एक दिन का राजा Sanjay Kundan द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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एक दिन का राजा

एक दिन का राजा

संजय कुंदन

वे तीनों अम्बेडकर कॉलोनी से निकलकर शहर की सबसे व्यस्त सड़क पर चहलकदमी कर रहे थे। बीच-बीच में ठहरकर वे किसी पोस्टर को देखते और उस पर लिखी इबारतों को पढ़ने की कोशिश करते। तीन लोगों का एक साथ चलना आसान नहीं था। इसलिए कई बार तीसरा साथी छूट जाता था। तब बाकी दोनों रुककर उसका इंतजार करते। तीनों के चेहरे पर बेफिक्री थी। पूरा शहर भले ही हड़बड़ी में हो, उन्हें कहीं जाना नहीं था। वे तो छुट्टी बिता रहे थे।

अरसे बाद मिले थे तीनों दोस्त। करीब पांच साल पहले वे अचानक बिछुड़ गए। रोजगार के सिलसिले में उनमें से दो अलग-अलग शहरों में चले गए थे। लेकिन अब उन्हें इसी शहर में काम मिल गया था। सो वे लौट आए थे। वे अपनी शहरवापसी का उत्सव मनाने निकले थे। अपने-अपने घरों में उन्होंने साफ कह दिया था कि कब लौटेंगे कोई ठीक नहीं। वे उन दिनों की याद ताजा करना चाहते थे जब मटरगश्ती के सिवा उनके पास कोई काम न था।

तीनों की उम्र 25 से 28 के बीच थी। रंग-रूप और कद-काठी भी लगभग एक जैसी। उनमें से एक प्राइवेट सिक्युरिटी एजेंसी में गार्ड का काम करता था। दूसरा स्कूल में चपरासी और तीसरा एक फैक्टरी में वर्कर। आज से करीब बीस साल पहले जब अम्बेडकर कॉलोनी बसाई गई थी, तभी इनकी दोस्ती की नींव पड़ी थी जो समय के साथ और मजबूत होती गई।

वे तीनों बात करते हुए एक पार्क की तरफ मुड़े जिसमें वे अक्सर बैठा करते थे। अचानक रग्घू एक कोने की तरफ इशारा करते हुए बोला, ‘पता है कुछ समय पहले वहां मुझे एक घड़ी मिली थी, सोने की।’

‘अच्छा!’ भोलू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखते हुए कहा।

रग्घू ने बताया, ‘जानते हो, फैक्ट्री की नाइट ड्यूटी खत्म कर सुबह-सुबह लौट रहा था। तभी वहां चमकता हुआ सा कुछ दिखा। नजदीक गया तो देखा कि घड़ी पड़ी है। इधर-उधर देखा, कोई नहीं था। कुछ देर खड़ा रहा। फिर सोचा यह जरूर मेरी ही किस्मत में लिखी है। सो उठा ली। पहले सोचा कि इसे पास में रखा जाए। फिर सोचा, रखकर करूंगा क्या। अब हमलोग जैसा आदमी इतनी महंगी घड़ी तो पहनेगा नहीं। सो बेच दी। बेचकर खूब मस्ती की। दिल के सारे अरमान पूरे कर लिए। सिनेमा देखा, होटल में खाया। बैरे और दरबान को टिप्स देते हुए लगा कि मैं भी कुछ हूं। सच कहूं तो वह दिन राजा की तरह बिताया मैंने।’ उसकी आंखों में चमक आ गई थी।

तीनों पार्क की एक बेच पर बैठ गए। रग्घू ने भोलू से पूछा, ‘तुम कभी कुछ पाये इस तरह?’ भोलू ने होंठों पर उंगली चलाई और कुछ पल सोचता रहा फिर बोला, ‘हां, कभी-कभार मिला कुछ। एक बार एक पेन मिला। एक बार एक कंघी, एक बार एक मोजा..। इस पर तीनों हंस पड़े।

रग्घू इस बार दीपलाल की ओर मुड़कर बोला,‘तुमको कभी मिला ऐसा कुछ कि लगा कि एक दिन के लिए राजा बन गए हो।’ दीपलाल एक फीकी हंसी हंसा। रग्घू को इस हंसी का मतलब समझ में न आया। दीपलाल कहीं और देख रहा था जैसे स्मृति में झांक रहा हो। रग्घू और भोलू की उत्सुकता बढ़ रही थी। दीपलाल ने लंबी सांस लेकर कहा, ‘मुझे भी मिली थी एक चीज, जिससे मैं एक दिन का नहीं, हमेशा का राजा बन सकता था। बहुत बड़ा आदमी बन जाता मैं।’

भोलू ने कहा, ‘लॉटरी निकल गई थी क्या? ’

रग्घू बोला, ‘किसी पैसे वाले की बेटी पट गई थी क्या?’

