DarkRoom Sanjay Kundan द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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डार्क रूम

यह किसी स्वप्न के छिन जाने जैसा था। वैसा ही था जैसे कोई बहुत प्रिय मूर्ति अचानक ही गिरकर टूट गई हो। नहीं...यह उससे भी कुछ ज्यादा था, जैसे आपका कोई खूबसूरत खिलौना एक दिन आंखें तरेरकर यह कहे कि तुम मुझसे खेलने लायक नहीं हो, फिर वह अपने नन्हे-नन्हे कदम बढ़ाते हुए घर से बाहर निकल जाए बिना हाथ हिलाए हुए।

धनंजय शर्मा के सामने इस वक्त कुछ ऐसे ही दृश्य घूम रहे थे। उनका बेटा विक्रांत पिछले चौदह वर्षों से उनके लिए एक खिलौना ही तो था। वह चाबी वाले गुड्डे की तरह था, रिमोट से नाचने वाली कठपुतली की तरह था। शर्माजी बटन दबाते और वह खिलखिला उठता था, दौड़ पड़ता था, करतब दिखाता था। वह अदृश्य रिमोट किसी वरदान से कम नहीं था। यह अलादीन का चिराग था कि घिस लो और मांग लो ढेरों हंसी। जब विक्रांत हंसता था तो शर्माजी का हृदय पतंग बन जाता था। उनके मन का आकाश असंख्य रंगीन गुब्बारों से भर जाता था। लेकिन आज उन्हें अहसास हुआ कि उनका रिमोट बेजान हो चुका है, उनकी चाबी में जंग लग चुका है। आज विकांत ने उनका गुलाबी नशा तोड़ दिया था।

आज सुबह उठते ही वह विक्रांत के कमरे में गए थे, ठीक उसी तरह जैसे हर साल 7 मार्च को जाते थे, थोड़ा नाटकीय तरीके से झूमते हुए। विक्रांत ने सिर तक चादर डाल रखी थी। उन्हें क्षण भर के लिए लगा कि चादर हटाते ही उन्हें दिखेगा वही गुलाबी बच्चा, जो दिखा था चौदह वर्ष पहले, अपनी आंखें खोलने की कोशिश करता हुआ। फिर लगा... नहीं, पांच साल का नन्हा शैतान अचानक उनके बाल खींचता हुआ उठेगा फिर खिलखिलाएगा।

‘हैप्पी बर्थ डे टू यू... हैप्पी बर्थ डे टू यू विक्रांत।’ वह गाने लगे। विक्रांत ने चादर हटाई और कहा, ‘थैंक्यू।’ फिर उसने चादर खींच ली। शर्माजी बोले, ‘अरे उठ जाओ बेटा। ये बताओ आज क्या सब कार्यक्रम है। गिफ्ट के बारे में भी तुमने कुछ नहीं कहा।’

‘प्लीज आज तो सोने दीजिए आज छुट्टी है।’

‘ठीक है थोड़ी देर सो लो। मैं इंतजार करता हूं।’

‘क्यों, आपको ऑफिस नहीं जाना है क्या?’

ऑफिस! शर्मा जी चौंके। क्या उन्हें आज ऑफिस जाना है? विक्रांत के जन्मदिन पर वह कभी दफ्तर नहीं जाते थे। हर बार वही उनसे पूछता था कि इस बार छुट्टी ले रहो हो न। एक बार जरूरी काम से उन्हें ऑफिस जाना पड़ा तो वह बेहद नाराज हो गया था। लेकिन आज तो विक्रांत खुद कह रहा था कि वह ऑफिस चले जाएं। उन्हें झटका लगा। वह बोले, ‘मुझे आज ऑफिस क्यों जाना है। आज तुम्हारा बर्थडे है भाई।’

‘इसीलिए तो कह रहा हूं कि चले जाओ।’ शर्मा जी उसका मुंह ताकने लगे। उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि यह वही विक्रांत है। उन्होंने फिर कहा, ‘अरे भाई, आज मुझे ऑफिस जाने के लिए क्यों कह रहे हो? बर्थ डे नहीं मनाओगे क्या?’

‘हां, इसीलिए तो कह रहा हूं ऑफिस चले जाओ। मुझे सेलिब्रेट करना है।’

‘तुम मुझसे नाराज हो बेटा?’ शर्मा जी ने उसका माथा सहलाते हुए पूछा।

‘नहीं बिल्कुल नहीं।’

‘फिर ऐसे क्यों कह रहे हो?’

विक्रांत उठ बैठा और बोला, ‘पापा अब मैं बड़ा हो गया हूं। खुद अपना बर्थडे मना लूंगा।’

‘जरा मैं भी देखूंगा कि तुम अपना बर्थ डे किस तरह मनाते हो।’

‘जी नहीं, आपको रहने की कोई जरूरत नहीं है।’

‘ऐसा क्यों बेटा?’

