पुष्पा 2 - फिल्म समीक्षा Dr Sandip Awasthi द्वारा फिल्म समीक्षा में हिंदी पीडीएफ

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पुष्पा 2 - फिल्म समीक्षा

पुष्पा 2 : हमारे विद्रोह और दबे अरमानों का प्रतीक है पुष्पा 

___________________________

" एक व्यक्ति अन्न उगाता है

दूसरा रोटी बनाता है और 

तीसरा उसे खाता है और

बाकी उसे खाते देखते हैं " 

  लेकिन अब वह बाकी दोनों व्यक्ति यह तय करते हैं कि हम अपनी मेहनत से उगी फसल से बनी रोटी खुद ही खाएंगे। यह "पुष्पा"पहले भाग का फलसफा था। जिसमें एक बेहद गरीब मजदूर जिसके पिता का नाम नहीं होता ,उसकी कहानी थी। जिसके पास सिर्फ खोने को जान होती है। तो वह उसी को दांव पर लगाता है और इत्तफाक से हर बार जीतता है। अब यह निर्देशक एन सुकुमार से मत पूछें कि उसने बंदूक से लेकर गाड़ी,बॉम्ब और बातें बनाना कब और कहां सीखा?

कहानी बेहद सामान्य थी लेकिन कोरोना काल में फिल्म डेढ़ सौ करोड़ कमा गई। प्रारंभ में फिल्म मैंने भी नहीं देखी। छह माह बाद देखी। कोई खास असर नहीं था फिर भी कुछ नई किस्म की डेयरिंग जरूर थीं।(यह सुकुमार जैसे सॉफ्ट और धीर गंभीर डायरेक्टर,लेखकों के अंदर तरह तरह की डेयरिंग छुपी होती है,जो वह अपने नायक से करवाते हैं।)

पार्ट वन की आशातीत सफलता के बाद अब पुष्पा टू आई है जिसकी हाइप ऐसी बनाई मानो इसकी प्रतीक्षा पूरा देश वर्षों से कर रहा हो।जबकि ऐसा नहीं है।कई अच्छी फिल्में आपने देखी जिनमें फर्जी, शाहिद कपूर,गदर टू सनी देओल,राजश्री फिल्म्स के सूरज बड़जात्या की ऊंचाइया और विधु विनोद चोपड़ा की बारहवीं फेल आदि कुछ ऐसी अच्छी फिल्में हैं। तो यह बाजार का और उससे ज्यादा रेडिकल समय का प्रभाव है जहां हिंसा और नो रूल वाले नायक जनता की पसंद बन रहे हैं। इस पर जरूर कोई मानविकी विभाग शोध करे कि किस राज्य और किस तबके में ऐसी फिल्में कितना बिजनेस कर रही हैं?

तो चौंकाने वाली यह बात सामने आएगी कि आधुनिक समाज और शहरों में यह फिल्म और अधिक कमाई कर रही है। गांव का अनपढ़ पर तेज तर्रार, "झुकूंगा नहीं" मानसिकता का हीरो शहरों के करोड़ों युवाओं जो आईटी, MBA ,शिक्षक या अस्थाई कर्मचारी बनके सिर झुकाए सुबह आठ बजे काम पर निकलते हैं तो रात आठ बजे थक के चूर घर पहुंच खाना खा सो जाते हैं। जिनके लिए जीवन की खुशियों का अर्थ वीकेंड पर बाहर कुछ खा लेना या कभी कभी फिल्म देख लेना है। उनके सपने,उनकी डेयरिंग मरती जा रही है। बिना बोले , विचार रखे,बस मशीन की तरह काम करना है।एक जैसी रूटीन जिंदगी फिर चाहे आप जयपुर,आगरा,कोल्हापुर हो या मुंबई,हैदराबाद,बंगलुरू।

