एमर्जेंसी लाईट
संदीप मील
एक बार अलवर से बेवजह ही दो लेखक दिल्ली की तरफ चल पड़े। शीतकालीन अवकाश से पहले वाले दिन जब वे कॉलेज से बाहर निकलकर बस स्टैण्ड के सामने से गुजर रहे थे तो अचानक अतुल की नज़र दिल्ली जाने वाली बस पर पड़ी। उसने नवनीत से कहा होगा कि यार छुटि्टयों में कहीं घूम कर आते हैं। देखो, दिल्ली की बस सामने ही खड़ी है। क्यों ना इसी में चला जाये। यह प्रस्ताव सुनते ही नवनीत ने अपनी जेब संभाली होगी जिसमें कभी भी एक एटीएम कार्ड और हजार रुपये के अलावा कुछ कागज मिल जाते हैं। एटीएम तो उसके सारे दोस्तों का खाली ही मिलेगा। बैंक में अकाउंट भी केवल स्कोलरशिप लेने के लिये खुलवा रखा है। उसका एटीएम महीने में अधिकतमक दो ही बार इस्तेमाल किया जाता है। एक तब, जब स्कोलरशिप के पैसे एकांउट में आते हैं तो एक ही बार में पूरे पंद्रह हजार निकाल लिये जाते हैं। सबसे पहले कुछ किताबें खरीदी जाती, मकान किराया दिया जाता, आटा—दाल लाते और फिर दो—चार दिन पार्टियां करते। उसके बाद भी कुछ पैसे बच गये तो पुरानी उधार चुकायी जाती। जितनी चुक जाये।
जब कहीं फंस जाते, जेब के सारे पैसे खत्म होते तो पापा अकाउंट में पैसे डलवाते और तब जाकर नवनीत का एटीएम दूसरी बार काम में आता। आज भी वे सारी चीजें जेब में थीं। अतुल के पास लोक दिखावे में तो दस—बीस रुपये ही होते मगर दो सौ रुपये हमेशा छुपाकर रखता है और यह बात उसके सारे दोस्त जानते हैं। वे कई बार पार्टियों में पैसे के अभाव के समय उसके सारे कपड़े उतरवाकर जांच करते हैं तो पूरे दो सौ रुपये मिलते हैं। हालांकि उन पैसों के छुपाने की जगह हर बार बदली हुई पाई जाती है। चूंकि पैसे छुपाने का क्षेत्र उसके पास अपने शरीर तक का ही उपलब्ध था, इसलिये कई बार ऐसी जगह से धन बरामद होता कि वहां के पसीना और बदबू का पता चल जाये तो रिजर्व बैंक भी उस नोट को लेने से इंकार कर देगा।
सामान्यतया तो वे ऐसा ही करते हैं लेकिन हो सकता है कि आज ऐसा ना किया हो। बस में जरूर बैठ गये थे और दिल्ली की तरफ हो गये रवाना। राजस्थान रोडवेज की बस में चालीस के करीब सवारियां होंगी और उनके हिस्से पीछे की सीट आयी थी जिस पर वे दोनों बैठ ही नहीं सो भी सकते थे। सर्दी से बचने का जरूरी इंतज़ाम भी उनके पास नहीं था। सुबह कॉलेज जाते समय पहनी स्वेटरों से भला दिल्ली की ठंड का मुकाबला हो सका है आजतक! दिन ढ़लते ही सर्द हवाओं ने लेखकों पर हमले शुरु किये। बस की सही—सलामत खिड़किया ंतो वे पहले ही बंद कर चुके थे मगर उन खिड़कियों का क्या करें जिनके या तो शीशे टूटे हुये थे या फिर कचरे से शीशे इस कदर जाम थे कि उनकी पूरी ताकत के बावजूद भी हिलने का नाम ही नहीं लिया। वे एक कोने में दोनों टांगों के बीच में हथेलियां दबाकर एक—दूसरे से सटते हुये दुबककर बैठ गये। यूं बैठने से हाथ तो गर्म हो गये मगर कान बर्फ होते जा रहे थे। काश! कानों को जेब में डाल पाते वे लेखक।
कुछ घंटों बाद में शरीर का एक ऐसा संतुलन बन गया था जहां पर कुछ अंगों ने अहसास करना बंद कर दिया। खून जम गया हो जैसे। वैसे दोनों दोस्त थे तो बातें तो हर दिन करते थे। विशेष कुछ बतियाने को था नहीं। दिल्ली के जिन दो—पांच लेखकों का नाम जानते थे उनकी रचनाओं के बारे में अपनी छोटी—छोटी टिप्पणियां जाहिर कर दी। वैसे भी ऐसी हालात में कोई महत्वपूर्ण चर्चा तो हो नहीं सकती थी।