‘बस ऐसे ही।’ यह कहकर विक्रांत उठा और बालकनी में जाकर खड़ा हो गया। शर्माजी उसे खिडक़ी से देख रहे थे। वह सचमुच बड़ा दिख रहा था। शर्माजी को करीब पचीस साल पहले की अपनी एक तस्वीर याद आई। वह भी किनारे से ऐसे ही दिखते थे ठीक विक्रांत की तरह। तभी वह घूमकर पीछे आया और बोला, ‘पापा मैं सीरियसली कह रहा हूं ऑफिस चले जाओ। तुम घर में रहोगे तो मैं बर्थ डे ढंग से नहीं मना पाऊंगा।’

एक और झटका। न जाने विक्रांत उन्हें कितने झटके देगा। वह बोला, ‘पापा तुम समझ नहीं रहे हो।’

‘मैं समझ गया।’ शर्मा जी यह कहकर दूसरे कमरे में चले आए। जब वह दफ्तर जाने के लिए तैयार होने लगे तो विक्रांत ने सामने आकर कहा, ‘रोज की तरह आज सात बजे मत चले आना। देर से आना। मैंने कुछ दोस्तों को घर पर ही बुला लिया है। पार्टी देर तक चलेगी।’

शर्माजी चुपचाप मुंह लटकाए दफ्तर चले आए। लेकिन आज उनका जी बिल्कुल नहीं लग रहा था। वह दो बार बाहर टहल आए थे। लोगों ने टोका तो अनमने ढंग से जवाब दिया। बार-बार विक्रांत की वही बात याद आ रही, ‘आज देर से आना।’ एक समय था जब वह रोज उन्हें याद दिलाता था, ‘जल्दी आना।’ वह शाम में बाकायदा घड़ी देखता रहता था टाइम कीपर की तरह। उनके घर पहुंचते ही कहता था, ‘पंद्रह मिनट लेट।’ फिर वह सफाई देते, ‘अब क्या बताऊं बेटा। जाम में फंस गया था।’

‘झूठ-झूठ’ यह कहते हुए वह उनसे लिपट जाता था। शर्माजी को अच्छा लगता था यह। बल्कि किसी दिन वह यह सब नहीं करता तो वह उदास हो जाते। पत्नी यह सब देखकर कहती, ‘आपने तो उसे सिर पर चढ़ा रखा है। आप उसको बड़ा होने ही नहीं दीजिएगा।’

तो क्या विक्रांत सचमुच बड़ा हो गया है? उसकी अपनी एक दुनिया तैयार हो गई है जिसमें उसे अपने पिता का दखल मंजूर नहीं? पहले तो वह उन्हें अपनी हर खुशी में शामिल करने के लिए परेशान रहता था। अपनी हर ख्वाहिश, अपना हर राज उन्हें बताता था। बाप-बेटे के बीच कोई पर्दा था ही नहीं लेकिन अब शायद वो बात नहीं रह गई थी। उन्हें समझना चाहिए था इस बात को। अब वह उनकी कई बातों पर भडक़ने लगा था। अक्सर वह मोबाइल पर बातें करता और जब वह पूछते कि किस से बात हो रही थी तो वह चिढ़ जाता। कई बार यह पूछने पर भी नाराज हो जाता कि वह अभी क्या सोच रहा था। एक बार उनकी पत्नी ने उन्हें बताया था कि आजकल के बच्चे कितने सयाने होते जा रहे हैं। इन लोगों की बातें सुनो तो आश्चर्य होता है। उसने बताया कि उसने मोहल्ले के कुछ बच्चों की बातें सुनीं तो उसमें गर्ल फ्रेंड और ब्यॉय फ्रेंड जैसे शब्द सुनाई पड़े। यह सुनते ही झट से शर्माजी ने पूछा, ‘तुमने कभी विक्रांत के मुंह से यह सब सुना है?’ पत्नी ने कहा, ‘नहीं इसके मुंह से तो कभी नहीं सुना। वैसे ये उस टाइप के लडक़ों के साथ तो रहता नहीं।’ शर्माजी को यह सुनकर थोड़ी राहत तो मिली। लेकिन उनके भीतर कुछ अजीब से ख्याल आए। कहीं ये लडक़ा इन सब चक्करों में अभी से पड़ गया तो...। इसकी पढ़ाई चौपट हो जाएगी। अभी तो यह जरूर अच्छा रिजल्ट कर रहा है लेकिन गलत-सलत चीजों में पड़ेगा तो नंबरों का यह लेवल मेनटेन नहीं कर पाएगा। लेकिन यह बात उसको समझाई कैसे जाए। सीधे-सीधे यह तो नहीं कह सकते वह कि गर्ल फ्रेंड वगैरह बनाने के चक्कर में मत पड़ो। दूसरे दिन जब वह विक्रांत के साथ बैठे थे तभी उसका एक एसएमएस आया। शर्माजी ने लपककर उसका मोबाइल उठा लिया। बस विक्रांत भडक़ गया, ‘ये क्या मैनर है? तुम मेरा मैसेज क्यों देखोगे?’ शर्माजी बोले, ‘अरे तो इसमें क्या हुआ। मैं देख नहीं सकता हूं?’ ‘बिल्कुल नहीं’ यह कहकर उसने उनकी मुट्ठी से मोबाइल छीन लिया फिर दूसरे कमरे में चला गया। शर्माजी परेशान हो गए। उस रात उन्हें नींद नहीं आई। बार-बार यही सोचते रहे कि आखिर विक्रांत को गलत रास्ते पर जाने से रोकने के लिए क्या करें। एक बार छुट्टी के दिन विक्रांत जब बाथरूम में बड़ी देर तक नहाता रहा तो शर्माजी को न जाने क्या सूझा, वह लगे दरवाजा थपथपाने। अंदर से विक्रांत जोर से चिल्लाकर बोला, ‘क्या बात है? क्यों दरवाजा पीट रहे हो?’ शर्माजी ने कहा, ‘अरे जल्दी करो भाई।’ थोड़ी देर बाद वह निकला तो शर्माजी ने पूछा, ‘तुम क्या कर रहे थे अंदर?’

