कोमल की डायरी - 3 - तीन टूक कौपीन कौ Dr. Suryapal Singh द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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कोमल की डायरी - 3 - तीन टूक कौपीन कौ

तीन

तीन टूक कौपीन कौ

                               सोमवार, सोलह जनवरी, 2006

आज फिर सुमित और जयन्ती गाँधीपार्क आए। मैं वहीं टहल रहा था। उन्हें आज वाराही, पसका, राजापुर को देखना था। एक टैक्सी भी उन्होंने कर ली थी। मैं भी उसमें बैठा। गाड़ी बेलसर रोड पर चल पड़ी। झंझरी पार करते ही मैंने गाड़ी रुकवा दी। हम लोग उतर पड़े। उन्हें उपरहर और तरहर का संधिस्थल जिसे 'काँदर' कहा जाता है, दिखाया। उपरहर तरहर से लगभग छः हाथ ऊँचा। उपरहर की मिट्टी लालिमा लिए हुए, पानी पाते ही गल जाती पर सूखने पर काटे नहीं कटती। जयन्ती ने मिट्टी को उठाकर देखा। सुमित को दिखाया। तरहर में नमी अधिक रहती। दूब से पिण्ड नहीं छूटता। बलुही और बलुही दोमट मिट्टी। तरहर पर भी दोनों ने एक दृष्टि डाली। अब तो सब गड्डमड्डु हो गया है पर पहले उपरहर के लोग कार्तिक महीने में नमी बनाए रखने के लिए तड़के ही खेत जोत कर पाटा चला देते। गेहूँ के खेतों की बीस-बीस बार जुताई करके हलुवा बनाते। लोग कहते भरा मिट्टी का घड़ा गिरा देने पर न फूटे तब समझो खेत गेहूँ बोने के लिए तैयार हो गया। सिंचाई के लिए तड़के ही ढेंकुल या पुर चलाने के लिए भागते। उपरहर के लोग यदि गन्ना बो देते तो गर्मी में सींचते-सींचते हलकान हो जाते। नाते-रिश्ते में पहुँचना मुश्किल हो जाता। यदि कोई रिश्तेदार काफी दिनों से न आ पाता तो लोग कहते, 'या तो ऊपर चले गए हैं या गन्ना बो दिया है।' मेरे इतना कहते ही जयन्ती को हँसी आ गई। रूमाल उन्होंने मुख पर लगा लिया। 'तरहर में नमी की कमी न होती। इसीलिए तड़के ही खेत जोत कर नमी बचाने की उतनी ज़रूरत न होती। बिना सिंचाई किए भी कुछ न कुछ हो जाता। गर्मी में दूब यदि न खोद पाते तो खेत दूब से कस जाता, फिर तो बीज लौटाना भी मुश्किल हो जाता। उपरहर में उपज अच्छी होती, तरहर में उससे कम। उपरहर में तड़के उठना ज़रूरी था पर तरहर में उतना दबाव न था। जयन्ती ने दूब का एक गुच्छा उठाया, अपने बैग में डाल लिया। अज्ञेय की 'हरी दूब पर क्षण भर' स्मरण करने लगीं।

पुनः हम लोग गाड़ी में बैठे। गोड़वाघाट पुल पार करते ही मैंने बताया, 'यह टेढ़ी नदी है।' उन्होंने नक्शा निकाल लिया। इसकी सर्पाकार आकृति को देखकर उछल पड़ीं। गाड़ी रुकवाई। 'ज़रूर जैसे काले आदमी को लोग कालिया कह देते हैं, टेढ़ी मेढ़ी बहने के कारण इसको टेढ़ी कहा गया होगा।' 'इसको कुटिला भी कहते हैं।' मैंने जैसे कहा 'तब तो और भी लोगों ने मज़ाक किया है।' जयन्ती के माथे पर बल पड़ गए। 'कुटिल तो धूर्त के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है।' 'वैसे यह नदी धूर्त बिल्कुल नहीं है। धीरे-धीरे बहना इसके स्वभाव में है। बाढ़ इसमें कभी-कभार ही आती है। लोगों को शुद्ध जल पिलाती। साहित्य में गंगा, गोदावरी, नर्मदा, कावेरी की स्तुति भरी पड़ी है। छोटी नदियों को कौन पूछता है? कम से कम आप तो इसका उद्धार कीजिए।' 'क्या आप चाहते हैं कि ये कुटिला पुराण लिखें?' सुमित कह उठे।

'अवश्य, अवश्य, आप अन्तिम आदमी, आम जन की बात करते हैं तो टेढ़ी नदी का क्यों नहीं? टर्की की मियान्डर नदी के नाम पर आप 'नदी विसर्पण' को पारिभाषित करते हैं। यदि टेढ़ी पर खोज पहले हो जाती तो यह तमगा इसे मिल जाता। टेम्स जैसी छोटी नदी को प्रसिद्ध करने वाले तो उसके लोग ही हैं।' 'यह नदी चितौरा ताल से निकलती है?' जेन अपनी नोटबुक बार-बार देखतीं ।

'हाँ, उपरहर और तरहर को काफी दूर तक अलग करती हुई चलती है, कहीं पश्चिम-पूरब कहीं उत्तर दक्षिण बहती हुई।' 'यहाँ किस दिशा में बह रही है?'

'उत्तर पश्चिम से दक्षिण पूर्व।' मेरे कहते ही जेन ने कुतुबनुमा निकालकर देखा। 'बिल्कुल ठीक,' उनके मुख से निकला।

'कभी यह क्षेत्र वनों से ढका था। इसी के बीच चुपके से बहती रही गोंद और सेवार से भरी हुई। अब तो नदियों को भी खरीद ले रहे हैं लोग। कौन जाने यह नदी भी किसी दिन बिक जाए। पशु, पक्षी, मनुष्य पानी के लिए तरस जाएं। काश ! नदियों के भी ज़बान होती ! अपनी पीड़ा वे बता पातीं।'

'आप बहुत भावुक हो रहे हैं भाई साहब?' जेन ने चश्मे को उतार लिया। 'क्या आपको भावुकता से परहेज़ है?'

