पंचायत वेब सीरीज रिव्यू Dr Sandip Awasthi द्वारा फिल्म समीक्षा में हिंदी पीडीएफ

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पंचायत वेब सीरीज रिव्यू

पंचायत वेब सीरीज रिव्यू : बबुआ हमार डीएम बने, सीएम बन्ही

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यह पंक्तियां हैं मनोज कुमार तिवारी द्वारा गाए भोजपुरी लोक गीत "ओ राजाजी, राजाजी" की । जो तमाम भाषाई बाधाओं को तोड़कर रिकॉर्ड तोड हिट हो गया है । पंचायत वेब सीरीज का यह लोकगीत, जो सोहर का ही रूप है, जिसमें बच्चे को जन्मदिन पर उसे बहुत बड़ा आदमी बनने की कामना की जाती है । आप भी जरूर सुनिए और देखिएगा। सीमित देसी वाद्ययंत्रों ढोलक, बुलबुल तरंग, हारमोनियम, मंजीरे से किस तरह एक रिकार्ड तोड हिट गीत बनाया जा सकता है। 

"पंचायत "वेब सीरीज का तीसरा सीजन मई के आखिरी सप्ताह में स्ट्रीम हुआ है। (एमेजॉन प्राइम, निर्देशक दीपक कुमार मिश्र, लेखक चंदन कुमार, निर्माता टीवीएफ ) आते ही यह वेब सीरीज और इसके पात्र लोगों के दिलो दिमाग पर छा गए हैं। 

चाहे वह प्रह्लाद चा हो, गांव के दामाद या नया सचिव सभी लोगों के जहन पर हैं। (उन लोगों के नही जो अभी भी सास बहू, बाल विवाह, या बहुप्रेम संबंधों वाले बेसिर पैर के सीरियल में उलझे हुए हैं)। 

भारतीय सदैव इस पार या उस पार नहीं चाहते बल्कि वह कुछ मिलजुलकर, खट्टा मीठा, काला सफेद करके काम चला लेते हैं । पंचायत की कहानी दरअसल कोई खास नहीं है। फकोली कस्बे के पास का गांव फुलेरा की पंचायत समिति की कहानी है, यदि इसे कहानी मानते हैं तो। जिसमें प्रधान पति और उनकी प्रधान पत्नी हैं, प्रारंभ ही गड़बड़ से। जो चुनाव जीती, महिला प्रधान उसकी जगह उनके पतिदेव हर कार्य मीटिंग देखते हैं। और प्रधानी के अलावा अपना ईंटों का भट्टा भी चलाते हैं। छोटी मोटी गांव देहात की समस्याएं सड़क पक्की होना, घर घर टॉयलेट बनना, आवास योजना में घरों का आवंटन और इसी के मध्य बिना किसी मुद्दे पर विधायक से मन मुटाव। और मध्य में अस्सी, नब्बे के दशक का देखा देखी वाला पुराना रोमांस सचिव जी और रिंकी, प्रधान पुत्री का। 

यह बेहद सामान्य सी कहानी अपने बेहद सामान्य ट्रीटमेंट और सादगी पूर्ण प्रस्तुतिकरण से मनमोह लेती है। यह कंटेंट बताता है की बिना तामझाम, सितारों, हिंसा और भव्यता के भी अच्छी वेब सीरीज बनाई जा सकती है। दृश्य का चित्रण हो या फिर पात्रों का चयन हर चीज सोने में सुहागा है। तभी इस वेब सीरीज का तीसरा सीजन पिछले दिनों आउट हुआ और आते ही सुपरहिट हो गया। ( आई एम डीबी 9.2)

इस भाग का प्रारंभ पुराने सचिव, जीतू भइया की जगह नए सचिव के आगमन से होता है। नाना प्रकार की टिकड़में लगाकर उसे ज्वाइन नही करवाना है। तो दूसरी तरफ नया सचिव, बड़ा कमाल का अभिनय किया है इस एक्टर ने, विधायक की सिफारिश पर प्रधान को तंग करने भेजा गया है। तो रोचक और व्यंग्य के संतुलित ढंग से नया सचिव अपने बंद दफ्तर का ताला तोड़कर ज्वाइन करने का भागीरथ प्रयास करता है। 