‘ नहा रहा था। और क्या? अब मैं अपनी मर्जी से नहा भी नहीं सकता। तुमको नहाना था तो दूसरे बाथरूम में चले जाते।’ शर्माजी को समझ में नहीं आया कि क्या कहें। उन्होंने उसके गाल पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘कहीं तुम शेविंग तो नहीं ट्राई कर रहे थे?’ विक्रांत भुनभुनाने लगा, ‘हद हो गई। तुम तो मुझे चैन से जीने ही नहीं दोगे। ये मत करो, वो मत करो। लगता ही नहीं कि मेरी भी कोई पर्सनल लाइफ है।’

शर्माजी को इस बात का अहसास ही नहीं था कि उसकी भी कोई पर्सनल लाइफ है। जहां वह अपने अनुसार चीजें तय करेगा। क्या वह उनसे दूर निकलता जा रहा है? उन सपनों का क्या होगा जो उन्होंने साथ मिलकर देखे थे? क्या विक्रांत के सपने अब अलग हो गए हैं और उनमें शर्माजी के लिए कोई जगह नहीं है?

यह सब सोचते हुए शर्माजी को अपना बचपन याद आया। उनके सामने घूम गया अपने बाबूजी का चेहरा। जब वह छोटे थे, तब उनकी इच्छा होती थी कि बाबूजी से बातें करें। उन्हें अपने दिल की बात बताएं। उन्हें अपने दोस्तों के बारे में बताएं, अपने शिक्षकों के बारे में बताएं। लेकिन ऐसा कहां हो पाता था। बाबूजी अक्सर देर से आते थे। अगर वह किसी भाई-बहन को जागते देखते तो नाराज हो जाते। चिल्लाकर कहते, ‘तुम लोग अभी तक सोए क्यों नहीं?’ इसलिए उनके आते ही सभी भाई-बहन जल्दी से चादर में छुप जाते और सोने का बहाना करने लगते थे। एक बार सभी भाई-बहन खाना खाने के बाद भी छुप्पन-छपाई खेल रहे थे, तभी अचानक बाबूजी आ धमके। सभी भाई-बहन जल्दी-जल्दी चादर से मुंह ढांपकर सो गए। शर्माजी उस समय पलंग के नीचे छुपे हुए थे। उन्हें निकलने का मौका ही नहीं मिला। वह बड़ी देर तक उसी के नीचे लेटे रहे। लेकिन अंदर बैठे-बैठे उकता गए सो निकलने की कोशिश करने लगे। तभी एक बर्तन से उनका पैर जा लगा। बाबूजी को लगा कि कोई बिल्ली है। उन्होंने नीचे झांका। शर्माजी को वहां देख वह बेहद नाराज हुए। उन्होंने शर्माजी को दो तमाचे जड़ दिए।

इस तरह के रुखे व्यवहार के बावजूद शर्माजी बाबूजी का बेहद सम्मान करते थे। वह अपनी शादी होने तक उनकी हर बात मानते रहे लेकिन विक्रांत के जन्म ने उनका नजरिया बदल दिया। उन्होंने तय कर लिया कि वह अपने बेटे से एक अलग तरह का रिश्ता बनाएंगे। वह उसे खूब प्यार करेंगे, उससे खूब बातें करेंगे। बाप-बेटे की दुनिया उस तरह अलग-अलग नहीं होगी जैसी उनके समय में हुआ करती थी। फिर उन्होंने एक ऐसा फैसला किया जिससे उनका परिवार हिल गया। उन्होंने सबको बताया कि अब वह दूसरा बच्चा नहीं पैदा करेंगे। उनके मां-बाबूजी ही नहीं सास-ससुर भी नाराज हुए। बाबूजी ने तर्क दिया, ‘देखो, इसे एक साथी चाहिए जिसके साथ यह खेल सके अपने दिल की बात कह सके।’ इस पर शर्माजी ने कहा, ‘मैं बनूंगा इसका साथी, मैं खेलूंगा इसके साथ।’

