चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाये! Dr Sandip Awasthi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाये!

चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं

अक्सर यू लगता है कि हम जिन्दगी क्यों जिए जा रहे हैं ? क्या किया हमने अब तक ? दिन भर का हमारा खाता कितना भरा और कितना खाली रहा ? तो हम पाते हैं कि निरउद्देश्य हम भटके जा रहे हैं, जिए जा रहे हैं l जन्म से अब तक नौकरी, शादी, बच्चे, मकान, बैंक बैलेंस और बस जिन जिंदगी पूरी हो गई l इस मशीनी जिंदगी से वही लोग बचे रहते हैं जिनके जीवन का कोई उद्देश्य होता है l वह उद्देश्य उसको समर्पित होता है l उसके बनाए बंदों में गरीब, दुखी, मजबूर, नारी, दलित, नक्सली, वनस्पति, पशु, परिंदे सभी आते हैं l इनकी संभाल, सेवा में ही समर्पित था दीन-दुखियों असहायों के लिए बना एक १५-२० कमरों का ठीकठाक घर था l जहाँ के कत्तधिर्त्ता रामस्वरूप जी थे lजो स्वयं यहाँ ऐसे ही पताह के लिए वर्षो पूर्व आए थे और अब सबके सहयोग से यह वरिष्ठ नागरिक गृह संभालते थे l इसमें अभी करीब २०-२५ अधेड़, वृद्ध लोग रहते थे l सभी के सभी सताए हुए नहीं थे l कुछ अपनी मर्जी से, स्वाभिमान से जीने के लिए अपनी पेंशन के पैसे से इसका मासिक शुल्क भरते थे और बच्चों के पास रहकर उनके घरेलू-नौकर बनने कि बजाए यहाँ अपनी मर्जी के मालिक थे l यहाँ खाना बनाने वाली मिसराइन, झाडू खटका, बरतन वाली और सप्ताह में एक बार डॉक्टर धोबी की व्यवस्था थी l कुल मिलाकर उम्र के आखिरी पड़ाव पर जो सुविधाऐं एक व्यक्ति को चाहिए होती हैं वह सभी वहाँ उपलब्ध थी l शुल्क निर्धारित था जो अमूमन घर के खर्चे के बराबर ही पड़ता था l सदस्यों के लिए गेम रुम, टी.वी. काम डाइनिंग हॉल था l वर्ष में दो-चार बार सभी सदस्य प्रांत के दर्शनीय स्थलों पर हो आते थे l इस तरह जिंदगी पुर्णतः अमन चौन से गुजर रही थी l

ऐसे शांत वातावरण में अचानक वह हुआ जिसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की थी l यह देख सुनकर सभी को आश्चर्य हुआ l पैसंठ वर्षीय राधाबेन ने अस्सी वर्षीय कमला जी से कहा,"अम्मा सुना तुमने, लो भला, बताओ तो उम्र की इस संध्या बेला में राम-राम का नाम लेना चाहिए कि यह सब ?" कमला बेन के अस्सी वर्षीय चेहरे पर सिवाय झुरिंयों के और कोई भाव खोजना असंभव था l वह अपनी छोटी-छोटी आँखों और पोपले मुँह को चलाती देखती रहीं राधा बेन को l राधा बेन बस अपनी मन की भड़ास निकाले जा रही थी उधर कमला बेन-जिन्हें ऊँचा सुनाई पड़ता था, को सिर्फ धुधली सी आकृति दिख रही थी जो तेजी से हाथ चलाती न जाने क्या कह रही थी l बीच-बीच में देखो तो शर्म लोकलाज जैसे शब्द इनके कानों में पड़ते थे l उन्होंने चुपचाप पलंग से पाँव निचे धरे अपनी लाठी उठाई, चश्मा ठीक किया और पीछे स्थित