We Shmashan Ki raaten Sandeep Meel द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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We Shmashan Ki raaten

वे श्मशान की रातें

संदीप मील

रात के तीसरे पहर तनसुख ने आखिरी बार नींद लेने की नाकाम कोशिश की। वह चाहता था कि सारे दुख—दर्द भूलकर घंटेभर की नींद आ जाये तो जींदा रहा जा सकता है। अन्यथा तो दर्द से सर फलभर में फटने वाला है और सर ही क्या, आज तो धरती भी फट सकती है। बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली की कड़कड़ाहट आज की रात जिस तरह से हो रही है उसे सुनकर धरती के बचने की कम ही उम्मीद नजर आ रही थी उसे। वह बार—बार रजाई में मुहं देकर आंखें बंद कर रहा था। फिर भी बाहर की आवाजें सीधी उसकी आत्मा से टकराती। इतनी स्याह रात थी कि रजाई से बाहर कमरे का दरवाजा तक दिखाई नहीं दे रहा था। बाहर—भीतर, सब जगह अंधेरा था। उसके दोनों बच्चे बगल की चारपाई पर अपनी मम्मी से कसकर चिपके हुये थे।

छोटा—सा कमरा था और उसकी छत भी टपक रही थी। छतें तो सारे गांव के अधिकांश घरों की ही टपक रही थीं। पिछली गर्मियों में गांव वालों ने छतों की अच्छी मरम्मत करवाई थी लेकिन पानी है कि कोई सुराक खोज ही लेता है। अमूमन मकान तो बीस साल पुराने थे। उस समय ऐसी बरसात होने के बारे में कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। रेगिस्तान में तो वैसे ही पानी की कमी रहती थी। उसी हिसाब से मकान बनाये थे लोगों ने। चार दिन और चार रातों की बिना सांस रुकी बरसात को अभी तक झेल रहे हैं ये मकान। यह भी एक राहत की बात थी।

तनसुख सोच रहा था कि इतनी तेज बरसात उसकी यादाश्त में तो हुई नहीं थी। उसने अपने बाप—दादाओं से तमाम ऐसे किस्से भी सुने हैं जिन पर आज के समय के लोगों को यकीन नहीं होता। मसलन, एक क्विंटल वजन उठाने वाले लोग भी थे गांव में या कोई बंदा पांच किलो मिठाई खा जाता था एक साथ। लेकिन ऐसी बरसात की कोई स्मृति तो उसके पुरखों के जहन में भी नहीं थी। एक मूसलाधार बरसात के लिये सदा से तरसता आया है यह रेगिस्तान का इलाका। इन पांच सालों में ही ये हालात हुये हैं। इतने पानी को देखकर लोगों को तो विश्वास ही नहीं होता कि यह सच है या फिर वे कोई सपना तो नहीं देख रहे हैं। सारे खेत पानी से लबालब भर जाते हैं। बाजरा, गंवार और मोठ तो उस बानी में ऐसे पिटते हैं कि पूरी चौमारे में सर उठाने का साहस भी नहीं जुटा पाते। जो फसल ठीक से अपना सर ना उठा पाये वह किसान का पेट कहां से भर दे! बीज, कीटनाशक और बुवाई का पैसा जोड़ने पर खेती नुकसान ही दे रही थी।

अचानक छोटे वाले बेटे को खांसी आयी तो तनसुख के विचारों का सिलसिला टूटा। बाहर बरसात का बवंडर वैसे ही चल रहा था। सुबह का उजास होते ही लोग घरों से बाहर निकलने के लिये बेताब थे लेकिन बरसात रुके तब ना। खेत समंदर में तबदील हो रहे थे और पानी घरों की देहरी को लांघने ही वाला था। ऐसे में मकानों के बचने की कोई उम्मीद नजर नहीं आयी तो तनसुख दोनों बच्चों और पत्नी के साथ घर से बाहर किसी ऊंचे टीले पर जाने की तैयारी करने लगा। यू ंतो रोज उसे लगता था कि घर में कोई बहुत कीमती सामान नहीं है। आज हर सामान उसे बहुमूल्य लग रहा था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि कौन—सा सामान डूबने के लिये छोड़े और कौन—सा अपने संग ले। चाकू से लेकर कुल्हाड़ी तक के इंतजाम करने में पहनने से लेकर खाने तक में समय—समय पर कटौती की थी उसने। और आज सारा यूं पानी में बह जायेगा..........हजारों लीटर आसमान से गिरते ठंडे पानी को तनसुख की आंखों के पानी की कुछ बूंदें कितनी गर्मी दे पाई थी, कौन जाने! वह ही यूं रोने लगा तो बच्चों का क्या होगा ? यही सोचकर उसने अपने दिल के उफान को काबू किया। बरामदे के एक खम्बे के सहारे बैठा दिमाग में घर के सबसे कीमती और जरूरी सामान की लिस्ट बनाने लगा। सोना....कुछ गहने मरने से पहले उसकी मां ने अपनी बहू को दिये तो थे लेकिन बड़ी बेटी की शादी में सब बिक गये। चांदी....दो जोड़ी पाजेब और पांच रुपये थे चांदी के जो छोटे बेटे के पैदा होने के समय अस्पताल ने निगल लिये। नगद....पहले तो दो फसलें होने के समय साल में दो बर जब में कुछ समय के लिये होते थे। इन कुछ सालों में बरसात ने सब चौपट कर दिया....। अब तो पानी देहरी तक आ चुका था और घर से निकलना ही था। अंततः वह कुछ भी तय नहीं कर सका की क्या बजाया जाये सिवाय बच्चों और पत्नी के।