इस पर बाबूजी ने कहा, ‘बाप दोस्त नहीं हो सकता।’ शर्माजी फट पड़े। बचपन से अब तक जमा हुआ भीतर का सारा आक्रोश निकल पड़ा, ‘मैं आपकी तरह सामंतवादी बाप नहीं हूं। आप लोगों के जमाने में पता नहीं लोग क्यों बच्चे पैदा करते थे। वे बच्चों को भी अपनी रियाया की तरह समझते थे। यह भी देखने की फुर्सत नहीं थी कि किस बच्चे को क्या चाहिए। किसे क्या तकलीफ है, किसके दिल में क्या चल रहा है। ... आपकी आमदनी सीमित थी फिर भी आपने चार बच्चे पैदा किए। न तो किसी को ढंग के स्कूल में पढ़ा पाए न ही अच्छा खाना और कपड़ा-लत्ता दे पाए। मैं वही कहानी नहीं दोहराना चाहता। मैं अपने हृदय को बांट नहीं सकता। अपना सारा प्यार और संसाधन मैं इसी बच्चे पर लुटाऊंगा।’ बाबूजी निरुत्तर हो गए। जीवन में पहली बार उन्हें अपने बेटे की ओर से इतना कड़ा जवाब मिला था। मां भी सुन रही थी। उन्होंने थोड़ा सकुचाते हुए दलील दी, ‘भगवान न करे कहीं इसको कुछ हो गया तो...।’ इस पर शर्माजी बोले, ‘ये भी कोई बात हुई। मान लो मेरे दो बेटे हों और दोनों को एक साथ कुछ हो जाए तो...।’ पत्नी को भी इन्हीं तर्कों से शर्माजी ने समझाया। बाद में भी विक्रांत को लेकर शर्माजी की अपने परिवार के लोगों से बहस होती रहती थी। कुछ लोगों को इस बात पर आपत्ति थी कि विक्रांत शर्माजी को ‘आप’ की बजाय ‘तुम’ कहता है। कई बार जब वह अपने शहर जाते तो वहां लोग टोकते, ‘ आप बच्चे को बोलना क्यों नहीं सिखाते। अपने बाप को बुलाने का यह कौन सा तरीका है?’ शर्मा जी प्रतिवाद करते, ‘इसमें गलत क्या है। यह मुझे इस तरह बोलता है, औरों से तो कुछ नहीं कहता।’ जब विक्रांत परीक्षा में अच्छे नंबर लाता तो वह लोगों को यह बताना नहीं भूलते। कई बार पत्नी टोकती, ‘देखिए अपने बेटे पर ज्यादा घमंड मत कीजिए। लोग नजर लगा देंगे।’

आज विक्रांत के व्यवहार ने शर्माजी के घमंड को थोड़ा हिलाकर रख दिया था। जब से वह थोड़ा बड़ा हुआ था उनसे कई बार बड़े अजीब ढंग से बात करता था। कई बार तो मेहमानों के सामने ही कह देता था, ‘तुम एकदम बेवकूफ हो पापा।’ शर्माजी थोड़ा झेंप जाते थे पर उन्हें बुरा नहीं लगता था बल्कि एक अद्भुत आनंद की अनुभूति होती थी, लेकिन आज जब विक्रांत ने उन्हें देर से घर पहुंचने को कहा तो उन्हें दुख हुआ। उन्हें कहीं न कहीं यह अहसास था कि विक्रांत उनके बगैर नहीं रह सकता। शर्माजी की खुद की निजी जिंदगी में उनके पिता के लिए कोई खास जगह नहीं थी लेकिन उन्हें लगता था कि उनके बेटे के जीवन में उनकी एक खास जगह है। उन्हें लगता था कि अपने व्यवहार से उन्होंने विक्रांत के मन का एक बड़ा हिस्सा अपने नाम कर रखा है। लेकिन क्या आज उनका वह हिस्सा भी छिन गया है? वह आज तक कहीं भ्रम में तो नहीं थे? या यह बाप-बेटे के संबंधों की अनिवार्य परिणति है? बाप लाख कोशिश कर ले वह बेटे का दोस्त नहीं बन सकता।

लेकिन इसके लिए क्या वह खुद जिम्मेदार नहीं हैं? उन्हें याद है पिछले जन्मदिन पर केक काटने के बाद विक्रांत के दोस्त रिकॉर्ड प्लेयर बजाकर डांस करने लगे थे। यह शर्मा जी बर्दाश्त नहीं कर सके। उन्होंने विक्रांत को बुलाकर डांस बंद करने को कहा। इस पर विक्रांत बोला, ‘हमलोग यहां सेलिब्रेट कर रहे हैं, कोई मातम नहीं मना रहे हैं। आपको नहीं अच्छा लग रहा है तो अपने कमरे में बैठिए।’

विक्रांत उनके कमरे का दरवाजा सटाकर चला गया। शर्मा जी अपने कमरे में बंद रहे। लडक़े-लड़कियों के शोर-शराबे से उनका सिर फटने लगा था। लेकिन वह विक्रांत को कुछ नहीं कह पाए क्योंकि वह बर्थडे पर उसका मूड नहीं खराब करना चाहते थे। बाद में जब उसके दोस्त चले गए तो वह उनके पास आया और हंसने लगा। शर्माजी गंभीर बने रहे तो वह कान पकडक़र बोला, ‘सॉरी।’ फिर वह गुदगुदी लगाकर उन्हें हंसाने लगा। शर्माजी को लगा कि शायद विक्रांत को अपनी गलती का अहसास हो गया है। उन्हें उम्मीद थी कि अब उनका बेटा शायद इसे न दोहराये। लेकिन इस बार तो उसने पहले ही संकेत दे दिया है कि वह फिर वही सब करेगा।

वैसे इस बात को पॉजिटिव तरीके से भी लिया जा सकता है। हो सकता है वह शर्माजी को एक संभावित परेशानी से दूर रखना चाहता हो। वह उनका इतना ख्याल रखता है कि उन्हें किसी मुसीबत में डालना नहीं चाहता। लेकिन इसका एक अर्थ यह भी तो है कि वह शर्माजी की इच्छा के विरुद्ध पार्टी करना चाहता है। विक्रांत वह करना चाहता है जो शर्माजी को पसंद नहीं है। कल यह चीजें बढ़ सकती हैं। एक समय ऐसा आएगा जब दोनों के रास्ते एकदम अलग होंगे। क्या विक्रांत के मन में अपने बाप के लिए वही भाव पैदा हो जाएगा शर्माजी के भीतर अपने पिता के लिए था?