 पुष्पा प्रतीक बन गया है उनकी दबी भावनाओं, स्वतंत्रता का और अपने बॉस (और उसके भी बॉस) को जवाब देने का। जो हम करना चाहते हैं कर नहीं पाते वह पुष्पा करता है।हमें अंदरूनी संतुष्टि और खुशी देता। यही मानसिकता और सोच ने फिल्म को ब्लॉकबस्टर हिट बना दिया।यह विद्रोह और रेजिस्टेंस ऐसे भी दिखता है कि यह हम होना चाहते हैं।भले ही अपने ऑफिस, बॉस या सोसाइटी में खुलकर बोलने, बात रखने और अच्छे से अच्छे ढंग से काम करने वाले पर ....माहौल और टारगेट का दबाब होने नहीं देता।तो फिर पुष्पा आता है। जो एनिमल फिल्म के नायक जैसा मनोरोगी नायक नहीं बल्कि गंभीर, संवेदनशील और मानवीय भी है।यह निर्देशक की सोच,विजन और क्रिएटिविटी का भी फर्क है।जो सुकुमारन में है वांगा में कम है।

 

 

पुष्पा 2 की कहानी,अभिनय और संगीत ;_

__________________________ अल्लू अर्जुन के रूप में ऐसा नायक है जो स्मगलर है,हिंसक है और पिता का नाम नहीं पता तो इससे और आक्रोश में है। जनता के बीच का है।कहें आदिवासी सा है। और कोई आधुनिकता की निशानी उसके आसपास नहीं। वह स्मार्ट फोन का जमाना नहीं था। बस थी तो ठेठ गांव की बोली और देसी मुहावरे।

कहानी पिछले भाग से आगे बढ़ती है और पुष्पा लाल चंदन के स्मगलिंग सिंडिकेट का बिग बॉस है। राजनीति पर जबरदस्त व्यंग्य किया है कि एक माफिया मुख्यमंत्री को हटा सकता है यदि वह उसकी छोटी सी भी बात नहीं मानता। और बेहद घमंड या कहें अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने वाला एटीट्यूड रखता है।

 बेहद बड़े स्केल पर फिल्म के हर दृश्य को फिल्माया गया है। तकनीक और बैंक ग्राउंड स्कोर ऐसा है कि सिनेमा हॉल में पूरा इंपैक्ट ऐसा पड़ता है मानो दर्शक उसी दृश्य का एक हिस्सा है। हमारे अच्छेवफिल्म निर्देशकों पर भी पीएचडी होनी चाहिए।किस तरह प्रारंभ किया करियर और सीखते सीखते पुष्पा, हम आपके हैं कौन,विवाह,ऊंचाइयां (सूरज बड़जात्या जी), काबुल एक्सप्रेस,कबीर खान,पंचायत,अनूप मिश्रा ने पर्दे से दिलों तक जगह बनाई।

तो कहानी इस बार सौतेले भाई और उसके परिवार की भी है और बाकी भ्रष्ट पुलिस अधिकारी भवरसिंह से फाइट और बाकी दादाओं से निपटने की भी है।

एक सम्पूर्ण कहानी निर्देशक ने पर्दे पर दी है जो तीन घंटे बीस मिनट तक हमें हिलने नहीं देती। गीत से बेहतर संगीत और रिदम है। क्योंकि पता नहीं क्यों हिंदी डबिंग में गीतों को अच्छे गीतकार दे लिखवाया नहीं जाता और नए गीतकार अजीब से शब्द जो धुन और राइम में फिट हो डाल देते हैं तो खूबसूरती गाने की खत्म हो जाती है। जो मूल भाषा में मीनिंगफुल गाना होता है वह साउथ की फिल्म की डबिंग में बेकार हो जाता है। पर अल्लू अर्जुन के निभाई पुष्पा के स्वाभाविक डांस और रश्मिका मंदाना , श्रीलीला के साथ के गाने प्रभाव छोड़ते हैं। निर्देशक सुकुमार और अन्य अच्छी साउथ फिल्में भारत की आत्मा,गांव,देहात और संस्कृति को बताती ही नहीं उसे बेहद मनभावन ढंग से हमारे सामने रखती हैं।

कहीं कोई छोटे कपड़े नहीं बल्कि पूरे भारतीय परिधान साड़ियों की बाहर है। तंजोर,अल्टापट्टू ,कांजीवरम आदि सभी कुछ बेहद आकर्षक ढंग से है। एक भी पाश्चात्य परिधान नहीं।लोक की भाषा और संस्कृति के साथ फिल्म माध्यम की गंभीर समझ पुष्पा और उससे पूर्व बाहुबली,आर आर आर,(राजमौली) जैसी फिल्मों को नई ऊंचाइयां देते हैं। न की स्त्री,एनिमल,जवान जैसी बेहद सामान्य फिल्में।