सन्तोष ने एक बड़ी पोलिथीन में माचिस और आटे के अतिरिक्त कुछ कपड़े डाल लिये थे। वैसे भी इस इलाके के लोगों ने कभी बाढ़ का मुकाबला किया ही नहीं था। उन्हें क्या पता था कि कौन—सी चीजें पानी से लड़ने के काम में आती हैं। वे तो हमेशा ही अकाल से लड़ते रहे हैं। दो बूंद पानी के लिये तरसते रहे। आज वही पानी जान पर आफत बन आया।

दोनों बच्चे चुपचाप दिवार के एक कोने के सहारे बैठे थे। अक्सर होता यह है कि ये बच्चे हुड़दंग से घर को सर पर उठाये रखते हैं। आज घर ना सर पर उठ सकता है और न ही जेब में डल सकता है। असल में तो घर आज घर लग ही नहीं रहा था। वह समुद्र में विलीन होता कोई टापू—सा दिख रहा था जिसको बचाना किसी के लिये जरूरी नहीं था सिवाय उसके बासिंदों के। और वे बासिंदे अपनी जान के अतिरिक्त कुछ भी बचा पाने में सक्षम नहीं थे।

जबान तो रात से ही चारों इंसानों की खामोश हो चुकी थी। बेबस—लाचार आंखें और सुर्ख चेहरे से वे अपना इतिहास, वर्तमान और भविष्य तक बयां कर रहे थे। बरामदे के कोने में एक चारपाई के ऊपर दूसरी चारपाई रखी थी और उसके ऊपर था पुराने कपड़ों का डेर। ठीक उनके बायीं तरफ मटके चुने हुये थे जिनमें अनाज, दालें, लहसुन, हल्दी जैसी चीजें भरी हुई थी। जबकी दायीं तरफ दो गेहूं की बोरी पड़ी थी जिन पर तिरपाल डालकर बरसात से बचाने का इंतजाम वे बहुत पहले ही कर चुके थे। तनसुख सारी चीजों को एक—एक करके देख रहा था। सन्तोष और बच्चे उसे देख रहे थे क्योंकि पानी बानी देहरी के आगे अब बरामदे तक आ चुका था। थोड़ी देर में पानी बरमादे में फिर मकानों की नींव में....। सन्तोष ने सामान वाली पोलिथीन को काख में दबाई, छोटे बेटे को कंधे पर बिठाया और बड़े वाले का अंगुली पकड़ाकर बिना कुछ कहे घर से बाहर निकल गई। तनसुख के ख्यालों को भी एक झटका लगा और चुपचाप वह भी पीछे हो गया। पानी करीब दो फुट था। कीचड़ में चपलें धंसने के कारण वे नंगे पांव ही भींगते हुये गांव के बाहर ऊंचे टीले की ओर जा रहे थे।

गांव के बाहर वाला ऊंचे टीला सार्वजनिक श्मशान था जिसकी तरफ जाने से लोग डरते थे। उधर से ही तेज आवाज़ें सुनाई दे रही थी। अधिकांश गांव ऊंचे टीले के श्मशान पर एकत्रित हो गया था और जो बचे थे उन्हें घर से बाहर आने की आवाज़ें दी जा रही थी। पैरों को कांटों और पत्थरों की चुबन से बचाते जा रहे तनसुख के परिवार की तरह कुछ ओर परिवार भी सर पर घर उठाये श्मशान की तरफ जा रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे की पूरी मनुष्यता ही कहीं विस्थापित होकर जा रही है। ज्यों ही वे गांव के बाहर बीहड़ में पहुंचे तो सामने ऊंचे टीले पर पूरा गांव श्मशान में जमा था। वहां तक जाना बड़ा मुश्किल था क्योंकि मुख्य सड़क जिस पर तनसुख अपने परिवार के साथ खड़ा था उसके और ऊंचे टीले के बीच में आधा किलोमीटर की दूरी थी। उस दूरी में करीब बीस फिट तक पानी भरा था। बहुत गहरा गड्‌ढा था। सारे गांव का पानी वहीं आता है। तनसुख दिखते ही ऊंचे टीले से लोग चिल्लाने लगे, ‘‘सड़क मत छोड़ना। बीहड़ की उत्तरी सीमा के किनारे—किनारे आना है। भूलकर भी सड़क के पश्चिम में पैर मत रखना।''

