खोट
मेरे एक बहुत ही अज़ीज दोस्त की शादी थी। अज़ीज इसलिए था कि जब भी मुझे ज्ञान बखेरने का दौरा पड़ता तो वो एक मासूम बच्चे की तरह श्रोता मिल जाता। वो मुझे सहन करता था या मैं उसे, यह तो अभी तक तय नहीं हो पाया मगर इतना तय जरूर था कि हम दोनों को कोई तीसरा सहन नहीं कर पाता। अजीब मुसीबत आ पड़ी थी। उसके दिमाग पर पढ़ने की धुन सवार हो गई और मेरे दिमाग पर पैसा कमाने की। आज तो साफ हो गया है कि न वो पढ़ सकता है और न ही मैं पैसा कमा सकता हूँ। लेकिन उन दिनों को कौन समझाये जब ख़्वाब को हकीकत मान लेते थे, अब हालात यह है कि हकीकत भी कभी कभी ख़्वाब सा लगती है।
बहरहाल, हम दोनों अपने—अपने रास्तों पर चल पड़े थे, यह जानते हुए कि कभी भी भटक सकते है। वो बंग्लौर पढ़ने चला गया और मैं दिल्ली कमाने। तीन साल गुजर गये, मैं इतना कमा लेता था कि खुद का पेट भर जाये और वो पास होने भर को पढ़ लेता। इन तीन सालों में हम दोनों में काफी तब्दीलियां आ गई। मैं मालिक की फटकार सुन सुनकर अच्छा श्रोता हो गया और वो कॉलेज में डींग हांक कर वक्ता बन गया। यानी हम बिल्कुल उल्टे हो गये जमाने की तरह।
“इन तीन सालों में मुनीन्द की सूरत जरूर बदल गई होगी मगर ज़हन वही होगा” अकसर मैं यही सोचता था क्योंकि तीन सालों से हमारे बीच तीन फोन पर बातें हुई, वो भी दो—दो मिनट। अब आप ही बताईये कि जो लोग घंटों बातें करते हुए भी खाली नहीं होते हैं, फ़कत दो मिनट में क्या बातें करेंगे ? लेकिन इन बातों के दौरान 6 मिनटों में मुझे अहसास हो गया कि मुनिन्द्र के अन्दर बहुत बड़ा परिवर्तन हो रहा है। वैसे भी मुझे बेवजह शक करने की आदत है।
बंग्लौर बहुत बड़ा शहर है, दिल्ली उससे भी बड़ा। जो युवा दिल्ली में पहली बार आता है और अगर भूल से जनपथ के आस—पास से गुजर जाये तो यकीनन एक बार राजनीति में आने की जरूर सोचेगा। उस धरती में राजनीतिक गुरूत्वाकर्षण कुछ ज्यादा ही है। जब दो तीन जोड.ीयां चप्पल घिस जाये तब धीरे—धीरे उसका इरादा बदल जाता है। यही हाल बंग्लौर का है, एक बार आदमी कारखाना लगाने की सोचेगा मगर फिर इस लाइन पर आ जायेगा कि किसी कारखाने में नौकरी मिल जाये तो गुजारा हो सकता है। मुनिन्द्र और मैं भी इस दौर से गुजरे, शहर ने अपने चरित्र के हिसाब से हमें ढ.ाला, मैं तो कभी कभी जिद पर अड. जाता था कि मुझे शहर के हिसाब से नहीं बदलना है लेकिन बहुत दिनों बाद पता चला कि मैं बदल चुका हूँ। लेकिन मुनिन्द्र में जो परिवर्तन हो रहा था वो कुछ और था।
एक दिन शाम को मुनिन्द्र का फोन आया, ‘यार, 23 मई की मेरी शादी है, जरूर आना।‘
मैंने इतना ही कहा, ‘वक्त पर पहुँच जाऊंगा।‘
न कोई बधाई दी और न ही यह पूछा कि अचानक शादी करने का इरादा कैसे बना लिया। क्योंकि मैंने सोचा कि शराब पीकर मजाक कर रहा है। मुनिन्द्र को जब भी चढ़ती है तो वह ऐसे ही मजाक करता है। कभी कहता है कि उसका बाप मर गया, कभी कहता कि उसकी प्रेमीका को दिल का दौरा पड.ा है। ऐसी बातों पर आप कब तक विश्वास करेंगे। अब वो कोई भी अप्रिय घटना सुनाता है तो मुझे एक बेवड.ा मजाक लगती। इसीलिए मैंने इस बात पर कोई गा़ैर नहीं किया।