'नहीं, नहीं परहेज़ जैसी कोई बात नहीं है।'

'नदियों को हम कचराघर बना रहे हैं। गंगा, यमुना जैसी नदियों का पानी इतना प्रदूषित हो गया है कि......।’

'वह तो हम देख ही रहे हैं।'

'टेढ़ी आज जैसी है वैसी ही नहीं थी। किसी समय इसके आसपास घने वन थे शीशम, बेल, जामुन, महुआ, गूलर, बबूल, पीपल, पाकड़, नीम, पलाश, शमी के वृक्षों से भरे हुए। कितना अच्छा लगता रहा होगा नदी का वनों के बीच से निकलना। हिरन चौकड़ी भरते, पपीहा पुकार लगाता, मयूर नाचते, मयूरी उछलकूद करती, कौआ, कबूतर, तिलहटी इधर उधर भागते। गाएँ रंभाती, साँड़ हुंकार भरते। नीलगाएँ झुण्ड के झुण्ड निकलतीं। गर्मी में भैंसें पानी में किलोल करतीं। नदी भी मगन होती, चलो किसी के काम आ रही हूँ।' 

'बड़ा सुन्दर चित्र खींचा आपने। क्यों सुमित, तुम्हें अच्छा लगा?' जेन ने आँखें नचाकर पूछा।

'मैं तो मुग्ध हो गया।' सुमित भी गद्गद् थे।

'यह केवल प्रफुल्लित होने का ही प्रश्न नहीं है। वनों के बीच से नदी का धीरे से निकलना ही मन को मुग्ध कर देता है। पर महत्वपूर्ण है पथरी झील, यहाँ से थोड़ी दूर पर। गोखुर झील है वह?'

'गोखुर झील टेढ़ी में?' जेन आश्चर्य से डूब गई।

'यह हमारी मानसिकता है मैडम। विदेशी उदाहरण हमें अधिक भाते हैं। अपने आसपास फैले ज्ञान को प्रकाशित करने की आवश्यकता होती है। हम यहाँ भी पीछे रह गए। पहले पथरी झील के रास्ते ही टेढ़ी बहती थी। एक बार बाढ़ में गोखुर की परिक्रमा न कर पानी का रेला सीधे बह चला नदी सीधी होकर बहने लगी। पथरी का चक्कर लगाने की आवश्यकता न रही। पथरी का पानी स्थिर हो गया। धीरे धीरे पानी के साथ आई मिट्टी ने तट बन्ध बना दिए। गोखुर के आकार की पथरी झील बन गई। नदी विसर्पण का उत्तम उदाहरण है टेढ़ी, पर हम बच्चों को इसे कहाँ बताते हैं?'

'आप की बात सच लगती है भाई साहब?' सुमित और जेन ने भी सहमति जताई। 'आगे चलें।' कहते हुए तीनों गाड़ी में बैठ गए। खेतों की हरियाली देखकर जेन काफी प्रसन्न हो रही थीं। वे बार बार चश्मा पोछ कर देखतीं। चंदहा पार करते हुए मैंने बताया, 'यह भी छोटी सी नदिका समझें। यहाँ इसे चंदहा कहा जाता है।' गाड़ी भागती रही। थोड़ी ही देर में रगड़गंज चौराहे पर आ गए। जेन ने चाय पीने की इच्छा जताई। एक दूकान पर खड़े-खड़े हम लोगों ने चाय पी। बाजार को एक नजर देखा। निरन्तर लोगों का आना जाना लगा रहा। चारपहिए की गाड़िया भी काफी दिखीं। आगे निकले। आदमपुर, उमरी होते हुए जैसे ही गाड़ी वाराही की ओर मुड़ी, एक डाक्टर साहब अपनी गाड़ी में बाराही का दर्शन कर लौटते हुए दिखे। आज सोमवार था। शुक्र और सोम को वाराही मंदिर पर भीड़ होती है। नगाड़े की थाप के साथ ही भजन कीर्तन की आवाजें भी सुनाई पड़ने लगीं। जेन और सुमित दोनों उत्सुक हो उठे। 'कड़कड़धम, कड़कड़धम' यह नगाड़े की आवाज़ है मैंने बताया। मंदिर में दर्शनार्थियों की भीड़। लोग परिक्रमा कर प्रसाद अर्पित करते। महिलाएँ अधिक। हम तीनों ने प्रसाद लिया। आगे आगे मैं, पीछे जेन और सुमित। जेन हर बात को बारीकी से देखतीं और मेले में उपस्थित जन भी जेन को आश्चर्यमिश्रित उत्सुकता से देखते। हम लोग प्रसाद चढ़ाकर बाहर आ गए। इसी बीच दो कारें आकर रुकीं एक बोलेरो, दूसरी स्कार्पियो । दोनों से कुछ नेता नुमा लोग निकले। उसमे एक ढक्कन जी से मैं परिचित था। उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया, किनारे ले गए, पूछा 'ये चिड़िया कैसे साथ में?' 'चिड़िया नहीं शोधकर्ता हैं'; मेरे इतना कहते ही वे मुड़े, प्रसाद खरीदा और चढ़ाने चल पड़े।

         प्रमुख नेता ने सौ रुपये का नोट पुजारी को पकड़ाया। पुजारी गद्गद् । वाराही देवी को नमन कर जनता पर एक दृष्टि डाल प्रणाम की मुद्रा बनाते हुए वे गाड़ी में बैठे और फुर्र हो गए। मेरा मन बौखला उठा था। सुमित और जेन ने भी मेरी स्थिति को भाँपते हुए पूछ लिया, 'क्या हुआ भाई साहब ? आप कुछ.......?'

