वनवास: डर का दोहन या एक नई बात ? - फिल्म समीक्षा Dr Sandip Awasthi द्वारा फिल्म समीक्षा में हिंदी पीडीएफ

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वनवास: डर का दोहन या एक नई बात ? - फिल्म समीक्षा

फिल्म समीक्षा : वनवास: डर का दोहन या एक नई बात ?

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हर पीढ़ी पुरानी होती है और नई पीढ़ी आती है, यह प्राकृतिक है। पुराना पौधा, वृक्ष बनता है, मुरझाता है और फिर नई कोंपले, नई पंखुड़ियां आती हैं। लेकिन मनुष्य के मामले में यह विडंबना है की जीते जागते, धड़कते इंसान को आप अचानक से खलीज नहीं कर सकते l क्योंकि हर इंसान आप मानेंगे, युवा होता है ,नौकरी या व्यवसाय करता हुआ अपने घर परिवार की जिम्मेदारियां उठाता है। यथासंभव समाज सेवा और बड़े बुजुर्गों का ख्याल भी रखता है यह सब करते-करते एक दिन उसे पता चलता है की उम्र तो उसकी निकल गई l। अब खुद उस दौर में आ गया जहां उसे बुजुर्ग माना जाता है।लेकिन दिल जो है वह यह सोचता है कि अभी भी मैं परिवार का केंद्र हूं धुरी हूं। लेकिन यह संभव नहीं होता, नई पीढ़ी दायित्व ले चुकी होती है। इसी में फिर यह अपने मन को समझाता है की कोई बात नहीं मैंने अच्छा किया है, जिम्मेदारियां निभाई हैं तो मेरे साथ भी अच्छा ही होगा lलेकिन यह मानकर चलिए की कोई जरूरी नहीं है कि आपके साथ भी उतना ही अच्छा हो। क्योंकि यह कर्म से ज्यादा व्यवहार, माहौल, आधुनिकता का सम्मिलित प्रभाव या कहें दबाव होता है जो वर्तमान पीढ़ी झेल रही होती है।जिसमें नौकरी या कमाने की जिम्मेदारी और आप देख ही रहे हैं की पत्नी, अर्धांगिनी को संभालना, खुश रखना बहुत बड़ा टास्क बन गया है। गड़बड़ी हुई और दांपत्य जीवन बर्बाद हो जाता है जिसका सबसे बड़ा खामियाजा आज पुरुष या लड़के झेलते हैं। क्योंकि कानून एक तरफा है, स्त्री के पक्ष में है। इसमें आपको कहीं भी सुनवाई या अपनी बात रखने का मौका, गिरफ्तारी के बाद तक, नहीं मिलता। तब तक जो भी नुकसान और कहा जाए विध्वंस होना होता है हो चुका होता है।

"लगी आधी जिंदगी एक एक अदद पहचान बनाने में

हुई मुद्दत की अब अपने भी नहीं पूछते "

 

अनिल शर्मा की पहचान ग़दर एक,ग़दर दो के निर्देशक के रूप में अधिक है। लेकिन वह प्रारंभ से श्रद्धांजलि यह बंधन कच्चे धागों का पारिवारिक और इमोशनल पिक्चर बनाते रहे। उसके बाद मुझे याद है हुकूमत फिल्म आई जिसमें सदाशिव अमरापुरकर ने मुख्य खलनायक के रूप में धर्मेंद्र जैसे हीमैन और रफ टफ हीरो को कड़ी टक्कर दी और फिल्म ने पूरे भारत में सबसे अधिक बिजनेस किया वर्ष था 1987। उसके बाद कई एक्शन फिल्में अनिल शर्मा बनाते रहे एलान-ए-जंग, तहलका, फरिश्ते, फिर गदर, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों, हीरो: लव स्टोरी ऑफ़ ए स्पाई ,अधिकांश सफल रही । बीच में अपने जैसी पारिवारिक फिल्म भी बनाई। फिर जैसा होता है और कई लोग हिमायत भी करते हैं तो अपने बेटे उत्कर्ष को लेकर टाइम मशीन जिसमें नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी भी थे और अब यह वनवास बनाए।

वनवास क्या है :