‘शर्माजी नमस्कार। आज तो आप छुट्टी लेने वाले थे।’ सामने आहूजा साहब खड़े थे।

‘असल में जो काम था... वह टल गया।’ यह कहते हुए शर्माजी को अपने भीतर कोई चीज घिसटती सी मालूम पड़ी। अच्छा हुआ कि उन्होंने किसी से यह नहीं कहा था कि वह अपने बेटे के जन्मदिन की वजह से छुट्टी ले रहे हैं। हालांकि यह बात तिवारी जी को मालूम थी। गनीमत थी कि वे कहीं नजर नहीं आ रहे थे।

‘आपके कितने बेटे हैं?’ शर्माजी ने आहूजा साहब से पूछा। अपनी उलझन से बाहर आने के लिए वह कोई तरीका ढूंढ रहे थे।

‘दो लडक़े हैं।’ आहूजा साहब ने इस तरह मुंह बनाकर कहा जैसे यह सवाल उनके लिए अप्रत्याशित हो।

‘आजकल के बच्चे बात नहीं सुनते। है न।’ शर्माजी पुत्र-प्रसंग छेडऩा चाहते थे।

‘अरे जमाना बहुत खराब हो गया है भइया। हमलोगों के टाइम में तो जुबान नहीं खुलती थी मां -बाप के सामने। पर आजकल तो आप कुछ कह नहीं सकते। ये चाहिए..वो चाहिए। बस फरमाइश ही फरमाइश।’

आहूजा साहब की इस बात से शर्माजी को थोड़ी तसल्ली मिल रही थी। लेकिन वह कुछ और सुनना चाहते थे। वह तो पूछना चाहते थे कि क्या आपने अपने बेटे को दोस्त बनाया है? अगर आपका बेटा आपसे कुछ कड़वी बात कहता है तो कैसा लगता है? लेकिन वह पूछ नहीं सके। आहूजा साहब ने चुप होकर एक फाइल में मुंह घुसा लिया। शर्माजी चाहते थे कि वह कुछ ऐसा कहें जिससे उन्हें रास्ता मिले। आहूजा साहब ने उन्हें बीच रास्ते में लाकर छोड़ दिया था। शर्माजी कुछ देर कसमसाते रहे फिर उन्होंने साहस करके साफ-साफ पूछ ही लिया, ‘अच्छा यह बताइए आहूजा साहब कि अगर आपका बेटा आप से ढंग से बात नहीं करता या कुछ अटपटी बात कहता है तो आपको कैसा लगता है?’

आहूजा साहब ने फाइल से मुंह निकाला और कुछ देर शर्माजी को घूरने के बाद कहा, ‘देखिए शर्माजी मैं इस मामले में बहुत सचेत रहा हूं। दुनिया चाहे कहीं से कहीं चली जाए मेरा हिसाब-किताब बिल्कुल ठीक है। मैने अपने बच्चों को अच्छे संस्कार सिखाए हैं। उनके मन में चाहे कुछ रहे पर वे मेरे सम्मान में कमी नहीं करते। वे मेरे सामने कुछ उलटा-सीधा नहीं बकते। मुझसे कुछ बात कहनी होती है तो अपनी मां के माध्यम से कहते हैं। भइया, हमलोग अपनी संस्कृति थोड़े ही छोड़ सकते हैं।’

‘पाखंडी कहीं का।’ शर्माजी ने मन ही मन कहा। आहूजा की बातें उन्हें बकवास लगीं। थोड़ी देर पहले तो यह कुछ और कह रहा था। अब कुछ और। लेकिन संस्कार क्या होता है? बहुत से मां-बाप इस शब्द का जाप करते रहते हैं। लेकिन शर्माजी ने अपने बेटे को कोई संस्कार तो नहीं सिखाया। वे तो हर समय उससे कार्टून कैरेक्टर फिल्म और क्रिकेट के बारे में बात करते रहते थे। और तो और वे हीरोइनों के बारे में भी बात करते थे। क्या उनकी पत्नी की यह बात सही है कि ज्यादा खुल जाने के कारण ही विक्रांत उन्हें महत्व नहीं देता और जब चाहे अंड-बंड बक देता है।

शर्माजी की बेचैनी बढ़ गई। आज रात उन्हें देर से घर पहुंचाना है। यह कितना कठिन काम लग रहा है। कहां समय बिताएंगे वह? जब से विक्रांत पैदा हुआ है घर और दफ्तर के अलावा उन्हें कुछ सूझता ही नहीं। उनकी दुनिया ही इतने में सिमट कर रह गई थी। साढ़े पांच बजते ही वह घर जाने के लिए बेचैन हो उठते थे। कई बार लगता था उड़ कर घर पहुंच जाएं। जाम में ज्यादा फंसते तो रोने का मन करने लगता। कई लोग तो उनकी इस आदत का मजाक उड़ाते थे। दफ्तर में सब उनकी हंसी उड़ाते हुआ कहते,‘ अगर शर्माजी ने बैग उठा लिया तो समझ लो साढ़े पांच बज गए, घड़ी देखने की कोई जरूरत ही नहीं है।’ आहूजा साहब जैसे लोग छेड़ते हुए कहते, ‘अरे भइया अब तो शादी के दस-बारह साल हो गए अब क्यों हड़बड़ाए रहते हो?’ जब उन्होंने कहा कि उनका बेटा इंतजार कर रहा होता है तो लोगों ने उन्हें इस तरह देखा जैसे उन्होंने कोई विचित्र बात कह दी हो।