'ये नेता जी चार सौ ट्रक गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों के लिए आवंटित गेहूँ नम्बर दो में बेच वाराही की परिक्रमा करने चले आए। बगल में गब्बन मियाँ थे। दोनों का यही धन्धा है। जाते हुए किसी मज़ार पर चादर चढ़ाएंगे।' जेन को समझने में कुछ दिक्कत हुईं। सुमित ने उसका रहस्य बताया तो बहुत दुःखी हुई। 'कैसे बनेगा देश?' उसने पूछा।

'जैसे बन रहा है', कहते हुए मेरी आवाज़ भी भर्रा गई थी। जेन ने पानी की बोतल निकाली। दो घूँट पिया, तभी एक चमचमाती चार पहिए की गाड़ी से चार आदमी उतरे। इसमें एक आदमी की पत्नी जिला पंचायत अध्यक्ष पद पर चुन ली गई हैं। उसने लपक कर एक आदमी से हाथ मिलाया।

'बड़ी मुश्किल से सफलता मिल पाई।'

'काम कठिन था ही', उस व्यक्ति ने हुंकारी भरी।

'वाराही देवी का आशीर्वाद ले लूँ।'

'ज़रूर ज़रूर। कुल कितना खर्च हुआ?'

'यह न पूछो।'

'लोग करोड़ों की चर्चा करते हैं।'

वह मुस्कराया। हम लोगों की ओर एक नज़र देखा और देवी मंदिर की ओर बढ़ गया। 'गद्दी पर बैठने भर की देर है। सब अदा समझो, करोड़ तो दाएँ बाएँ पड़े मिलेंगे।' साथ आए आदमी ने गर्व के साथ कहा।

'इनका सूत्रधार कोई और है। पैसा किसी और ने लगाया है। लाभ भी वह लेगा ही।' मैंने जेन को बताया ।

'पर बजट जनता की कमाई का है। उसे जनहित में खर्च किया जाना चाहिए। उस पैसे के साथ इस तरह खिलवाड़?'

'अपनी जेब में जाना ही जनहित है।' कहकर सुमित मुस्करा उठे। तब तक अध्यक्षपति प्रसाद चढ़ाकर लौट चुके थे। एक नज़र जन समूह पर डाल वे गाड़ी में बैठ गए। गाड़ी चल पड़ी।

वाराही से सटा हुआ एक बरगद का पुराना पेड़ है। दो वृद्ध स्त्री-पुरुष आए। बरगद के पत्ते को तोड़कर उसके दूध को अपनी आँखों में लगाया।

'ये लोग दूध को आँख में क्यों लगा रहे हैं?' जेन ने पूछा।

'इनकी आस्था है कि इससे आँखें ठीक हो जाएंगी। वे देखने लगेंगे।'

मैंने जेन को बताया।

'क्या सचमुच इनकी आँखें ठीक हो जाएंगी?'

'कह नहीं सकता पर आस्था है जैसे आपने प्रसाद चढ़ा दिया।' जेन का समाधान न हुआ। जेन उन वृद्धों के पास चली गईं। वे कुछ सहम गए। बच्चों ने घेर लिया।

'आप आँख की दवा क्यों नहीं करते?'

'अस्पताल जाओ तो कहते हैं आपरेशन कराओ। आपरेशन में पैसा लगता है। हमारे पास पैसा नहीं है।'

'कितना माँगते हैं लोग?'

'दो हजार एक आँख के आपरेशन का। यह भी सुना है कि दस-बारह हजार लगता है।'

'सरकारी अस्पताल में क्या इनका मुफ्त इलाज नहीं हो सकता?' जेन ने पूछ लिया। 'सरकारी अस्पतालों में सरकारी अधिकारियों, नेताओं पर ही अधिक खर्च हो जाता है। गरीबों के लिए अधिक नहीं बच पाता। बिना पैसा लिए कोई भी सरकारी या गैर सरकारी डाक्टर दवा भी तो नहीं करता। अभी अभी एक डाक्टर प्रसाद चढ़ाकर लौटते हुए मिले थे। अस्पताल के अन्दर बिना पैसा लिए किसी को हाथ नहीं लगाते।' 

'चैरिटी संस्थाएँ?'

'वे अधिक नहीं हैं। उनकी सेवा भी बहुत ठीक नहीं है। निःशुल्क शिविर भी लगते हैं पर उनकी सफलता का प्रतिशत अच्छा नहीं है। इसीलिए लोग डरते हैं।' 'क्या इससे तुम्हारी आँखें ठीक हो जाएंगी?' जेन ने वृद्धों से पूछ लिया। '

देवी जी चाहेंगी तो ज़रूर ठीक होइ जाई।' वृद्ध का उत्तर था। जेन की आँखें भर आई थीं। उन्होंने चश्मा उतार कर आंखों को पोछा। सुमित खड़े देखते रहे। जेन ने पर्स से सौ रुपये का एक नोट निकाला। वृद्ध को देने लगीं।

'हाथ-पाँव अभी साबुत हैं। भीख न चाही बिटिया। देवी आपका भला करें।' कहकर बिना रुपया लिए दोनों चल पड़े।

'अनेक तीर्थों में माँगने वालों की भीड़ लग जाती है पर ये वृद्ध।' जेन चकित थीं।

'समाज में तरह तरह के लोग होते हैं। लूटने वाले कहाँ नहीं मिलते? पर सामान्य व्यक्ति दान या भीख पर जीना नहीं चाहता। मुझे भी वृद्धों के स्वाभिमान पर खुशी हुई।'

