कोमल की डायरी - 4 - तुझे मृत्यु को देता हूँ Dr. Suryapal Singh द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

कोमल की डायरी - 4 - तुझे मृत्यु को देता हूँ

चार

        तुझे मृत्यु को देता हूँ

                             बुधवार, अठारह जनवरी, 2006

कल बहादुर के मुकदमें की पेशी थी। वह सबेरे ही आ गया। मुझे भी कचहरी ले जाना चाहता था। इसीलिए मैं सुमित और जेन के साथ कल न जा सका। वे कल श्रवण पाकर, स्वामी नारायण छपिया और मखोड़ा देखना चाहते थे। मैंने कुछ प्रारम्भिक बातें बताकर उन्हें भेज दिया। बहादुर को कभी-कभी विपक्षियों ने धमकाने की कोशिश की है। इसीलिए उसकी इच्छानुसार कचहरी जाना मुझे आवश्यक लगा। छः घण्टे इधर उधर चहल कदमी करते रहे, तारीख ही मिली। आज सुबह गांधी पार्क में ही सुमित और जेन से भेंट हुई। वे मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे। हम एक बेंच पर बैठकर गोनर्द पर चर्चा करने लगे। गोनर्द जब वनों तृणों से आच्छादित था, कोशल नरेश की गाएँ चरती ही थीं; दिलीप पुत्ररत्न की प्राप्ति हेतु 'नन्दिनी' की सेवा में लगे थे। गो-सेवा एक श्लाघ्य कर्म था। वन अपेक्षाकृत शान्त था। कन्दमूल, फल एवं जल की सुविधा थी। अनेक ऋषि-मुनि इस क्षेत्र में अपना आश्रम बनाकर रहते। माता-पिता, वृद्ध जन की सेवा में लोग प्रसन्नता का अनुभव करते ।

'क्या माता-पिता की आज्ञा का उल्लंघन नहीं होता था?' जेन पूछ बैठी।

'होता क्यों नहीं था? प्रहलाद का उदाहरण तो उपलब्ध ही है।' सुमित स्वयं बोल पड़े।

'इस तरह के उदाहरण और भी मिल सकते हैं। पर सामान्य जन माता-पिता की अवज्ञा से बचते थे। माता-पिता की सेवा बच्चे के लिए एक साधना थी। इस क्षेत्र में श्रवण कुमार माता-पिता के सच्चे सेवक के रूप में स्मरण किए जाते हैं।' मैंने संकेत किया।

'पर श्रवण पाकर में एक गड्ढे के अतिरिक्त अब रह ही क्या गया है? उसका रख रखाव भी ठीक नहीं है।' सुमित श्रवण पाकर की व्यवस्था से संतुष्ट नहीं दिख रहे थे।

'मूल घटना क्या है?' जेन ने उत्सुकता प्रकट की।

'श्रवण वैश्यकुल में उत्पन्न हुए थे। उनके माता-पिता अन्धे थे। वृद्धावस्था में उन्होंने तीर्थाटन की इच्छा प्रकट की। श्रवण ने बहंगी में बिठाकर उन्हें तीर्थाटन कराया।' मेरे इतना कहते ही जेन ने प्रश्न कर दिया, 'रथ, बैलगाड़ियाँ उस समय उपलब्ध थे फिर यह बहंगी पर लेकर चलना ?'

'अनेक साधन होते हुए आज भी अनेक लोग पैदल चलकर तीर्थों में पहुँचते हैं। यह अपनी आस्था का प्रश्न है।' 

'माता-पिता को बहंगी पर लेकर चलना, अत्यन्त कष्टकर था। सभी लोग तो लेकर चल भी नहीं सकते।' जेन की आँखों से प्रश्न झर रहे थे।

'साधना में कष्ट नहीं देखा जाता। श्रवण स्वस्थ नवयुवक थे, माता-पिता दुबले पतले वृद्ध। उन्हें लेकर चलना असंभव नहीं था।'