तीन दिन बाद जब घर पर फोन किया तो मम्मी ने बताया, ‘तेरे दोस्त मुनिन्द्र की शादी है, आ जाना। गांव में तो कहते है कि लड़की में कोई खोट है।‘
कुछ जरूरी बातें करने के बाद फोन रखते ही मेरे दिमाग आया कि लड़की में खोट है, खोट तो मुनिन्द्र में भी हो सकता है। आखिर क्या खोट हो सकता है ? इस सवाल के आते ही मेरे दिमाग में समाज का वो चित्र आ गया जिसमें मैं जी रही था। चार दिन तक इसी खोट व मुनिन्द्र ने मेरे दिमाग को खंखाल कर रखा लेकिन कोई अच्छा उत्तर नहीं तलाश सका। इस बात पर तो बिल्कुल भी यकीन नहीं हो रहा था कि मुनिन्द्र की शादी हो रही है, उस जैसा इंसान जो लड.की देखते ही झेंप जाता था, शादी करके क्या करेगा। पांचवें दिन तय कर लिया कि आज घर जाना है, मुनिन्द्र की शादी आठ दिन बाद ही तो थी और वैसे भी घर एक अरसे के बाद जा रहा था।
जब सोच ही लिया था तो घर के लिए चल भी पड़ा। मैंने बस में बैठते वक्त 20 रूपये की मूंगफली ले ली (5रूपये मुंगफली वाला जमाना अब नहीं)। मूंगफली इसीलिए ली कि राजस्थान रोड़वेज वाले बस को निश्चित ढ़ाबे पर ही रोकते है, जहां पर हर चीज की कीमत अंकित मूल्य से ज्यादा होती है। यह चलन यही पर है जिसका विरोध करने पर आपको होटल की लठेती और पुलिस का प्रसाद मिल सकता है। अजीब मुल्क है। हर मूंगफली को फोड़ते वक्त मुझे ऐसा लगता था कि मैं मुनिन्द्र की शादी का खोट ढूंढ रहा हूँ। मूंगफली का छिलका उतारता, दो फाड. करता और धीरे धीरे चबाता लेकिन वो मूंगफली ही रहती, उसमें खेट नहीं मिलता। कब आंख लग गई पता भी नहीं चला।
एक जानी पहचानी हवा की बू जाकर दिल से टकराई तो अचानक आंख खुल गई, मेरा गांव आ चुका था। रात के चार बजे थे, पूरा गांव सो चुका था लेकिन फिर भी लगता है कि जाग रहा है और दिल्ली जागती हुई भी सोने के सन्नाटे में रहती है। फसल कटे हुए खेत बिल्कुल बच्चे को जन्म देने के बाद की माँ की तरह खिल रहे थे। ि.फजाओं में मोर की गूंजती हुई आवाज ने मेरा इस्तकबाल किया। गर्मीयों में लोग घर के बाहर चारपाई डालकर सो रहे थे जिनके खर्राटों की आवाज अपना संगीत निकाल रही थी, कभी कोई बुजुर्ग खांसता तो लगता की सुर मिलाने की कोशिश कर रहा हो। मेरे घर की गली की तरफ मुड.ा तो टीकू काका का ऊँट जुगाली कर रहा था जो विदेशीयों की सवारी के लिये न होकर खेत जोतने के लिये था। हर गली के पास बोर्ड लगा हुआ था, इतने बोर्ड जैसे गांव में विकास की गंगा आ गई हो लेकिन सड.कों की जगह अभी भी पत्थर के खुर्रे थे, इस सदी में बोर्ड आये है शायद अगली सदी में विकास आ जाये।
घर में जब मुनिन्द्र की शादी की बात चली तो अज़ीब तरह के किस्से सुनने में आये— ‘लड़की एक पैर से लंगड़ी है मगर चलने फिरने से पता नहीं चलता था या फिर यह रिश्ता पैसे के लालच में हुआ है लेकिन लड़की में कोई खोट जरूर है।‘
जब मैंने धरवालों से पूछ, ‘आप को कैसे पता कि लड़की में खोट है?‘