छोटे से बगीचे में ठाकुर जी के श्रृंगार के फूल तोडने चल पड़ी l उधर, वरिष्ठ नागरिकों की एक मीटिंग नाश्ते पर चल रही थी lसिंह साहब बोले,"भई मैनु तो यह ठीक लगदा है l दो लोगों के बीच आपसी सहमती का मामला है भई l "चाय का घूँट लेते हुए रेल्वे से सेवानिवृत सड़सठ वर्षीय तिवारी जी बोले, "यह ईश्वर की अनमोल दें है l हमें शांत भाव से इसे स्वीकारना होगा lधीरे-धीरे बात सँभल जायेगी l "उनके पास बैठे सबसे वृद्ध पिच्यासी वर्षीय नानकचंद ने अपना हियरिंग एड़ ठीक किया और अपने विधुर जीवन के पैंतीस लंबे वर्षो के एकाकीपन को याद करते रहे l किस तरह अधेड़ावस्था में उनकी पत्नी दिवंगत हो गई और उन्होंने अकेले ही जिंदगी काटी l दोनों बेटियाँ, बीटा ब्याह दिया फिर बेटे-बहू ने उन्हें तिरस्कृत दुत्कारना और खाने-पिने के लिए मोहताज बनाने का असफल प्रयास किया l वो तो पेंशन का सहारा था तो जैसे तेसे जान बचाकर ओल्ड एज होम में वर्षो पूर्व आ गए थे l उन्हें विधुर साथी समीर जी की पीड़ा अपनी लगने लगी, जो आज चर्चा के केन्द्र में थे l

उधर समीर जी को अपने कमरे में बैठे बीते दिनों को याद कर रहे थे l एक दिन ओल्ड एज होम के पिछवाडे से जाती पगडंडी पर वह चलते-चलते झील के किनारे तक आ गए थे l रास्ते में चारों ओर हरे-भरे वृक्ष, फूलों की पत्तियाँ और मनमोहक खुशबुओं से रास्ता आच्छादित था l भोर में ही वर्षा होकर हटी थी अतरू मिट्टी में से उठती सोंधी खुशबू मन को बचपने की ओर ले जा रही थी l जहाँ वह ऐसे वर्षा के मौसम में गाँव के पूरब में स्थित तलैया में घंटों धमा चौकड़ी मचाया करते थे l खूब जी भरके मस्ती की थी l गाँव के दिन याद आते ही सत्तर वर्ष की उम्र में भी उनके होठों पर मुस्कुराहट फैल गई l झील के किनारे का वातावरण उस चित्रकार ने ऐसा कर रखा था मानो सारी सुन्दरता यहीं पर उड़ेल दी हो l किनारे पर हरे भरे वृक्षों, फूलों की छटा बोगनवेलिया, चमेली, मोगरा, जूही, गुलाब यहाँ तक की पिछली बार जो मंत्री जी ने फूलों के पौधे लगाए थे वह भी इठलाते हुए अपनी छठा बिखेर रहे थे l सामने का मंजर और पुरसुकू था l दूर तक नीला नीला पानी, सामने भूरे भूरे रंग के पहाड़ों की कतार और उन पर ढेर सारी हरियाली l पहाड़ों के पीछे से झाँकता क्षितिज मानों यहाँ आने के लिए मचल रहा हो l क्या खूबसूरत, मनमोहक दॄश्य था l तभी दांयी और लगी पत्थर की बैंच पर उनका ध्यान गया lवहाँ कोई बैठा हुआ था और इस प्राकृतिक सुन्दरता का खामोशी से रसपान कर रहा था lएकबारगी तो उन्हें लगा कि वह भी प्रकृति का अंग है l उसका हल्का गुलाबी लहराता आँचल और उड़ते हुए खुले धुले धुले बाल l उन्होंने अपना चश्मा ठीक किया और गौर से देखा हाँ वही तो थीं, श्रीमती कांदबिरी जो कुछ माह पूर्व ही ओल्ड एज होम में अपने बेटे द्वारा छोड़ी गई थी l छोड़ते वक्त उसने कितने कातर