______________उसे दौर की कहानी है जब स्मार्टफोन नहीं थे।एक बुजुर्ग हैं, दीपक त्यागी, नाना पाटेकर ने रोल निभाया है, जिन्हें डिमेंशिया अर्थात याददाश्त खोने की बीमारी ,इसमें याददाश्त आती है और चली जाती है।अपने घर में वह दखलअंदाजी करते हैं या कहा जाए अपना पॉइंट ऑफ व्यू रखते हैं कि घर को ट्रस्ट बना देंगे। जो स्वाभाविक है उनके तीनों लड़कों, बहूओ को पसंद नहीं आता। लेकिन कैसे कहें तो वह उन्हें बहाने से वाराणसी घाट पर छोड़कर चले जाते हैं। अब यह गजनी जैसा कुछ लगता है की बुजुर्ग परिवार के साथ आए हैं और अब अकेले हैं लड़के बहू चले गए तो यह याददाश्त बड़ी जल्दी मिट गई? फिर बुजुर्ग यह मानते नहीं है कि मेरे साथ यह हो सकता है!! जबकि हो चुका है, परिवार छोड़कर जा चुका है। लेकिन हम सभी यह जानते हैं कि हमारा दिल जो दिख रहा है उसको नहीं मानता है। विशेष कर अपने परिवार के सदस्यों को तमाम संदेह के बावजूद अच्छा ही मानता है।

वाराणसी में हम मिलते हैं वीरू वॉलिंटियर ,उत्कर्ष शर्मा ने बड़ी मेहनत से किरदार निभाया है ,जो छोटी-मोटी चोरी भी करता है लेकिन दिल का अच्छा है। पता नहीं ऐसे किरदार वास्तविक जिंदगी में क्यों नहीं मिलते ?और बाकी सिमरन ,राजेश शर्मा, राजपाल यादव , अश्विनी,मुस्ताक खान , यह सब किरदार अपने छोटी-बड़ी भूमिकाओं से फिल्म को सपोर्ट करते हैं।लेकिन बात कहानी की आती है जो बिल्कुल नई नहीं है। हर दृश्य और घटना आपके मन में चल रही होती है। नई बात यह आती है जो इसे बागवान से आगे ले जाती है की दीपक त्यागी के तीनों लड़के अपने गृह नगर में जीते जी दीपक त्यागी को मृत घोषित कर देते हैं। इससे उनकी सारी प्रॉपर्टी वगैरा उनके हाथ आ जाए। यहां मुझे हैरानी होती है की हर मां-बाप अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा संस्कार देता है फिर बाद में कुछ संताने ऐसी क्यों निकलती है जिनके लिए पैसा प्रॉपर्टी ही सब कुछ होता है ? माता-पिता की मर्जी और खुशी कुछ नहीं होती?

फिल्म का अंत थोड़ा चौंकाता है क्योंकि जो पिता पूरी फिल्म में बेटों की हिमायत करता है वह अंत में वीरू के कहने से आंखे खोल लेता है। याददाश्त भी थोड़ी थोड़ी आ जाती है।

यह प्रश्न उठना समीचीन है कि इक्कीसवीं सदी में जब सभी अकेले हो गए हैं और विरोधाभास यह है कि दूरियां मिट रही हैं। एक क्लिक पर सब उपलब्ध है।

वनवास आज की फिल्म है आज के भारत की बात कहती है।कई जगह आँखें नम हो आती हैं तो कुछ जगह आक्रोश भी आता है नई पीढ़ी पर।

मजबूत ढंग से कहती है कि हमें अपने ही हाथों अपना पिंड दान कर देना चाहिए। कल को समय हो न हो हमारी नई पीढ़ी के पास। निर्मल वर्मा, रामदरश मिश्र, गोविंद मिश्र, सूर्यबाला, अनामिका, संजीव, संतोष चौबे, विश्वरंग वाले,,नीलिमा टिक्कू, आदि सभी अपने साहित्य में यह प्रश्न उठा चुके हैं कि वृद्धावस्था के लिए तैयार रहें परन्तु अपने बूते। परंतु मानव मन कहां छोड़ता है आस का दामन? वह सोचता है जो औरों के साथ हुआ वैसा उसके साथ नहीं होगा।

 

लेखन, निर्देशन और तकनीकी पक्ष

____________________________ अनिल शर्मा ने निर्देशन के साथ साथ फिल्म की कहानी भी लिखी है। बहुत संतुलन साधा है और स्टारकास्ट चयन में बहुत सावधानी रखी नाना पाटेकर की इमेज से हटकर भूमिका है तो युवा वीरू की भूमिका में सभ्रांत वर्ग के होकर भी टपोरी बनकर अच्छा काम उत्कर्ष ने किया है। परंतु चल नहीं पाएंगे क्योंकि हम उत्कर्ष, शोभित, नेहा, प्रशांत, अभिषेक जैसे नामों को घर में देखते हैं फिल्म जैसे बड़े पर्दे पर ऐसा नाम बचकाना लगता है।कहें तो हीरो की छवि के विपरीत।

जब नाम ही क्लिक नहीं तो आगे क्या ही होगा?