‘पूरा गांव यही कह रहा है‘ सभी घरवालों का एक ही जवाब था।
यह सही था कि मुनिन्द्र की शादी के चर्चे पूरे गांव में थे। जितने मुंह उतनी बातें, वैसे लड़की को किसी गांव वाले ने देखा नहीं था। मुनिन्द्र व उसके घरवालों के सामने कोई कुछ नहीं कहता मगर पीछे से इतनी बातें होती कि बताना मुश्किल है। उस लड़की के बारे में जिसको लेकर शादी वाले दोनों पक्षों में कोई दिक्कत नहीं थी। लड़की की उम्र के बारे में तो 35 से लेकर 50 साल तक कोई कितनी भी बताने का खुला पट्टा रखता हो जैसे। आज कल उस लड़की में खोट निकालने के लिए मुनिन्द्र की काफी प्रशंसा होती है। लोग मुनिन्द्र के ऐसे गुण निकाल के ले आये कि उसे खुद पता नहीं कि वो गुण उसमें कब विकसित हुये।
कुल मिलाकर बात यह थी कि मुनिन्द्र आजकल गांव में हीरो हो गया था। एक मैट्रिक का छात्र बोला कि वो लड़की मुनिन्द्र के बाप के जोड़े की है। जो शादी का ‘क‘ भी नहीं जानते वो भी मुनिन्द्र की शादी पर फौजदारी वकील की तरह भाषण देते। मेरे दिमाग में इतनी बातें भर दी कि मुझे उसकी शादी ताजमहल से भी बड़ा अजूबा लगने लगी। लोगाें में एक अजीब उल्लास था, कुछ तो ऐसे थे कि कोई नई बात इस शादी के बारे में नहीं सुनते तो खाना भी हजम नहीं होता।
बारात के पहले दिन मुनिन्द्र के घर पर पार्टी थी जिसमें लोग बिना बुलाये ही पहुंच गये। अगर राष्ट्रीय मीड़िया को इसकी खबर लग जाती तो देश के तमाम मुद्दें छोड़कर इस शादी को कवरेज मिलता शायद। लेकिन भला हो गांव वालों का कि मीड़िया को खबर नहीं दी और देश को इस नये मुद्दे से बचा लिया। पार्टी में लोग खाने पीने का काम छोड़कर फुर्सत मिलते ही खोट की चर्चा में लग जाते। जाते ही मैं मुनिन्द्र से मिला, कोशिश की इस मामले पर उसकी क्या प्रतिक्रिया है? क्योंकि जब इतना चर्चा हो रहा है तो बात तो उसके कानों तक भी पहुंची होगी। मगर मुनिन्द्र का चेहरा किसी रहस्य में डूबा हुआ, कोई भी उत्तर देने को तैयार नहीं था। वो घुमा फिराकर बात को टाल देता। औरतें मुनिन्द्र को ऐसे देख रही थी जैसे वो दुनियां का सबसे सुन्दर मर्द हो और बेचारे की शादी किसी इंसान से नहीं जानवर से हो रही हो। लोगों की नजरों से मुनिन्द्र पर बेहिसाब रहम की बारिश हो रही थी।
‘अरे! उसको मार डालोगे।‘ अचानक मेरे ख्यालों का सिलसिला टुटा तो मुनिन्द्र दाल बाटीयों के पास खड.ा था।
मैंने भी ज्यादा गहराई में जाना उचित नहीं समझा और शादी की बधाई देकर पार्टी में शमिल हो गया। रात भर नाचने गाने का सिलसिला चलता रहा लेकिन बाकि शादीयों से अलग इस शादी में नाचने गाने में भी खोट था। लोग कम नाच रहे थे आंखें ज्यादा। रात को देर से आने कारण सुबह भी वक्त पर नहीं उठ पाया। जब आखें खुली तो पता चला कि बारात तो जाने वाली है। जल्दी से तैयार होकर बारात में शामिल हो गया।
