सचमुच का आदमी
उसे बड़ी मुश्किल से यह काम मिला था। तीन महीने तक वह भटका था। क्या-क्या पापड़ नहीं बेले। न जाने कितने लोगों से मिला। न जाने कहां-कहां धक्के खाए। फुटपाथों पर सोना पड़ा, कभी कुछ खाया, कभी नहीं। फिर गुरुद्वारे में लंगर में खाने लगा। वहीं साफ-सफाई भी कर देता था। आशा-निराशा के बीच डूबता-उतराता रहा था वह।
उसका काम बड़ा अजीब था। चेहरे पर रंग पोतकर कंपनी के किसी प्रॉडक्ट को लेकर खड़ा रहना था। उसे कंपनी वाले ने समझाया, ‘देखो यह प्रचार का एक अलग तरीका है। तुम्हारे चेहरे को उसी तरह रंग दिया जाएगा जैसे सर्कस के जोकर का चेहरा होता है। तुम्हें कुछ दिया जाएगा। उसे हाथ में लेकर खड़े रहना है। ... भूल जाओ कि तुम एक आदमी हो। भूल जाओ कि तुम्हारी नसों में खून दौड़ता है। भूल जाओ कि तुम्हारे भीतर दिल धड़कता है। भूल जाओ कि तुम सांस लेते हो।’
यह कैसे हो सकता है- उसने सोचा। तभी उसे याद आया गांव में वह तालाब में तैरते हुए सांस रोककर डुबकी लगा लेता था। अक्सर वह अपनी पत्नी को पानी में गायब हो जाने का खेल दिखाकर डराया करता था। एक दिन पोखर में मछली फंसाने के लिए वह दम साधकर बैठा था बिना हिले-डुले। तभी उसकी पत्नी पीछे से आई। उसे इस तरह बैठा देखकर उसकी चीख निकल गई। वह घबराकर बोली, ‘मैंने तो सोचा तुझे लकवा मार गया है।’
यह सब याद आते ही उसने कहा, ‘हां सर, मैं कर लूंगा।’ कंपनी वाले ने उसकी पीठ ठोंकी और कहा, ‘वेरी गुड।’ सबसे पहले उसे एक छाते का प्रचार करना था। वह एक सड़क के किनारे मुंह पोतकर, छाता तानकर खड़ा हो गया, उसी तरह जिस तरह मछली मारने बैठा था। लोग आते और उसे ठिठककर देखते। उनके चेहरे पर मुस्कान खिल जाती। लेकिन जल्दी ही लोग छाते के बारे में बात करने लगते, फिर छाता बनाने वाली कंपनी के बारे में। लेकिन बच्चे सिर्फ उसके बारे में बात करते। वे खूब हंसते और पूछते, ‘मम्मी क्या यह सचमुच का आदमी है?’
बच्चों को देखकर उसे अच्छा लगता था। उसकी पत्नी इन दिनों पेट से थी। वह सोचने लगता क्या उसके बच्चे भी ऐसे ही लगेंगे? इसी तरह हंसेंगे?
शाम में जब कंपनी वाले ने पचास का नोट हाथ में थमाया तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। लेकिन कंपनी वाले ने हिदायत भी दी, ‘देखो, तुम बीच-बीच में कांपने लगते हो। तुम्हारी आंखें भी इधर-उधर भागने लगती है। प्रैक्टिस करो। ...ठीक से काम करोगे तो और भी पैसे मिलेंगे। ’
उसने अगले दिन से कमरे में अभ्यास करना शुरू कर दिया। कई बार वह चाय चढ़ाकर उसी तरह खड़ा हो जाता। जब चाय का पानी जल जाता और बदबू आने लगती तब उसे होश आता। कई बार तो बस में भी वह अपने को उसी तरह पाता। अचानक जब उसे लोग ठेलकर आगे बढ़ाते या कंडक्टर चिल्लाता तब उसे याद आता कि वह तो बस में है और उसका स्टैंड बहुत पीछे छूट गया है। लेकिन इसका फायदा यह हो रहा था कि कंपनी वाला उससे खुश था और उसे अब सौ रुपये देने लगा था।
एक दिन वह एक मैगजीन का प्रचार कर रहा था। वह उसी तरह जड़वत पत्रिका पढ़ने के अंदाज में सड़क के किनारे खड़ा था। तभी पुलिस की गाड़ी सायरन बजाते हुए पहुंची। पुलिस ने अपने स्पीकर से घोषणा की कि लोग वहां से हट जाएं क्योंकि यहां कुछ आतंकवादी छुपे हुए हैं। लोग वहां से भागे पर वह खड़ा रहा पत्रिका पढ़ता हुआ। पुलिस वालों ने सबको जाने का इशारा किया पर उसे कुछ नहीं कहा। गोलियां चलने लगी। पुलिस ने आतंकवादियों को निकाल बाहर किया (बाद में मीडिया में यह संदेह व्यक्त किया गया कि यह वास्तविक नहीं प्रायोजित कार्रवाई थी) लेकिन इस कार्रवाई के दौरान एक गोली उसे भी लगी पर वह हिला तक नहीं, एक पेड़ की तरह खड़ा रहा पत्रिका संभाले। वह उसी तरह खड़ा रहा गोली खाने के बाद भी। चारों तरफ अफवाह फैल गई कि एक मूर्ति के भीतर से खून निकल रहा है। देखते ही देखते वहां भीड़ लग गई। लोग पूजा-पाठ का सामान लेकर पहुंचने लगे। सारे न्यूज चैनल वाले जमा हो गए।