भावुक करने वाले लम्हे और कई तर्क संगत बातों के अलावा फिल्म में अभाव दिखा विटी दृश्यों का। और खासकर स्क्रीनप्ले काफी ढील दिए हुए था। क्योंकि दो पक्षों, पिता पुत्रों में पहले ही क्लियर है कौन पीड़ित है और कौन सताएगा? तो ऐसे में संवादों, संगीत में दम होना चाहिए वह उतना नहीं है।

निर्देशन अनिल शर्मा परम्परागत करते हैं।कहा जाए ठेठ देसी आदमी है, जो भारतीय मूल्यों और उसकी सच्चाई में विश्वास रखते हैं। और यही इस फिल्म की ताकत बन गई है।

फिल्म रोचक तो है ही साथ ही पूरे परिवार के साथ देखी जा सकती है।

लेकिन अन्य बड़ी फिल्मों पुष्पा टू की आंधी में कहीं दब न जाए।

तकनीकी पक्ष अनिल शर्मा का मजबूत है। अभिनय में नाना पाटेकर अपनी रेंज दिखाते हैं। हालांकि यही नाना इस बार खूब प्रमोशन करते भी नजर आ रहे हैं और वहां वह हर बड़े अभिनेता की तारीफ कर रहे हैं। हद तब हो गई जब वह सनी देओल को भी किसान का बेटा कह उठते हैं। कुछ तो ख्याल रखो नाना!!

उत्कर्ष नाम बदले और कुछ यथार्थवादी फिल्में कथा,छोटी सी बात,रजनीगंधा जैसी करे तो बात बन सकती है। उसके अभिनव में ताजगी और आत्मविश्वास है। कहानी और संवाद इतने अच्छे साहित्यकारों से फिल्मकार क्यों नहीं लेते ? जबकि साहित्यिक लेखकों के पास कथ्य,कहानी सब में विविधता है। कुछ फिल्मकार अब पहल कर रहे हैं। जिनमें सबसे राजश्री फिल्म के सूरज बड़जात्या और उनके सीईओ पी के गुप्ता आते हैं जो अच्छी कहानियों को चुन रहे हैं और उन पर बेहतरीन स्क्रीन प्ले बनवाते हैं। (मैं खुद इसका गवाह हूं) इटर्नल फिल्म्स के मालिक अतुल गर्ग आते हैं जो जल्द चोला फिल्म एक नए विषय पर ला रहे हैं। जो काफी चर्चाओं में है रिलीज से पूर्व।सुनील जैन भी अलग अलग कहानियों को चुनकर फिल्म बना रहे हैं।

अर्थ यह है कि कहानी और उसका नया अंदाज ही बड़े पर्दे पर दर्शकों को खींच लाता है।

फिल्म देखने के बाद सबसे अच्छी बात यह की आपका सोने बच्चों के प्रति व्यवहार शर्तिया बदलेगा। क्योंकि पूत के पांव पालने में ही आप देख लेंगे। दूसरे यह भी की बहुत से माता पिता ऐसे हैं कि वह बच्चों पर कोई अपनी जिम्मेदारी नहीं डालते। यह कहना कि हमने तुम्हारी परवरिश, शिक्षा आदि की तो तुम हमारी देखभाल करोगे, अब एक हद तक बड़े नगरों में आउट ऑफ डेट हो गया है। अब तो हम सब मानते है कि जिंदगी आखिरी सांस तक जीने का नाम है न कि किसी पर निर्भर होकर।

हालांकि कब क्या हो जाए और कौनसा अजनबी वीरू की तरह हमारा ख्याल रखने लगे हम भी नहीं जानते।

फिल्म जरूर देखनी चाहिए यदि आप भारतीय समाज और परिवारवादी व्यवस्था में विश्वास रखते हैं।बनारस की गलियों, गालियों और रंगों का डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी मोहल्ला अस्सी और मसान फिल्म के बाद वनवास में अच्छा इस्तेमाल हुआ है। फिल्म को मेरी रेटिंग है चार स्टार।

 

 

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लेखक

डॉ.संदीप अवस्थी ,आलोचक,

देश विदेश से अनेक सम्मान प्राप्त,आप फिल्मों में लेखन भी करते हैं।

संपर्क : ,8279272900,7737407061