संवाद बहुत बढ़िया हैं इस पहले भाग के। हथौड़ा देने वाले प्रधान जी के धुर विरोधी भूषण, बनराकस चिड़ाते हैं, और सुन रहा है विनोद हैं। संवाद देखें गरीब आदमी कहता है, "सचिव जी, कोई आपसे पूछे की हथौड़ा कोन दिया तो हमरा नाम मत लेना, विनोद नाम है हमारा। " कहकर वह हाथ जोड़ लेता है की हम गरीब आदमी हैं। 

बाकी के सात एपिसोड कैसे लगातार देखने में निकल जाते हैं पता ही नही चलता। 

प्रधान नीना गुप्ता, जब कहती हैं प्रह्लाद से कलेक्टर के सामने की, पुराने सचिव पांच छ महीने में जाने ही वाले थे तो प्रह्लाद का संवाद दिल को छू लेता है, " भाभी, तो पांच छ महीना बाद चले जाएं पर समय से पहले कोई नही जाएगा, मतलब कोई नही। कहकर वह भावपूर्ण ढंग से बाहर आ जाता है। इतना सा दृश्य बेहद मार्मिक प्रभाव छोड़ता है। क्योंकि तमाम लोग जानते हैं की कुछ महीने पूर्व ही प्रहलाद जी का फौजी बेटा शहीद हुआ है। 

अगले एपिसोड्स में पचास लाख के मुआवजे में से प्रह्लाद उपसचिव को गर्भवती बीवी के इलाज के लिए कुछ रुपए देते हैं तो वह मना कर देता है। हम काहे लें, आपके पैसे हैं आप रखें। ऐसे ही गांव की रोड जब विधायक पंकज झा, फंड की कमी से जानबूझकर टालता है तो भी प्रह्लाद द्वारा अपने पैसों से रोड बनाने की बात पर प्रधानपति पैसा लेने से इंकार कर देते हैं की कार्य काम की तरह से होगा। फंड आ जाएगा। 

इस तरह के बेलोस ईमानदारी, सच्ची बात और हकीकत को बिना बढ़ाए बताने से ही इस वेब सीरीज की विश्वसनीयता बढ़ती गई और यह टॉप फाइव में एमेजॉन प्राइम में बन गई। 

यूएसपी वेब सीरीज की

______________________। किरदारों के गढ़ने और उनके उपर्युक्त अभिनेताओं के चुनाव से दृश्यों में जान पड़ी है। उनसे स्वाभाविक कार्य कराने के लिए निर्देशक दीपक कुमार बधाई के पात्र हैं। 

उद्धरण देखें, एक सामान्य किरदार है बम बहादुर, जो पंछी आदि बेचकर अपनी जीविका चलाता है। उसका कबूतर विधायक ही द्वारा उद्घाटन पर उड़ते समय गिरकर मर जाता है। और बदनामी विधायक के सिर। दो मीडिया वाले उस घटना को बढ़ा चढ़ाकर बताते हैं बम बहादुर के बयान के साथ। विधायक उससे माफी मांगने को कहते हैं तो बात और बिगड़ जाती है । प्रधान पति इसे गांव बनाम विधायक की लड़ाई बता देता है, यह किरदार बेहद जटिल है और रघुवीर यादव ने इसे बखूबी किया है। अब अगले दृश्य में बेहद सामान्य यह किरदार जो कहता है वह हर आम किसान और हाशिए पर पड़े हर व्यक्ति की दिल से निकली आवाज होता है और आम व्यक्ति का इतिहास सामने ले आता है। वह कहता है कैमरे के सामने की, " हम ऐसे विधायक की धमकी से नही डरते। हमरा बाप जंग बहादुर, हमारे दादा यह बहादुर। और इस तरह निर्देशक, लेखक यह दिखाने में सफल होते हैं की गरीब से गरीब आदमी का भी एक गौरवपूर्ण अतीत होता है। यूं कहें की उस गौरवशाली परंपरा से ही वह वर्तमान समय की कठिनाइयों में भी हंस बोल लेता है। आंखों के आगे दृश्य तैर जाते हैं गरीब किसानों, आदिवासियों के हजार दो हजार रुपए महीना की कमाई पर अपनी जमीन खेती करने की। क्योंकि उस जमीन, खेत, हल पर उनके बाप दादाओं के हाथ लगे हैं। उन्होंने तो अकाल, पानी की कमी भी सही और देखी। वैसे केंद्र सरकार कई वर्षों से किसान निधि दे रही है साल के आठ हजार जिससे मुश्किल वक्त में किसान, आदिवासी संभले और हर व्यक्ति के दो टाइम भोजन लायक राशन भी मिल रहा। 