कितने वर्षों बाद ऐसा मौका आया था जब उन्हें घर जाने की कोई जल्दी नहीं थी। आज वे समय पर घर पहुंचने के दबाव से मुक्त थे। पर इस मुक्ति की उन्हें कोई खुशी नहीं थी। यह एक थोपी हुई स्वतंत्रता थी, गुलामी से ज्यादा पीड़ादायक। यह आजादी नहीं थी, देशनिकाला था।

तभी उनकी नजर अंकित पर पड़ी। उसने उनके दफ्तर में हाल में ही ज्वायन किया था। वह पचीस-छबीस साल का अविवाहित नौजवान था। ऑफिस के पुराने लोग उसके कपड़े, परफ्यूम और हेयर स्टाइल को कौतुहल और कुछ हद तक ईष्र्या से देखते थे। हर समय मोबाइल पर बात करने के लिए उसे फटकार भी सुननी पड़ती थी। वह बेचारा खूसट बाबुओं के बीच अपने को अलग-थलग महसूस करता था। शर्माजी को लगा कि उन्हें अंकित कोई रास्ता दिखा सकता है। वह अंकित के पास गए और उन्होंने बड़े प्यार से पूछा,‘ अंकित चाय पीओगे।’ आसपास बैठे लोगों ने मुडक़र देखा। सबके लिए हैरत की बात थी। आखिर शर्माजी जैसे वरिष्ठ व्यक्ति ने अंकित के सामने चाय का ऑफर क्यों रखा?

अंकित के लिए भी यह सुखद आश्चर्य था। उसने कहा, ‘यह तो हमारा सौभाग्य है सर। चलिए।’ शर्माजी को समझ में नहीं आ रहा था कि बात कैसे शुरू करें। अंकित को न जाने क्या लग रहा होगा। हो सकता है इसमें भी उसे दफ्तरी राजनीति नजर आ रही हो। फिर भी उन्होंने किसी तरह उसके निजी जीवन के बारे में बातें शुरू की। वह कहां का रहने वाला है, उसके पिताजी क्या करते हैं, उसके कितने भाई-बहन हैं। अंकित यह सब बताते हुए कुछ इस भाव से उन्हें देख रहा था कि वह ‘असली’ मुद्दे पर कब आते हैं? पर शर्माजी के लिए असली मुद्दा कुछ और ही था। आखिरकार इस पर वह आ ही गए, ‘अच्छा यह बताओ कि आजकल के टीनेजर्स क्या सोचते हैं?’ अंकित इस सवाल पर थोड़ा चकराया। उसे समझ में नहीं आया वह क्या कहे। शर्माजी ने उसकी मदद की, ‘मतलब वह मां-बाप से क्या अपेक्षा करते हैं?’

‘वह यह सोचते हैं कि पैरंट्स उनकी फीलिंग को समझें।’ इस बार अंकित ने सीधा जवाब दिया।

‘उनकी फीलिंग है क्या?’ शर्माजी को लगा कि अब बातचीत ट्रैक पर आ गई है।

‘वह अपने तरीके से लाइफ को एंजॉय करना चाहते हैं...।’

‘लेकिन यह पॉसिबल नहीं है न। जिंदगी में कई अड़चनें हैं। आखिर जो पुरानी जेनरेशन है उसकी भी कुछ मजबूरियां हैं। उसकी अपनी थिंकिंग है।’ शर्माजी को लगा जैसे सामने विक्रांत बैठा है। उनकी बातें सुन अंकित चुप हो गया। वह चुपचाप शर्माजी को देखने लगा। वह चुप जरूर हो गया था पर उनसे सहमत नहीं लग रहा था। शर्माजी ने फिर सवाल किया, ‘चलो यह बताओ। अगर तुम्हें पिताजी की कोई बात बुरी लगती है तो तुम क्या करते हो?’

‘थोड़ी देर के लिए रूठ जाता हूं फिर मान जाता हूं। आखिर वे पिताजी हैं उन्हें छोड़ थोड़े ही दूंगा।’

‘गुड।’ यह उन्होंने मन ही मन कहा। लगा जैसे बातचीत सार्थक दिशा में जा रही है। उन्होंने फिर प्रश्न किया, ‘आजकल के नौजवान किन चीजों में इंट्रेस्ट लेते हैं?’

‘आप कोई रिसर्च कर रहे हैं क्या सर?’ अंकित ने मुस्कराकर कहा। शर्माजी को लगा कि इतनी देर की बातचीत में उससे एक आत्मीय रिश्ता बन गया है। क्या उसे सुबह का सारा किस्सा बता दिया जाए? नहीं, यह ठीक नहीं होगा। उन्होंने सवाल दोहराया,

‘बताओ, आजकल के नौजवान किन चीजों में रुचि लेते हैं?’