'पर श्रवण की मौत दशरथ के हाथों बताई जाती है।' जेन के चेहरे पर उत्सुकता थी। 

'कहा जाता है कि तीर्थाटन से लौटते समय श्रवण पाकर के पास श्रवण के माता पिता को प्यास लगी। आसपास का क्षेत्र वनों से आच्छादित था। राज परिवार के लोग उसमें आखेट किया करते थे। निकट सरोवर देखकर श्रवण पात्र लेकर पानी लाने के लिए गए। दशरथ उसी वन में आखेट के लिए निकले थे। श्रवण सरोवर से पानी लेने लगे तो दूर से दशरथ को लगा कि कोई हिरन पानी पी रहा है। उन्होंने तीर छोड़ दिया। तीर लगते ही श्रवण गिर पड़े। दशरथ सरोवर पर पहुँचते ही हतप्रभ ! चटपट घोड़े से उतर श्रवण को बाहर निकाला। वे तड़प रहे थे। बड़ी मुश्किल से उनकी ज़बान से इतना ही निकल पाया 'मेरे.. माता.. पिता.. प्यासे हैं उन्हें... जल पिला दे.. देना।' उनके प्राण पखेरु उड़ गए। दशरथ का हृदय काँप उठा। कैसे माता-पिता के सम्मुख जा सकेंगे वे? वे राजा अवश्य हैं पर किसी निर्दोष की हत्या कितना जघन्य अपराध है? 'माता-पिता प्यासे हैं', श्रवण का यह वाक्य उनके मर्म पर चोट करता रहा। अश्व को एक पेड़ में बाँध पात्र में पानी लिया। पश्चाताप से भरे वे वृद्धों को खोजते हुए उनके पास पहुँचे पर वाणी न फूट सकी। आहट पा श्रवण के पिता ने पूछा, 'श्रवण तुम बोलते क्यों नहीं?' दशरथ का शरीर एक बार थरथराया पर अब भी शब्द न निकले। 'श्रवण तुम हमसे विमुख क्यों हो रहे हो? प्यास से हम तड़प रहे हैं और तुम ?' राजा ने किसी प्रकार साहस बटोर कर कहा, 'महात्मन, मैं दशरथ हूँ अयोध्या नरेश ।' 'और मेरा पुत्र ?'

'वे स्वर्गवासी हो गए महात्मन् ।'

'स्वर्गवासी ।'

'हाँ।'

'यह नहीं हो सकता ! यह नहीं हो सकता ! मेरा बेटा हमें रास्ते में छोड़कर स्वर्गवासी नहीं हो सकता। आप झूठ कह रहे हैं राजन। इस तरह की अमर्यादित ठिठोली बहुत दुःखदायी होती है... बहुत दुःखदायी। मुझे सच सच बताओ मेरा श्रवण कहाँ है?.... कहाँ है मेरा बेटा ?... बेटा श्रवण.... बेटा श्रवण कहाँ हो?' श्रवण के पिता चीख पड़े। 'सच कहता हूँ, महात्मन् श्रवण नहीं रहे।' दशरथ की आवाज़ काँपती रही। 'मेरा बेटा भला चंगा था। पानी लेने के लिए सरोवर की ओर गया था। इतनी ही देर में स्वर्ग के लिए प्रस्थान ?... संभव नहीं है राजन। अवश्य कोई दुर्घटना घटी है। मुझे सच सच बताओ....। क्या किसी ने उसका वध कर दिया है? अन्यथा वह स्वर्ग कैसे जा सकता था?. बेटा श्रवण.... बेटा.... श्रवण ।' वृद्ध का दर्द उभर आया। 

'दोषी मैं हूँ महात्मन। पानी भरते समय दूर से मैंने समझा कि हिरन पानी पी रहा है। मैंने तीर छोड़ दिया। तीर श्रवण को लग गया। वे बच नहीं सके।' इतना कहते दशरथ रो पड़े। 'मैं सेवा के लिए तत्पर हूँ, जल ग्रहण करें।' श्रवण की माँ बिलख पड़ीं। वृद्ध क्रोध से तड़फड़ा उठा, 'राजन, आपके हाथ का जल? संभव नहीं है आपके हाथों जल ग्रहण। आपने मेरा सहारा छीन लिया। मेरे पुत्र को मार दिया जिसने बहंगी पर लादकर हमें तीर्थाटन कराया ! दिन-रात हमारी सेवा करता रहा। पुत्र-मौत की व्यथा आप क्या जानें ? निकल जाओ यहाँ से। मेरी जिहा को बाध्य न करो..जानोगे तुम भी पुत्र का बिछोह क्या होता है?... अच्छी तरह जानोगे ।.. चले जाइए राजन...। चले जाइए.... पुत्र के बिना हम जीवित कैसे रह सकते हैं?..... श्रवण... .ओ बेटा श्रवण...' पुकारते हुए दोनों अचेत हो गए। उनकी चेतना लौट नहीं सकी। श्रवण पाकर आज भी उसी घटना की गवाही देता है।

जनमानस आज भी मातृ-पितृ भक्त को श्रवण कहकर ही पुकारता है। आज भी ऐसे बच्चे मिलते हैं।'

'बहँगी पर लेकर चलने वाले ?' जेन का आकुल मन प्रश्न कर उठा। 

'बहँगी तो एक प्रतीक है। बच्चे आज भी ऐसे मिलेंगे जो माता-पिता के लिए सब कुछ निछावर करने के लिए प्रस्तुत रहते हैं।'

'और माता-पिता बच्चे के लिए?'