दीपलाल बोला, ‘नहीं यार। यह कहकर उसने खैनी निकाली और बायीं हथेली पर रख उसे दायें अंगूठे से मसलने लगा। फिर उसने दोनों दोस्तों की ओर सुरती बढ़ाई। रग्घू और भोलू गौर से दीपलाल की ओर देख रहे थे। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि एक छोटी सी बात के लिए दीपलाल इतनी भूमिका क्यों बांध रहा है।

दीपलाल ने कहना शुरू किया,“जब मैंने सिक्युरिटी एजेंसी ज्वाइन की तो मेरी पहली पोस्टिंग एक बड़े प्राइवेट अस्पताल में हुई। बड़े-बड़े पैसे वाले लोग आते थे, इलाज के लिए। जब कोई बीमारी से ठीक होकर जाता तो अच्छी- खासी बख्शीश देता। यह हम सबकी ऊपरी कमाई थी। तनख्वाह तो एजेंसी देती थी, बहुत कम। मगर बारह-बारह घंटे ड्यूटी करनी पड़ती थी। एक समय मेरी ड्यूटी आईसीयू में लगी थी। बाहर बैठे मरीजों के रिश्तेदारों को आवाज देकर बुलाना और दवाई का पुर्जा पकडाना मेरा काम था। मरीजों के लोगों को भीतर जाना मना था। डॉक्टर बुलाते तभी वे अंदर जा सकते थे। लेकिन कई बार हम अपनी मर्जी से भी कुछ लोगों को मरीज से मिलवा देते थे। इससे खुश होकर वे लोग हमें पैसे देते थे।’ …यह कहकर दीपलाल रुका। फिर उसने दो बार थूक फेंका। रग्घू और भोलू यंत्रवत बैठे थे। दीपलाल कहने लगा, ‘एक दिन मैं गेट पर खड़ा था। देखा कि एक गाड़ी रुकी और सीधे पार्किंग में चली गई। उसमें से एक बुजुर्ग उतरे। बहुत परेशान दिख रहे थे। अजीब कांपते से चल रहे थे। मैं उनके पीछे-पीछे चला। वे काउंटर पर आए। जेब से दस हजार रुपये निकाले और भर्ती वाला फॉरम भरने लगे। बोले कि कोई और नहीं है उनके साथ। वह भर्ती होने आए हैं। डॉक्टर ने जांच की और उन्हें आईसीयू में ले जाने को कहा। वार्ड बॉय उसे आईसीयू में ले जाने के लिए आए तो उन्होंने एक मिनट का समय मांगा और मुझे एक कोने में बुलाया। तुम सब विश्वास नहीं करोगे। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं अकेला हूं। मेरा कोई नहीं है। फिर जेब से एटीएम कार्ड निकालकर मुझे दिया और बोला कि 2450 इसका पिन नंबर है। इसमें से पैसे निकालकर दवा वगैरह लाना और अस्पताल का बिल भर देना। अगर मैं नहीं बचा तो सारे पैसे तुम रख लेना। मैं कुछ कहता इससे पहले ही वार्ड बॉय आकर उन्हें ले जाने लगे। मैंने एटीएम कार्ड उन्हें लौटाने के लिए बढ़ाया तो उन्होने हाथ जोड़कर कहा, प्लीज। अंदर जाकर उन्होंने डॉक्टरों से कह दिया कि उनकी दवा मैं लाऊंगा। यार..क्या बताऊं। जब पहली बार मैंने पैसे निकाले तो थर-थर कांप रहा था, लग रहा था जैसे चोरी कर रहा हूं। …जब पर्ची निकली तो मैं बैलेंस देखकर घबरा गया। एक के आगे इतने जीरो थे कि बाईगॉड मैं डर गया। मैंने हॉस्पीटल के अकाउंटेंट से पूछा तो उसने बताया कि इतने पैसे दस लाख रुपये होते हैं। लेकिन मैं उतना ही निकालता था जितने कि दवा होती थी या एक दिन का हॉस्पीटल का चार्ज होता था। मैं डेली उनका बिल क्लियर करता रहा।’

तभी रघ्घू ने टोका, ‘सच बता तुझे यह खयाल नहीं आया कि पैसे लेकर चंपत हो जाऊं?’