भाव से कहा था,"बेटा मैं वही तुम्हारे घर के पिछवाडे सर्वेट कवाटर में रह लूँगी l मुझे यहां मत छोडो l" लेकिन बेटे पर उनकी बहू का भय सवार था l वैसे भी उन लोगों की फास्ट लाइफ में वह फिट नहीं बैठती थीं l पति का स्वर्गवास हुए दो वर्ष भी नहीं हुए थे कि घर कि मालकिन पति के सुख-दुःख में साथ वाली, घर कि साँसों में धड़कने वाली, यहाँ पहुँचा दी गई थी l उस दिन ओल्ड एज होम में सभी अपने अपने कामों में व्यस्त थे पर इस नए मेहमान कि बात सुनकर सभी को अपने दिन याद आ गए l उनमें समीर जी जैसे दो चार ही थे जिन्होंने स्वेच्छा से इस दुनिया में कदम रखा था और यहाँ रच बस गए थे l मैं आपसे मिलने आता रहूँगा -महिला के बेटे ने कहा था और जल्दी ही वहाँ से चला गया था l और वह सूनी सूनी आँखों से देखती रही उसे जाते हुए l क्या इस को उन्होंने अपने हाड़-माँस से जन्म दिया था ? क्या इसी बेटे के लिए रात रात भर जगी थी वह बीमारी में ? उन्होंने गहरी सांस ली पर अब यही उनकी नियति थी l महिलाओं ने उनका स्वागत किया था lसमीर जी ने उन्हें गुलाब के फूलों का गुच्छा भेंट करते कहा था l "यहाँ आपको कोई परेशानी नहीं होगी l हम सब यहाँ हैं l यह भी आपका परिवार है l "उसके बाद कुछ ही दिनों में पूरे ओल्ड एज होम में जैसे नए पंख लग गए थे l क्योंकि कांदबरी जी कुछ ही दिन में वहाँ के सभी लोगों के स्नेह और निःस्वार्थ वातावरण से इतनी प्रफुल्लित हुई कि उनकी रचनात्मकता निखरने लगी l जी हाँ, वहाँ रचनात्मक लेखन, गीत, काव्य पाठ से लेकर बॉलीबाल, म्यूजिकल चेयर, हाउजी का आयोजन होने लगा l इसमें उनके ही जैसे सक्रीय सहयोगी थे समीर जी l दरअसल वह भी कुछ ऐसा ही करना चाह रहे थे बस जरुरत थी एक अदद पार्टनर कि जो कादंबरी जी के आने से पूरी हो गई l बस वो ओल्ड एज होम धरती का सबसे सुन्दर कोना बन गया l वहाँ जीवन लहलहा उठा lरोज कभी अंताक्षरी, कभी नृत्य तो कभी यशोदा बेन ठुमरी कि तान छेड़ देती, मोरी गली आइयो न कान्हा lतो उधर घोष बाबू गाते, "आमी तो माके भालो भाषी l" कभी वालीवाल मैच होता तो कभी कुछ l

ऐसे ही एक दिन वह आया जब पहली बार उन्हें अहसास हुआ कि उम्र बढ़ी नहीं है बल्कि पीछे कि और लौट रही है l उस दिन वह नाश्ता करके लाइब्रेरी में बैठे पुस्तक काशी का अस्सी पढ़ रहे थे कि कादंबरी आई और उनके पास वाली कुर्सी पर बैठ गई l उन्होंने देखा पीले रंग की चौड़ी किनारे वाली, साड़ी, बढ़ी-बढ़ी आँखों और सद्य स्नाता होने के कारण गीले बालों का जुड़ा बनाए वह बेहद आकर्षक लग रही थी l वह बोली- "महिलाओं के लिए कुछ प्रतियोगिताएं इस सप्ताह करवाने की सोच रही हूँ l "उन्होंने पुस्तक बंद की मुस्कुराते हुए बोले, "जैसे?" मेंहदी, रंगोली और एक डिश प्रतियोगिता l" "वाह बहुत खूब" -वह पुलकित मन से बोले, "यह तो बहुत अच्छा विचार है l "इसमें चाहती हूँ कि