zadoo ka gulaab nabi Sandeep Meel द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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zadoo ka gulaab nabi

जादू का गुलाब नबी

संदीप मील

डॉक्टरों की तमाम कोशिशों के बावजूद भी गुलाब नबी की तबीयत लगातार गिरती जा रही थी। सब जतन हो गये लेकिन बिमारी थी कि पकड़ में ही नहीं आ रही। डॉक्टर दवा दे सकते हैं, ऑपरेशन कर सकते हैं और जरूरत हुई तो किसी अंग का प्रत्यारोपण भी कर सकते हैं लेकिन वे किसी को गाना नहीं गवा सकते। नचा नहीं सकते। और गुलाब नबी के जीने से जरूरी था उसका गाना और नाचना। यह बात तो सिर्फ गुलाब नबी के अब्बा के अलावा दिल्ली में कोई नहीं जानता था कि होश संभालने के बाद उसने पहली बार नाचना और गाना बंद किया है। वह तो हरदम नाचता रहा था। कई बार तो नींद में भी उसकी टांगे फुदकती हुई देखी गई। शायद वह ख्वाब भी अपने तरह के देखता था। जब किसी रात वह नींद में खड़ा होकर नाचने लगता तो उसकी अम्मा, जिसका नाम रेशमा था वह उसे पकड़कर चारपाई पर सुलाती। सुबह जब गुलाब नबी से पूछा जाता कि रात को क्यों नाच रहे थे तो उसे कुछ भी याद नहीं रहता।

‘लाइव न्यूज' के रेजिडेंट सम्पादक रुद्रप्रताप सिंह लगातार हॉस्पीटल में जमे हुये थे। वे यहां पर न तो किसी न्यूज के लिये आये थे और न ही गुलाब नबी से उन्हें कोई हमदर्दी थी। उनका तो मात्र एक निवेश था जिसके बदले बड़ी टीआरपी कमाना चाह रहे थे और टीआरपी से विज्ञापन। यह निवेश उन्होंने स्वयं किया था और ऑफिस में अपने स्टॉफ के सामने खूब डींगें भी हांकी थी कि भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में गुलाब रबी का लाइव एक ऐतिहासिक कार्य होगा। वैसे रुद्रप्रताप सिंह को मीडिया में डींगें हांकने के लिये ही जाना जाता है और इसी के लिये नौकरी पर रखा जाता है। वे ऑफिस में मात्र किस्से सुनाते हैं जिनमें अधिकांशतः उनके कपोल कल्पित इश्क या फिर महान पत्रकार होने के झूठे सबूत होते। देश या विदेश की ऐसी कोई महिला नेत्री नहीं होती जिसके बारे में रुद्रप्रताप सिंह यह किस्सा नहीं सुनाते कि एक बार फलां नेत्री मेरे बगल में बैठी थी। उसने टेबल के नीचे से मेरी टांगों को छुआ तो मैंने कहा कि मैडम, इस देश में मेरी बहुत इज्जत है। यह सब मुझे शोभा नहीं देता।

हालांकि ऑफिस में लोग हंसी और झुंझलाहट को पेट में दबाकर रुद्रप्रताप सिंह की इन बेहुदी बातों पर ‘वाह—वाह' करते। इसी ‘वाह—वाह' की वजह से उसने गलतफहमी का ऊंट पाल लिया। अगर कोई नया पत्रकार इन बातों को हज़म नहीं कर पाता और कोई तार्किक सवाल कर देता तो रुद्रप्रताप सिंह मैनेजमेंट को कहकर तुरन्त उसे नौकरी से निकाल देते। ऑफिस से बाहर निकलने पर चाय ही थड़ी पर उसके उपदेशों की खिल्लियां उड़ती। लोग कहते कि इसी की इज्ज़त हुई। दो टके का आदमी है। जनपथ का कुत्ता तक तो इसे जानता नहीं, बात करता है जैसे बहुत बड़ा ‘थिंक टैंक' है।

रुद्रप्रताप सिंह के साथ कैमरा लिये उसके कनिष्ठ सहकर्मी थे क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि दवा से गुलाब नबी ठीक हो जायेगा और नाचने—गाने लगेगा। हॉस्पिटल से ही उसके नाच—गान को लाइव दिखाया जायेगा। वैसे भी उनके प्रचार तंत्र ने देशभर में गुलाब नबी के लाइव दिखाने की चर्चा कर रखी है। उनका अपना तर्क है कि गुलाब नबी को लाइव देखने के लिये जनता बिल्कुल बैचेन हो रही है और एक बार वह नाच—गाना कर दे तो किस्मत की बाज़ी पलट जायेगी। उधर नौ नम्बर बैड पर किस्मत की बाज़ी पलटने वाला गुलाब नबी सो रहा है छत की तरफ एकटक देखता हुआ। उसका पूरा शरीर सफेद चादर से ढ़का हुआ है। केवल गर्दन के ऊपर का हिस्सा खुला है जिस पर लम्बे—लम्बे काले बालों के बीच दो आंखें चमकती दिखाई दे रही हैं। इन बालों के कारण आसपास के बैडों के मरीज़ों के रिश्तेदार उसे उत्सुकता से देखने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन वे उसे पहचान नहीं पा रहे। न पहचानने का एक कारण तो यह है कि अपने रिश्तेदारों की बिमारियों के कारण अन्य मसलों पर उनकी नज़र ही नहीं जाती। हॉस्पिटल का हर मरीज़ स्वयं एक दुखद आश्चर्य होता है। इसी कारण हर मरीज़ के रिश्तेदार को दूसरा मरीज़ विशेष आश्चर्यजनक नहीं लगता। दूसरा कारण यह है कि गुलाब नबी को दिल्ली लाने के बाद से ही रुद्रप्रताप सिंह ने उसे अपनी कड़ी निजी सुरक्षा में रखा है। उसे डर है कि गुलाब नबी जैसे कीमती हीरे को किसी ने चुरा लिया तो उसका बंटाधार हो जायेगा। वह यह तो ज़ाहिर तौर पर जानता है कि मीडिया में ख़बरें ही नहीं, उनसे ताल्लुक रखने वाले लोग भी चुरा लिये जाते हैं। वे चुराये हुये लोग कभी वापस नहीं मिलते। न पुलिस को और न ही मीडिया को। वह यह भी जानता है कि गुलाब नबी तो लॉच करने की चीज है, उसके बाद फिर उन पुराने अंधेरे गलियारों में खो जायेगा। किसी को कुछ लेना—देना नहीं है।

इन तमाम बातों को जानने के बावजूद भी गुलाब नबी की खामोशी का हर पल रुद्रप्रताप सिंह की बैचेनी बन जाता और वह बेवजह ही अपने कनिष्ठ सहकर्मियों पर झुंझलाता। इसी झुंझलाहट में वह हॉस्पिटल में बने रेस्टरूम से उठता और वीआईपी रूम के नौ नम्बर बैड के पास जाता। वैसे तो वीआईपी रूम में मरीज़ के साथ रहने की इजाज़त किसी को नहीं है मगर रुद्रप्रताप सिंह के पत्रकारिता के रुतबे के कारण उसके दो निजी सुरक्षाकर्मी गुलाब नबी की सुरक्षा में तैनात थे। इस वीआईपी रूम में तक़रीबन दस बैड थे। अमूमन वीआईपी रूम में केवल एक या दो बैड ही होते हैं लेकिन हॉस्पिटल के लोगों का कहना है कि दिल्ली में वीआईपियों की संख्या बढ़ने के कारण ऐसी व्यवस्था करनी पड़ी। यह एक निजी हॉस्पिटल था जो अपने नियम—क़ायदों पर चल रहा था। मरीज़ों से मिलने वाले भी लगातार आ—जा रहे थे।