इसके अलावा गांव के दामाद का पात्र भी इसमें दिलचस्प बनाया है। पिछले में वह मूडी और घमंड में था जब ब्याह करने आया था, यह लाओ, वह लाओ। इसमें गांव की खातिर वह भी विधायक के खिलाफ इनका साथ देता है। 

और अंत में "देख रहा है विनोद " के विनोद और भूषण इसमें खुलकर खलनायकी करते और यहां वहां भड़काते दिखे हैं। वहीं यह निर्देशक और लेखक की कुशलता है की उनके माध्यम से वह व्यंग्य भी करवाने में सफल रहा है। जैसे बम बहादुर को वह कहते हैं, "काहे बयान दिया विधायक के खिलाफ? माफी मांगो । प्रधान तुम्हारा साथ नही दे रहा बल्कि तुम्हारे कंधे पर रख बंदूक चला रहा। 

बम बहादुर जो कहता है वह आज की राजनीति के हर आम व्यक्ति की सच्ची बात या कहें समझ है, " वह चाहे राजनीति कर रहे पर हमारा साथ तो दिए। आप दे देते? तो हम आपका सपोर्ट करते। "

आप देख रहे होंगे की नायक का कोई उल्लेख नहीं है। वास्तव में ओटीटी पर कॉन्टेंट ही नायक है। कोई एक नायक नही है, भले ही वह प्रोजेक्ट करे। तो आईआईटियन जितेंद्र कुमार, जिन्हें अभिनय क्षमता अब बढ़ानी होगी, क्योंकि वह दो चार जो उनके काम है सब में एक जैसे ही भाव भंगिमा रखते हैं। उनका काम कम ही है। सांवी प्रधान पुत्री इसमें थोड़ा अच्छा अभिनय करती दिखी। 

मनोज तिवारी का गाया लोकगीत, जो यूपी, बिहार में सोहर है, जबरदस्त चला है। हर घर में उनकी मखमली आवाज सुनाई देती है। हालांकि उनकी रेंज सीमित है। 

कमियां भी हैं

__________:_बजट सीमित रखने के चक्कर में दृश्य वास्तविक होने चाहिए के लॉजिक से कुछ दृश्य खराब या कहें असर नहीं छोड़ते हैं। लगता है स्टेज पर नाटक देख रहे। खासकर प्रधान, उनके साथियों पर गोलीबारी, जो रहस्य है किसने करवाई, और अंत में क्लाइमेक्स में लड़ाई के दृश्य बिलकुल भी प्रभाव नहीं छोड़ते। 

इसके अतिरिक्त एक विशेष बात यह की जितने भ्रष्ट काम हैं चाहे पत्नी के नाम पर खुद प्रधानी, गुंडई, विरोधियों को दबाना, सरकारी सचिव से समिति में अपने अनुकूल फैसले करवाना, आवास आवंटन में धांधली, नए सचिव को ज्वाइन न करने देना, सचिव का भी भेदभाव करना यह सब प्रधान कर रहे है, जो वास्तव में ग्राम पंचायतों की सच्चाई है। पर रघुवीर यादव ने संतुलित भाव से ऐसा अभिनय किया है की आप उस खल पात्र को बुरा नही मानते । उधर विरोध जो सही कर रहे भूषण, विनोद और कुछ और उन्हे खल पात्र माना गया है। वास्तविकता उल्टी है। विधायक बने पंकज झा सामान्य अभिनय ही कर रहे हैं। वहीं क्रूर, कॉलेज लाइफ से गुंडई। कुछ रेंज बढ़ाना होगा उन्हे। खासकर तब जब सिद्धार्थ मल्होत्रा, वरुण धवन जैसों को उन्होंने कुछ महीने अभिनय की ट्रेनिंग दी है। 

खैर, यह वेब सीरीज है तो दिलचस्प और जहां छोड़ी है वहां से अगले भाग के जल्द आने की संभावना बनती है। मेरी तरफ से इसे *** तीन स्टार। 

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_डॉ.संदीप अवस्थी, आलोचक और स्क्रिप्ट राइटर, मुंबई

मो 7737407061