स्थानीय कॉलेज की बुद्धिजीवी किरण जी, निर्णायक बनें l "और लगभग दो दिन के अथक प्रयासों से प्रतियोगितायें हुई l सभी ने भाग लिया l किसी ने भाग नहीं लिया तो सहयोग किया l इस तरह का वातावरण यह भी ओल्ड एज होम में देखकर किरण जी को बहुत ख़ुशी हुई, और उन्होंने पुरस्कार बाँटते हुए कहा, "इतना अच्छा लग रहा है मुझे यहाँ आकर मानों मैं अपने बचपन में वापस चली गई हूँ l मानों मेरे स्वर्गीय मम्मी-पापा यहीं आप लोगों में हैं जो मुझे दुलार रहे हैं, खुशियाँ दे रहे हैं l सच में आपने इस जगह को धरती पर स्वर्ग बना दिया है l अपनी अदम्य जिजीविषा और बिना पूर्वाग्रह के यहाँ जो स्वच्छ परम्पराएँ आपने शुरू की हैं मैं चाहूँगी पूरे प्रांत में रोल मॉडल के तौर पर जाएं lविशेषकर समीर जी और कादंबरी जी ने मुझे यहाँ आने का अवसर दिया उसके लिए मैं हमेशा आभारी रहूँगी l "पूरा हॉल तालियों से गूँज उठा था तभी से उनकी और कादंबरी की दोस्ती गहरी हुई और वह न जाने कब एक दूसरे के लिए विशेष हो गए उन्हें पता नहीं चला l वह यह भी भूल गए की उन्हें हँसते बोलते, जीने का अधिकार नहीं है l यह फास्ट लाइफ रात-दिन काम, टार्गेट की आपाधापी इन सबमें वृद्धा का कोई स्थान समाज में युवा पीढी के लिए नहीं रह गया है l उन्हें आउटडेटेड करार देकर फेंका जा चूका रहा है l पर ऊपर वाले की तस्वीर में बहुत से रंग ऐसे हैं जो अपने समय पर ही प्रकट होते हैं l अब जब वह खाने पर बैठते तो बिना किसी की निगाह में आए खाना परोसते-परोसते कादंबरी जी उनकी थाली में एक अतिरिक्त कुरकुरा, फुलका रख देती l उन्हें कोई विशेष फल देना होता बिना किसी की निगाह में आए तो वह शर्मा जी, सिंह साहब, वर्मा जी फल देना शुरु करती और फिर आखिर में उन्हें देती और मुस्कुराकर अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से उन्हें देखती l वह भी अभिभूत थे और अपनी दोस्त की खुशी दोबाला कर देते जब कभी शाम को वह अपनी मधुर आवाज में सिंह साहब की फरमाईश पर गीत गाते, "चलो एक बार फिर से, अजनबी बन जाए हम तुम l"

पर साहब प्रेम, उम्र का कोई भी दौर हो, कठिन अनसुलझा सवाल ही रहा है l न जाने क्यूँ हमेशा प्रेम का अंकुरण देखते ही कुछ लोग उसे जड़ से उखाड़ने में लग जाते हैं l धीरे-धीरे वह दोनों एक दूसरे के साथ अधिक समय बिताने लगे l एक दूसरे को देखकर सूखे गलों पर रौनक आने लगी l बुझ चुकी आँखों की चमक फिर लौटने लगीं तो सभी के कान खडे हुए l "आए, समीर, यह क्या हो रहा है ?"