खेत में कणक Ratan Chand Ratnesh द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

खेत में कणक

खेत में कणक

अभी प्रातः की पौ फूटी ही थी कि हरिया को अपने सोने के कमरे के बाहर सरसराहट की आवाज सुनाई दी। उसके शयनकक्ष की खिड़की के पल्ले सुक्खा के खेत की ओर खुलते हैं जहाँ इन दिनों कणक की हरी-भरी अधपकी फसल लहलहा रही है। पहाड़ में एक जैसे सीढ़ीदार खेतों को देखकर मन जुड़ा जाता है। हरियाली ही हरियाली। जब कणक पर पकान की धूप उतरती है तो मौसम भी अँगड़ाई लेने लगती है। खेतों को भी लगने लगता है कि अब हरी चादर उतारकर नये रंग में रंग जाना चाहिए। कणक की बालियों पर चिडि़यों का झूलना, फुदकना और चहचहाना। खेत चैत-बैशाख हो उठते हैं। हरिया का मकान भी उसके एक खेत पर ही बना है। पहले सभी घर ऊपर गाँव में हुआ करते थे। धीरे-धीरे एक एककर पहाड़ी उतरकर गाँव खड्ड के किनारे के खेतों में आ गए हैं। अभी भी यहाँ खेत हैं पर सबके साथ एक-एक घर। मानो खेतों में जगह-जगह जमीन का सीना फोड़कर खुक (प्राकृतिक मशरूम) निकल आए हों।

हरिया ने सोचा, गाँव का कोई व्यक्ति इस समय खेत के पास से गुजरा होगा। शायद यह सरसराहट उसे कारण पैदा हुई हो। गाँव के लोग सूरज उगने ही कहाँ देते हैं। पहाड़ की ओट से झाँकने के पहले ही सभी घर जाग जाते हैं। महिलाएँ कई काम समेट चुकी होती हैं। गाय-भैसों को चारा देना, दूध दूहना, सफाई-बुहारी। संयुक्त परिवारों में मिल बाँटकर सब हो जाया करता है। जमाने की हवा में जहाँ स्वयं बँट गए, वहाँ काम भी बँट गए। कुछ काम अभी, कुछ बाद में। जरूरी पहले, गैरजरूरी समय हाथ में रहा तब। सुबह का काम भी औरतों के हिस्से में अधिक है। मरद उठते हैं मरजी से।

सुबह का धीमे-धीमे पसरता उजियारा अंधकार को ऊँची-नीची पहाडि़यों में बसे चीड़ के दरख्तों की ओर खदेड़ता जा रहा था। हरिया बिस्तर त्यागने का मन बना ही रहा था कि खिड़की के बाहर खेत से फिर आवाज आई। उसने बायीं ओर झुककर खिड़की खोली तो देखा कि दो गौवें सुक्खा का खेत चर रही हैं। कहीं से आईं ये आवारा पशु इन दिनों मौका पाते ही किसी न किसी खेत को चरने लग जातीं। दिन में तो वे कहीं नज़र नहीं आतीं पर देर रात या सुबह ये किसी न किसी खेत का सफाया कर रही होतीं। पिछले सप्ताह भर से वे इसी गाँव को निशाना बनाये हुए थीं। यों तो आवारा पशुओं के खेतों को नुकसान पहुँचाते ही गाँव के नवयुवक हर घर से दस रुपए इकट्ठा करते और इन पशुओं को कहीं छोड़ आते पर फिलहाल अभी तक इनके साथ ऐसा नहीं हो पाया था। वैसे भी अब खेतों में कुछ पैदा होने के पहले ही पशुओं का आतंक उन्हें खा जाता। पहले जंगली सुअर तक ही सीमित था जो रातों में आकर उजाड़ कर जाते पर अब बंदरों ने भी बहुत ऊधम मचा रखा था। रही सही कसर आवारा छोड़ दी गईं गौवें पूरा कर डालतीं। धीरे-धीरे खेती के सिमटते जाने के पीछे एक कारण यह भी रहा। पहले दलहन, गन्ना, आलू-प्याज आदि की खेती हो जाया करती थी। अब किसान मात्र मक्की और कणक ही उपजाते हैं।