'भारत में पचास साल का बेटा भी माता-पिता के लिए बच्चा ही रहता है। वे सब कुछ उसके लिए करने को तत्पर ।'

'तब समाज में इतनी उठापटक क्यों? बच्चे माता-पिता से दूर क्यों भागते हैं।' जेन से न रहा गया।

'यह सिक्के का दूसरा पक्ष है। दोनों स्थितियाँ समाज में होती हैं, प्रायः हर समाज में।' सुमित ने अपनी बात रखी।

'कभी-कभी किसी का शाप वरदान बन जाता है।'

मेरे कहते ही जेन ने पूछ लिया, 'कैसे?'

'दशरथ के कोई पुत्र नहीं था। पुत्र से बिछोह तो तभी हो सकता है, जब पुत्र हो। दशरथ पुत्र प्राप्ति के लिए चिन्तित थे। वशिष्ठ ने शृष्य शृंग को बुलवा पुत्रेष्टि यज्ञ करने का प्रस्ताव रखा। जो मखौड़ा आप देखकर आई हैं वही यज्ञभूमि थी। यज्ञ को मख भी कहा जाता है। मखौड़ा नाम भी संभवतः इसीलिए पड़ा। यज्ञ में आचार्यों, ऋत्विजों-होता, उद्गाता, अध्वर्यु ब्रह्मा आदि के साथ अनेक ब्राह्मणों, तपस्वियों को आमंत्रित किया गया था।'

'दशरथ के पुत्र नहीं था। उन्होंने यज्ञ कराकर पुत्र प्राप्त किया। पर सामान्य जन?' सुमित जैसे झपकी से जगे हों।

'सामान्यजन तो आज भी सन्तान के लिए कलपते हैं। उस समय भी कलपते रहे होंगे।' जेन तपाक से बोल पड़ी।

'आज का विज्ञान भी तो शत प्रतिशत मदद नहीं कर पा रहा।'

'वशिष्ठ का जहां आश्रम था अब तो वह कस्बा बन गया है।' जेन ने बात को मोड़ दिया।

'बसना ही चाहिए। काल का प्रवाह कहीं रुकता है? सिन्धु-गंगा की घाटी किसी समय समुद्र का अंग थी पर आज।' सुमित कह गए। मैं इन दोनों की बातें सुनता रहा। 'पुत्र तो अनेक प्रकार से प्राप्त किए जाते थे। क्षेत्रज पुत्र भी हुआ करते थे।' सुमित जोड़ते रहे।

'सरयू के निकट पराशर, यमदग्नि और शौनक ऋषि के आश्रम भी कभी थे।' जेन ने अपनी डायरी निकाल कर देखा।

'नदी या सरोवर के निकट ही आश्रम बनाए जाते थे। जल, कन्दमूल, फल से उनकी आवश्यकता-पूर्ति होती। पराशर का आश्रम तो नदी के अत्यन्त निकट था। आज उनकी स्मृति में मंदिर बना है।'

'ये वशिष्ठ-पुत्र शक्ति के पुत्र थे। उपरिचर वसु की कन्या सत्यवती से इन्होंने व्यास को उत्पन्न किया था। 'पराशर स्मृति' इन्हीं का लिखा हुआ है।' सुमित बता गए। 'जमथा के आसपास यमदग्नि का आश्रम रहा होगा। यह पूरा प्रदेश ही वन प्रदेश था। इसीलिए ऋषि-मुनि आते। कुद दिन रहकर साधना करते फिर प्रस्थान कर जाते। किसी समय सरयू का यह क्षेत्र ऋषि आश्रमों से भरा था पर आज?' जेन की आँखों में प्रश्न उभर आया था।

'बगल ही सोनीडीह में शौनक ऋषि का आश्रम था जिन्होंने ऋग्वेद प्रातिशाख्य तथा अन्य अनेक ऋचाओं की रचना की। यह क्षेत्र ऋषियों-मुनियों का ही नहीं, शिल्पियों, कलाकारों का भी क्षेत्र था। सिन्धु से गन्डक तक पूर्व पश्चिम की यात्रा करने वाले शिल्पी, दस्तकार, वणिक अपना भविष्य टटोलते। खनखन करते रथ, भागते अश्वारोही, सरसराते सार्थवाह नदी नदिकाओं को पार कर दौड़ते। इस पथ का नाम ही कारुपथ पड़ गया था। सरयू और गंगा में बड़ी-बड़ी नावें चलतीं। नगर इसीलिए नदियों के किनारे विकसित हो जाते। सड़कों और रेलों के विकास ने थोड़ा परिवर्तन किया है पर अब भी अधिकांश व्यावसायिक नगर नदी या समुद्र के किनारे ही मिलते हैं।' सुमित अपनी स्मृति उकेरते रहे।

'बहुत पहले सिन्धु-गंगा की घाटी समुद्र का अंश थी न? इसे टिथीज़ सागर नाम दिया गया है।' जेन की वाणी फूटते ही मैं बोल पड़ा, 'तुम लोग सोचते नहीं, थिंक करते हो ?'

'क्या मतलब ?'