-वर्मा जो उनको हम उम्र था बोला l "हाँ भई, हमें भी हवाओं में रची बसी प्रेम की खुशबु आ रही है l" -सोनकर जी ने अपनी आँखों से चश्मा हटाते हुए उन्हें देखकर मुस्कुराकर कहा l "भई ऐसा कुछ भी नहीं है lहम सब अच्छे दोस्त हैं l" "अच्छा ? अच्छे दोस्त हैं बस स स " - यह दूसरे कमरे में माधुरी थी जो कादंबरी को छेड़ रही थीं l "हाँ ,हाँ , भई , अच्छे दोस्त के नाम से ही गालों में लाली छा जाती है l" -यह सुरभि थीं जो बेटों द्वारा इतना तंग की गई थी कि हँसना भूल गई थी lपर आज वह भी खुश थी l "और दिल जो तुम्हारा धाड़-धाड़ बज रहा है l आँखों में चमक आ रही है l और नजर न लगे सेहत भी अच्छी है l "प्यार की कोई उम्र नहीं होती l वस्तुतः व्यक्ति स्वाभाव से ही सामाजिकता चाहता है l वह चाहता है कि लोग उसे समझे जाने और कोई उनमें ऐसा हो जिसके लिए वह खास हो l जिसे देखकर उसका दिल धड़के तो उसे देखकर वह भी गुलाबी हो जाए l यह ईश्वर कि सौगात है l इसे उसी रूप में देखना चाहिए जो देखते हैं वह पार हो जाते हैं l जो नहीं देखते वह घिसट-घिसट कर जीते हैं l खैर साहब बात चली, खुली और दोनों के मना करने के बाद भी सभी वरिष्ठ नागरिकों ने दोनों को विवाह करने कि सलाह दी l शुरुआती हिचकिचाहट और औचित्य के प्रश्नों के बाद बात रब कि मर्जी बन गई l "भई अब तो तुम्हें किसी से इजाजत लेने की जरुरत नहीं है l मैं तुम्हारा कन्यादान करुँगी l"-यह सुशीला ताई थीं, सबसे बुजुर्ग महिला l बहरहाल तैयारियाँ शुरु हुई l रोज नई नई रस्में बुजुर्गो द्वारा सुझाई जातीं और होती l कभी गीत गाये जाते तो कभी देर तक नृत्य होता l पूरा वातावरण मानों स्वर्गलोक जैसा हो गया था l तो जैसा होता है यहाँ भी ग्रहण लगना था, लगा कादंबरी के कर्नल बेटे की शक्ल में l

पहले फोन आया फिर वह खुद ही आ गया l "यह सब क्या है ? आप ऐसा कैसे कर सकती हैं ? वह शांत थीं और बेहद सुलझी हुई आवाज में उन्होंने कहा ,"तुम तो मुझे फालतू सामान की तरह यहाँ फैंक गए थे l फिर तुम क्यों मुझे बता रहे हो कि मैं क्या करूँ और क्या नहीं ?" "अरे पर क्यों ?" आखिरकार वह लाल पीला होता चला गया l पूरा ओल्ड एज होम उस दिन बहुत खुश हुआ और प्यार की राह पर डटे रहने के लिए कादंबरी को विशेष बधाई दी थी सभी ने l

दोनों जमाने की हवा के बिगड़े हुए थे l खासकर बड़ा तो ऐसा था कि उसने अपनी पुत्री का प्रेम विवाह बर्दाश्त नहीं किया था और बेटी से तमाम सम्बन्ध तोड़ लिए थे l पर समीर जी सोच रहे थे कि कौनसा मुझे उसके पास रहना है, उसके पैसे चाहिए ? मैं यहाँ अपनी दुनिया में मस्त हूँ l उससे किसी को क्या एतराज ? पर इंसान सोचता है वही हो जाए तो फिर ऊपर वाले स्क्रीनप्ले राइटर को कौन पूछेगा ? तो एक दिन वही हो गया जिसका समीर जी को डर था l बड़ा वहाँ आ धमका चार-पाँच रिश्तेदारों को लेकर और हंगामा शुरु हो गया l समीर जी ने ही नहीं उनके साथियों ने भी बहुत समझाया कि, "बेटे यह सिर्फ हम लोगों कि जिद है वरना उम्र के तीसरे पड़ाव के आखिर में शादी का कोई औचित्य नहीं है l बस जिंदादिल लोगों के मन उमंगें हैं और कुछ दिन और जी लेने का बहाना है यह सब l "पर साहब वह लड़का नहीं माना तो नहीं माना l पूरा दिन