यह असली और जमीन से जुड़े फिल्म मेकर हैं। उम्मीद है एटली,वांगा रेड्डी जैसे नौसिखिए मेकर सीखेंगे कि बिना वेस्टर्न कहानी और गिमिकस के भी अच्छी फिल्में बनाई जा सकती हैं। संगीत पिछली वाली से थोड़ा कमजोर है पर उसकी कमी बैक ग्राउंड स्कोर और गणेश आचार्य की कोरियोग्राफी के स्टेप्स ने पूरी की है। फिल्म के हिन्दी डबिंग में अल्लू अर्जुन यानि पुष्पा की जो धमाकेदार आवाज आप सुनते हैं वह उनकी नहीं है। उनकी आवाज साउथ इंडियन टच लिए मामूली सी है।

यह कड़क और रौबदार आवाज निकाली है मराठी के अभिनेता श्रेयस तलपड़े की । तकनीक का कमाल है अन्यथा श्रेयस भी मामूली ही आवाज से फिल्में करके फ्लॉप हो चुके हैं।जैसे अभिषेक बच्चन,रणवीर सिंह, करण देओल आदि।

 

   फिल्म क्यो देखें 

________________, इसका सीधा कारण है बेहतरीन निर्देशन, अच्छी कहानी और अल्लू अर्जुन के सामान्य से थोड़ा बेहतर अभिनय के लिए। दूसरे मैं देखता हूं भारतीय संस्कृति,उसके अनगिनत रंगों और खुशी, विट,क्रोध,दयालुता, हुनर,प्रेम, अपनी पहचान के लिए लड़ाई लड़ते एक बेटे के लिए। वैसे बता दूं पुष्पा जैसी ही पिता का नाम के बिना जन्म देने वाली मां के दो बड़े साहित्यकार भी हुए हैं भारत में। किस तरह बेहद गरीबी और अभावों से गटर साफ करती मां ने उन्हें पाला और अवैध संतान के इल्ज़ाम को चुपचाप सहा। और पुष्पा जैसा डॉन,बुलंद तो नहीं पर यथार्थ में एक बेहतरीन लेखक,शिक्षाविद बना। अपनी आत्मकथा लिखी और सगर्व अपनी आई अपनी नानी और अपनी स्थितियों का उल्लेख किया। आम व्यक्ति से बिना किसी गलत राह गए एक मिसाल बने। दृढ़ इच्छाशक्ति और हिम्मत के धनी लेखक के साथ अभी कुछ दिन पूर्व एक विश्विद्यालय की सेमिनार में सत्र की अध्यक्षता की थी।

सहज पर जागरुक और स्वाभिमानी भारतीयों की कहानी कहती यह फिल्म एक ऊंचा स्थान भारतीय फिल्म जगत में बनाने जा रही है।

 बस उम्मीद यह भी है इससे अपराध नहीं बल्कि अपनी बातों को रखना और हमारे जीवन के विविध रंगों को जीना हम सीखेंगे।

    मेरी तरफ से इसे चार स्टार।एक काटा इसलिए की थोड़ा सा कानून और उसकी ईमानदारी की बात होती।यह विचारणीय बिंदु भी है कि हमारे नई सदी और वर्तमान समय के नायक जिसे कहा जाए समाज की दशा और सोच बताते हैं वह अधिकतर नेगेटिव ही क्यों होते हैं?

यह आक्रोश जो अंदर ही अंदर भरा है एक आम व्यक्ति के मन में उसे वह पर्दे पर देख डाइल्यूट कर देता है या .......आगे उसके जैसा खुद करने की कोशिश करते हुए अपना और समाज का नुकसान कर लेता है?

फिल्म में कोई भी मेस,गंदी बात, बेतुकी भूत प्रेत आत्मा नहीं है फिर भी अच्छी फिल्म सुकुमारन ने बना दी है। उन्हें बधाई।

               _____________

डॉ संदीप अवस्थी, जाने माने आलोचक,फिल्म लेखक हैं।आपको देश विदेश से अनेक अवार्ड और सम्मान प्राप्त हैं।

संपर्क 8279272900,7737407061