'सागर यहाँ का, पर यहाँ की भाषा में नाम तक नहीं। नाम तो वही रखेगा जो खोजेगा? हम आप तो खोजने से रहे।

इसी भूमि पर समुद्र मंथन हुआ, प्रलय का ताण्डव भी। अनुसंधान में पीछे रहने पर समाज पिछड़ता ही है। आज कम्पनियों का जल हमारे यहाँ के दूध से मंहगा बिकता है न?'

'भाई साहब कभी कभी आप गहरी बात कह जाते हैं ?'

'बात निकल जाती होगी', कहकर में हँस पड़ा।

'पर श्रवण पाकर जितना अव्यवस्थित है स्वामी नारायण छपिया का मंदिर उतना ही आकर्षक।' जेन ने टिप्पणी की। 'संगमरमर का मंदिर दूर से ही झलकता है।'

'राम, लक्ष्मण, सीता के साथ ही शंकर-पार्वती, राधा-कृष्ण, बलराम की मूर्तियां उन्हीं के साथ स्वामी सहजानन्द जिनका पूर्वनाम घनश्याम था, की मूर्ति सांस्कृतिक समन्वय का प्रतिपादन करती हुई। सन् १८४५ में स्वामी सहजानन्द की जन्मभूमि पर बना यह मंदिर हर वर्ष हजारों भक्तों को गुजरात से बुला लेता है।' सुमित बताते रहे।

'पर यह रन्ति देव की भी धरती है।' मैंने जैसे ही कहा सुमित ने डोर पकड़ ली। 'ठीक कहते हैं कोमल भाई। उन्चास उपवास के बाद प्राप्त थोड़े से सत्तू को भी उन्होंने अतिथि को खिला दिया था, स्वयं भूखे रह गए।'  

'ओह !' जेन के मुख से निकला, 'कैसे कैसे अतिथि का स्वागत करने वाले ! इसीलिए शायद 'अतिथि देवो भव' कहा गया।' 

'स्वामी सहजानन्द के पूर्वज बालक राम तिवारी गोरखपुर के सोनापार गांव से छपिया आकर बसे थे। निरन्तर धर्म साधनारत। भिक्षावृत्ति। मरे तो पत्नी भी साथ हो लीं। उनकी स्मृति में 'सती चौरा।' उनके दो पुत्र दुन्द और कृष्ण। दोनों ने बँटवारा किया। सम्पत्ति के नाम पर केवल कठवत थी। उसी के दो हिस्से किए गए। आधी कठवत लेकर कृष्ण अपनी ससुराल तरगाँव चले आए। दुन्द छपिया में ही रह गए।' 

'रुको रुको' जेन बोल पड़ीं, 'अजीब बात है। कठवत काट देने से तो किसी के काम की नहीं रह गई। क्या इतनी समझ इन दोनों में नहीं थी। किसी एक को दे देते।' 'यदि अपने हक से अधिक कोई लेने के लिए तैयार ही न हो तब?' सुमित के प्रतिप्रश्न से जेन ने माथा ठोंक लिया। 'परिवार में कभी-कभी ऐसी स्थितियाँ बन ही जाती हैं जेन।'

'हमारी मनोवृत्ति दूसरी है। हम अनेक अवसरों पर रुपये, पैसे, बताशे लुटाते हैं। यदि कोई न लूटे तो ? दाता का अहँ भी खत्म करना होगा जेन ? समाज की जटिलता को समझो।' जेन ने चश्मे को उतारा। उसे पोछा, फिर लगा लिया। 'सुमित जी की बातें सुनी जाएँ,' मेरे इतना कहते ही सुमित बोल पड़े, 'दुन्द के दो पुत्र थे। एक पुत्र मोतीराम की शादी एक सम्पन्न परिवार में हुई। उन्हें एक सुन्दर घोड़ी उपहार में मिली।'

'मेरे मन में फिर प्रश्न उठ रहा है सुमित ?' जेन से न रहा गया। 'एक निर्धन की शादी एक सम्पन्न ब्राह्मण की लड़की से कैसे हो सकेगी ?'

'यह कोई अजूबा नहीं है जेन। उत्तम कुलीन, संस्कारी ब्राह्मणों की शादियाँ राजे महाराजे, सम्पन्न लोग करते रहे हैं। यह परम्परा पूरी तरह आज भी खत्म नहीं हुई है।'

'मैं कितना अनजान हूँ सुमित ? सम्पन्न घर की लड़की निर्धन परिवार में कैसे निभाती होगी?'