इस चेतावनी को वह भलीभांति समझ गया था क्योंकि इस जमीन के रोम—रोम से परिचित था वह। उन लोगों के मौखिक मार्गदर्शन में अंततः वह ऊंचे टीले तक पहुंच गया। यहां जाकर सांस आया। अब मरने—जीने का डर नहीं रहा। सारे गांव के साथ मरेंगे—जीयेंगे। अब तो यह अफसोस भी नहीं होगा कि वह गरीब है इसलिये मरने को मजबूर है। आज तो गरीब—अमीर सब श्मशान में थे और जिंदा मौजूद थे।

उसे आज कई अफसोस एक साथ हो रहे थे। श्मशान में एक बड़े चबूतर पर टिन डाली हुई थी। उसी चबूतरे पर सारा गांव जमा था। सारी जातियों के लोग एक साथ। जो एक—दूसरे की शक्ल ही देखना पसंद नहीं करते थे वे आज बगल में बैठे थे। एक विभाजन अब भी था। औरतें एक तरफ थी और मर्द दूसरी तरफ। बातें इसी त्रासदी के बारे में हो रही थी।

गोविंद कह रहा था, ‘‘जमाना खराब आ गया है। अब सब उल्टा होगा।''

अधिकांश लोगों ने उसका समर्थन करते हुये बदलते वक्त के कई उदाहरण प्रस्तुत किये। किसी ने कहा कि न सर्दी समय पर आती है, न गर्मी और बरसात तो प्रलय करने पर तुली हुई है। तभी दूसरे न उसकी बात को आगे बढ़ाते हुये कहा कि ऐसा तो जीवन में कभी नहीं देखा कि रातों में भयानक सर्दी पड़ती हो और दिन में जान निकालने वाली गर्मी। संतुलन तो रहा ही नहीं। आज कोई किसी की बात को काट नहीं रहा था जो अमूमन इस गांव के लोग कभी नहीं करते थे।

बीड़ी पीने वालों की बीड़िया सिली हो चुकी थी। खैनी जिसके पास थी वह सब खाने वालों में बंट गई। सब लोगों के चेहरे किसी शून्य में ताक रहे थे जहां से जीवन की कोई चिंगारी निकल सके। एक—एक पल सदियों जितना बड़ा लग रहा था। सामने जहां तक नजर जा रही थी वहां तक पानी ही पानी दिख रहा था। अब डूबकर मरने का तो कोई डर नहीं था क्योंकि टीला इतना ऊंचा था कि दस दिन भी लगातार बरसे तो डूबने का डर नहीं था। लेकिन जीवनभर की कमाई जो घरों में डूब गई थी और खेत चौपट हो गये थे उनकी भरपाई कैसे हो!

बदलों के कारण दिन में ही अंधेरा घिरने लगा था। भीगने के कारण कई लोगों को सर्दी भी लग रही थी। सामने फिर से एक अंधेरी रात आने वाली थी जिसकी न जाने सुबह कब हो। लोग दौड़कर श्मशान में रखी लकड़ियों को उठाकर टिन के चबूतरे पर ले आये। किस ने सोचा था कि जो लकड़िया मुर्दों को जलाने के लिये रखी जा रही हों वे कभी जिंदों को बचाने के काम आयेंगी। बरसात में भीगते हुये लोगों के जहन स ेअब श्मशान का डर शायद निकल चुका था। अगर किसी के दिल में अब भी डर था तो वह जाहिर नहीं कर रहा था।

अब बारी आयी भीगी लकड़ियों को आग लगाने की। यूं तो सारे मर्द जो दाह संस्कार में आते थे वे जानते थे कि श्मशान में आग बहुत तेजी से लगती है। गीली लकड़ियां तो क्या, मनुष्य का पानी से भरा शरीर धूं—धूंकर राख हो जाता है। लेकिन आज लकड़िया आग पकड़ने का नाम ही नहीं ले रही थी। बहुत कोशिशों के बाद भी आग नहीं लगी तभी किसी को अचानक से घी का ख्याल आया। दाह संस्कार में भी घी काम में आता है ना, शायद इसलिये ही उसे घी की याद आयी होगी। यहां घी कहां से लायें! एक बार तो सारे लोगों के चेहरों की हवाइयां उड़ गई थी। तभी सभी को मनोहरी याद आयी। मनोहरी को अपनी जान से ज्यादा घी प्यारा था और वह घी को डूबने के लिये घर नहीं छोड़ सकती थी।

