रहस्य Ratan Chand Ratnesh द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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रहस्य

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सुनील मोदी इन दिनों बेहद परेशान हैं और इस परेशानी का सबब है वह पुस्तक जो उसके रीडिंग-कम-ड्राइिंग रूम के एक कोने में रखी मेज की दराज में बंद है। उस धूसर मेज पर कम्प्यूटर और सामने एक पुरानी और चरमरायी कुर्सी है। मेज और कम्प्यूटर के सामने कुर्सी बुढ़ायी और कब्र पर लटकी नज़र आती है पर यह कुर्सी सुनील मोदी के अस्तित्व से इस कदर जुड़ी है कि वह उस मेज के सामने अपने आपको बिल्कुल असहाय और बेसहारा समझने लगता है। कमरे को सुन्दरता का आयाम देने के लिए उसने इसके पहले तीन बार इस बूढ़ी कुर्सी को हटाकर उसके सामने आधुनिक और अत्याधुनिक कुर्सियां रखीं पर उन पर बैठकर कभी सहज नहीं हो पाया। लिहाजा वे तीनों कुर्सियां दूसरे कमरे में सज गई हैं।

वह जब भी कभी इस चिरपुरातन कुर्सी पर पढ़ने या लिखने के उद्देश्य से जाकर बैठता है तो उस कथित पुस्तक से स्पंदित एक अजीब से प्रकम्पन्न को अपनी देह में समाहित महसूस करने लगता है। पिछली जून के अंतिम दिनों में मोदी ने यह पुस्तक एक कबाड़ी से ली थी। हुआ यों कि समाचार-पत्रों की रद्दी बेचने के बाद जब उसने उस कबाड़ि़ए से पैसे ले लिए तो कबाड़ि़ए ने अपना एक पुराना जूट का बोरा उसे सामने पलट दिया। दरअसल वह अभी-अभी खरीदे गए समाचारपत्रों को पहले बोरे में रखना चाहता था ताकि बाद में ऊपर से पुस्तकें रखी जा सकें।

जब कबाड़ि़या समाचारपत्रों को बोरे में डालने लगा तो मोदी ने उन पन्द्रह के लगभग पुस्तको को उलटने-पलटने लगा। वहीं मिली थी उसे वह पुस्तक। पुस्तक बिल्कुल नई थी, इसलिए कुछ अधिक ही आकर्षक लग रही थी। आकर्षक बनाने का भी पूरा प्रयत्न किया गया था। आम के पके पत्तों की हरियाली लिए हुए थी उसकी पृष्ठभूमि। पुस्तक का नाम उभरे हुए स्वर्णाक्षरों में था और उनका किनारा था रक्ताभ। अन्दर के पन्ने भी अन्य पुस्तकों की अपेक्षाकृत मोटे थे। पन्ने पलटने पर जिन शीर्षकों पर मोदी की नज़र पड़ी, वे भी बड़े रोचक थे। ‘आप कितना धन चाहते हैं?’ ‘हर रोग का इलाज आपके पास है’, ‘बुढ़ापा कभी नहीं आता’ ‘प्रसन्नता की कुंजी आपके हाथ में’। विषय-सूची भी बड़े रहस्यमयी थे, मसलन धन का का रहस्य, सम्बंधों का रहस्य, सेहत का रहस्य, संसार का रहस्य, आपका रहस्य, जीवन का रहस्य इत्यादि।

इन सभी रहस्यों से अवगत होने के लिए सुनील मोदी ने बिना समय गंवाए कबाड़ीवाले से पूछ डाला, ‘‘यह किताब बेचोगे मुझे?’’