'निभने के लिए केवल सम्पत्ति की ही ज़रूरत नहीं होती। अन्य बहुत से तत्व काम करते हैं।' सुमित ने कहकर मेरी ओर देखा। मैंने मौन समर्थन किया। 'मोतीराम की घोड़ी दर्शनीय थी। लोग देखने के लिए आते। अनेक कष्ट झेलते मोती उसकी सेवा में लगे रहते। लखनऊ के नवाब तक बात पहुँची। उन्होंने दुन्द को बुलाया और घोड़ी को माँग लिया। दुन्द असमंजस में ज़रूर पड़े पर इनकार करना असंभव था। नवाब ने घोड़ी के बदले दुन्द को छपिया गाँव माफी दे दिया। दुन्द का परिवार अब सँभल गया। लक्ष्मी का आगमन होने लगा। दुन्द के कोई कन्या नहीं थी पर उनके भाई कृष्ण के तीन कन्याएँ थीं। अभी सबसे छोटी प्रेमवती की शादी नहीं हुई थी। दुन्द भाई की ससुराल गए और प्रेमवती को अपने साथ ले आए। प्रेमवती भक्तिरस में पगी सुशील कन्या थी। दुन्द ने प्रेमवती की शादी एक शिष्ट ब्राह्मण युवक हरिप्रसाद से की और उसे अपने पास ही रख लिया। हरिप्रसाद और प्रेमवती के तीन पुत्र हुए जिसमें मझले घनश्याम का जन्म सम्वत् १८३७ वि० की चैत नवमी को दस घड़ी रात्रि में हुआ। बालक घनश्याम कुशाग्र, सात्विक, तपस्वी वृत्ति के थे। उन्होंने संस्कृत के २१२ अनुष्टुप छन्दों में तत्वज्ञान की बातें लिखीं ।

माता-पिता का देहान्त हो जाने पर लिखी पुस्तिका साथ लेकर वे भारत भ्रमण के लिए निकल पड़े। पूरे सात वर्ष वे भारत के तीर्थों की यात्रा करते रहे। सम्वत १८५६ में सोमनाथ से द्वारका जा रहे थे। रास्ते में लोचग्राम पड़ा। वहां रामानन्द के शिष्य मुक्तानन्द ने उन्हें आश्रम में रोक लिया। रामानन्द जी प्रवास पर थे। उन्हें सूचना भेजी गई। वे आए इस नवयुवक को गले लगा लिया। घनश्याम जो भारतयात्रा में अपना नाम नीलकंठ बताते थे, ने सम्वत् १८५७ कार्तिक सुदी दशमी को उद्धव सम्प्रदाय की दीक्षा ली। गुरु रामानन्द ने इनका नाम सहजानन्द नारायण मुनि रखा। कुछ दिन बाद सहजानन्द को गुरुपद सँभालने के लिए तैयार किया। गुरु का आदेश मानकर इन्होंने यह पद भार सँभाला। 

स्वामी सहजानन्द ने धार्मिक सौहार्द का परिवेश निर्मित किया। उनके द्वारा लिखित पुस्तिका का नामकरण बड़ताल (गुजरात) में 'शिक्षा पत्री' किया गया। यही स्वामीनारायण मत की आधारभूत पुस्तक है। स्वामी जी सदाचार पर अधिक बल देते रहे। अपने बड़े भाई रामप्रताप के पुत्र अयोध्या प्रसाद को अहमदाबाद की नारायण गद्दी पर आसीन किया। वे आदि आचार्य हुए। छोटे भाई इच्छा राम के पुत्र रघुवीर को बड़ताल की लक्ष्मीनाराण गद्दी दी। निरन्तर सदाचार, उपासना, साधना में निरत स्वामी जी ने ज्येष्ठ सुदी १० मंगलवार सम्वत् १८८६ को अपना भौतिक शरीर छोड़ा।' 'गोण्डा साधु सन्तों की स्थली रही ही है पर सहजानन्द जी का स्वामीनारायण मत विभिन्नता में एकता की अनुभूति कराता है।' जेन ने टिप्पणी की। इसी बीच गाड़ी आ गई। सुमित और जेन पृथ्वीनाथ और पंचारण्य देखना चाहते थे। 'यदि आप चाहें तो उद्दालक का आश्रम मनोरमा भी देख लें।' मैंने कहा। उनकी सूची में उद्दालक आश्रम का भी नाम था। वे सहमत हो गए। गाड़ी आश्रम के रास्ते चल पड़ी।

'ये उद्दालक वही तो नहीं जिनके पुत्र श्वेतकेतु ने 'गृह्य सूत्र' की रचना की थी?' जेन ने पूछ लिया।