‘‘आखिर ये भूखी गौवें भी कहाँ जाँय ? इन्हें भी आखिरकार कहीं न कहीं पेट भरना ही है।’’ हरिया ने लेटे-लेटे सोचा। ‘‘लोग भी कितने स्वार्थी हो गए हैं। जब तक ये गौवें दूध देती रहती हैं तब तक उनके लिए घास-पात, चारा-पानी का प्रबन्ध करते रहते हैं और जैसे ही ये दूध देना छोड़ती हैं, इन्हें बेकार का जानवर समझकर खदेड़ दिया जाता है।’’

जैसा कि अक्सर सबके साथ होता है, हरिया के मन में भी तड़के के अच्छे-अच्छे विचार उसके आस-पास तितलियों की तरह डोल रहे थे। उसके मन ने कहा, ‘‘पर इस समय तुम्हें यह सब सोचना छोड़ पड़ोसी-धर्म निभाना चाहिए अन्यथा ये दोनों सुक्खा का खेत चट कर जाएँगी।’’

‘‘खा लेने दो। थोड़ा खा भी लेंगी तो सुक्खा को क्या फर्क पड़ेगा। सब कुछ यहीं रह जाना है। साथ लेकर कभी कोई गया है क्या? कई खेत हैं उसके खाते में। छोटे भाई का हिस्सा भी अब इसके कब्जे में हैं। बीस साल हो गए हैं कभी कमाने के लिए घर से निकला था वह। कमाया या नहीं कोई पता नहीं। शुरू के कुछ दिनों में ज्ञात हुआ था कि वह नंगल में कहीं किसी ढाबे पर लगा हुआ था। फिर अचानक कहाँ चला गया किसी को पता नहीं। नामालूम जीवित है भी या.....? सभी खेतों का मालिक अब सुक्खा ही है कागजों में बेशक छोटे के नाम हो। गाँव में ही दो दुकानें बनवाकर उसने किराये पर चढ़ा रखी हैं। दिल्ली में उसकी एक धागे की फैक्टरी है जिसे अब उसके बेटे चला रहे हैं। पैसे वाला आदमी। गौवें खा रही हैं तो क्या? आखिरकार पुण्य उसके खाते में ही जा रहा है। वैसे भी कौन-सा उसके अपने घर से दूर चर रही हैं। पिछवाड़े ही तो है यह खेत। अभी तक वह उठ भी गया होगा। शहरी बाबुओं की तरह रोज सबेरे उठकर कपड़े के जूते बाँधकर खड्ड के किनारे बनी नई सड़क पर सैर को निकलता है और वहाँ से सारे खेत दूर से ही नज़र आ जाते हैं। खासकर इन दिनों सब चैकन्ने हैं कि गौवें खेतों में धावा बोल रही हैं। एक झलक देख ही जाता।’’

‘‘अगर मान लो गौवें तुम्हारा ही खेत चर रही होतीं तो तुम क्या करते हरिया?’’ मन ने हरिया के समक्ष एक धर्मसंकट खड़ा कर दिया।

‘‘फिर तो मैं उन्हें खदेड़ कर ही दम लेता।’’

‘‘क्यों भई’’ मन ने छेड़ा। ‘‘तुम्हारी भी तो अच्छी-खासी आय है। तुम्हारे दोनों बेटे शहर में ऊँचे-ऊँचे पदों पर हैं। कुछ रकम हर महीने तुम्हारे बैंक-खाते में डालते हैं। तुम्हें भी क्या फर्क पड़ेगा अगर ये गौवें तुम्हारे खेतों से थोड़ा-सा खा जाँय।’’