‘‘ले लो साहब, आपको चाहिए तो......।’’ समाचारपत्रों को बोरे में समेटते हुए कबाड़ि़ए ने कहा।

मोदी ने पुस्तक के आरम्भ के दो-तीन पन्ने पलटे। कीमत का कहीं उल्लेख नहीं। फिर उसे पृष्ठ भाग पर नीचे की ओर निगाह डाली और वहां वह मिल गई। तीन सौ पचास रुपए। उसने मन-ही-मन अनुमान लगाया। 50 से 60 प्रतिशत कम में मिल जाय तो भी 175 या 200 की बैठेगी। फिर ख्याल आया कि इस कबाड़ीवाले ने तो रद्दी के भाव ही ली होगी। आधे किलो से भी कम वजन होगा इसका यानी कि ढ़ाई-तीन रुपए। उसने सोचा कि यह मुझे इतने सस्ते में कहां से देगा? बिल्कुल नई अछूत-सी पुस्तक है। मानो जिसके पास थी, उसने कभी पन्ने भी नहीं पलटे होंगे। 40-50 रुपए तो यह मुझसे ऐंठ ही लेगा।

‘‘फिर भी, इतने में भी यह सौदा बुरा नहीं है। ’’ मोदी ने अपने कुरते के बटन खोलते हुए सोचा। अतः पूछा, ‘‘कितने पैसे लोगे इसके?’’

‘‘अरे साहब, क्या बात करते हैं? अब इसके क्या पैसे लेंगे आपसे। पढ़ना है तो पढ़ि़ए। अधिक हुआ तो रुपया-दो रुपया मिल जाएगा मुझे इसका।’’

मोदी ने भी धन्यवाद कहकर उसे पर पैसे लेने को जोर नहीं डाला। इतना वह कर ही सकता है। न जाने किनी बार वह मोदी से रद्दी खरीदकर ले गया है। अन्य लोगों की तरह वह कोई हील-हुज्जत भी नहीं करता और न ही कभी रेट के लिए मोलभाव किया है उससे। उसका तो सरल-सा फंडा है। रेट पूछा और अंदाज लगवाया, कितने किलो होगी? रद्दी तोलने-तुलवाने के पचड़े में नहीं फंसता। 20-25 किलो ऊपर-नीचे करके सौदा पट जाता है और वह रद्दी उठवा देता है। आखिर कबाड़ीवाला भी तो बेचारा सारा दिन गलियों घूम-घूमकर अपनी रोजी-रोटी कमाता है। गर्मी, सर्दी हो या बरसात साइकिल उठाए, हांक लगाए द्वार-द्वार घूमता है। थोड़े से कमा भी लिए तो क्या फर्क पड़ता है।

पर लगता है कि मुफ्त की यह पुस्तक ही उसकी परेशानी की वजह बन गई जैसा कि वह सोचता है। पैसे देकर खरीदता तो वे परेशानियां जो अब खड़ी हो रही हैं। उस जून की गर्मी की शाम जब उसने अपने ए.सी.कमरे में उस पुस्तक को पढ़ना शुरु किया तो नहीं खड़ी होतीं वह पसीने-पसीने नहा उठा। पुस्तक से इतनी सेक निकल रही थी कि लगा जैसे वह एक बंद कमरे में अलाव जलाकर उस पुस्तक के मोटे पन्नों को आग में झोंक रहा हो।

आज छः माह से उपर हो गए हैं पर वह अब तक इस पुस्तक के बीस पृष्ठ ही पढ़ पाया है। जब भी इसे पढ़ने की कोशिश की है, एक-दो पृष्ठ पढ़ते ही उसे मन-मस्तिष्क और शरीर के रसायन में उथल-पुथल होने लगती है। आश्चर्यजनक यह है कि पुस्तक ग्रीष्मकाल में तपती थी तो अब इस शीतकाल में उसे पढ़ते हुए हिमानी आभास होता है जबकि उसे पास हर मौसम से लड़ने के अत्याधुनिक हथियार हैं। दिसम्बर की ठंडी रात को इसे थामता है तो यों लगता है कि केलांग की खुली हवा में बर्फ की सिल्ली थाम रखी हो। पिछले हफ्ते की ही बात है जब सुनील मोदी ने दराज से निकाल कर इसे मेज परा टिकाए उंगलियों से मकड़ा था और इसके अठारहवे पृष्ठ पर था कि उसकी सारी देह ठंडी पड़ गई। हाथ-पांव इस कदर सुन्न हुए कि उसने पुस्तक पढ़ना बंद कर ब्रांडी की बोतल निकाली और बिना पानी या सोडा डाले दवा की तरह उसे हलक से उतार लिया। पुस्तक दराज में बंद हो गई और वह रजाई में घुस गया। गहरी नींद में जाने के पहले फिर वही ख्याल मकडि़यों की तरह सिरहाने के पास दीवार से आ चिपकी कि किसी मनहूस घड़ी में वह पुस्तक खरीदी गई है।