इस प्रकार कंपकंपाते दो लेखक सुबह के तीन बजे सराय काले खां बस अड्डे पहुंचे जहां पर तमाम मिन्नत—खुशामदों के बावजूद भी कंडक्टर और ड्राइवर ने उन्हें सूरज निकलने तक बस में दुबके रहने की इज़ाज़त नहीं दी। मजबूरी में नीचे उतरना पड़ा। अब वे लगभग खाली जेबों के ठिठुरती दिल्ली की सरजमीं पर थे।
बस अड्डे पर एक तरफ कंडक्टर आगरा जाने के लिये सवारियों को आवाज़ दे रहा था तो दूसरी तरफ गेट के दायीं तरफ एक चाय की दुकान पर आग जलती हुई दिखाई दी। इस समय उन्हें उस चाय की दुकान वाली आग से अधिक न तो दिल्ली की कोई चीज़ और न ही आगरे का ताजमहल आकर्षित कर पाया। यूं समझ लीजिये कि लपककर दोनों उस आग के पास पहुंच गये जहां पहले से तीन लोग ताप रहे थे। कुछ देर हाथ आग की लपटों में रहे तब जाकर उनके होने का अहसास हुआ। गर्म हाथों को जब ठंडे कानों पर फिराया तो वे भी कोमा से बाहर आये। इतने में चाय वाले ने प्लास्टिक के दो कपों में चाय पकड़ा दी और दो बातें भी बता दी। पहली बात तो यह कि चाय बनाने वाला भी अगर प्रधानमंत्री बन जाता है तो वह चाय वालों की बजाय अमीरों का हित साधक हो जाता है। दूसरी बात कुछ यूं थी कि आग जलने वाली जगह चाय वाले की है और हर महीने वह पुलिस को बंधी देता है, इसलिये वहां फोक्ट में नहीं ताप सकते। कुछ समय के अंतराल पर चाय, गुटका और बीड़ी—सिगरेट उस दुकान वाले से खरीदने पड़ेंगे।
चूंकि पहली बात उनके लिये नई नहीं थी क्योंकि न तो वे प्रधानमंत्री के पक्ष में थे और न ही उनसे यह छुपा था कि वह किन अमीरों का हित साधक है। दूसरी बात ज्यादा प्रभावी थी जो सीधा उनकी जेब पर हमला थी और पुलिस की बंधी के मार्फत उसके तार भी सरकार से जुड़ रहे थे। इसलिये दिल्ली में कदम रखने के बाद उन लेखकों के जबां से जो पहले शब्द निकले थे वे सरकार को भारी—भरकम गालियां थी। पत्ता नहीं उनका क्या दर्द था, आग के पास बैठे बाकि के तीन लोगों ने भी अपनी हैसियत के मुताबिक सरकार को गालियां दे डाली। चंद पलों की चुप्पी के बाद उन पांचों में बाते शुरु हो गई जिसमें चाय वाले ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। वह अपनी लकड़ी की दुकान में एक मैली—सी रजाई में पैर डाले कान में इयरफोन डालकर गाने सुन रहा था। उसने चाय बनाकर एक कितली में डाल रखी थी। जो आता उसे कप में डालकर दे देता। दुकान पर उसका ऐसा नियंत्रण था कि ग्राहक को हर सामान दे दे और पैर रजाई से बाहर निकालने की जरूरत ही नहीं होती।
अब यह तो तय था कि उन्हें सूरज निकलने तक यहीं पड़ाव जमाना है और दुकानदार के नियम के मुताबिक चाय, गुटका आदि खरीदते रहना है। कचरा धीरे—धीरे कम होते जा रहा था और आग धीमी होती। आग बिल्कुल ही बुझने के कगार पर आयी तब उन्हें तीसरी बात यह मालूम हुई कि आग बरकरार रखने के लिये आसपास से पोलिथीन, कागज और लकड़ी के टुकड़े भी उन्हें ही लाने होंगे। यह काम भी तापने वाले बारी—बारी से करते हैं और उन तीनों लोगों का कहना थी कि वे अपनी बारी पहले ही पूरी कर चुके हैं। दोनों लेखक आग के लिये कचरा बिनने निकलते हैं। एक—दूसरे की तरफ देखते हुये चुपचाप। इधर—उधर भटकने पर उन्हें यह भी समझ आया कि यू ंतो दिल्ली में कई कचरे के पहाड़ हैं जिनकी दुर्गंध आते समय जबर्दस्ती उनके नाकों में घूस रहे थी मगर यहां जलाने के लिये कचरा खोजना कितना मुश्किल काम है। लकड़ी का तो एक छोटा टुकड़ा भी नहीं मिला जिससे उन्होंने शायद यह अंदाजा लगाया होगा कि यहां उन जैसे कई लोग देश