जेन की आँखें करुणा सागर में गोता लगा उबरने का प्रयास कर रही थीं। वृद्ध के गौरव बोध से जेन भी बँध गई थीं। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा तो एक किशोरी दो पूड़ी सब्जी के साथ उपस्थित थी। उसने संकोच से कहा, 'प्रसाद'। जेन भी संकोच में थीं। 

मैंने कहा, 'लीजिए, प्रसाद खा पानी पीजिए।' बालिका की माँ तीनों को देख रही थी। वही बालिका दौड़कर मेरे और सुमित के लिए भी 'पूड़ी-प्रसाद' ले आई। एक आम के पेड़ के नीचे हम तीनों खड़े थे। तीनों ने प्रसाद पान किया। जल पीकर जैसे ही हम खड़े हुए बालिका पुनः आ गई। जेन से कहा, 'माँ ने बुलाया है।' जेन ने मुस्कराकर उसकी माँ की ओर देखा। दोनों की मुस्कराहट ने एक दूसरे की ओर खींचा। जेन के पाँव उस महिला की ओर बढ़ गए। दोनों ने हाथ जोड़कर एक दूसरे को प्रणाम किया। महिला का सौन्दर्य अद्भुत था। उसे देखकर जेन भी प्रभावित हुईं।

'आप बाहर की लगती हैं।' महिला मुस्करा उठी।

'हाँ, आप का अनुमान ठीक है। मैं जे.एन.यू. की छात्रा हूँ।'

'यहाँ कैसे ?'

'आप ही को पढ़ने आ गई।' जेन हँस पड़ी।

'मुझे पढ़ने ?'

'हाँ आपके संस्कार, जीवन को जानने ।'

'क्या करेंगी इसे जानकर?'

जेन को पुनः हँसी आ गई। 'डिग्री एक लक्ष्य तो है। पी.एच.डी. तो बिना आए भी मिल जाती। पर मन कुछ जानने, देखने के लिए ललक उठा। यह भी नहीं जानती क्या करूँगी इसका? तुम्हारा सवाल मुश्किल है।' 'मैंने भी दिल्ली से ही बी.ए. किया था।'

'यहाँ कैसे आ गईं।' जेन चौंक पड़ीं।

'यहीं पड़ोस के लोग दिल्ली में रहते थे। मेरी शादी भी दिल्ली में ही हुई थी। उनके दादा-दादी यहीं गाँव पर रहते थे। दादी का देहान्त हो गया तो मुझे आना पड़ा। आखिर दादा जी को दो रोटी कौन देता?' 

'क्या दादा जी दिल्ली जाने के लिए तैयार नहीं हुए?'

'नहीं, वे गाँव नहीं छोड़ना चाहते। पाँच बीघा ज़मीन है। घर है, गाँव जँवार का रिश्ता है।'

'पर तुम्हारी सास भी रह सकती थीं।'

'वे कुछ अस्वस्थ रहती हैं। दिल्ली में दवा पानी आसानी से हो जाती है। यहाँ दिक्कत पड़ती। "तुम्हें दिक्कत नहीं पड़ती मुझे क्यों दिक्कत पड़ेगी? जाने क्यों गाँव मुझे बचपन से ही लुभाता था। मेरे मैके का गाँव सुल्तानपुर में पड़ता है। जब यहाँ रहने की बात आई तो मेरे ससुर जी हिचकिचा रहे थे। मुझसे कह नहीं पा रहे थे। मैंने उनकी परेशानी को भाँप लिया। मैंने ही प्रस्ताव रखा कि मैं जाऊँगी दादा जी के साथ रहने गाँव में। मेरे इस निर्णय पर ससुर की आँखें छलछला आई थीं। घर स्वार्थ से नहीं त्याग से चलता है बहन जी।' कहकर महिला ने सांस ली। 'अपना ही स्वार्थ देखोगे तो घर कैसे चलेगा? मेरी एक सहेली दिल्ली में रहती है। कभी-कभी फोन से बात हो जाती है। अपनी महत्वाकांक्षा के कारण परेशान रहती है।'

'महत्वाकांक्षा व्यक्ति को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित भी करती है।'

'पर अपनी महत्वाकांक्षा के लिए घर, परिवार, समाज, देश सब को दाँव पर लगा देना क्या ठीक है? हम सद्भावना से भी समस्याओं का हल निकाल सकते हैं।' 'ठीक कहती हैं आप। एक बात पूहूँ?'

'हाँ, हाँ, पूछो।'

'तुम्हारे उनका नाम क्या है?'

'प्रदीप ।'

'उन्हें नाम लेकर पुकारती हो?'

'दिल्ली में बहुत से घरों में यह रिवाज़ है। हमारे परिवार में यह रिवाज़ नहीं है। यहाँ गाँव में भी नाम लेकर पुकारने का रिवाज़ नहीं है।'

'आप बातचीत में बहुत कुशल हैं।'

'दिल्ली में पढ़ी हूँ। कुछ तो असर होगा ही।'

'पर गाँव में सामंजस्य?'

'बताया नहीं, अपना ही स्वार्थ मत देखो। दूसरों के दुःख दर्द में भी शामिल हो तो सामंजस्य बिठाने में उतनी कठिनाई नहीं होगी।' 'आप गाँव में भी शिक्षामित्र क्यों नहीं बन गईं?'

'अब गाँव में भी इण्टर पास लोग मिलते हैं। किसी को मिल ही जाता है। मैंने आवेदन ही नहीं किया। सब कुछ मुझे ही मिल जाए यह मैं नहीं सोचती। गाँव में कुछ औरतें मुझसे पढ़ना लिखना, बुनना सभी कुछ सीखती हैं। इसी में रस मिलता है।' 'संगमरमर की फर्श वाले घरों में रहने की इच्छा नहीं होती?'