वह किसी मित्र या सहकर्मी से इस बारे में बात करता तो सब उसका मजाक उड़ाते। उसे अभिन्न मित्र कुलकर्णी ने यहां तक परामर्श देे डाला था कि एक तो यह उसका भ्रम है और अगर लगता ही है कि यह पुस्तक ऐसी है तो उसे उसे रद्दीवाले को वापस दे देना चाहिए। उसे न देना हो तो किसी नदी-नाले में बहा आओ या फिर एक-एक पन्ना फाड़कर उसे जला दो और अपनी सभी परेशानियों से मुक्त हो जाओ।

पर सुनील मोदी की हिम्मत नहीें होती। क्या पता ऐसा कुछ करने पर कहीं यह रहस्यमयी पुस्तक उसका कहीं और अधिक अनिष्ट न कर डाले। उस पुस्तक के प्राकथ्थन में भी उल्लेख है कि बिना पूरी पुस्तक पढ़ आप इसका लाभ नहीं उठा सकते। अधूरी पढ़ी- गई किताब नीम-हकीम खतरा-ए-जान भी हो सकती है। अतः पुस्तक में उद्धृत सभी रहस्यों से अवगत होकर इसका शत-प्रतिशत लाभ उठाना है तो इसके एक-एक शब्द को अंत तक पढ़ा जाय। चमत्कार तभी होगा।

शब्दों में निस्संदेह चमत्कार है जैसा मोदी ने अब तक महसूस किया पर उसे ऐसा भी लगता है जैसे शब्दों को अभिमंत्रित किया गया है। कई बार उसने घुप्प अंधेरे में देखा है कि मेज की दराज में जहां पुस्तक है, रंग-विरंगी प्रकाश की किरणें निकल रही हैं। कभी-कभी उस दराज से ऐसी आवाजें आती हैं जैसे कोई चूहा उसे कुतर रहा हो।

एक दिन कुलकर्णी उस पुस्तक को देखने के लिए विशेष तौर पर उसके घर आया। उसने दराज से निकालकर वह पुस्तक उसके हाथ में थमायी। कुलकर्णी ने कुछ पन्ने पलटे और उपेक्षाभाव दिखाते हुए कहा, ‘‘कुछ भी तो नहीं है। एक सामान्य-सी किताब है। आजकल षहर के भव्य दुकानों के सामने पेवमेंट पर, बुक-शॉप, रेलवे स्टेशनों और बस-स्टैंडों में ऐसी ढेर सारी पुस्तकें सजी मिल जाएंगी। स्वेट मार्डन, डेल करनेगी, दीपक चोपड़ा, शिव खेड़ा, नेपोलियन हिल, और क्या नाम है उसका—— पाउलो काउलो या ऐसे ही किसी मैनेजमेंट गुरु की सी किताब है यह। कुछ खास तो है नहीं इसमें। मैं ऐसी कई किताबें पढ़ चुका हूं। इनके कई फार्मूले वाकई जीवन को सही अर्थ देते हैं। एक नये उर्जावान ढंग से जीना सिखलाते हैं।’’

कुलकर्णी बोले जा रहा था और मोदी ध्यान से उसकी बातें सुन रहा था। उसने माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘कुलकर्णी, तुझे पता है इस पुस्तक में एक स्थान पर लिखा है कि आप जितना पैसा चाहते हैं, उसकी बस कल्पना करें। आप उतने पैसों के स्वामी होंगे।’’

‘‘ओम शांति ओम अर्थात् आप जो चाहें सारी कायनात उसे आपके सामने लाकर रख देगी।’’ कुलकर्णी मुस्कुराया।

‘‘हां, बिल्कुल ऐसा ही।’’

‘‘क्यों नहीं हो सकता? दरअसल हम जिस वस्तु की कल्पना करते हैं तो उसे पाने का प्रयास भी करने लगते हैं। संभवतः यही मनोविज्ञान पैसे के मामले में भी काम करता हो। आजमाकर देखने में क्या हर्ज है?’’ कुलकर्णी ने मोदी के बायें कांधे पर अपना दाहिना हाथ रखते हुए कहा।

‘‘मैंने आजमाया।’’ अचानक मोदी के मुंह से निकला।

‘‘कितना ?’’