के अलग—अलग शहरों से आते होंगे और रातभर आग जलाने के कारण बस अड्डे पर लकड़ी का टुकड़ा भी नहीं बचा। कुछ गुटकों के पावच, पानी की खाली बोलतें अखबारों के टुकडे़ मिले। लेकर आये और आग के हवाले किया तो धुंआ ही धुंआ हो गया। अतुल ने हालांकि आंखें बंद करके फूंक पर फूंक मारी थी मगर आग चली तब तक आंखों के साथ नाक भी बहने लगा था। कुछ देर बाद चाय वाला अपने आप पांचों को चाय दे गया और पैसे ले गया। यूं ही रात बीतती चली गई, बारी से आग के लिये कचरा लाते रहे, चाय वाला चाय देता रहा, कुछ बातें होती रही और आखिर वह सुबह हो ही गई जिसके लिये क्या—क्या नहीं सही था उन दोनों ने। सुबह का सूरज उगने लगा तो सारा कोहरा नीचे उतरने लगा और एक बार तो ऐसा लगा कि दिल्ली में एक रात के बाद दूसरी रात भी होती है।
दोनों लेखकों ने एक—दूसरे का चेहरा देखा जो बिल्कुल भावहीन था। उनके पास कुछ लेखकों के नम्बर थे। सोचा कि उनके घर जायेंगे। चाय—पानी पीयेंगे और नाश्ता भी करवायेंगे ही। फिर दिन का कुछ प्लान बनायेंगे। सभी को बारी—बारी से फोन लगाया गया लेकिन किसी ने नहीं उठाया। इतनी सुबह उठने की शायद यहां के लोगों की आदत नहीं होगी या फिर कुछ फ्रेश हो रहे होंगे या पढ़—लिख रहे होंगे जब देखेंगे तो कॉल बैक कर लेंगे। ऐसा नहीं हुआ। कइयों को तो मैसेज भी किया था। कोई जवाब नहीं आया।
अब क्या करें दोनों लेखक ? एक ही उपाय था। उनका स्कूल का एक मित्र गाजियाबाद में रहता है जिसके पास ही जाना होगा। पत्ता नहीं इस शहर की फितरत के मुताबिक वह भी फोन ना उठाये। और कोई चारा भी नहीं था। अंततः नवनीत ने उसे फोन लगा ही दिया और चौंकिये मत कि दूसरी ही रिंग पर फोन उठ भी गया। बड़ा खुश हुआ उनके आने की खबर सुनकर। लेकिन समस्या यह थी कि उसे आज ही कम्पनी के किसी काम से लखनऊ जाना था। इसलिये घर का पत्ता बताया और कहा कि जल्दी आ जाओ ताकि कमरे की चाबी दे दे उनको। गाजियाबाद और लोनी के बार्डर पर उनका दोस्त रहता था। पहुंचने में करीब दो घंटे लग गये।
दोस्त ने कमरा दिखाया और चाबी देकर रेल्वे स्टेशन चला गया। जाते वक्त उन दोनों को यह हिदायत भी दे गया कि वह दसेक दिन पहले ही यहां शिफ्ट हुआ है। लाईट बहुत जाती है इसलिये एक एमर्जेंसी लाईट जरूर खरीद लें। घर बोले तो एक कमरा, किचन और लेट—बाथ थे। उसी में खाना बनाने का सामान एक कोने में रखा था जिसे देखकर आप भी अंदाजा लगा सकते हैं कि यहां कभी खाना बना ही नहीं होगा क्योंकि छोटे गैस सलैंडर पर एक पीपा रखा हुआ था जिस पर उल्टा चकला था और उसके ऊपर बैलन।
दोनों लेखक फ्रेश हुये और कमरे में पड़े इकलौते गद्दे पर रजाई ओढ़कर सो गये। दोपहर को तीन बजे जगे तो पास के एक मार्केट में गये जहां खाना खाया और नवनीत ने पापा को फोन करके दिल्ली में कोई परीक्षा देने आने का हवाला देकर जेब कटने का हादसा होने की झूठ बोली। पापा बेचारे ने जल्दी ही अकाउंट में पैसे डलवाने का आश्वासन दिया। नेताओं वाला आश्वासन नहीं, अब्बा वाला। दोस्त की हिदायत को याद करते हुये एक सौ बीस रुपये में एक एमर्जेंसी लाईट भी खरीद ली।