‘उन्हें टेक्नॉलजी से लगाव है। वे गैजट्स में इंट्रेस्ट लेते हैं। उन्हें लेटेस्ट मोबाइल पसंद है, उन्हें इंटरनेट पर चैटिंग पसंद है। और म्यूजिक पसंद है।’ म्यूजिक! ठीक कह रहा है यह लडक़ा। विक्रांत मोबाइल से कान में तार लगाकर गाने सुनता रहता है। कुछ दिनों से वह आईपॉड लेन की बात कर रहा था। शर्माजी को अपनी गलती का अहसास हुआ। उन्हें विक्रांत से म्यूजिक के बारे में बात करनी चाहिए थी। वह हर बात उससे करते थे लेकिन उससे यह कभी नहीं पूछा कि वह कौन से गाने सुनता है, कैसे गाने पसंद करता है।

उन्होंने उत्सुक होकर अंकित से पूछा, ‘आजकल के बच्चे किसको सुनना ज्यादा पसंद करते हैं?’ इस सवाल पर अंकित की आंखें चमक उठीं। साफ था कि वह म्यूजिक का दीवाना था। वह बोला, ‘सर आजकल के टीनेजर्स के बीच वेस्टर्न म्यूजिक का जादू छाया है। आजकल एमिनेम, एकॉन, लिंकिन पार्क और फर्गी जैसे सिंगर्स ने टीनेजर्स के बीच धूम मचा रखी है। लेकिन मेरा मानना है कि एनरिके इगलेशियस का जवाब नहीं। मैं तो उसका फैन हूं।’ शर्माजी आंखें फाड़े उसे देख रहे थे। इन नामों ने उन्हें आतंकित कर दिया था। लग रहा था जैसे ये किसी और ग्रह के जीव हों। उन्होंने सोचा कि पता नहीं विक्रांत इन सिंगर्स से परिचित हो या नहीं। तभी उनके जेहन में एक योजना कौंध गई। उन्होंने अंकित से कहा, ‘यार मैं इनके गाने सुनना चाहता हूंं।’

‘अच्छा।’ अंकित उत्साहित होकर बोला, ‘आपको ये गाने मैं मेल कर दूंगा।’

‘मेल से नहीं।’

‘ कोई बात नहीं। मैंने एक सीडी भी बनाई है। ’

‘तुम मुझे वह सीडी जे सकते हो?’

‘क्यों नहीं सर, मैं कल लेता आऊंगा।’

‘कल नहीं मुझे आज चाहिए।’

‘आज।’ अंकित उन्हें आश्चर्य से देखकर बोला, ‘यह कैसे पॉसिबल है?’

‘प्लीज अंकित मुझे अभी ही चाहिए। किसी तरह मैनेज करो यार। मुझे उसकी जरूरत है।...तुम्हारा घर तो पास में ही है। तुम तो बाइक से आते हो। थोड़ा कष्ट करो न यार मेरे लिए।’ अंकित सोच में पड़ गया। कुछ देर बाद बोला, ‘मेरा छोटा भाई शायद घर में ही हो। मैं उसे फोन कर देता हूं। वह लेता आएगा।’ शर्माजी रोमांचित हो उठे। लगा जैसे उम्मीद की छूटती डोर उनके हाथ में फिर से आ गई हो। उन्होंने अंकित के लिए मिठाई मंगवाई और उसके भाई के बारे में पूछने लगे किसी शोधार्थी की तरह, जैसे वह किशोर मनोविज्ञान पर कोई किताब लिखने वाले हों। अंकित को तो उनके व्यवहार से ऐसा ही लग रहा था।

यह सीडी उनके लिए जादुई शीशे की तरह थी जिससे वह अपने जवान होते बेटे के मन को पढ़ सकते थे। यह एक पुल का काम करने वाली थी। उन्हें लगा यह उन्हें विक्रांत की दुनिया में अंदर तक ले जाएगी। वह मन ही मन सोच रहे थे, काश! वह अपने बेटे की हर मांग पूरी कर सकते। वह उसे आईपॉड खरीद देते। पिछली बार वह उसे एक मॉल में ले गए थे जहां उन्होंने ब्रांडेड कपड़े खरीदे थे। उनके दाम सुनकर हर बार उनके सीने पर एक हल्की सी चोट लगती। लेकिन इस बार तो विक्रांत ने उपहार देने से मना किया है। अभी कुछ ही दिनों पहले उन्होंने उसके लिए कम्प्यूटर खरीदा था। विक्रांत ने कहा था कि यह बर्थडे गिफ्ट के बदले में है।

वह घर पहुंचे, नियत समय पर। बार-बार बैग में रखी सीडी को वह छू-छूकर देख लेते थे। सिहरन सी हो रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे किसी और के घर में आए हों। यहीं परीक्षा होगी उनकी। उसमें पास होकर ही उन्हें यहां प्रवेश मिल सकेगा।

घर के बाहर कई बाइक और स्कूटर खड़े थे। यानी विक्रांत के दोस्त आ गए थे। यही थे शर्माजी के परीक्षक। इन्हें साधकर ही उन्हें अपने घर में जगह मिल सकती थी। उन्होंने सीडी निकाल ली जैसे यह उनका पहचान पत्र हो।