‘‘दो करोड़ रुपए।’’

कुलकर्णी फिर से मजाक के मूड में आ गया ---- ‘‘इतने ढेर सारे पैसे का क्या करोगे यार? तुमने तो उस प्रचलित गीत का अर्थ ही बदल डाला -- न बीवी न बच्चा, न बाप बड़ा न मइया, द होल थिंग इज़ दैट कि भइया सबसे बड़ा रुप्पइया।’’ इस गीत का अर्थ यह है कि इस दुनिया में रिश्ते-नाते कुछ नहीं, सब कुछ रुपया है पर तुम्हारे मामले में इस गीत का नया अर्थ यह खुलता है कि न तुम्हारे बीवी-बच्चे हैं और न माता-पिता फिर भी तुझे दो करोड़ रुपए चाहिए। कुलकर्णी व्यंग्य से मुस्कुराया, ‘‘क्या करेगा इतने रुपयों का? छोड़ यार, कुछ कम कर ले। अच्छी-खासी नौकरी है तेरी । बीस-पच्चीस लाख तेरे लिए बहुत हैं। शादी तू करेगा नहीं। उल्टे शौक तूने कोई पाले नहीं हैं। कुर्सी तेरी बाबा आदम के जमाने की है। कम कर ले यार, कुछ कम कर ले...।’’

‘‘देख कुलकर्णी, मैं इस किताब को लेकर बहुत गम्भीर हूं। इसमें लिखे पर अमल करने का नुस्खा आजमा रहा हूं। 20-25 लाख की कल्पना करूंगा तो इस सरकारी नौकरी में कहीं से टपक सकते हैं। मजा तो तब है जब कल्पनातीत हो।’’

‘‘अच्छा, फिर क्या हुआ? मिल गए तुझे दो करोड़।’’कुलकर्णी के मूंछों के पीछे वही व्यंग्य था।

‘‘मिल रहे हैं पर लेने से डरता हूं।’’

‘‘मतलब?’’

‘‘इन दिनों हर दूसरे-चौथे दिन जब भी इंटरनेट खोलता हूं तो कोई-न-कोई मेल ऐसा होता है जिसमें कोई विदेशी पुरूष या महिला मेरे बैंक खाते में लाखों डाॅलर-पौंड डालने के लिए लालायित दिखते हैं।’’कहकर मोदी ने कुलकर्णी के सामने एक प्रिंट-आउट कर दिया। यह किसी यू. के. नेशनल आॅनलाइन ड्रा प्रोमो की ओर से था। कुलकर्णी ने उसे प्रिंट आउट को पढ़ा और लापरवाही से उसे थमाते हुए कहा, ‘‘इसका अर्थ यह है कि किताब में जो लिखा है, वह बिल्कुल सच है। तूने दो करोड़ की कल्पना की पर उससे कहीं अधिक देने वाले तेरे द्वार पर दस्तक दे रहे हैं। ले ले भाई ले ले।’’

‘‘...... पर मैं उन ई-मेलों को पढ़कर डिलीट कर देता हूं। किसी फ्राॅड में ने फंस जाउं या उल्टे मेरा ही बैंक-एकाउन्ट खाली न हो जाय।’’ मोदी के चेहरे पर परेशानी की रेखाएं गहराने लगीं और वह सोफे पर लुढ़क-सा गया।

उसके सामने बैठे कुलकर्णी ने उसे छेड़ा, ‘‘अब तू लेने की हिम्मत ही नहीं जुटा रहा है ते इसमें किताब द्वारा सुझाए गए फार्मूले का क्या दोष है? किताब अपनी जगह सच साबित हे रही है भाई।’’

‘‘बस यही मेरी परेषानी का मुख्य कारण है। कुलकर्णी तु ही बता मैं क्या करूं। अब कल की ही बात है। डाकिया मेरे नाम एक छपा-छपाया पत्र दे गया जिसमें एक पत्रिका का ग्राहक बनने की पेशकश की गई है। उसमें चेक की शक्ल में चार वाउचर हैं जिसपर लाखों रुपए लिखे हैं। पत्रिका दावा कर रही है कि तीन सौ पचासी रुपए का वार्षिक ग्राहक बनने पर यह सारे रुपए मेरे होंगे। एक नई कार भी हो सकती है। कुछ उपहार साल भर आते रहेगे। अब तू ही बता, भला सिर्फ तीन सौ पचासी रुपए लेकर कोई मुझे इतना देने को क्यों आतुर है?’’