दोनों लेखक वापस उसी कमरे में आ गये और चार बजने वाले थे कि अभी तक किसी दिल्ली वाले लेखक का कॉल बैक नहीं हुआ था। रजाई में पैर डालकर इधर—उधर की बातें करने लगे लेकिन यह अफसोस नहीं जताया कि क्यों बेवजह दिल्ली की बस में बैठ गये। आराम से घर पर रहते। अवकाश का मज़ा लेते। कुछ पढ़ते—लिखते। बहुत परेशान हुये। अतुल ने फोन पर फेसबुक चलायी। कुछ टिप्पणियां पढ़ ही रहा था कि युवा आलोचक चंदन पांडेय ऑनलाइन दिखाई दे गया। वह भी तो दिल्ली में ही रहता है। चैट पर कुछ दुआ—सलाम करके अपने दिल्ली आने की खबर दे दी। उसने बड़ी खुशी जाहिर की और पूछा कि किस—किस से मिले यहां आकर। अतुल ने बताया कि आज ही पहुंचे हैं और किसी से मुलाकात नहीं हुई। युवा आलोचक ने फिर पूछा कि कहां ठहरे हो तो उसने पत्ता बता दिया। चंदन पांडेय ने दुगुनी खुशी में बताया कि वह भी बगल में ही रहता है अगर शाम का कोई प्रोग्राम न हो तो मिलने आ सकता है। उन दोनों का तो कोई प्रोग्राम था ही नहीं। दे दिया न्योता।
दिल्ली आने के बाद कोई पहला साहित्य से जुड़ा आदमी मिलने का समय ही नहीं दे रहा है खुद उनके कमरे पर आ रहा है तो खातिरदारी तो बनती ही है। ऐसे क्या बैठेंगे। नवनीत ने फोने करके पूछा कि सर थोड़ी—थोड़ी चलेगी तो युवा आलोचक ने कहा, ‘‘चलेगी क्या, दौड़ेगी।''
नवनीत के पास अंतिम सौ रुपये बचे थे पर वह जानता था अपने दोस्त को। उसके छुपाये हुये दो सौ भी निकलवा लिये और जाकर शराब ले आये। चंदन पांडेय उभरता हुआ आलोचक है और दिल्ली के सारे सम्पादक और वरिष्ठ लेखकों से उसकी मित्रता है। खूब लिखता भी है और छपता भी है।
तय समय पर युवा आलोचक पहुंच गया उन दोनों लेखकों के कमरे पर और बहुत गर्म जोशी से गले मिला। फेसबुक पर ही मित्रता थी। आज पहली बार आमने—सामने मिल रहे थे वे। इतनी सहजता से युवा आलोचक की मुलाकात से दोनों लेखक अभिभूत हो गये। हालचाल की बातें होने के बात नवनीत ने महफिल सजा ली। जाम गले के नीचे उतरते ही साहित्य पर बातचीत होने लगी। वे दोनों सुन रहे थे और युवा आलोचक लच्छेदार भाषा में दार्शनिक बाते किये जा रहा था। ऐसे लेखकों के संदर्भ दे रहा था जिनके इन दोनों ने कभी नाम ही ना सुने। कहां से सुनते! अलवर जो रहते हैं। दिल्ली, दिल्ली है भाई। दोनों अचंबित उसका मुंह ताक रहे। बोलें तो क्या बोलें! कुछ हल्की बात मुंह से निकल गई और युवा आलोचक ने उन्हें बेवकूफ समझ लिया तो! दिल्ली के सारे लोगों के साथ उठता—बैठता है, सबको बता देगा। फिर तो साहित्य में वे मूर्ख साबित हो जायेंगे। चुप रहना ही बेहतर है। बीच—बीच में बारी—बारी से ‘सही बात है' कहते रहे। महफिल खत्म हुई और चंदन पाडेय अपने घर चला गया।
दोनों लेखकों के पास पैसे तो खत्म हो गये थे। शराब का नशा था और वैसे भी दिन में तीन—चार बजे खाना खाया था। कोई खास भूख नहीं थी। होती तो भी क्या उपाय था! कल पापा अकांउट में पैसे डाल देगा। कमरे में आ गये थे और सोने की तैयारी कर ही रहे थे कि दोस्त की बात सच हो गई। लाईट चली गई। मोबाइल की लाईट करके एमर्जेंसी लाईट खोजने लगे। सारा कमरा खोज डाला लेकिन न मालूम कहां रख दी। एक का माबाइल तो पहले ही डिसचार्ज हो गया था और दूसरे का होने वाला था। यहां पहुंचकर तो आराम करने लगे थे फिर मोबाइल चार्ज लगाना भूल गये थे। वैसे भी वे कौन—सा चार्जर साथ लेकर आये थे। फिर भी पहले याद आता तो दोस्त का कोई चार्जर शायद लग जाता या कोई और उपाय करते। अब कुछ नहीं हो सकता। एक—दूसरे को गाली देने लगे। एक ने कहा कि तू लाया है दिल्ली तो दूसरे ने कहा कि एमर्जेंसी लाईट तूने कहीं रख दी है जो नहीं मिल रही है। इसी चक्कर में नशा भी उतर गया था। अचानक नवनीत ने कहा, ‘‘युवा आलोचक की पतलून की दायीं जेब फूली हुई थी। उसमें तेरी एमर्जेंसी लाईट थी।''