दीपलाल ने कहा, ‘आया था। सोचता था क्यों न सारे पैसे लेकर कहीं निकल लूं। शहर छोड़ दूं। ननिहाल चला आऊं। वहां दस लाख में तो कोई अच्छा- खासा धंधा शुरू किया जा सकता था। और नहीं तो दस लाख रुपये बैंक में जमा कर देता तो साल में उतना ब्याज मिल जाता जितने अभी बारह घंटे खून सुखाकर मिलता है। जिंदगी बन जाती गुरु। बैठकर ऐश करता ऐश।’

‘तो किया क्यों नहीं?’ भोलू बोला।

‘कैसे करता यार। एक बीमार लाचार आदमी के पैसे मार लेता।’

‘तू गधा है। भाग जाता न। कौन सा पूछने आता वो।’ रग्घू ने कहा।

‘उनका चेहरा देखकर भागने का जी नहीं करता था। सोचता था कैसा जमाना आ गया है। एक आदमी बीमार है और कोई उसकी खोज-खबर तक लेने वाला नहीं। क्या उसका कोई रिश्तेदार या दोस्त नहीं? ऐसा कैसे हो सकता है। वैसे एकाध बार यह भी ख्याल आया कि मान लो वह बुड्ढा ठीक ही न हुआ… मर गया तो वैसे भी वे दस लाख तो मेरे ही थे। ऊपर से वो बड़ी सी गाड़ी। लेकिन मां कसम सच कहता हूं कि मैंने उनके मरने की दुआ कभी नहीं की। वो ठीक हो गए दस दिनों में ही। तंदुरुस्त दिखने लगे भाई।’

‘फिर क्या हुआ?’ भोलू और रग्घू ने एक साथ पूछा।

दीपलाल हंसने लगा।

भोलू ने कहा, ‘बता न क्या हुआ?’

दीपलाल उसी तरह हंसता रहा। फिर कुछ देर बोला, ‘कुछ नहीं हुआ। वो ठीक हो गए। मैंने फाइनल बिल चुकाया और एटीएम कार्ड उनके हाथ में थमा दिया साथ में सभी पर्चियां भी। मैंने उनसे पूछा, आप मुझे जानते तक नहीं थे फिर भी आपने मुझे अपना एटीएम कार्ड दे दिया। अगर मैं भाग जाता तो..? उन्होंने कहा बेटा जिंदगी का तजुर्बा थोड़ा बहुत मेरे पास भी है। तुझे देखकर ही समझ लिया था कि तू नहीं भागेगा।’

यह कहते हुए दीपलाल का गला भर्राया। उसने रुककर गला साफ किया फिर बोला, ‘यार एक इतने पढ़े- लिखे, बड़े आदमी के मुंह से यह सुनकर ऐसा लगा कि मैं आसमान में उड़ रहा हूं। मैं कुछ खास इंसान हूं। सारी दुनिया से अलग।’

कुछ देर तीनों चुप रहे। फिर भोलू ने पूछा, ‘तो वो चला गया ऐसे ही, बख्शीश वगैरह नहीं दिया?’

दीपलाल ने मुस्कराते हुए कहा, ‘देते कैसे नहीं। दिया मैंने लौटा दिया।’

‘कितना दिया?’ भोलू और रग्घू ने एक साथ पूछा।

दीपलाल ने क्षण भर के लिए दूसरी ओर देखा फिर कहा, ‘बताऊंगा तो तुम लोग विश्वास नहीं करोगे।’ ‘मानेंगे यार मानेंगे। तू झूठ नहीं बोल सकता।’

‘उन्होंने जाते समय अपना एटीएम कार्ड मुझे वापस थमाते हुए कहा, इसे रख लो। मैने कार्ड लिया और उसकी जेब में डालते हुए कहा, अंकल जी , इस शरीर का कोई भरोसा नहीं। भगवान न करे लेकिन फिर कहीं आपको यहां आना पड़ा तो यह कार्ड लेते आइएगा। यह सुनते ही वे रोने लगे। मेरे कंधे पर सिर रख दिया उन्होंने। मुझे लगा ये आदमी कितना गरीब है यार। और मैं राजा हूं राजा।’ यह कहकर दीपलाल ने अपनी मुट्टियां भींची जैसे उसे किसी खेल में जीत मिली हो। फिर अगले ही पल वह उठ खड़ा हुआ और पार्क के गेट की तरफ देखने लगा। भोलू और रग्घू समझ गए कि वह अपने आंसू छुपा रहा है।

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