‘‘पस्तक के अनुसार तुमने जो दो करोड़ रुपयों की कल्पना की है, अब वे तुझे मिलकर ही रहेंगे। लूट ले प्यारे।’’कहकर कुलकर्णी ने उसके घुटने पर हाथ धरा और चलता बना।

वह फिर परेशान हो उठा। क्या सचमुच ऐसा हो सकता है? परेशानी..... परेशानी, ढेर सारी परेशानी। लोग ठीक ही कहते हैं, पैसा हर मुसीबत की जड़ है। अभी मेरे हाथों में पैसे आए भी नहीं, परेशानियां खड़ी होनी शुरू हो गई हैं। मन को चिन्तन-मुक्त करने के प्रयत्न में मोदी ने छोटे से टेबल पर रखे चाय के प्याले उठाए जो उसने कुछ देर पहले रसोईघर में जाकर अपने और कुलकर्णी के लिए बनाए थे। आज रविवार होने के कारण वह देर से उठा था। नाश्ता देर से हुआ, इसलिए दिन का भोजन टाल दिया। दो केलों और कुछ बिस्कुट से काम चला लिया। रात के भोजन के बाद आज पुस्तक का नया भाग पढ़ने की इच्छा थी -- हर समस्या का समाधान आपके पास है। अपनी परेशानी का समाधान भी उसे वहीं से ढूंढना है।

ठंड बंद दरवाजे पर दस्तक दे देकर अंदर आने का असफल प्रयास कर रही थी। उसने पहले ही स्वयं को गर्म कपड़ों से ढक रखा था। मोटी स्वेटर, उस पर गर्मशॉल, सर पर गर्म टोपी, गले में गुलबंद। ब्लोअर ने पहले ही कमरे को पूरी तरह गर्म कर रखा था। मेज पर जाकर उसने दराज खोला तो पुस्तक वहां नहीं थी। मेज पर कम्प्यूटर के आस-पास, उपर-नीचे सब स्थानों को देख डाला। पुस्तक कहीं नहीं थी। दिन में उसने पुस्तक दराज से निकालकर कुलकर्णी को थमायी थी। जब उसने उसे देखकर लापरवाही से लौटाया था तो मोदी ने यथापूर्वक उसे अपने स्थान पर रख दिया था। फिर दराज से वह पुस्तक गई कहां?

दिमाग में खटका हुआ। ‘हो न हो कुलकर्णी उसे अपने साथ ले गया है। जब मैं रसोई में चाय बना रहा था, साले ने तभी उसे अपने जैकेट के अंदर छुपा लिया होगा।’’ सोच रहे मोदी को पूर्णतः विश्वास हो गया। उसने उसी समय कुलकर्णी के मोबाइल पर उसे संपर्क किया। उस ओर से आवाज आयी---

‘‘अब इस हिमानी रात में मुझे क्यों परेशान कर रहा है। खामख्वाह खुद तो परेशान रहता ही है, दूसरों को भी नहीं बख्शता। बोल, क्या परेशानी है?’’

‘‘कुलकर्णी, यार क्या तू वह किताब ले गया है?’’

‘‘सुबह बातें करेंगे। अभी-अभी गहरी नींद से लौटा हूं।’’

‘‘यार, इतना तो बता दे कि सचमुच तू उसे ले गया है?’’

‘‘अगर नहीं कहा तो........ ’’ कुलकर्णी झल्लाया।

‘‘तो..... तो.....।’’

‘‘बस समझ ले किताब अपने आप गायब हो गई।’’

दूसरी ओर से मोबाइल का स्वीच आॅफ हो चुका था।

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