रुद्रप्रताप सिंह उसके बैड के ऊपर झुकता और आंखें निकालकर चंद पल घूरता। होठों की बड़बड़ाहट में चंद गालियां भी देता जिनकी मारक क्षमता सुरक्षाकर्मियों के कानों तक होती। फिर माथे पर सिकन लिये हुये अन्य लोगों को झूठी हंसी दिखाते हुये रूम से बाहर आता। वहां पर उसे मौजूद मिलते कैमरा लिये उसके कनिष्ठ सहकर्मी। वे दौड़कर उसके पास जाते।

‘‘लीजिये आ गये है रुद्रप्रताप सिंह जी। यह अभी गुलाब नबी से मिलकर आये हैं। इनसे पूछते हैं उस जादूई बच्चे की सेहत के हाल।'' रिर्पोटर पूरा दम लगाकर चिल्लाता। कैमरे वाला तुरंत फोक्स रुद्रप्रताप सिंह पर कर देता।

‘‘सर कैसा वह जादूई बच्चा ? हमारे दर्शकों को बताइये कि उसको देखकर आपको क्या महसूस हुआ ?'' रिर्पोटर ने सवाल करके माइक रुद्रप्रताप सिंह के सामने कर दिया।

‘‘वह बच्चा मौत को हरा चुका है। सच बता रहा हूं कि जब से उसे देखा है तब से मैं अभिभूत हो गया हूं। वह वास्तव में जादू का पुतला है। उसकी आंखें.......।'' रुद्रप्रताप सिंह ने ऐसे बै्रक लिया जैसे कि स्क्रीप्ट में पहले से ही तय हो।

‘‘वह बच्चा जादू का पुतला है। मौत को हरा चुका है। ऐसे बच्चे को खोजकर लाया है ‘लाइव न्यूज।' आइये ओर जानते हैं इस बच्चे के बारे में। रुद्रप्रताप सिंह जी उसकी आंखों में आपने क्या देखा ?'' रिर्पोटर रुद्रप्रताप सिंह की तरफ मुड़ा और तोप की नाल की तरह माइक उसके आगे कर दिया।

‘‘मैंने उसकी आंखों में...मैंने उसकी आंखों में पहाड़ देखे। समंदर देखा। समंदर में तैरती हुई मछलियां देखी।'' इतना कहकर रुद्रप्रताप सिंह मुड़ा और रेस्टरूम में चला गया।

‘‘उस बच्चे की आंखों में मछलियां, पहाड़ और समंदर है। उस बच्चे के ठीक होने की दुआ कीजि....सॉरी...प्रार्थना कीजिये। और दुनिया का एकमात्र चैनल है ‘लाइव न्यूज' जो दिखायेगा उस जादूई बच्चे का नाच—गान। देखते रहिये। कैमरामैन अभिषेक आनंद के साथ मैं कमल जोशी.....।'' कमल जोशी ने जेब से रुमाल निकालकर पसीना पोंछा जैसे कि कोई भारी बोझा उठाकर जेठ की दुपहरी में तीन किलोमीटर पैदल आया हो। फिर रेस्टरुम में जाकर रुद्रप्रताप सिंह की बगल में बैठ गया। एक नज़र अपने बॉस को देखकर अपने काम के बारे में राय जाननी चाही लेकिन बॉस तो किसी दूसरी ही चिंता में डूबे हुये थे। उसने भी वहां से नज़रें हटा ली।

तभी एक चपरासी आया और रुद्रप्रताप सिंह से कहा कि आपको डॉ. पुनित राठी सर अपने चैम्बर में बुला रहे हैं। रुद्रप्रताप सिंह बिना कुछ कहे चपरासी के पीछे चल दिया। डॉ. राठी मेज पर सर झुकाये कुछ पढ़ रहा था। हालांकि उसे कदमों की आहट से अहसास हो गया था कि कमरे में कोई आया है लेकिन नजर नहीं उठाई। चपरासी ने पास जाकर कहा कि सर, रुद्रप्रताप सिंह जी आ गये हैं।

डॉ. राठी ने एक नज़र रुद्रप्रताप सिंह को देखा और फिर बैठने का इशारा किया। कुछ देर तक कमरे में खामोश रही। फिर डॉ. राठी ने चपरासी की तरफ देखा तो वह कमरे से बाहर चला गया। एक गहरी सांस लेकर डॉ. ने कहा, ‘‘सर, सारे इलाज़ कर लिये लेकिन आपके पेसेंट की प्रोब्लम पकड़ में नहीं आ रही है।''

‘‘सारे इलाज क्या कर लिये ?'' रुद्रप्रताप सिंह ने कड़क लहजे में कहा।

‘‘यूं समझ लीजिये कि नाचने—गाने के इंजेकशन भी दे दिये लेकिन असर नहीं कर रहे हैं।'' डॉ. राठी असहाय आवाज में बोला।

‘‘आप तो कह रहे थे कि हम पत्थर को भी नचा सकते हैं और पेड़ से भी गवा सकते हैं। साइको की दिक्कत है। अच्छे साइकेट्रिस्ट को बुलाओ। मैंने कहा है ना कि पैस की नदियां बहा दूंगा।'' रुद्रप्रताप सिंह ने गुस्सा झलकाया।

‘‘सर, अच्छे से अच्छे साइकेट्रिस्ट को दिखा चुके हैं। बिलिव मी प्लीज......। लेकिन इन मदारियों का दिमाग पकड़ना बड़ा मुश्किल है। यह हमारी तरह नहीं सोचते। अब तो यह अपने मां—बाप के कहने पर ही नाच सकता है।'' डॉ. राठी ने सहजता से जवाब दिया।

‘‘इन मदारियों का दिमाग पकड़ना बड़ा मुश्किल है।'' यह वाक्य सुनते ही रुद्रप्रताप सिंह के दिमाग को झटका—सा लगा क्योंकि गुलाब नबी का सौदा कराते समय अजमेर के उस दलाल जुगलकिशोर ने भी यही कहा था। डॉक्टर से बिना कुछ कहे ही रुद्रप्रताप सिंह खड़ा होकर चल दिया। बारामदे से गुजरने पर अन्य कनिष्ठ सहकर्मी भी पीछे हो लिये।

‘‘अकेला अभिषेक जायेगा। बाकी यहीं रहो।'' रुद्रप्रताप सिंह ने आदेश दिया।

यह बात सुनते ही सारे लोगों के कदम रुक गये और अभिषेक चलने लगा रुद्रप्रताप सिंह के पीछे। अन्य लोग वापस रेस्टरुम की तरफ चले गये। आज वह बहुत तेज चल रहा था। चल क्या रहा था यह समझ लीजिये कि लगभग दौड़ रहा था। अभिषेक को बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि जो आदमी रोज़ ऑफिस में चंद सीढ़िया चढ़ने में ही हांफने लगता है। पांच किलो का बैग नीचे से चपरासी उठाकर लाता है वह इन सीढ़ियों पर पांच साल के बच्चे की तरह उतर रहा है। यही होता है जब पैसा डूब रहा होता है। इसलिये तो मैकियावली ने कहा है कि आदमी अपने बाप के हत्यारे को भूल सकता है लेकिन पैसे के चोर को नहीं। अभिषेक यह सब सोच रहा था इतने में तो रुद्रप्रताप सिंह गाड़ी की सीट पर बैठ चुका था। आज उसने ड्राइवर का इंतज़ार करना जरुरी नहीं समझा जो इधर—उधर किसी चाय की दुकान पर बैठा या तो अख़बार पढ़ रहा होगा या फिर मोबाइल में गेम खेल रहा होगा। उसने झटके से गाड़ी स्टार्ट की और चल पड़ा। अभिषेक अभी तक मसले को समझ नहीं पाया था। वह भी लगभग दौड़ता हुआ गाड़ी में बैठ गया और पूछा, ‘‘सर, अब ?''

‘‘ गुलाब नबी के अब्बा से मिलने जा रहे हैं।'' रुद्रप्रताप सिंह गाड़ी हॉस्पिटल से बाहर निकाल चुका था।

गुलाब नबी का अब्बा यानी मदारी जुबैद शाह जिसे करोलबाग में एक होटल में ठहराया गया था। उसने भी तीन दिन से खाना नहीं खाया। जुगलकिशोर काफी समझा चुका है कि गुलाब नबी को कुछ नहीं होगा। होटल में आराम से मनपसंद खाना खाओ, पैसा साब दे देंगे लेकिन उसके मन को कुछ पसंद ही नहीं आ रहा था। हर वक्त उसकी आंखों के सामने गुलाब नबी की तस्वीर घूमती। वही नाचता—गाता गुलाब नबी। अचानक गुलाब नबी नाच—गाना बंद करके सुबक—सुबककर रोने लगता है। जुबैद शाह की आंखों में भी आंसू आने लगे। दलाल जुगलकिशोर इस समय अपने कमरे में है और गुलाब नबी का अब्बा अकेला होटल के बीस नम्बर कमरे में गुलाब नबी की आवाज़ सुनता है, ‘‘अबू....दमरु बजाओ।''

जुबैद शाह को बाक़ायदा याद है कि तक़रीबन पन्द्रह बरस पहले जब गुलाब नबी पैदा हुआ था तब वह पुष्कर के स्टेशन के पास एक पुरानी हवेली में किराये पर रहता था। गिनती के हिसाब से गुलाब नबी उसकी दसवीं औलाद था मगर ज़िंदा बच्चों में वह चौथे नम्बर पर था। उस ज़माने में जुबैद शाह ही माली हालात इतनी ख़स्ता नहीं हुई थी। हालांकि अमीर वह तब भी नहीं था मगर खेल दिखाकर गुजारा मज़े में चल जाता था। अगर कहीं बाहर जाना ही नहीं हुआ तब भी वह रेल्वे स्टेशन के पास दरी बिछाकर खेल दिखाने बैठ गया तो कम से कम दो—तीन सौ रुपये रोज़ के कमा ही लेता था। इससे तीन बच्चों और दो मियां—बिवी का गुजारा हो जाता।

उस ज़माने में पुष्कर में विदेशी पर्यटकों का इतना आगमन नहीं होता था। थोड़े बहुत धार्मिक पर्यटक आते और मेले के समय पशु व्यापारी। फिर भी मनोरंजन के साधन इतने नहीं थे, इसलिये लोग मदारी का खेल देखते थे। जुबैद शाह पुष्कर में तो कभी—कभी ही खेल दिखाता था। वह अजमेर और उसके आसपास के गांवों की स्कूलों में जाकर जादू का खेल दिखाता था। यह तो उस समय भी उसकी खासियत थी कि खेल शुरु करते ही आवाज़ लगाता —

‘‘आओ देखो मदारी का खेल।

हथैली पर चलायेगा रेल।।

पल में आदमी का बंदर दिखाये।

रेत से वह समोसा बनाये।।

आओ देखो मदारी का खेल।

हथैली पर चलायेगा रेल।।''

‘‘भाइयों और बहनों, हम कोई जादूगर नहीं हैं। हम तो अपनी कला से आपका मनोरंजन करने आये हैं।''

इन दो घोषणाओं के बाद वह डमरु बजाता और जमीन पर एक खाली कपड़ा बिछा देता। कपड़े को कई बार उलट—पुलट करके दर्शकों को विश्वास दिलाता की यह वास्तव में खाली ही है। फिर काफी देर तक डमरु बजाकर उछल—कूद करने लगता और अचानक हवा में हाथ हिलाकर कपड़े के नीचे हाथ डालता तो एक कबूतर निकलता।

‘‘यह देखो सफेद कबूतर आगो। यह सीधो हिमालय से आयो है। लेकिन एक गड़बड़ हो गई! हिमालय से जोड़ो चाल्यो हो। एक कबूतर बीच मां बिछड़ गियो। बेचारो अकेलो रहगो। अब दूसरे को भी बुलायें क्या ?'' जुबैद दर्शकों की तरफ से जवाब मिलने की प्रतीक्षा करता।

‘‘हां, दूसरे को भी बुलाओ।'' भीड़ में से कई आवाज़ें एक साथ आती।

‘‘अभी बुलाता हूं।

आजा मेरे झन मछंदर।

तुम्हें बुलाये पिया कबूतर।।

सारी बाधायें लांघ के आजा।

रिक्षा करे तेरी ख़्वाज़ा।।''

वह फिर में हाथ हवा में लहराकर कपड़े तक ले जाता और कपड़े की नीचे से दो कबूतर निकालता। भीड़ तालियां बजा उठती। कई लोग विस्मय से देखते ही रह जाते।

अमूमन मदारी इतना ही खेल दिखाकर भीड़ से पैसा उगाहने लग जाते हैं। लेकिन जुबैद शाह का असली खेल तो अब शुरु होता। पहले वह दो मीनट का भाषण देता, ‘‘भाइयो, हम मदारियों के पास खेल दिखाणे के इलावा जीवण का कोई रास्ता नहीं है। न घर है, न ही ठिकाणा। हमें तो राशन तक नहीं मिलता। भटकते रहते हैं। लेकिण हमारो खेल जादू नहीं है। या तो एक कला है। इब मैं आपने बताऊंगा कि जादू कैसे दिखायो जावे है।''

उसके बाद वह एक—एक करके सारे रहस्य खोल देता। वह बताता कि कबूतर उसके पास पहले से मौजूद थे। सिर्फ उसने अपने हाथ की सफाई से लोगों में भ्रम का जादू पैदा किया है। लोग जुबैद की कला से ज्यादा उसकी साफगोई के कायल हो जाते और दिल खोलकर उसे पैसे देते। इसी साफगोई के कारण जुबैद को जहां जाता वहां प्रशंसा तो मिलती लेकिन उस जगह अगली बार आकर जादू दिखानी का स्कोप खत्म हो जाता क्योंकि लोग जब रहस्य जान लेते तो खेल दोबारा क्यों देखते! दरअसल, वह अपने ही रोजगार की जड़ें खोदने में लगा था। फिर भी वह अपने ढ़र्रे पर कायम था और हर रोज़ नये गांव जाता था।

जब गुलाब नबी पैदा हुआ तब तक इस इलाके टीवी आने के कारण से लोगों को सारा मनोरंजन टीवी पर उपलब्ध हो जाता और जुबैद का धंधा लगभग मंदा था। रोज़ हवेली का मालिक बनिया किराये के लिये तकादा करता और हवेली खाली करने की धमकी देता। वह रोज़ किसी गांव जाता और डमरु बजाता। चीख—चीखकर भीड़ को बुलाता मगर चंद बच्चों को छोड़कर कोई नहीं आता और उन बच्चों के पास देने को कुछ होता नहीं, वे तो ख़ुद दो—चार रुपये घर से मांगकर या चुराकर मस्ती करने की फिराक़ में रहते। कभी पांच—दस रुपये मिलते उससे जुबैद की केवल बीड़ी आ पाती।

गुलाब रबी के पैदा होने से पहले कई दिनों से वह कुछ पैसे जोड़ रहा था ताकि उसके जन्म पर रेशमा की देखभाल पर खर्च किये जा सकें। उसके पास क़रीब सात सौ रुपये हो गये थे जो रेशमा के सिरहाने रहते थे और हर शाम जुबैद उन्हें संभालकर उनमें कुछ न कुछ जोड़ने की कोशिश करता। वह जिस हवेली में रहता है वह सेठ आनंदी लाल की है। बहुत बड़ी हवेली है जिसके एक कमरे में जुबैद का परिवार रहता है। शुरु में तो वह स्टेशन के बगल में तम्बू लगाकर रहता था लेकिन फिर यह मकान दो सौ रुपये महीना किराये पर मिल रहा था तो ले लिया। उस वक्त आमदनी भी थी। सेठ का स्वार्थ यह है कि सुनी हवेली पर कब्जे का कोई डर नहीं रहा, एक मदारी तो सेठ की हवेली हड़पने से रहा। साथ में, सेठ जो अवैध व्यापार करता था वह सारा सामान हवेली में रखा जाता, उसकी भी रखवाली हो जाती। इत्फाक से कभी पुलिस का छापा पड़ जाये तो, हालांकि उसकी उम्मीद बहुत कम थी। सेठ ने पुलिस को महीना देने की बजाय जो भी थानेदार आता उसको दो प्रतिशत का सांझेदार बनाने का रास्ता निकाल रखा था। इससे पुष्कर में ही नहीं, आसपास भी माल की सप्लाई पर कोई रोकटोक नहीं होती। फिर भी सेठ कोई जोखिम उठाना नहीं चाहता। इसलिये जुबैद को किराये पर रखा कि किराया तो देगा ही, जो भी बला आयेगी जुबैद के नाम।

रेशमा के डिलिवरी होने से पहले जुबैद अपनी बुवा को देखभाल के लिये ले आया था। पुष्कर में उसके अलावा मुदारियों का पूरा समुदाय रहता है। पहले तो सभी खेल दिखाने का काम करते थे। भालू और बंदर भी रखते थे। लेकिन सरकार की तरफ से जानवरों पर पाबंदी लगने के बाद उन्होंने खाली डमरु से ‘जादू का खेल' दिखाकर जीविकोपार्जन करना शुरु कर दिया। वे भी दूर—दूर तक जाते थे। पुष्कर के सारे जादूगर जुबैद से चिढ़ते हैं क्योंकि वह लोगों को जादू की असलियत बता देता है। इसी कारण लोगों का इंटरेस्ट कम होने लगा। यही वजह है की पूरा समुदाय उसको अलग कर रखा है। न किसी रस्मो—रिवाज़ में उसे बुलाते हैं और न ही उसके आते हैं। लेकिन जुबैद की ज़िद है कि चाहे भूखा मर जाये, वह लोगों को गफ़लत में नहीं रख सकता।

बुवा आने के बाद जुबैद के कमरे में एक पर्दा लगा और बंटवारा हो गया। अब एक में दो कमरे हो गये। एक तरफ के हिस्से में रेशमा के साथ बुवा सोती थी और दूसरे में तीनों बच्चों के साथ जुबैद। तीनों बच्चों में उम्र का बहुत ज्यादा फासला नहीं है। तकरीबन पन्द्रह महीनों के फासलों वाले इन बच्चों में दो लड़के हैं और छोटी वाली लड़की। वह दो दिन से ब्यावर की तरफ के गांवों से आया था। बुवा ने जापे के लिये जरूरी सामन उससे पहले ही मंगवाकर रख लिया था। पिछले तीन जापे भी बुवा ने ही करवाये थे।

रात को पूरा परिवार खाना खाकर सो गया। बुवा भी नींद का नाटक करके खर्राटे मारने लगी। हालांकि जुबैद कहता था कि बुवा की नींद हवा से भी हल्की हैं। सांसों की आहट से भी खुल जाती है। इसलिये वह रेशमा से बात करने में डरता रहा था। यह तो वह जानता था कि बुवा का नींद पर पूरा नियंत्रण है। अगर बुवा नहीं चाहे तो सांसों की आहट से तो क्या, हाथियों के रौंदने से भी नहीं खुलेगी।

जुबैद उठा और धीरे से बच्चों को लांघता हुआ पर्दे की सरहद पार कर रेशमा के मुल्क में आ गया। उसे सच में नींद आयी हुई थी। जुबैद ने उसके पेट पर हाथ रखा कि वह झटके से जाग उठी। औरत कितनी भी नींद में क्यों ना हो, मर्द की छुअन से चौंक जाती है। और यह चौंकना तभी से शुरु हो जाता है जब से औरत को औरत होने का अहसास कराया जाता है। जुबैद ने उसके कान में कहा, ‘‘छत पर चलें।''

वह ‘छत पर चलने' का मतलब समझती है, जब भी उनके घर में कोई मेहमान आया हुआ हो तब जुबैद यूं ही ‘छत पर चलने' की बात कहता है। इन दिनों जब बुआ आयी होती है और बच्चा होने वाला होता है तब ‘छत पर चलने' का मतलब बतियाना मात्र ही होता है। वह उठी और धीमें कदमों से, तरतीब से पेट को संभालते हुये अंधेरे में स्मृतियों की पगडंडी के सहारे कमरे से बाहर छत की तरफ जाने वाली सीढ़ियों के बगल में खड़ी हो गई। वह सोच रही थी कि कितना पागल है जुबैद हो हर जापे के बाद भूल जाता है कि पेट वाली औरत सीढ़ियां नहीं चढ़ सकती और जिनके दिन पूरे हो गये हो वे छत की सीढ़ियां तो क्या, आंगन की सीढ़ियां नहीं चढ़ती। मर्द की स्मृति में ये बातें क्यों नहीं रहती! शायद इसलिये नहीं रहती कि उनका भोगा हुआ यथार्थ नहीं है। वे पलभर दर्द महसूस तो करते हैं मगर उसे अपने ज़हन में ज़ज्ब नहीं कर पाते।

‘‘अब बुआ आराम से संभाल लेगी। मैं कल अजमेर जाऊंगो। एक परोगराम है। कुछ बापरत हो जाये।'' जुबैद ने रेशमा के कंधों पर हाथ रखकर कहा।