'ऐसी अपेक्षाएँ पालने की ज़रूरत नहीं समझती। बुद्ध कहते थे न, आनन्द अन्दर से उत्पन्न होता है।'

'गाँव में तो आप देश दुनिया की खबरों से कट जाती हैं?'

'इसकी पूर्ति रेडियो से हो जाती है। मैं पूरी तरह संतुष्ट हूँ।'

'और उनका अभाव?'

'वह भी समय निकालकर आते रहते हैं। आखिर सैनिकों की पत्नियाँ कैसे रहती हैं ?'

'बड़ी साहसी हैं आप।'

'और आप? इतनी दूर चली आईं बिना साहस के ही।' दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ीं। अनेक आँखें इन्हीं पर गड़ गईं।

'आपके वो कहाँ हैं ?'

'अभी तो उनकी तलाश है ?'

'क्या ?'

'हाँ सच कह रही हूँ।'

'आपका नाम ?'

'जयन्ती, पर जेन भी कहते हैं।' जेन ने अपना कार्ड दिया।

'पर आपका नाम ?'

'दीपा।' जेन ने पता नोट कर लिया।

'अच्छा चलती हूँ। समय मिला तो फिर कभी भेंट होगी।'

दीपा ने जेन का हाथ अपने हाथ में लेकर दबा लिया। थोड़ी देर एक दूसरे का हाथ थामे खड़ी रहीं, जैसे आत्मीयता को अन्दर ही अन्दर आत्मसात कर रही हों।

'अच्छा, चलें।' जेन ने कहा।

'हाँ चलिए, राम राम।' दीपा की आँखों ने बहुत कुछ कहा। जेन ने भी अनुभव किया।

थोड़ा ठिठकीं, पाँव हम दोनों की ओर बढ़ गए। हम दोनों गप्प लड़ाने में व्यस्त थे। जेन के चेहरे को पढ़ते हुए मैंने कहा, 'आप बहुत गम्भीर हो गईं।' 'कभी-कभी ज़िन्दगी का सच मन को झकझोर देता है। एक यह महिला है दादा जी की सुविधा के लिए दिल्ली से गाँव आ गई। एक मेरे दादा थे। गाँव छोड़ गए। क्या इसी को भुलाने के लिए महानगरों में शेम्पेन की ज्यादा ज़रूरत पड़ती है ?'

'महानगरीय घरों के बच्चे शायद ज्यादा आज़ादी चाहते है।'

'पर वह आज़ादी कभी अच्छी लगती है कभी. I'

'हर चीज़ का अतिरेक कहीं कचोटता है। इसीलिए आज़ादी में भी एक अनुशासन की बात की जाती है।' सुमित जो अभी तक मुस्कराते रहे, बोल पड़े, 'हर समाज अपने अपने ढंग से आज़ादी और अनुशासन की सीमा रेखा तय करता है। इसीलिए एक समाज के रीतिरिवाज़ दूसरे से भिन्न हो जाते हैं।'

'चला जाए।' मैंने कहा।

'हाँ चलो चलें।' जेन भी आगे बढ़ीं और तीनों गाड़ी में बैठ गए।

पसका में वराह मंदिर, नरहरि कुटी तथा तुलसी की जन्मभूमि राजापुर देखना था। गाड़ी पसका की ओर मुड़ गई। बनुआँ में बांध को पार किया। सड़क के किनारे कुछ दूकानें दिखीं। गाड़ी चलती रही। छोटे-छोटे पुरवे। पौष पूर्णिमा का मुख्य पर्व कल ही था। आज भी मेलार्थियों की भीड़। गाड़ी दूर ही छोड़नी पड़ी। हम तीनों पैदल सरयू तट पर पहुँचे। अनेक कल्पवासी कुटिया बना कर रह रहे थे। संगम पर घाघरा का सोता सरयू में आकर मिल जाता है। इसी से इसे संगम कहा जाता है। एक महीने कल्पवास की प्रथा देखकर जेन जैसे किसी दूसरे लोक में पहुँच गईं। त्याग, संन्यास उपभोक्तावादी समाज से कितने दूर होते जा रहे हैं?

'संगम में स्नान कर सकेंगी?' मैंने जेन से पूछ लिया।

'कत्तई नहीं।'

'मेरा मन इस जल से आतंकित है। आस्था के बल पर यहाँ आने वाले भले ही स्नान कर लेते हैं पर मेरा मन...।'

पौष पूर्णिमा को संगम का यह मेला हर वर्ष पसका में लगता है। दूर दूर से श्रद्धालु यहां स्नान करने आते हैं। लाखों की भीड़। यहाँ महीने भर कल्पवास करने की प्रथा है। आस-पास के ही नहीं, दूर-दूर से आकर लोग यहाँ अपनी दूकानें सजाते। आसपास की जनता वर्ष भर के लिए बहुत सी सामग्री खरीदती। साधु संन्यासी भी जुटते। राजनीतिक दल अपने-अपने पंडाल सजाते। अनेक स्वयंसेवी संस्थाएँ आयोजन करतीं। संगोष्ठियों, बिरहा, कवि सम्मेलन का आयोजन होता है। बाइसकोप, झूला, सिनेमा तरह तरह के मनोरंजन के साथन। बच्चे, बूढ़े, जवान सभी मेले को लेकर उत्साहित । आसपास के गाँवों में नाते-रिश्तेदार मेले के अवसर पर आते। नातेदारी भी निभाते और मेले का भी आनन्द उठाते। जिसके घर कोई रिश्तेदार न आ पाता उसका चेहरा उदास हो उठता। गाँवों के लोग मेले की तैयारी करते। राशन ईंधन सब कुछ सजोगते। पहले तो गाँवों से छम छम करती बैलगाड़ियां आतीं। महिलाएं गाते हुए मेले में पहुँचतीं। अब दो पहिया चौपहिया का ज़माना आ गया है पर अब भी पैदल आने वालों की संख्या अधिक होती है। पहले तो पैदल आने वालों का ताँता कई दिन टूटता ही नहीं था- कंधे पर कंबल, सिरपर गठरी हाथ में सोंटा लिए तेज़ चाल से चलते स्त्री-पुरुष, बच्चे। आसपास के गाँवों से तेलियानी लाठी हाथ में लिए आने वाले नवयुवकों में कमी आई है। 