' हाँ।' कहकर मैं चुप हो गया पर सुमित जैसे बताने के लिए तैयार बैठे थे।

'महर्षि अग्निवेश का आश्रम उत्कोचक तीर्थ में था। उन्होंने पानी के सहारे ही कठोर साधना की थी इसीलिए उन्हें 'आयोद' कहा जाने लगा। वे भारद्वाज के अनुज एवं द्रोणाचार्य के चाचा थे। महर्षि अगस्त्य से उन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी। वे गोत्रकार भी थे। ब्रह्मविद्या एवं धनुर्वेद दोनों के आचार्य थे। द्रुपद और द्रोणाचार्य को उन्होंने शिक्षा दी। उन्हें व्याघ्रपद भी कहा गया। आयोद अग्निवेश के दो पुत्र थे उपमन्यु और धौम्य। धैम्य छोटे थे पर अपनी उपलब्धियों के कारण उपमन्यु के गुरु बने। कृष्ण की प्रेरणा से पाण्डवों ने धौम्य को अपना पुरोहित बनाया। कृष्ण के परामर्श पर पाण्डवों ने धौम्य के पिता श्री व्याघ्रपद के नाम पर अपना गोत्र अत्रि से बदलकर 'वैयाघ्रपद्म' कर लिया था। थौम्य के शिष्य आरुणि को उद्दालक कहा गया। उद्दालक के श्वेतकेतु और नचिकेता दो पुत्र थे तथा सुजाता पुत्री। कहा जाता है एक बार महर्षि उद्दालक से उनकी पत्नी पुत्रोत्पत्ति हेतु माँगने एक व्यक्ति आया। श्वेतकेतु को यह बात कुछ ठीक नहीं लगी। इसीलिए उन्होंने 'गृह्यसूत्र' की रचना कर एक पति एक पत्नी का विचार प्रस्तुत किया। जेन जैसे चौंक कर जगी हों। पूछ बैठी, 'उस समय एक स्त्री का कई पुरुषों के संसर्ग में रहना जायज़ था ?'

'ज़रूर रहा होगा।' सुमित कह गए।

'लगता है तभी द्रोपदी के लिए पाँच पतियों की व्यवस्था को अमान्य नहीं किया गया।' जेन का मन विचार तरंगों में खो गया।

'मनोरमा के पोखरे पर जैसे ही गाड़ी रुकी, हम लोग धरती पर आ गए। गाड़ी से उतरे। पोखरे का निरीक्षण करने लगे। लोगों ने बताया कि यहीं से मनवर नदी निकलती है। सामान्यतः मैदानी भागों में बरसात का जल निचली भूमि जिसे यहाँ 'घोल या सोती' कहा जाता है, में बहने लगता है। आगे चलकर यहीं नदी का रूप धारण कर लेता है। इसमें अन्य नदिकाओं का जल भी आकर मिल जाता है। टेढ़ी, कुवानों, बिसुही, मनवर, चमनई ऐसी ही नदियाँ हैं। इनका जल स्रोत बरसाती जल ही है। पर मनोरमा के साथ एक कथा भी जुड़ी है।' मेरे संकेत करते ही जेन कह पड़ी, 'यहाँ के चप्पे-चप्पे से कथाएँ जुड़ी हैं।'

'तुम लोग वैज्ञानिक युग के हो, किंवदंतियों/कथाओं पर विश्वास नहीं कर सकोगे। पर तुम्हारा विज्ञान तो कोरी गप्प की भी उपयोगिता स्वीकार करता है।' मैं कहकर जैसे ही चुप हुआ सुमित ने पूछ लिया, 'कथा क्या है?'

'कहा जाता है कि मखौड़ा में पुत्रेष्टियज्ञ करते समय शृष्य शृंग ने मनोरमा के रूप में ही सरस्वती का आवाहन किया था। इसीलिए..। 'पर उद्दालक के दूसरे पुत्र कहाँ गए ?'

'उनकी कथा जग प्रसिद्ध है।'

'अच्छा! मैं भी तो जान लूँ।'

'एक बार उद्दालक विश्वजित यज्ञ कर ऋत्विजों को गायों का दान कर रहे थे। गाएँ दुर्बल, बूढ़ी थीं। नचिकेता बार बार पिता को सचेत करते रहे कि बूढ़ी गायों का दान उचित नहीं है पर उद्दालक पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। नचिकेता भी कहाँ हार मानने वाले थे। पिता से कहा, 'पिता जी मैं भी आपका धन हूँ मुझे किसको देते हैं?' उद्दालक ने सुना किन्तु उपेक्षा कर दी। दूसरी बार पुनः वही वाक्य। पुनः उपेक्षा। तीसरी बार जैसे ही नचिकेता ने कहा, 'पिता जी मुझे किसको देते हैं?' महर्षि क्रुद्ध हो गए। बोल पड़े, तुझे मृत्यु को देता हूँ।'

      मृत्यु प्राप्त कर नचिकेता यमराज से परम तत्व का ज्ञान प्राप्त करते हैं। यह कथा कठोपनिषद में वर्णित है। सुमित को जैसे याद आ गया, कह पड़े 'हाँ' 'कहा जाता है कि नचिकेता ने ताड़ी परसोइयाके निकट ऋषियों को नासिकेतोपाख्यान सुनाया था।' मैंने कहा।