‘‘जब भी टाबर होवै, परोगराम आ जावै।'' रेशमा ने शिकायत की।

‘‘मैं तेरा दरद देख न सकूं।'' जुबैद भावुक हो गया था।

‘‘जब दरद देख ही न सकै तो बंटा कैसे सकै ?'' उसने जुबैद का हाथ अपने कंधे से हटाया।

‘‘सौ—पचास रिपया लाऊं तो जापे में काम आवैं।'' जुबैद ने चिंता जाहिर की।

‘‘ठीक है।'' घर की माली हालत रेशमा से कौन—सी छुपी थी।

अगली सुबह ही जुबैद अपनी खेल दिखाने की झोली लेकर अजमेर की तरफ रवाना हो गया। वैसे तो वह हजारों बार अजमेर में खेल दिखा चुका है, अब वहां के लोगों का इसमें कोई इंटरेस्ट नहीं है। लेकिन बाहर के लोग दरगाह देखने के लिये यहां पर खूब आते हैं और कई बार तो स्कूल के बच्चे टूर पर आते हैं। ये टूर वाले पैसा भी अच्छा देते हैं और तारीफ भी ठीक करते हैं। वहां पर एक होटल वाला भला आदमी है जो ऐसे टूरों के बारे में जुबैद को खबर कर देता है। कल भी एक स्कूल की बच्चे टूर पर आने वाले हैं।

रेशमा चारपाई पर सोई दर्द से तड़प रही थी और बुवा दाई को बुलाने गई हुई थी। उसे तड़पते देखकर तीनों बच्चे रो रहे थे। छोटी वाली बेटी तो रेशमा से लिपटी हुई थी। गर्मी का मौसम होने के कारण सब पसीने से तर—ब—तर थे। कमरे में चार रोते हुये लोगों का एक दर्दनाक कोरस बना हुआ था लेकिन आसपास के लोग तो जानते थे कि यहां पर जुबैद मदारी रहता है। वे मदारी के घर जाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। शहर में होने वाले कोलाहल और वाहनों की चीं—पौं के कारण आवाज़ दूर तक जा भी नहीं रही थी। आवाज़ कमरे से निकलकर हवेली की दहलीज पर आती और वहां से सड़क पर आकर शहर के विलाप में धीरे—धीरे गुम हो जाती।

बुवा जब दाई के घर गई तो वह अनाज साफ कर रही थी। पहले तो हर समय वह व्यस्त रहती थी मगर आजकल हॉस्पिटलों में डिलिवरी होने के कारण उसके हिस्से कुछ गरीब लोगों को पैदा कराना ही रहा है। इसलिये घर पर ही मिल गई। दाई का नाम तो बुवा को भी नहीं मालूम था क्योंकि मोहल्ले के लोग उसे ‘अम्मा जी' ही कहते रहे हैं। वह सबकी की ‘अम्मा जी' थी और जो लोग उसका नाम जानते थे, अब उनका नामलेवा ही नहीं बचा है। वह खुद अपना नाम भूल चुकी थी।

‘‘अम्मा जी, रेशमा के मरोड़े आवैं हैं। चालो।'' बुवा की सांसें भरी हुई थी।

अम्मा जी औरत के ‘मरोड़े आने' का मतलब समझती थी। इसलिये इस बाबत बुवा से कोई दूसरा सवाल ही नहीं किया, घर के बाहर चबूतरे के बगल में रखी अपनी लाठी उठाई और बुवा के साथ फूर्ती से चल पड़ी। बुवा सोच रही थी कि इस अम्मा जी के मांस के एक बोटी नहीं दिख रही। किस्तों से सांस ले रही है लेकिन अचानक इतनी ताकत कहां से आ गई! अम्मा जी जिस गति से चल रही है बुवा के लिये उस गति से चलना मुश्किल था। उसकी सांसे उठकर गले तक आ गई थी फिर भी साहस करके चली जा रही थी। जैसे—तैसे करके घर पहुंची। अम्मा जी कुछ कदम आगे थी, उसने आते ही अपना काम शुरु कर दिया। बच्चों को कमरे से बाहर निकाल दिया था। वे सब रो रहे थे। बुवा ने आकर अम्मा जी को आदेशानुसार सामान पकड़ाया। चंद पलों में ही बच्चा दुनिया में था और जचा निढ़ाल बिस्तर पर।

बच्चे को देखकर अम्मा जी का दिल दहल गया। वह उछलकर पीछे जाकर खड़ी हो गई। उसके जीवन में आज तक यह हुआ था कि लड़का होने पर खुशी से घरवालों को बधाई देती और लड़की होने पर उसे ‘अल्लाह का रहमोकरम' बताती। लेकिन आज तो कुछ और ही हुआ था जिसे बयां करने का हूनर अम्मा जी अपने जीवन के आठ दशकों में भी नहीं सीख पाई थी। ऐसा हुआ ही पहली बार था। रेशमा थकान में चूर आंखें बंद कर रखी थी। अम्मा जी ने तुरंत बुवा को बुलाया और बुवा ने बच्चे को देखा तो अनायास ही मुंह से ‘या अल्लाह' निकल गया।

बच्चा गुलाब नबी इंसानों जैसा नहीं था। हाथ—पांव, नाक—नक्श तो इंसानों के जैसे थे मगर पूरे शरीर पर बंदर की तरह बाल थे। और सबसे आश्चर्यजनक तो यह था कि उसके एक पूंछ भी थी। अपनी पूरी बनावट में वह इंसान कम, बंदर अधिक नज़र आता था। थोड़ी देर बाद अम्मा जी और बुवा में गुसर—पुसर होने लगी। अम्मा जी ने जताया कि यह बच्चा जरूर अल्लाह का प्रिय है, इसलिये इसे इंसानों जैसा नहीं बनाया। जबकि बुवा का संकट यह था कि हो सकता है यह बच्चा जुबैद के लिये कोई आफत हो और इसके पैदा होने से उसका जीवन अधिक संकट में पड़ जाये। वह अपने भतीजे की आफतों को बढ़ते नहीं देखना चाहती थी क्योंकि वही एकमात्र है जो बरस दो बसर में बुवा की खै़र—खबर लेता है। जरूरत होने पर अपने तमाम कर्जा के बावजूद भी उसकी मदद भी करता है।

थोड़ी देर बाद जब रेशमा पूरी तरह होश में आयी तो अपने ज़िगर के टुकड़े को छाती से लगाया। उसे पहला दूध भी पिलाया। अम्मा जी और बुवा बगल में खड़ी बच्चे के रोने का इंतजार कर रही थी कि क्या यह आवाज़ इंसान जैसी ही निकालेगा या फिर बंदर की तरह। जब भी जापे के बाद नवजात शिशु रोता नहीं है तो अम्मा जी उसे गोद में लेकर टांगें पकड़कर हिलाती है और पीछे हल्की—सी थपथपाहट देती है। और बच्चा रोने लगता। बच्चों को रुलाना तो उसके बायें हाथ का खेल रहा है मगर इस बच्चे को नहीं रुला सकती। क्योंकि रुलाना तो दूर वह छूने से ही डर रही थी। मुंह चूमने के लिये रेशमा ने अपने होठ उसकी तरफ बढ़ाये तो उसके भी होश उड़ गये। बालों वाला और पूंछ वाला बच्चा अपना होने पर भी उसे डरावना और अजनबी लगा। लेकिन वह मां थी। बंदर जैसा होने से क्या हुआ, जन्मा तो उसकी कोख से था। पहले धीरे से छूआ। फिर पूरे शरीर पर हाथ फेरकर जायजा लिया और अंत में चूम ही लिया।

‘‘आं...आं....आं....।'' वह तो जैसे रेशमा के चूमने का ही इंतजार कर रहा था। रो पड़ा। बिल्कुल इंसानों की तरह। अम्मा जी का यह डर तो कम हुआ कि कहीं यह बंदरों की तरह बोलने लग गया तो क्या होगा। अब उसे पूरा यक़ीन हो गया था कि इस बच्चे पर खु़दा की रहमत है। वह जल्द से जल्द जाकर मोहल्ले के सब लोगों को बताना चाह रही थी लेकिन बुवा ने कसम खिला दी। बुवा ने कहा कि खुदा के वास्ते वह इस बच्चे के बारे में किसी को कुछ ना बताये। इससे तो शायद अम्मा जी का कभी मुंह खुल जाता मगर बुवा ने उसे ‘दाई के ईमान' की कसम दिला दी। उसने अपने ईमान की कसम आज तक नहीं तोड़ी तो अब बुढ़ापे में तो तोड़ने का सवाल ही नहीं। इस बार अम्मा जी ने कोई ‘नेग' नहीं लिया, उसके दिल में यह ख्याल भी कहीं था कि सच में यह बच्चा खुदा की रहमत वाला हुआ और उसने ‘नेग' ले लिया तो अल्लाह को क्या मुंह दिखायेगी।

जब अम्मा जी रवाना हुई तो बुवा को तीनों बच्चों का ख्याल आया। बड़े वाला थोड़ा समझदार था, वह भी गुलाब नबी को हैरानी की निग़ाहों से देख रहा था। बीच वाला उसे छूकर देख रहा था, पूंछ को हाथ में पकड़ लिया। छोटी वाली लड़की ज़िद कर रही थी कि वह भी अम्मी के बगल में सोयेगी और दूध पीयेगी। बुवा को यह तो यकीन हो गया था कि अम्मा जी किसी को कुछ नहीं कहेगी मगर ये बच्चे तो भोले हैं। ये तो सबसे पहले मोहल्ले के बच्चों को बतायेंगे। उसने तीनों बच्चों को समझना शुरु किया जबकि दो तो इंसान और बंदर में फर्क करना भी अभी तक नहीं सीखे थे। लेकिन जब डर होता है और कुछ छुपाना होता है तो मनुष्य पेड़ों तक पर विश्वास नहीं करता। बुवा ने भी तीनों बच्चों के दिमाग में भयानक डर बैठा दिया कि गुलाब नबी के बारे में किसी को बताया तो ‘शैतान' दबोच लेगा।

जुबैद शाह के आज आमदनी पूरी दो सौ रुपये हुई थी। वह बड़ा खुश था। अजमेर से पुष्कर की तरफ रवाना होते समय उसने किराये के पैसे तो अलग जेब में रख लिये और बाकी के पैसों को पजामा के नेफे में लपेटकर पिन जड़ ली। वह उन पैसों को सलामत घर ले जाना चाहता था। शाम की बस थी, इसलिये भीड़ कम थी। वह बायीं तरफ खिड़की के पास बैठकर बीड़ी पीने लगा और रेशमा के बारे में सोचने लगा। वह जल्दी से जल्दी घर पहुंचना चाहता था। मालूम नहीं रेशमा किस हाल में हो। हालांकि पहले तीनों जापे अम्मा जी ने आराम से करवा दिये थे और किसी प्रकार की कोई तकलीफ नहीं हुई। फिर भी उसे यह डर था कि अब रेशमा शरीर से कमजोर हो गई है और अम्मा जी आंखों से। ऐसे में कुछ दिक्कत हो सकती है। दो बार जलाने के बाद बीड़ी जब तीसरी बार बुझ गई तो झुंझलाकर उसने बीड़ी फैंक ही दी।

बस चल चुकी थी करीब बीस सवारियों को लेकर। अंधेरा होने को था और शहर की लाइटें जल चुकी थी। जुबैद शाह लाइटों में चमकती इमारतों को देख रहा था और ख्वाब बुन रहा था। ख्वाब में हवेली वाले कमरे में उसे एक जगमगाता बल्ब दिखाई दिया। छत पर एक पंखा भी बहुत तेजी से घूम रहा था। बल्ब की दूधिया रौशनी में रेशमा का चमकता चेहरा नूर बरसा रहा था। वह पैर फैलाकर सोई हुई थी और पंखे की हवा से उसकी जुल्फें उड़कर जुबैर के मुंह पर आ गिरी। जुबैर ने जुल्फें हटोने के लिये अपने चेहरे पर हाथ फिराया कि उसकी आंखें खुली तो अजमेर निकल चुका था और बस पहाड़ी पर चढ़ रही थी। इस पहाड़ के इस तरफ अजमेर है और उस तरफ पुष्कर। बीच में करीब तीन किलोमीटर की पहाड़ी चढ़ाई और ढ़लान के रास्ते पार करनी होती है। थोड़ी देर में बस रुक गई और कुछ युवक, बिल्कुल पढ़ने वाले हॉकी के डंडे लेकर बस में चढ़े। उनमें से एक लड़का जो उनका नेता टाइप दिख रहा था उसने फिल्मी अंदाज में ऐलान किया कि जिसके पास जो रकम, गहना और कीमती सामान हो वह तुरंत निकाल दें। किसी ने कुछ नहीं निकाला तो गुस्से में डंडा बस की खिड़की के एक शीशे पर मारा जो तड़ाक से टूट गया।

शीशा टूटते ही लोगों ने जेबों से पैसा निकालना शुरु कर दिया। दो लड़के पैसा ले रहे थे और दो लोगों की जेब चैक कर रहे थे। हालांकि बस में कोई महिला नहीं थी लेकिन कुछ पुरुषों ने कानों में सोने के गुरदा पहन रखे थे। डर के मारे निकाल दिये। जुबैर ने कहा कि वह तो मदारी है, उसके पास कुछ नहीं है।

‘‘खेल दिखाकर खूब पैसा कमाते हो। निकालो तुरंत।'' डाकुओं का नेता दहाड़ा।

‘‘आजकल बाबूजी न तो कोई खेल देखै और न टको दे।'' जुबैद बोला।

‘‘जब टका ही नहीं मिलता तो खेल क्यों दिखाते हो। हमारे साथ चलो, डाका डालो। और तुम ठहरे जादूकर। बैंक लूट लोगे और कानों कान किसी को ख़बर तक नहीं होगी। आओ!'' उसने जुबैद की तरफ देखकर कहा।

जुबैद चुप रहा। उन लोगों ने सारा माल बटोरा और चले गये। बस वापस चली तो चुपके से जुबैद ने अपने नेफे की आंटी को टंटोला। रकम सलामत थी। उसे इन कुछ रुपयों को बचाने पर इतना सुकून हुआ जितना अपनी सल्तनत बचाने पर किसी बादशाह को भी न हुआ होगा। वह जब घर पहुंचा तो बुवा जानबूझकर हवेली के पीछे की तरफ चली गई ताकि वह रेशमा से मन की बात बतिया सके। कमरे में लालटन की रौशनी में रेशमा का चेहरा पीला दिख रहा था। तीनों बच्चे चारपाई के पैरों की तरफ बैठे थे। जुबैद ने जब रेशमा से हालचाल पूछा तो उसने नवजात शिशु को हाथों में लेकर आगे बढ़ा दिया। वह गोद में लेकर देखा तो बिल्कुल सुन्न हो गया। ऐसा बच्चा तो उसने जीवन में देखा ही नहीं था। बच्चा हाथ से छूटकर गिरने वाला था कि जुबैर ने अपने आप को संभाला। वह पसीन से तर—ब—तर हो चुका था। वह कभी उस बच्चे को देखता तो कभी छत को। छत पर जाले लटक रहे थे और किसी ज़माने में किये गये कलर की पपड़ियां उतर चुकी थी। जहां से पपड़ियां उतरी थी वहां से पत्थर का रंग साफ दिखाई दे रहा था। ऐसा लग रहा था कि छत का पूरा कैनवास लेकर किसी चित्रकार ने चित्र बनाये हों। अलग—अलग आकृतियां नज़र आ रही थी। कुछ चेहरे भी दिख रहे थे। उसने एक नज़र रेशमा पर डाली, वह भी छत निहार रही थी। शायद चित्र दिख रही हो या इस बच्चे के भविष्य को लेकर कुछ सोच रही होगी। बच्चे वहीं बैठे थे जिनके चेहरे देखे जा सकते थे और सांसें सुनी। वे रोज हुड़दंग मचाये रखते हैं लेकिन न जाने आज क्यों खामोश थे। जुबैद ने अपने गोद की तरफ देखा तो नवजात शिशु आंखें बंद करके सो रहा था, उसे तो अभी तक यह भी पता नहीं चला था कि वह जिस घर में पैदा हुआ है वह मरादी का घर है और ‘मदारी' क्या होता है यह जानने में तो उसे बहुत वक्त लगेगा। जुबैद को छत पर स्वतः ही बने चित्र आकर्षित कर रहे थे, उसने फिर नज़रें वहीं टिका दी। अब वह आकृतियों को ग़ौर से निहारने लगा। अचानक उसे एक आकृति दिखी जो इंसान जैसी थी लेकिन उसके भी पूंछ थी। उसका दिमाग चक्कराने लगा। कभी छत की आकृति को देखता तो कभी गोद के शिशु को। दोनों पूंछ वाले। अब वह चेहरा मिलाने लगा। हालांकि छत वाली आकृति का कोई चेहरा नहीं था लेकिन उसे वह उस बच्चे जैसा दिख रहा था। जुबैद को पूरा विश्वास हो गया था, उसने बच्चे को रेशमा की बगल में सुलाया और बीड़ी निकाली।

‘‘बीड़ी बाहर पिओ। छोटो बच्चो है।'' रेशमा ने उलाहने के स्वर में आदेश दिया।

‘‘अछो।'' उसे भी अपनी गलती का अहसास हो गया था।

जुबैद ने बीड़ी को जेब में रखा और कहा, ‘‘ओ खुदा को बच्चो है। इको नाम ‘गुलाब नबी' रखेंगे।''

पहले तो रेशमा को अफसोस हुआ कि एक मदारी की औलाद का नाम गुलाब नबी कैसे हो सकता है फिर उसने सोचा कि नाम में क्या गुनाह है। बच्चा है भी दुनिया से अलहदा। बुवा ने जुबैद को बता दिया था कि उसने अम्मा जी को तो किसी को बताने की कसम दिया दी है और बच्चे का राज़ हम लोग दुनिया को मालूम नहीं होने देंगे। पूंछ का क्या है, पैंट में छुप जायेगी।

धीरे—धीरे गुलाब नबी बड़ा होने लगा। घर में सबका प्यारा था और उसी समय से नाचना गाना शुरु कर दिया था। बातें कहां छुप पाती हैं, लोगों को पता लग गया कि जुबैद शाह के घर जादूई बच्चा पैदा हुआ है। सारे पुष्कर में हलचल मच गई। देखने आने वालों का तांता लग गया। पहले पहल तो लोगों ने कहा कि मदारी है खेल रच रहा है, पूंछ वाला बच्चा भी भला हुआ है आजतक। लेकिन जब आंखों से देखा तो सभी अचम्बे में थे, कुछ ऐसे कहने वाले भी थे कि इसे कोई बिमारी है। डॉक्टर के पास ले जाओ और पूंछ कटवा दो। ‘पूंछ कटवाने' के नाम पर रेशमा का खून—खौल उठता। वह सोचती कि ये अपने बच्चों के पैर क्यों नहीं कटवाते, उतना ही प्यारा मुझे लगता है। इतने लोगों को घर में आते देखकर पहले तो जुबैद खुश था लेकिन लोगों ने उस बच्चे को पूजना शुरु कर दिया तो उसे शक होने लगा। औरतें तो उसको छूकर दुआयें मांगने लगी। वह इन बातों से डरने लगा। कुछ पुजारियों और मौलवियों ने कहा कि इसे घर में मत रखो, किसी मजार पर छोड़ दो। नन्ही—सी जान को वह मजार पर कैसे छोड़ दे। अंत में तंग आकर जुबैद ने पुष्कर ही छोड़ दिया और अजमेर स्ेटशन के पास आकर रहने लगा। गुलाब नबी के चेहरे पर बाल देखकर आसपास के लोग हंसते लेकिन उसकी पूंछ पैंट में होने के कारण दिख नहीं पाती।

ज्यों—ज्यों नाचता—गाता गुलाब नबी बड़ा होने लगा त्यों—त्यों जुबैद शाह के सामने रोजी का संकट बढ़ता गया। अब मदारी का खेल कोई देखता ही नहीं था। यहां पर किराये का मकान लेकर रहने की बात तो दूर, दो बखत के खाने के भी टोटे थे। स्टेशन के बगल में कई तम्बू थे, वहीं पर एक तम्बू जुबैद ने भी लगा लिया था। लेकिन वह गुलाब नबी से बड़ी मोहब्बत करता था। इसका कारण यह था कि उसके सुर और ठुमके गजब के थे। वह डमरु भी बजाने लगा था। वैसे भी अब जुबैद ने खेल दिखाना छोड़ दिया था और वह दरगाह के बाहर एक दुकान पर फूलों को साफ करने और सजाने का काम करता है। बारह महीने यही काम था। मुश्किल से गुजारा हो पाता। उसके पास न वोटर आईडी थी और न ही राशनकार्ड। कोई सरकारी योजना उस तक नहीं पहुंची थी। वह सरकार और लोकतंत्र को केवल इतना जानता था कि कई बार दरगाह में चादर चढ़ाने कुछ सफेद वर्दी वाले लोग आते जिनके साथ पुलिस का भारी इंतज़ाम होता। रास्ता खाली करवा लिया जाता था। उसने एक बार अपने दुकान मालिक से उन लोगों के बारे में पूछा तो उसने बताया कि ये ‘सरकारी लोग' हैं। उसी दिन से जुबैद के दिमाग में सरकार की छवी एक सफेद हाथी जैसी बन गई थी। वास्ता उसका केवल पुलिस से पड़ता था जब हर महीन सिपाही उनसे तम्बू का किराया वसूलने आता। किराया नहीं देने पर पिटाई होती, इसलिये रोज़ आधी रोटी कम खाकर उस जमीन पर रहने का किराया दिया जाता जो सरकारी थी और गंदगी से दबी पड़ी थी। यानी कि जुबैद अब भी किराये पर रहता है, पहले बनिये की हवेली में और अब सरकार की गंदी जमीन पर।

