘‘नहीं बेटे, सुबह पौने दस बजे यूनिवर्सिटी पहुंच गया था। क्लर्क कह रही है कि एक स्थान पर अध्यक्ष के हस्ताक्षर रह गए हैं। अध्यक्ष का सुबह से इंतजार कर रहा हूं।’’

‘‘तो आप फार्म और फीस के पैसे क्लर्क को थमाकर घर चले जाते।’’

‘‘क्लर्क मान नहीं रही। कह रही है कि फीस और फार्म मुझे स्वयं जमा करने पड़ेंगे।’’

‘‘पर अध्यक्ष के सामने तो उसने हामी भरी थी कि पैसे जमा कराकर वह खुद विभाग की ओर से फार्म भिजवा देगी।’’

‘‘अब अध्यक्ष मिलते तो उनसे इस बारे में पूछता। मैं सोच रहा हूं कि बिना उनके हस्ताक्षर के ही फार्म जमा कर दूं। एक ही जगह तो रह गया है।’’

‘‘अच्छा थोड़ा इंतजार कीजिए, मैं अभी अध्यक्ष से बात करके आपको फोन करती हूं।’’ कहकर उसने फोन काट दिया।

वे अब फोन के इंतजार में बैठ गए। अघ्यक्ष कब आएं पता नहीं, पर यह फोन उसे दस मिनट में आएगा ही। उन्होंने बेंच पर बैठकर आंखें मूंद ली। मन में विचारों का बवंडर उठने लगा। न जाने कितने लोग अपने काम के लिए इसी तरह रोज इधर-उधर भटकते होंगे। कोई सिस्टम नहीं, नियम-कानून नहीं है इस देश में। युवा तो भाग-दौड़ कर लेंगे, किसी तरह अपना काम निकाल लेंगे पर उन जैसे उम्रदराज लोगों के लिए यह सब संभव है क्या ?

इसी बीच भतीजी का फोन आ गया।

‘‘उनका फोन नहीं मिल रहा है ताया जी।’’

उन्होंने कहा, ‘‘कोई बात नहीं, मैं देखता हूं, क्या कर सकता हूं। आज अंतिम दिन है न ?’’

‘‘हां ताया जी, आज अंतिम दिन है।’’

हाथ में फार्म थामे वे फीस जमा करने के लिए बैंक की ओर बढ़ गए जो यूनिवर्सिटी के दूसरे छोर पर था। पहुंचते-पहुंचते साढ़े बारह से ऊपर हो गए। बैंक के अंदर जाकर देखा तो उनका सर चकरा गया। छात्र और छात्राओं की अपार भीड़। कई-कई कतारें। सबने आज ही फीस जमा करनी थी। हार कर वे एक कतार में लग गए। वहां लगभग आधे घंटे खड़े रहे पर कतार बिल्कुल नहीं सरकी। अतः वे कतार से निकले और पसीने-पसीने बैंक से बाहर आ गए। खुली हवा में उन्हें ठंड लगने लगी और वे वापस घर की ओर लौट पड़े।

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रतन चंद 'रत्नेश', म.नं. 1859, सैक्टर 7-सी, चंडीगढ़- 160 019

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