'क्या इसीलिए यह कहावत चल पड़ी 'दान की बछिया के दाँत नहीं देखे जाते।' जेन कुछ जोड़ घटा रही थीं।

'हो सकता है। इससे यह तो पता चलता है कि बूढ़ी गाएँ भी दान में दी जाती थीं।' सुमित बोल पड़े।

कार्तिक पूर्णिमा में मेला लगता है। यहाँ पोखरे की स्वच्छता के लिए कोई व्यवस्था न थी। तीर्थों को साफ रखने में हम कितना पीछे हैं। तिरें मनोरमा से हम लोग पृथ्वीनाथ की ओर बढ़ चले। गेहूँ और गन्ना यही दो मुख्य फसल दिखाई पड़ती। कहीं कहीं दूर तक गन्ना ही गन्ना। गेहूँ के खेतों की हरियाली आँखों को सुखद लगती। दानों से भरी बालियाँ लहरातीं। इटियाथोक से पृथ्वीनाथ की ओर मुड़ते ही जेन अपनी डायरी देखने लगीं। यह पंचारण्य का क्षेत्र है। सब जंगल ही रहा होगा न ? 'अवश्य, चार पाँच हजार वर्ष पहले निश्चित ही जंगल ही रहा होगा यह क्षेत्र। कहीं कहीं आदिवासियों के निवास भी रहे होंगे।'

'पाण्डवों ने अपने वनवास काल का कुछ भाग इन अरण्यों में बिताया था। याज्ञसेनी और माँ कुन्ती के साथ विचरते हुए वे वन में घूमते रहे। याज्ञसेनी अद्भुत साहसी थीं। उसके खुले हुए केश रह रह स्मरण कराते कि कुछ अघटित घट गया है। यहाँ के पेड़-पौधों, पशु पक्षियों ने भी द्रोपदी के खुले बालों को देखा था। उसकी पीड़ा को अनुभव किया था।' सुमित अबाध गति से बोलते रहे।

'क्या साहसी नारियों को निर्वसन करने का काम बन्द हो गया है?' जेन का चेहरा सुर्ख हो गया था।

मैं जेन के चेहरे को देखकर चकित था। कह गया, 'आप का चेहरा सुर्ख होते इसके पहले नहीं देखा था।'

'नारी को आज भी खुले आम अंगप्रदर्शन के लिए बाध्य किया जा रहा है। उसे भोग्या बनाकर ही रखा है सबने। याज्ञसेनी का जन्म ही किसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए हुआ। क्या नारी स्वतंत्र होकर जन्म भी नहीं ले सकती? यदि उसने आत्मगौरव के साथ जीना चाहा तो उसे निर्वसन किया गया। भीष्म और द्रोण जैसे महारथी केवल शब्दों से काम चलाकर शान्त हो गए। अकेला विकर्ण ही विरोध करने के लिए उठा पर उसे भी दबा दिया गया। नारी को जब चाहो बेच दो, निर्वसन कर दो। ऐसा कर दो कि वह साँस भी न ले सके। नारी की खुली देह पर ही आलू प्याज भी बेचो। आज का समाज यही कर रहा है। नारी विमुक्ति का नारा देकर भी उसे वस्तु बना देना क्या सामाजिक अन्तर्विरोध नहीं है?' जेन के बदलते चेहरे को हम दोनों देखते रहे। 'मनुष्य के शायद कई चेहरे होते हैं।' मैं सोचता रहा। जेन भी सामान्य हुईं। सुमित से कहा, 'मैं अपने को रोक न पाई ।'

'समझ रहा था मैं।'

रोकने की ज़रूरत भी नहीं है।' मेरे मुख से निकल गया।

''गाड़ी सरसराती हुई पृथ्वीनाथ मंदिर के प्रांगण में खड़ी हुई। पुजारी तथा कुछ अन्य भक्तजन। हम तीनों उतरे। मंदिर की ओर बढ़ गए। 'पाण्डवों ने इस क्षेत्र में कई शिवमंदिर स्थापित किए थे। इस शिवलिंग की स्थापना महाबली भीम ने की थी। कसौटी पत्थर का यह शिवलिंग सम्पूर्ण भारत में विशालतम है। युधिष्ठिर ने लोमनाथ और अर्जुन ने पंचरत्ननाथ तथा नकुल सहदेव ने बहराइच के इमरती गांव में शिवलिंग स्थापित किए थे।' पुजारी ने बताया। एक भक्त 'ऊँ० नमः शिवाय' का जाप कर रहा था।

'भक्ति का एक रूप नाम जप भी है यह तो आपने पढ़ा होगा?' मैंने जेन से पूछ लिया।

'क्या पाण्डवों के समय का मंदिर अभी बचा हुआ है?' जेन ने जिज्ञासा की। 'नहीं इस मंदिर का जीर्णोद्वार गुप्तकाल में हुआ। अयोध्या का उद्धार भी चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वारा बताया जाता है।' सुमित कुछ स्मरण करने लगे।