जब बारात लड़की के गांव पहुंची तो पूरी बारात ही बैंड पर नाच रही थी, मुझे लगा कि आखिर हो क्या गया है ? हर जगह लोग उछल रहे थे, चाहे बच्चा हो या बूढ़ा। जब लड.की को लाया गया तब तो हद हो गई, लड.की देखने के लिये लोग एक दूसरे से हाथापाई पर उतर आये। मैंने भी उस लड़की को देखा मगर मेरी आखें तमाम कोशिशों के बाद उसमें कोई खोट नहीं निकाल सही। या तो मैं पागल हूँ या फिर गांव वाले। शादी धूम धड़ाके से हुई।
दूसरे दिन सुबह—सुबह मेरे एक दादाजी आये, बोले, ‘तुम बारात में गये थे?‘
मैंने कहा, ‘हाँ‘।
वे थोड़े से शर्माते हुए बोले, ‘मैंने सुना है कि लड़की के मूंछ है।‘
मुझे अचानक हंसी आ गयी, ‘नहीं तो।‘
कुछ दिनों तक मुनिन्द्र की शादी के बारे में ऐसी ही उटपंटाग बातें सुनने को मिली लेकिन फिर गांव वालों को कोई दूसरा टॅापिक मिल गया और शायद मुनिन्द्र ने चैन की सांस ली होगी। बहुत बार सोचा कि इस बारे में उससे बात करूं मगर बचकाना समझकर कर नहीं पाया। वो पहले बहुत ही अज़ीज था, अब इस शादी वाली बाताें से कुछ ज्यादा ही अज़ीब हो गया है। जब भी मिलता है तो खोया खोया रहता है, न मेरी बातों में दिलचस्पी लेता है और न ही कुछ बताता है। मुझे लगा कि अब शायद मैं मुनिन्द्र को सहन नहीं कर पाऊंगा, एक रहस्यमयी चुपी सहन करना मेरे लिये सबसे खतरनाक है। धीरे—धीरे मुनिन्द्र से दूरी बनाना शुरू कर दिया, फिर भी वो मेरे दिमाग में उसी तरह छाया हुआ था। आजकल हम दोनों गांव में ही रहते है, वो भी पढ़ने का इरादा छोड़ दिया और मैं कमाने का।
कुछ दिनों बाद मुनिन्द्र फिर से गांव वालों की चर्चा में आया लेकिन इस बार एक सवाल बन कर। हुआ यूँ कि मुनिन्द्र की बीवी ने उसे तलाक दे दिया।
”खोट तो उस लड़की में था फिर उसने मुनिन्द्र को तलाक क्यों दिया ?”
इस सवाल का गांव वालों के पास कोई जवाब नहीं था मगर मुझे लगा की मैं जवाब के बहुत नजदीक पहुँच रहा हूँ।
इतवार का दिन था, मेरे एक दोस्त डॉक्टर नरेन्द्र ने मुझे मिलने के लिए बुलाया। आजकल आवारागर्दी कर रहा था तो वक्त की कोई कमी नहीं थी, इसलिए दस बजे के आसपास ही डॉक्टर के यहां चल पड़ा। नरेन्द्र गुप्त रोग विशेषज्ञ है, इतवार को फीस लेकर घर पर मरीजों को देखता है। जब मैं नरेन्द्र की घर में घुसने लगा तो अन्दर से एक आदमी सर पर तौलिया डाले बाहर निकलते हुए पास से गुजरा। मैं ध्यान नहीं दिया मगर अचानक मेरे दिमाग को झटका सा लगा— ‘कौन हो सकता हैं ?‘
दिमाग ने एक स्क्रैच बना लिया लेकिन चेहरा समझ में नहीं आ रहा था।
अन्दर जाते ही नरेन्द्र बोला, ‘यार तुम भी अजीब हो, मैंने तो शाम को बुलाया और तुम सुबह ही टपक पड़े।'
मैंने कहा, ‘यह अभी—अभी गया है उस मरीज को क्या बिमारी थी ?'
‘अरे यार, इतनी दवाईयां बाजार में है जिसे लेकर इसकी मर्दांगिन खराब हो गयी, जब खोट हो गया तो बीवी छोड़कर चली गयी, अब मेरे पास आया है।‘ नरेन्द्र बडे़ मजे से कह रहा था।
‘खोट!‘
‘नाम क्या था इसका ?' मुझे पसीना आ गया।
नरेन्द्र हसां, ‘तुम लेखक लोगाें को बिमारी में भी कहानी सूझती है, मुनिन्द्र नाम है।'
‘मुनिन्द्र!'
कोई और भी सकता है लेकिन मैंने मन में तय कर लिया था कि खोट है तो जरूर मुनिन्द्र ही होगा।