लोगों का निशाना सही निकला। उसके पास डिब्बे में दस किलो घी था। बहुत मुश्किल से गांव वालों को एक किलों घी उधार मिला। आग जली और कुछ औरतें साथ लाये हुये आटे से रोटियां बनाने को कोशिश में लग गई। जिन लोगों को घर से निकलते वक्त अपने पशुओं की याद आ गई उन्होंने पशुओं को खूंटे से खो दिया। वे भी उनके पीछे इस टीले तक आ गये थे। जो लोग भूल गये उनके कुछ पशु तो खूंटा तुड़ाकर आ गये थे। जो मजबूत रस्सी से बंधे थे वे वहीं डूब गये होंगे या पता नहीं क्या हुआ।

बारसात रुग गई थी लेकिन पानी इतना भरा हुआ था कि वहां से जाने का कोई रास्ता ही नहीं था। गांव का सबसे बुजुर्ग चुन्नीलाल कह रहा था कि यह आफत तो बड़ी थी लेकिन तसल्ली यह है कि इंसान का कोई नुकसान नहीं हुआ। सारे लोग ध्यान से सुन रहे थे। कुछ अमीर लोग घरों से नगदी और सोना—चांदी साथ लाये थे। वे एक कोने में बैठे थे। उन्हें डर था कि यह माल कोई चुरा सकता है। चुन्नीलाल ने भविष्य का चिंता जाहिर करते हुये कहा कि ऐसी बरसात हो रही है कि हमें फसल बदलनी पड़ेगी। बाजरा और मोठ जैसी फसल तो अब होने से रही। चावल बायेंगे।

‘‘दादा, चावल के लिये कम तापमान चाहिये। अपने यहां नहीं हो पायेगा।'' रूपेश ने सहज भाव से कहा। वह यूनिवर्सिटी में पढ़ता है।

‘‘तो हम खायेंगे क्या ?'' चुन्नीलाल ने चिंतित स्वर में कहा।

‘‘बड़ी मुश्किल है दादा। क्लाइमेट चेंज होने के कारण ऐसे बदलाव हो रहे हैं। भविष्य में यह भी हो सकता है कि रेगिस्तान पूरा ही पानी से डूब जाये। जहां पर ज्यादा बरसात होती है वहा सूखा पड़ने लग जाये।'' फिर समझाने की कोशिश की रूपेश ने।

‘‘हमने क्या बिगाड़ा है इस कलमुंहे चेंज का ?'' भीड़ में से किसी ने पूछा।

‘‘हमने कुछ नहीं बिगाड़ा है। दुनिया के अमीर देश और अमीर लोगों के कारण हो रहा है सब। वे अपने आराम के कारण प्रकृति के साथ लूट करते हैं। प्रकृति का संतुलन बिगड़ने से ऐसी विपदायें आती हैं।'' उसने लोगों को समझाने की कोशिश की।

सब एक टक उसे देख रहे थे। किसी को यह समझ नहीं आ रहा था कि अमीर लोगों का उन्होंने क्या बिगाड़ा है जो उनकी जींदगी घर से श्मशान में ला दी। बीच में कुछ लोग धीरे—धीरे कह रहे थे कि यह दैवीय प्रकोप है। धरती पर पाप बहुत हो गया है।

चुन्नीलाल ने गहरी निराशा की सांस लेकर कहा कि अब हम क्या कर सकते हैं ?

इसका जवाब तो रूपेश के पास भी नहीं था। सुबह सब लोग घर आये। सारी फसलें बदलकर देख ली। किसी फसल को तापमान सूट नहीं करता तो किसी को मिटटी। साल दर साल ज्यादा भयानक बरसात आती है। सारा गांव श्मशान के उसी टील पर जाता है। जीन्दगी और मौत के बीच झूलते हुये। तनसुख को अब भी क्लाइमेट चेंज का मतलब समझ नहीं आता गांव वालों की तरह। उन्हें यह यकीन जरूर हो गया है कि इसमें अमीरों का हाथ है। लेकिन अमीर के नाम पर तो वह गांव के दो—चार पैसे वाले लोगों को जानता है जो खुद श्मशान में मौजूद होते हैं अपने आप को बचाने के लिये। उसका मानसिक संतुलन बिगड़ चुका है। सब जगह और सब लोगों से पूछा करता है कि आखिर यह अमीर है कौन जो सब तबाह कर रहा है ? आप उसका ठिकाना जानते हैं ? एक बार मुझे उसकी शक्ल दिखा दो बस!

पता — संदीप मील

सीऑफ ईशमधु तलवार

ई — 10, गांधी नगर, जयपुर, राजस्थान

पिन — 332004

मोबाइल नम्बर — 9636036561