मोबाइल कान में लगाए युवक भी मेले में दिखते हैं। एक जेब में कट्टा दूसरे में मोबाइल, कुछ-कुछ नाटकीय शैली देखकर जेन को हैरानी हुई। सुमित मुस्कराते रहे। बगल ही एक शामियाने में नृत्य हो रहा था। एक बालिका गा रही थी- उइ गइ बेरिनि जोन्हइया मैं का करौं ? दर्शकों की तालियां निरन्तर बज रही थीं। लोकगीतों की यह प्रस्तुति सुमित और जेन को भी गुदगुदा रही थी। सुमित की रुचि लोक साहित्य में अधिक है। वे बोल पड़े एक तरफ यह नकटा और दूसरी ओर जांता गीतों की वेदना। वे गुनगुना उठे-

'हमरी ई बिपति गठरिया मोरे बिरना, नदिया मा दिही पौराई हो रामा।'

'लोक का सही बिम्ब तो लोकगीतों में ही झलकता है।' जेन ने टिप्पणी की। हम लोग वराह मंदिर की ओर बढ़े। रास्ते में एक दूकान में इमरती छन रही थी। 'एक एक इमरती खाया जाए' सुमित ने कहा। हम लोग रुक गए। दूकानदार ने दोने में एक एक इमरती दिया। जेन अब भी हिचकिचा रही थीं। 'खाइए' मैंने कहा, 'इससे कोई संक्रमण नहीं होगा।' वे खा गईं। पानी पीकर हम लोग आगे बढ़े। एक बरसोला बेचने वाले की दूकान पर भीड़ थी।

'अतिथियों के जलपान के लिए इसे खरीद कर रखा जाता है, सालों ख़राब नहीं होता। है तो यह गट्टा का बड़ा भाई ही।'

वराह पर प्रसाद चढ़ाने का कार्य पौष चतुर्दशी को ही होता है, पौष पूर्णिमा के एक दिन पहले। आसपास के गाँवों के नर नारी आते हैं। क्षेत्र के लोगों का जुटाव इस दिन अधिक होता। हम लोग वराह मंदिर की ओर चल पड़े। दूकानदार अपनी दूकानें सजाए हुए हम लोगों की ओर देखते रहे। मेलार्थियों की भीड़ आज भी काफी थी। दूकानदार और कल्पवासी मौनी अमावस्या तक संगम तट पर बने रहने के लिए कटिबद्ध ।

'आस्था आदमी को कहाँ पहुँचा देती है ?' जेन कह गईं। 'बिना आस्था के क्या आदमी जी सकेगा ?' मेरे इतना कहते ही जेन जैसे चौंक पड़ी। 'आस्था की भूमि पर ही आदमी निश्चिन्तता से खड़ा हो सकता है। हम किसी की आस्था का मज़ाक तो उड़ा सकते हैं पर आस्था के बिना जी नहीं सकेंगे।' सुमित ने भी समर्थन कर दिया।

वराह मंदिर को देखकर मन थोड़ा निराश हुआ। बताया गया कि मुख्य मूर्ति चोरी हो गई थी। बरामद तो हुई पर गोण्डा मालखाने में पड़ी है। मंदिर में छोटी छोटी मूर्तियां थीं। 'आखिर वराह और वाराही की मूर्तियाँ क्यों स्थापित हुईं?' जेन से न रहा गया। 

'वराह विष्णु का तीसरा अवतार है। इसकी आदि शक्ति ही वाराही हैं। हिरण्याक्ष से त्रस्त धरती को विष्णु ने वराह के रूप में मुक्ति दिलाई।' सुमित ने स्पष्ट करने का प्रयास किया।

वराह मंदिर के निकट ही नरहरि दास की कुटी है। 'नरहरि ने ही तुलसी को राम कथा बचपन में सुनाई थी- 'तब मैं रह्यो अचेत।' जेन ने सूत्र पकड़ लिया।

'नरहरि से शायद कोई वोट बैंक नहीं जुड़ता इसीलिए जीर्ण-शीर्ण कुटिया.......।' सुमित उसे वर्तमान से जोड़ने लगे।

'इस क्षेत्र में वराह और वाराही का अधिक प्रभाव है। इस पूरे क्षेत्र को ही सूकरखेत कहा जाता है।' मेरे बताते ही जेन ने प्रश्न कर दिया, 'सूकरखेत ?'

'सूकरखेत को शुद्ध रूप में सूकरक्षेत्र कहते हैं।' सुमित ने बताया। वहाँ से निकलते हुए तुलसी मंदिर राजापुर पहुँचे। राजापुर में तुलसी पैदा हुए थे। उनके पिता आत्माराम दूबे को आज भी दूबे परिवार की स्त्रियां शादी-विवाह में न्योतती हैं। तुलसी के समय का गोनर्द कैसा रहा होगा ? कह पाना मुश्किल है ? सरयू के किनारे का क्षेत्र माझा कहा जाता है। लोग 'गए थे,' को 'गैनि रै' बोलते हैं। ठेठ अवधी में तुलसी का 'रामलला नहछू,' यहाँ के रीतिरिवाज़ की गवाही देता है।'

'तुलसी के चित्र दाढ़ी मूँछ सफाचट मिलते हैं पर इस मूर्ति में तुलसी दाढ़ी रखे हुए हैं।' सुमित ने नोट किया। 'यह भवन ?' शासकीय अनुदान से बना है' मैंने बताया। 'पर यह तो अभी से टूटने लगा। फर्श तो धँस गई है।' जेन फर्श को पैर से दबा कर देखने लगीं। निकट ही एक विद्यालय चल रहा था। जेन स्कूल की ओर चली गईं। अध्यापकों ने उनका स्वागत किया। बच्चे बच्चियाँ भी खुश दिखे। जेन ने बच्चों से तुलसी की कोई चौपाई सुनाने के लिए कहा। केवल तीन बच्चियाँ ही सुना पाईं। राम की माता का नाम पूछने पर जैसे एक बच्चे ने 'मन्दोदरी' कहा, सभी लोग ठठाकर हँस पड़े। अधिकांश बच्चे राम की माता का सही नाम नहीं बता सके। क्या घरों से भी रामकथा विस्थापित हो रही है ? जेन सोचने लगीं। 'दादी नानी अब कथाएँ कहाँ कहती हैं ?' उनकी जगह दूरदर्शन आ गया है अधिक चमक के साथ। यहाँ के गाँवों में बिजली का अभाव है पर जो थोड़े भी समर्थ हैं उनके घर बैटरी से चलने वाला टीवी आ गया है। शादी-विवाह में भी टीवी की अपेक्षा की जाती है। मास्टर साहब ने बताया। जेन ने अपने बैग से टाफी का पैकेट निकाला। मास्टर साहब को बाँटने के लिए दिया और हाथ उठा 'राम राम' कहती निकल आईं।

सुमित के साथ मैं माझा का विहंगावलोकरन कर रहा था। पगडंडियाँ आगे जाने के लिए ललचातीं पर हम आगे नहीं बढ़े। एक सज्जन ने आत्माराम दूबे का टेपरा दिखाया जिस पर कुछ लोग खेती कर रहे हैं। जेन ने भी आकर बंधे से माझा का दृश्य देखा।

'तुलसी सात हुए हैं', सुमित के कहते ही जेन चौंक पड़ीं। 'मानसकार तुलसी का गाँव है राजापुर। विद्वान हनुमान चालीसा को दूसरे तुलसी का बताते हैं जो तुलसीपुर के निकट भवनियाँपुर के निवासी थे। मानसकार की जन्मभूमि राजापुर बाँदा और सोरों जिला एटा मानने वाले भी हैं। अन्तःसाक्ष्यों के आधार पर अब राजापुर गोण्डा को अधिक मान्यता मिलने लगी है।' सुमित जोड़ते गए।

'तुलसी को यहाँ के लोगों ने कैसे देखा होगा ?' जेन जानने को उत्सुक थीं।

'घर का जोगी जोगड़ा आन गाँव का सिद्ध।' बाहर मान्यता मिलने पर ही भीतर मान्यता मिल पाती है। क्या रवीन्द्रनाथ के साथ यही नहीं हुआ? तुलसी यहाँ के लिए 'राम बोलवा' ही रहे होंगे। वही छुटपन में लच्ची डांड़ी, बैजल्ला खेलने वाला। गाँव वालों ने उसके साथ कैसे व्यवहार किया ? इसे कौन बताए? तुलसी की पत्नी रत्नावली का घर कचनापुर भी डेढ़ कोस पर ही है। पर गृहस्थी बहुत दिन चल कहाँ पाई ?'

'थरे तुलसिया नाँउ' में क्या अन्दर की पीड़ा नहीं कसकती है? जेन कुरेदती रहीं।

'भीतर का दर्द तो जगह जगह छलकता है। जहां 'सोने के थारी में ज्योना परोसेउं' निरन्तर गाया जाता है, वहीं 'जानत हों चार फल चार ही चनन कौ' का निहितार्थ भी समझना होगा। आमजन की कठिनाइयाँ क्या अब भी कम हुई हैं?' सुमित पूछ बैठे।

'आमजन की कठिनाइयाँ समर्थ कहाँ देखते हैं ? उनके बच्चे असफल होने के लिए पैदा होते हैं। वंचितों की दुनिया ही अलग होती है सुमित।' जेन कह गईं।

'लगता है शोधार्थियों में भी संवेदना उग रही है।' मेरे इतना कहते ही जेन और सुमित ठठा कर हँस पड़े। एक आदमी बंधे पर ही पैदल आ रहा था। हम तीनों को बाहरी

समझ पूछ बैठा, 'कहाँ ज़ाइका है साहब ?'

'यहीं तुलसी की जन्मभूमि देखने आए हैं।' सुमित के मुख से निकला। 'सब कहत हैं तुलसी बाबा हियै पैदा भए रहा। कबौ कबौ यही पेड़ के नीचे पंचाइत जुटत है। राम चार्चा होइ जात है। तुलसी बाबा के तो कोई रहि नाहीं गा। मुला बाबा कै नाउ चलत है। बाबा अयोध्या, काशी, चित्रकूट जहाँ मन भावा रहे।' 'आपने कितना पढ़ा ?' जेन ने पूछ लिया।

'दुइ किताब पढ़ा रहा। मुला सब भूलिगा। जब तौ चिट्टी-पत्री नाहीं बाँचि पाइत।' कहकर व्यक्ति मूछों में ही मुस्करा उठा। 'क्या नाम है बाबा ?' मैंने पूछ लिया।

'नाम का करबौ बाबू ? कहूँ गवाही तौ नाहीं देइका है ?'

'गवाही देने से डरते हो क्या ?'

'हाँ बाबू गवाही मा बड़ा झंझट है। नाउ तौ बिजलेसरी है मुला सब बिजुली कहत हैं। हुकुम देव, चली।' बिजुली ने सोंटा कंधे पर रखा और आगे बढ़ गए। कुछ कदम जाते ही गा उठे-

'कौनो ठगवा नगरिया लूटल हो। कौनो ठगवा........।'

'आध्यात्मिक नहीं, शुद्ध भौतिक रूप में भी यह पद कितना सटीक है इस समय ।' सुमित बुदबुदा उठे। कहा, 'चलो चलें।' तीनों आकर गाड़ी में बैठ गए। परसपुर के रास्ते गाड़ी चल पड़ी। मेरे मन में तुलसी का एक दोहा कौंध रहा था, कह उठा- 

             तीन टूक कौपीन कौ अरु भाजी बिन लौन।

             हृदय बसत रघुवीर छवि, इन्द्र बापुरो कौन ?

'इसी गोनर्द के अनीराय भट्ट मुगलों के दरबारी कवि बने। घाघ भी अकबर की कृपा पा गोंडा छोड़ कन्नौज चले गए थे, 'गलगल नेबुआ और घिउ तात' को साकार करने। तुलसी न किसी के आगे झुके, न किसी का आश्रय ढूँढ़ा। छाँह चाही तो केवल रघुवीर की।' मैंने सुमित और जेन से कहा। 'तुलसी साहित्य का पुनःपाठ कई दृष्टियों से किया जा रहा है पर लेखकीय स्वतंत्रता की रक्षा में उनका योगदान हर युग के लिए प्रेरणाप्रद है।' सुमित ने जोड़ दिया। 'तीन टूक कौपीन कौ अरु भाजी बिन लौन' का मर्म जेन भी बाँचती रहीं।

'तुलसी को क्या कम सहना पड़ा ? उस मनोदशा को पढ़ने की ज़रूरत है जिसमें उन्होंने लिखा था- 'धूत कहो अवधूत कहो, रजपूत कहो जोलहा कहो कोऊ ?' सुमित से इतना सुनते ही जेन जैसे कराह उठीं, 'कितना कम जानते हैं हम तुलसी को ?' उन्होंने अपना चश्मा उतारा, पोछने लगीं। पूछ बैठीं, 'घाघ का भी क्षेत्र यही है ?' 'हां', सुमित ने कहा। 'तुलसी और उनकी वंश परम्परा एक है। अकबर से तेरह और तुलसी से दो वर्ष बड़े थे घाघ। खेती-किसानी, मौसम के विशेषज्ञ, लोक जीवन के अनुभव से भरपूर, वे समाज के मार्गदर्शक थे। उनकी कहावतें आज भी कही सुनी जाती हैं। उनके अनुभवों से लाभ उठा रहे हैं लोग क्यों कोमल भाई ?'

'हाँ', ठीक सोचते हैं आप।' मैंने कहा। सुमित घाघ का एक छन्द गुनगुनाने लगे-

                  घर कै खइहंस जर कै भूख। 

                  छोट दमाद बिरर भै ऊख। 

                  नसकट पनहीं बतकट जोय। 

                  जौ पहिलौठी बिटिया होय । 

                  पातर खेती भकुआ भाय।

                 घाघ कहें दुख कहाँ समाय ?

'घाघ भी पहली 'बिटिया' का स्वागत नहीं करना चाहते।' जेन बोल पड़ीं।

'घाघ में यह तात्कालिक समाज बोल रहा है।' सुमित ने उत्तर दिया।

'सुखी गृहस्थी के बारे में घाघ की दृष्टि क्या है? जान लो, काम आएगी।' सुमित ने हँसते हुए कहा।

'सुखी गृहस्थी क्या जेन को ही चाहिए सुमित को नहीं?' जेन कुलबुला उठीं। मुझे दोनों की नोकझोंक में रस आ रहा था। सुमित काव्यपाठ अच्छा करते हैं। उन्होंने पढ़ना शुरू किया-

                 भुइयाँ ग्वैइड़े हर होइ चार। 

                 घर होइ गिहथिन गऊ दुधार। 

                 अरहर दाल जड़हनेक भात। 

                 गलगल नेबुआ और घिउ तात। 

                 खाड़ दहिउ जौ घरमा होय। 

                 बांके नयन परोसे जोय।

                 कहें घाघ तब सब ही झूठा। 

                 हुआँ छाड़ि हैं ही बैकुण्ठा।

घाघ की पतोहू भी अपने अनुभव छन्दोबद्ध करती थी। कहीं कहीं उसने घाघ के प्रश्नों का उत्तर दिया है। मेधावी थी वह भी।' सुमित ने जोड़ा।

'लाल बुझक्कड़ भी घाघ के समकालीन बताए जाते हैं' मैंने जैसे ही कहा जेन चौंक पड़ीं।

'लाल बुझक्कड़ ? यह कौन थे ?'

'लाल बुझक्कड़ हास्य व्यंग्य के अच्छे कवि थे।'

हाथी के पांव के निशान बालू में बने हैं। लोग जान नहीं पाते यह निशान कैसे बना ? हाथी को आते जाते किसी ने देखा नहीं है। लाल बुझक्कड़ बताते हैं।

लाल बुझक्कड़ बूझि गे और न बूझा कोय।

पाँव मा चक्की बांधि कै चुहिया कूदी होय।

उनकी उक्तियाँ सुनकर लोग लोटपोट हो जाते। इतना शिष्ट हास्य बहुत मुश्किल है लिख पाना। लाल बुझक्कड़ को इसमें महारत हासिल थी। बिना किसी पर आक्षेप किए वे लोगों को हँसा देते थे। उनकी पहली पंक्ति प्रायः यही होती थी 'लाल बुझक्कड़ बूझि गे और न बूझा कोय'

'बहुत बड़ी कला है यह सुमित।' जेन जैसे कुछ सोच रही थीं। सुमित की व्याख्या से मुझे भी प्रसन्नता हुई। 

     हम लोगों की गाड़ी अम्बेदकर चौराहा पार कर रही थी।