‘‘देखो बेकार की बातें नहीं करते। देखकर मक्खी निगली नहीं जाती, समझे।’’ हरिया ने मन को धमकाकर चुप कराने की कोशिश की।

पर मन भी कहां मानने वाला था, ‘‘तुम क्यों नहीं थोड़ा-सा पुण्य कमा लेते? ...... पर उपदेश बहुतेरे।’’

हरिया बिस्तर से उठकर बैठ गया और बगलें झाँकने लगा। मन के कोने में कुंडली मारकर सोया हुआ साँप फन फैलाकर फुँफकार उठा। उसके पाप उसके सामने मँडराने लगे। इससे पहले कि वे उन्हें दबोचतीं, वह उठ खड़ा हुआ। सामने दीवार पर टँगे कैलेण्डर में बाबा बालकनाथ के सामने दोनों हाथ बाँधे सिर नँवाकर खड़ा हो गया। सिर उठाते पाप ऐसे भागे जैसे हनुमान-चालीसा पढ़ते ही भूत-प्रेत भागते हैं। वह अपनी स्मरण-या़त्रा में पौणाहारी बाबा के धाम द्योटसिद्ध पहुंच गया। पौणियाँ चढ़कर गुफा तक गया, रोट-परसाद चढ़ाया और बाबा की भेंट ‘धौलगिरी पर्वत ते बाबा बालक दा बसेरा है’ गाता हुआ पुनः अपने कमरे में लौट आया। गौवें खिड़की के बाहर अपनी रौ में खेत को चरी जा रही थीं। उसने पूर्ववत् खिड़की बन्द कर ली। कहीं सुक्खा इस ओर चला आया तो गौवों को बुरा-भला बकेगा ही, उसे भी नहीं छोड़ेगा। गौवों ने उसे इस अमृत-बेला में बाबा बालकनाथ का वह किस्सा याद दिला दिया जब वे माई रत्नो के यहाँ बारह वर्षो तक काम करते हुए उनकी गौवें चराया करते थे। गौवें भी क्या चराते? उन्हें लेकर घर से चलते और वनखंडी में चरता छोड़ एक बौड़ के पेड़ के नीचे तपस्या-लीन हो जाते। एक दिन खेतों के चर लिए जाने पर किसानों ने इसकी शिकायत रत्नो लुहारन को खरी-खोटी सुनाते हुए कर दी। अपमानित हुई माता रत्नो को क्र्रोध आ गया और उन्होंने इसे जाकर बाबा पर उतार दिया। इस पर बाबा ने किसानों से कहा कि उनकी कोई खेत नहीं चरी गई है। वे जाकर स्वयं देख लें। जब किसानों ने जाकर अपने खेत देखे तो फसलें पहले से भी अधिक लहलहा रही थीं। हरिया को लगा कि बाबा का ऐसा ही कोई चमत्कार इस समय भी होने वाला है। पर उसे अहसास हुआ जैसे सुक्खा उसी को सम्बोधित करके कोस रहा हो------

‘‘कैसा किसान है रे तू ? हाथ भर की दूरी पर पशु खेत चर रहे हैं और तुझे होश ही नहीं। लानत है ऐसी नींद की। इस हाल में चोर भी घर का सफाया कर जाँय और तुझे भनक लगने से रही।’’

इसके विपरित वह हरिया से सीधे ऐसा न कहकर उसे सुनाते हुए कहेगा, ‘‘क्या फायदा ऐसे लोगों का जो पड़ोसी-धर्म भी ठीक ढंग से निभाना नहीं जानते। खुली खिड़की से तमाशा देख रहे हैं और पड़ोसी की बर्बादी। वेद, पुराण और रामायण में भी लिखा हुआ है कि पड़ोसी ही भगवान होता है। घोर कलयुग है। लोग न अब ईश्वर-परमात्मा को मानते हैं, न उनसे डरते हैं और न ही उनके बताए हुए मार्गो पर चलते है। सतनारायण की कथा सुनने का क्या लाभ?’’