'घाघरा के उस पार भी पाण्डवों से जुड़े हुए कुछ स्थान हैं। बाराबंकी जनपद के बरौलिया गांव में 'पारिजात वृक्ष' का रोपण पाण्डवों ने ही किया था। यह एकलिंगी नरवृक्ष आज भी श्रद्धा का केन्द्र है। किन्तूर गांव की स्थापना भी कुन्ती के नाम पर की गई थी। अनेक मंदिरों की स्थापना से पाण्डवों का नाम जुड़ा है।' सुमित बताते रहे। 'पर पाण्डव विरोधी भी इस वन में आते रहे। जरासन्ध, कर्ण के पदचाप इस क्षेत्र में पड़े ही, श्रावस्ती का राजा सुहृदबल कौरवों की तरफ से महाभारत में लड़ने गया था। भर, डोम, पुलिन्द उस समय क्षेत्र में अधिक थे।'

सुमित और जेन ने इक्यावन रुपये मंदिर में चढ़ा दिए। घूम-घूम कर मंदिर को तीनों ने देखा। पुजारी से प्रसाद पा हम लोग गाड़ी में बैठ गए। 'लौटते समय च्यवन आश्रम भी देख लिया जाए।' मैंने संकेत किया। 

'हाँ, हाँ, क्यों नहीं?' सुमित बोल पड़े।

'पर आसपास दिखने वाले स्त्री-पुरुष-बच्चे भी कोई कहानी कहते हैं?' जेन पूछ बैठी। 'वे बहुत स्पष्ट चित्र प्रस्तुत कर रहे हैं। उन्हें भी पढ़ना चाहिए। सभी कुपोषण ग्रस्त हैं। गाँवों में कुछ घर भले ही पोष्टिक आहार प्राप्त कर लेते हों पर अधिकांश......।’

'हाँ अधिकांश बीमारी, कुपोषण, अभाव से ग्रस्त हैं। संतों की बानियां उन्हें दिलासा देती हैं नहीं तो....।' जेन कुछ सोच रही थीं। 'नहीं तो क्या? क्या वे आन्दोलित हो उठते?' सुमित प्रश्न कर उठे।

'कौन जाने?' जेन का उत्तर था। मैं दोनों के प्रश्न उत्तर सुनता रहा। पूछ बैठा, 'क्या इनके भविष्य के लिए कुछ किया जा सकता है?'

'क्यों नहीं? हम लोगों को जन आन्दोलन चलाना चाहिए।' जेन ने अपना चश्मा उतार लिया था। 'यदि आप लोग सक्रियता दिखाएँ तो हम लोग भी शरीक हो सकते हैं।' 

'जेन को आप कमज़ोर न समझें भाई साहब। छात्रसंघ चुनाव के समय दिन रात एक कर देती हैं जेन। विजय होने पर अध्यक्ष ज़िन्दाबाद की जगह जेन ज़िन्दाबाद का नारा उछलने लगता है। जेन की संघर्ष क्षमता में आप विश्वास करें।'

'विश्वास कर रहा हूँ मैं।' गाड़ी चलती जा रही थी। सुभागपुर निकट आने पर मैंने च्यवन आश्रम की ओर संकेत किया। गाड़ी मुड़ गई। 'भृगु और पुलोमा के पुत्र थे न?' जेन ने पूछ लिया।

'हाँ। ये कठोर तपस्या कर रहे थे। शरीर पर वल्मीक तैयार हो गया। कोशलनरेश शर्याति अपने परिवार के साथ वन में क्रीड़ा करते हुए आए। उनकी पुत्री सुकन्या ने वल्मीक का निरीक्षण करते समय कुछ चमकता हुआ देखा। एक कांटे से कुरेदा। च्यवन की आँखों में कांटा चुभ गया। शर्याति को ज्ञात हुआ तो उन्होंने सुकन्या का पाणिग्रहण च्यवन से कर दिया। अश्विनी कुमारों ने च्यवन की आँखें ठीक की।' सुमित बताकर जैसे ही चुप हुए, जेन ने प्रश्न कर दिया, 'इतनी कठिन तपस्या?' सुमित पहले तो हँस पड़े फिर गम्भीर होते हुए कहने लगे, 'समाधिस्थ के आसपास वल्मीक विकसित होने के उल्लेख तो मिलते हैं। आत्मशुद्धि या किसी सिद्धि के लिए तपस्या की जाती है। वानप्रस्थ और संन्यास में तो तप का विशेष विधान है। तप द्वारा उच्चतर सिद्धि के अनेक आख्यान मिलते हैं।'

गाड़ी च्यवन आश्रम के टीले तक पहुँच गई। मंदिर। इसी के आस-पास का जल लेकर चमनई नदी आगे बढ़ जाती है। मंदिर पर क्वार पूर्णिमा को मेला लगता है।