जीन्दगी के थपेड़ों में कला से इंसान कितना ही दूर हो जाये मगर कला यंत्र उसके पास रहते हैं। जब भी कभी दिल में हूक—सी उठती है तो वह उनकी संगत में चला जाता है। जुबैद के कमरे में डमरु और बांसुरी दोनों रखे हुये थे। कई बार तन्हाई में वह इन्हें बजाता और यह तय था कि गुलाब नबी को नाचने से कोई नहीं रोक पाता। आवाज़ सुनकर आसपास के तम्बुओं के लोग भी आ जाते। खूब तालियां बजाते और ‘वाह—वाह' करते, जुबैद का मन भर आता और चैन की नींद सोता। चूंकि इन लोगों के पास मनोरंजन के साधन कम थे। टीवी तो किसी के पास था ही नहीं। बिजली भी कहां थी कि कोई टीवी के बारे में सोचे और पेट भरना कौन—सा आसान था। कुछ लोग रेडियो लाये थे मगर सेलों का खर्च देखकर वे भी बेच आये। इसलिये गुलाब नबी की नाच और जुबैद का डमरु या बांसुरी बजाना उनके गरीब और निरह जीवन का एकमात्र सुकून था। वे रोज़ आकर फरमाइश करते और प्रोग्राम शुरु हो जाता। फिर तो यह हो गया कि शाम को उसके तम्बू के पास सारे लोग जुट जाते और प्रोग्राम स्थायी तौर पर होने लगा। इन तम्बुओं के डेरों का हीरो था गुलाब नबी। अब तो उसकी पूंछ का राज़ यहां भी खुल गया था और वह पैंट में नहीं पूंछ को बाहर रखने लगा। सब उसकी पूंछ के साथ सहज हो गये थे। जब वह नाचता था तो पूंछ ऐसे हिलती थी जैसे सांप डांस कर रहा हो।

एक दिन ‘कल्चरल ऐजेंट' जुगलकिशोर की नज़र गुलाब नबी पर पड़ गई। उसे लगा कि यह देशी और विदेशी, दोनों पर्यटकों के लिये बिकाऊ हो सकता है। वह पर्यटकों के लिये, सरकार के लिये और पैसा दे जो कोई उसके लिये लोक कलाकारों के प्रोग्राम करवाता था। उसने जुबैद शाह से जाकर बात की। तंगहाली में था तो जुबैद ने तुरंत हां कर ली।

पहले ही दिन का प्रोग्राम सर्किट हाउस में था। रुद्रप्रताप सिंह कुछ मित्रों के साथ घूमने आया हुआ था। गुलाब नबी की नाच पर सारे लोग झूम उठे। रुद्रप्रताप सिंह खूब पी चुका था, पूंछ वाला बच्चा देखकर वह भी दंग रह गया। तभी उसने सोचा था कि ‘जादू का बच्चा' जब चैनल पर नाचेगा तो टीआरपी मंगल पर पहुंच जायेगी। फिर क्या था, जुगलकिशोर से सौदा कर लिया। एक साल के लिये पांच लाख में गुलाब नबी को खरीदा। जुबैद को तो तीन हजार प्रतिमाह पर जुगलकिशोर ने पटा लिया था। दोनों को दिल्ली लाया गया और ‘लाइव न्यूज' चैनल प्रचार—प्रसार कर रहा था लांचिंग की। लेकिन गुलाब नबी ने सब चौपट कर दिया। ऐसी चुप्पी पकड़ी की हॉस्पिटल में भर्ती कराना पड़ा।

‘‘अबू....दमरु बजाओ।''

‘‘जल्दी से तैयार हो जाओ साब मिलने आ रहे हैं।'' जुगलकिशोर ने जब आवाज़ दी तो जुबैद के ख्यालों का सिलसिला टूटा। उसने गहरी सांस ली। पूरे जीवन को फिर से देख लिया था ख्वाब में। उठा और नहाने चला गया।

‘‘सर क्या सोच रहे हैं ?'' अभिषेक ने पूछा।

रुद्रप्रताप सिंह उसी गति से गाड़ी चला रहा था जिस गति से हॉस्पिटल से निकला था। वह तो सिर्फ नोएडा से करोलबाग पहुंचा है और जुबैद पुष्कर से अजमेर होते हुये बीस साल का सफर कर आया।

‘‘यही होटल है।'' रुद्रप्रताप सिंह ने उतरते हुये कहा।

अभिषेक भी उतरकर उसके पीछ होटल में घुस गया। उन्नीस नम्बर कमरे में गये जहां पर जुगलकिशोर था। अन्दर घुसते ही देखा कि जुगलकिशोर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया है।

‘‘मेरा सारा पैसा और इज्जत धूल में मिल गई। उस तेरे बाप ने मौन धारण कर लिया है। सारा पैसा वापस कर।'' रुद्रप्रताप सिंह अपने नाम के अनुरूप जुगलकिशोर पर रुद्र हुये।

‘‘साब, मैं क्या कर सकता हूं। इसमें मेरी क्या गलती है। उस दिन तो आपके सामने नाच रहा था।'' जुगलकिशोर हाथ जोड़कर पैरों में पड़ता हुआ बोला।

‘‘अब कोई उपाय है ?'' रुद्रप्रताप सिंह ने पूछा।

‘‘साब, जुबैद है। हो सकता है वह अपने बाप के सामने नाचे।'' जुगलकिशोर के सामने कोई चारा नहीं था।

‘‘तुरंत लेकर आओ नीचे।'' इतना कहकर रुद्रप्रताप सिंह नीचे चला गया।

जुगलकिशोर तुरंत जुबैद को लेकर नीचे आया, डमरु और बांसुरी के साथ। चारों गाड़ी में बैठ गये। रास्ते में वह जुबैद को खूब समझाया और धमकियां दी।

जुबैद की तमाम कोशिशों के बाद भी जब गुलाब नबी नहीं नाचा तो रुद्रप्रताप सिंह आग बबूला हो गया। जुगलकिशोर के हाथ से लेकर समझौते के कागजों को फाड़ा और रवाना हो गया। हाथ जोड़ते हुये जुगलकिशोर भी उसके पीछे चला गया।

गुलाब नबी सच वाला वीआईपी तो था नहीं। हॉस्पिटल वालों ने रुद्रप्रताप सिंह के जाने के तुरंत बाद बैड खाली करवा लिया। वह धीरे—धीरे चलकर अपने अब्बा के साथ चलकर सामने चाय की थड़ी पर आ गया। जुबैद के पास कुछ पैसे थे जो जुगलकिशोर ने दिये थे। दोनों ने चाय पी। वे तो दिल्ली का ‘दि' भी नहीं जानते थे, कहां जायें! जुबैद ने जेब से बांसुरी निकाली और बचाने लगा। चंद पलों बाद क्या हुआ कि उसकी बगल में बैठा गुलाब नबी ठुमक—ठुमक के ठुमकने लगा और वही पुराना गाना फिर गाने लगा। भीड़ लग गई देखने वालों की।