हर रोज सुबह स्नान हो या न हो, एक चैनल पर धर्म-कर्म का उपदेश सुनना सुक्खा का नित-नेम है। ठीक वैसे जैसे शाम को रोटी खाने के पहले बढि़या अंग्रेजी के दो-तीन पैग लगाना।

हरिया को इस बात की भी हिरख है कि यह सुक्खा रोज अंग्रेजी पीता है। कभी-कभार गाँव के दूसरे संगी-साथियों को भी अपने साथ बिठा लेता है पर उसने कभी उसे अपने साथ नहीं बिठाया। वह खुद कौन-सा पड़ोसी-धर्म निभाता है। शाम को पीते समय लगते हर ठहाके को वह अच्छी तरह पहचानता है। छाती पर साले साँप लोटने लगते हैं। कभी नहीं कहा उसने। कहे भी तो क्या वह सहज स्वीकार कर लेगा। अपने पैसे से अंग्रेजी पीने की उसमें भी कुव्वत है। पर देसी में जो मजा है वह अंगे्रजी में कहाँ? अपना देस, अपना भेष। अपना खान-पान, अपना देसी स्वाद।

‘‘अच्छा छोड़ो, यह सब बेकार की बातें और सागर में उठते भँवर सरीखे संकल्प। उठो और जाकर भगाओ उन गौवों को सुक्खा के खेत से। गाय के प्रति तुमने पुण्य कमा ही लिया है अपने और सुक्खा के प्रति भी। अब जरा पड़ोसी-धर्म केा भी कलंकित होने से बचाओ।’’

मन की यह बात उसे जँच गई और आगे अधिक सोच-विचार में उलझने के वजाय उसने बिस्तर छोड़ दिया। बाहर आकर वह जोर-जोर से चिल्लाकर गौवों को भगाने लगा। गौवें उसे देखते ही भाग खड़ी हुईं। हरिया सुक्खा के घर के पास जाकर उनकी रसोई की तरफ मुँह करके चिल्लाने लगा, ‘‘जाने कहाँ से उजाड़ करने चली आती हैं सबेरे-सबेरे।’’

उसका शोर गाँव के शांत माहौल में दूर-दूर तक प्रतिध्वनित हुआ तो फिर सुक्खा और उसके परिवार वालों को कैसे पता न चलता?

सुक्खा की घरवाली रसोई से निकलकर माजरा समझ पाती कि हरिया ने कहा, ‘‘शुक्र मनाओ कि मैंने समय रहते देख लिया नहीं तो तुम्हारे खेत में कुछ नहीं छोड़ना था।’’

इसी बीच सुक्खा भी घर से बाहर निकल आया और तेज कदमों से पिछवाड़े के खेत तक पहँुचा। चरे हुए कणक को देखकर कहने लगा, ‘‘नाक में दम कर रखा है इन्होंने।’’

हरिया ऐसे हावभाव बना रहा था जैसे उसने अपने पड़ोसी पर बहुत बड़ा उपकार किया हो। सुक्खा के चेहरे पर कृतज्ञता उभरी या नहीं, वह टोह नहीं ले पाया और न इसकी आवश्यकता महसूस की। वह अपने बालों में हाथ फेरता हुआ घर से अलग बने रसोई तक पहुँचा। खिड़की से चूल्हे में जलावन की आग उठते देख समझ गया कि चाय अब उस तक पहुँचने ही वाली है। शहरी बेटे इस सुबह की चाय का चस्का उन्हें भी लगा गए थे। चाय पीकर ही वह अपने दिन की शुरूआत करता। पर इसके पहले दातून जरूर कर लेता। उसने रसोईघर के पास उगे गंधेले के पौधे की एक टहनी तोड़ी और उसे चबाते हुए घर के पिछवाड़े चला गया। वहाँ जाकर देखा तो दंग रह गया। उसका खेत गौवों ने पूरी तरह चर लिया था।

..............................................................................................................................................