हँगामा चलता रहा l फिर वातावरण भारी भारी हो गया l अंत में अंधेरा घिर आने पर वह समीर जी को लेकर कमरे में बंद हो गया l अंदर उसने न जाने कितना उन्हें अपमानित किया, भोगी, वासना का कीड़ा, नीच, दुष्ट, चरित्रहीन जितना वह अपमानित कर सकता था, उसने किया l अंत में वह यह कहकर कि तुम हमारे लिए मर गए l वहाँ से रवाना हुआ l उसके जाने के बहुत देर बाद तक समीर जी अपने कमरे में ही बुत बने बैठे रहे l जीवन भर में जो नहीं सुना था, वह सारी गंदगी उनके उजले दामन पर वह लगा गया था l उनकी हालत ऐसी हो गई थी कि कोई हाथ भी लगाता तो वह गिर जाते l बहुत देर तक उनके कमरे कि लाइट नहीं जली तो माधुरी ने आवाज दी,"भाई साहब, लाइट तो जला लीजिए l" कोई आवाज नहीं आई तो उसने अंधेरे में कुर्सी पर बैठे समीर जी ने कहा, "आप बच्चों की बात का बुरा मान बैठे l चलो लाइट जलाओ और सबके साथ खाना खाने चलिए l "कहकर उन्होंने लाइट जलाई और समीर जी को देखा l देखते ही वह चौंक गई l उनका सिर एक और लुढ़का हुआ और निर्दोष आँखें खुली हुई थी l माधुरी की चीख ने पूरे ओल्ड एज होम को हिला दिया l सभी जन दौड़ते हुए आए, "क्या हुआ, क्या हुआ ?" सबके आगे कादंबरी थी l सिंह साहब ने हाथ से नब्ज छूकर देखी और सिर हिला दिया l अचानक ही सभी वृध्दों में सन्नाटा छा गया l वातावरण में अपने एक खुशमिजाज, जिंदादिल, हँसने खेलने वाले साथी के यूँ अचानक चले जाने का गम व्याप्त हो गया l कादंबरी सूनी सूनी आँखों से उनके चेहरे को देखती रही l शांत, सौम्य चेहरा जैसे कह रहा हो,"चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम/ यहाँ नहीं तो वहाँ उस क्षितिज के पार मिल जाए हम l

अब ओल्ड एज होम में जिंदगी थम सी गई है l हँसी, खुशी प्रफुल्ल्ता सब चली गई l यंत्रचालित ढंग से सब रहते, मशीनी ढंग से उठते सोते l समीर जी के कमरे में उनके कुसह मेज पर कादंबरी जी सुबह शाम नियम से जाती l उनकी तस्वीर केसामने दिया जलाती, घंटो बैठी रहती गुमसुम सी, उदास lकभी कभी कोई यूँ भी जिन्दगी में आता है कि अपने व्यवहार, बातों और दिल की गहरी छाप आपके व्यक्तित्व पर छोड़ जाता है lफिर चाहे वह पराया ही क्यों न हो l न जाने क्यों यह समाज क नियम हमें भुगतना पड़ता है कि हर एक रिश्ते को नाम दो या फिर लोगों के व्यंग्य बाणों, अपमान का निशाना बनो lक्या ऐसा नहीं हो सकता जिस तरह फूलों की बगिया में ढेर सारे रंग बिरंगे फूलों की खुशबुओं पर सभी का हक है वैसे ही अच्छे इंसान और उसके व्यवहार, गुणों पर सभी का स्वाभाविक हक हो ? और फिर कुछ दिनों बाद कादंबरी जी न जाने कब, कहाँ चली गई यह कोई नहीं जान पाया l ओल्ड एज होम और उदास हो उठा l पर माधुरी विश्वास से कहती,"वह जहाँ भी होगी लोगों में खुशियाँ बाँट रही होगी l" -पर यह कहते कहते न जाने क्यूँ उसकी आँखें भर आती और वह सिसकने लगती l