लेकिन तभी विक्रांत के कमरे में अंधेरा छा गया। एकदम चुप्पी पसर गई। शर्माजी घबराए। कहीं ऐसा तो नहीं कि विक्रांत ने उन्हें देखकर ही लाइट ऑफ कर दी हो। क्या करें वह? बाहर का दरवाजा खुला हुआ था। वह अंदर आए। पत्नी किचेन में कुछ कर रही थीं। वह चुपचाप अपने कमरे में आए दबे पैरों से चलते हुए। विक्रांत का कमरा अंदर से बंद था। सारे दोस्त भीतर थे। न कोई शोर-शराबा, न म्यूजिक की धूम। माजरा क्या है? शर्माजी थोड़ी देर पसोपेश में पड़े रहे। फिर सोचा उन्हें अपनी योजना को अंजाम दे देना चाहिए ताकि विक्रांत की गलतफहमी दूर हो। उन्होंने दरवाजे को धक्का दिया और अंदर घुस आए। उन्होंने टटोलकर लाइट जला दी। देखा कि पलंग पर, कुर्सी पर, स्टूल पर, फर्श पर लडक़े-लड़कियां बैठे थे। प्रकाश होते ही वे संभले जैसे किसी ने उनकी ध्यान की अवस्था भंग कर दी हो। सबके चेहरे पर विस्मय था। पल भर में ही सामान्य होते ही सबने उन्हें ‘नमस्ते अंकल’ कहा। शर्माजी का माथा ठनका। आखिर यह हो क्या रहा था। कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं। पर उन्होंने इस पर दिमाग लगाना ठीक नहीं समझा और अपने अजेंडे पर चले आए। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, ‘हलो फ्रेंड्स। आप जैसे जवान लोग इस तरह चुपचाप रहें यह अच्छा नहीं लगता। जब तक थोड़ा शोर-शराबा न हो मस्ती न हो, पार्टी का रंग नहीं जमता। मैं चाहता हूं कि लेटेस्ट वेस्टर्न म्यूजिक के साथ आप लोग पार्टी एंज्वॉय करें। किसे सुनना चाहेंगे आप? एमिनेम, एकॉन, लिंकिन पार्क या फर्गी को? लेकिन मेरा मानना है कि एनरिके इगलेशियस का जवाब नहीं।’ कुछ बच्चे उन्हें हैरानी से देख रहे थे, तो कुछ आपस में फुसफुसा रहे थे। कुछ के चेहरे पर सुखद आश्चर्य था। लेकिन विक्रांत कमरे से बाहर निकल गया। शर्माजी ने कम्प्यूटर में सीडी लोड की। संगीत बजने लगा। लड़कियों की ओर देखकर उन्होंने पूछा, ‘विल यू डांस विद मी?’ तभी उनकी पत्नी ने उन्हें आवाज दी। वह दूसरे कमरे में आए। वहां विक्रांत भी खड़ा था। उसने अजीब मुंह बना रखा था। उन्हें देखते ही उनकी पत्नी ने कहा, ‘आप अभी ही क्यों आ गए? अरे किसी दोस्त के घर चले जाते? सिनेमा देख लेते।’ शर्माजी ने विक्रांत की ओर देखकर कहा, ‘लेकिन मैं पार्टी करने से मना तो नहीं कर रहा। मैं तो और मदद कर रहा हूं।’

‘आप कभी नहीं सुधरेंगे। एक तो आप बिना मतलब चले आए और आकर हमें डिस्टर्ब कर दिया। मेरी बेइज्जती करवा कर मानेंगे। क्या सोच रहे होंगे मेरे फ्रेंड्स।’ विक्रांत ने खीझकर कहा।

शर्मा जी हतप्रभ थे। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि उनसे कहां चूक हुई है। उन्होंने मासूमियत से पूछा, ‘लेकिन मैंने ऐसी क्या गलती की?’

विक्रांत ने कहा, ‘आपने हमारा खेल रुकवा दिया।’

‘कौन सा खेल?’ शर्माजी ने पूछा।

‘हम लोग डार्क रूम खेल रहे थे।’

‘ये क्या होता है?’ शर्माजी ने पूछा।

व्रिकांत बोला, ‘इसमें अंधेरे में सब लोग छिपते हैं फिर उन्हें छूकर बताना होता है कि वह कौन है।’

‘मुझे क्या पता कि तुम लोग खेल रहे हो।’ शर्माजी ने दूसरी ओर देखकर कहा। विक्रांत भुनभुनाता हुआ वहां से चला गया, ‘आपको समझाना बेकार है। ’ शर्माजी अंकित को कोसने लगे। कमबख्त ने इस डार्क रूम के बारे मेें क्यों नहीं बताया। उसे बताना चाहिए था कि आजकल बच्चे इस तरह का कोई खेल भी खेलते हैं। तभी पत्नी बर्गर और केक लेकर आई और बोली, ‘लीजिए खाइए।’ शर्माजी ने खिन्न होकर कहा, ‘हटाओ ये सब मेरे सामने से।’ पत्नी मुस्कराई, ‘आप बेकार परेशान हो रहे हैं। आप मान क्यों नहीं लेते कि आपका बेटा बड़ा हो चुका है।’ शर्मा जी कुछ नहीं बोले। तभी पत्नी ने केक का एक टुकड़ा उठाया और उनके मुंह में डाल दिया। केक खाते हुए शर्माजी की खिन्नता कम हुई। पत्नी बोली, ‘चलिए, हमलोग पास से टहलकर आते हैं। इन लोगों को पार्टी करने दीजिए।’

‘नहीं, मैं कहीं नहीं जाऊंगा।’ यह कहकर शर्मा जी ने अचानक कमरे का दरवाजा बंद कर दिया और लाइट बुझा दी। पत्नी ने आश्चर्य से पूछा, ‘ये क्या कर रहे हैं?’ शर्मा जी ने कहा, ‘खोजो, मैं कहां हूं।’

‘यह क्या मजाक है?’

‘मजाक नहीं खेल है...डार्क रूम।’ यह कहकर शर्माजी अलमारी के पीछे दुबक कर बैठ गए।

……….