वीर जिसने अपनी प्रेमिका को ऐसा काम करने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया था; वह भी पछता कर केवल हाथ मलते रह गया। वह सोच रहा था ऐशो आराम की ज़िन्दगी पाने की ग़लत लालसा ने अपनों के अलावा कितनों का जीवन बर्बाद कर दिया। सब कुछ खोने के बाद उसे होश आया। काश वे दोनों संभल जाते सुधर पाते।
वीर को अनन्या के साथ बिताए प्यार भरे लम्हें हर पल याद आते लेकिन वैसे ही लम्हें फिर से कभी हक़ीक़त ना बन पाए। उसके जीवन में निराशा की बदरी ऐसी छाई कि फिर कभी ख़ुशी में ना बदल पाई। ग़लत राह चुनने का उनका निर्णय उसे चैन से ना सोने देता ना जीने देता। वह चैन से मर भी नहीं सकता था क्योंकि अनन्या के माता-पिता अब उसकी जवाबदारी थे और उसे वह कर्तव्य पूरा करना था। दूसरी किसी भी गलती की अब उसके जीवन में कोई गुंजाइश नहीं थी। जो भी सुख के पल थे वह तो उसने पहले ही अनन्या के साथ जी लिए थे। अब तो ग़म की बदरी के साथ ही जीना था।
अब दिग्विजय अपनी माँ को ढूँढने की कोशिश करने लगा लेकिन वह उसके भाग्य में नहीं थीं। वह यह भी नहीं जान पाया कि उसकी माँ जीवित भी है या मर गई। माँ के गुम हो जाने का अपराध बोध उसे सुकून से जीने नहीं दे रहा था। यशोधरा के उसके मायके में न मिलने के बाद वह उसे ढूँढने के लिए दर-दर भटकने लगा।
यशोधरा का किया हुआ अपमान उसे हमेशा उसके गुनाहों की याद दिलाता। अपने पिता की अचानक मौत उसे यह सोचने पर मजबूर कर देती कि उसके पाप कितने बड़े हैं। वह मन में सोचता रहता यह सब तो उसके पापों की सजा है। उसके कुकर्मों का फल है जो वह भुगत रहा है। उसका परिवार जीवित भी है या नहीं वह कभी नहीं जान पाएगा। यह विचार उसे खाये जा रहा था। लेकिन उसके गुनाहों की यही सजा थी कि वह इस तरह जीवन पर्यंत भटकता ही रहे और जो कुछ उसने अपनी अय्याशी के कारण छोड़ दिया था उन्हीं के लिए हमेशा तरसता रहे।
धीरे-धीरे समय आगे बढ़ता रहा। अब दिग्विजय कहाँ भटक रहा है कोई नहीं जानता। इस तरह कई वर्ष गुजर गए अब वही सुंदर आलीशान हवेली खंडहर की तरह दिखाई देने लगी थी। जहाँ केवल हंसी मुस्कुराहट और खुशियाँ बरसा करती थी; वहाँ अब केवल सन्नाटा था केवल सन्नाटा, उसके अलावा और कुछ भी नहीं। अब तो लोग उस हवेली के पास से गुजरने में भी डरने लगे थे। उन्हें लगता था कि कहीं इस हवेली में किसी की आत्मा तो नहीं आ गई हो। गाँव में तो सभी को ऐसा लगता था कि जितने थे शायद सभी स्वर्ग सिधार गए।
दिग्विजय घर छोड़ते समय हवेली के दरवाजे पर एक बड़ा-सा ताला लगा गए थे। उन्होंने भोला काका को बहुत सारे पैसे देकर गाँव छोड़कर कहीं दूर जाने को कह दिया था। इसलिए वह भी उस गाँव को छोड़कर कहीं और जाकर बस गए ताकि लोग उनसे पूछताछ नहीं करें। भोला काका तो बहुत कुछ जानते थे लेकिन वह उस परिवार के वफादार थे तो उन्होंने वही किया जो दिग्विजय ने कहा। दरअसल वह भी अनन्या से नफ़रत करते थे क्योंकि उसी के कारण हवेली का सर्वनाश हुआ था। इसलिए उन्होंने कभी अपनी ज़ुबान नहीं खोली।
लोगों के बीच कानाफूसी जारी थी कि आख़िर क्या हुआ होगा? यह हवेली तो मानो एक बड़े अजगर की तरह बन गई थी जो उसमें घटने वाले राज़ को पूरा का पूरा निगल गई। हवेली के बाहर गाँव के लोग इस राज़ को कभी नहीं जान पाए क्योंकि जो भी था वह हवेली के अंदर था।
अनन्या ने जिस हवेली के लिए सपने संजोए थे, वह उसी में जल कर राख हो गई। अपने सपनों को पूरा करने की ग़लत राह ने उसके परिवार को कभी ना ख़त्म होने वाले दुख और दर्द में डुबो दिया। शायद अग्नि की लपटों में जलते वक़्त वह भी पछता रही होगी। हर लपट में उसे उसके पापा माँ और वीर रोते विलाप करते दिख रहे होंगे।
रेवती और घनश्याम को लगता था कि यदि वह मर गई है तो कम से कम उसकी खबर ही उनको मिल जाए ताकि वह उसकी आत्मा की शांति के लिए विधि विधान से पूजा पाठ करवा सकें। लेकिन अनन्या के पाप इतने बड़े थे कि उसकी अस्थियों को भी मुक्ति नहीं मिली। वह वहीं पड़े-पड़े सड़ रही हैं।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः