अनन्या, वीर नाम के एक अनाथ लड़के से प्यार करती थी, जो बचपन में ही अपने माता पिता को खो चुका था। वह भी दुनियादारी की ठोकरें खाकर बड़ा हुआ था और अनन्या की ही तरह जल्दी से अमीर बनने के ख़्वाब देखता रहता था। उन दोनों का प्यार साथ में खेलते कूदते बचपन से ही परवान चढ़ रहा था। उनके प्यार के विषय में अनन्या के माता पिता जानते थे। जवानी की दहलीज पार करते वे दोनों मन के साथ ही साथ तन से भी एक हो चुके थे।
जब अनन्या ने वीर को उसके ऑफर के विषय में बताया, तो उसने तुरंत ही कहा, "यह बहुत ही अच्छा ऑफर है और तुम्हें स्वीकार कर लेना चाहिए।"
अनन्या ने कहा, “वीर मैं चली तो जाऊंगी लेकिन मुझे पापा मम्मी की चिंता लगी रहेगी। यह बात मुझे परेशान कर रही है।”
वीर ने भावुक होते हुए कहा, “अनन्या तुम बिल्कुल चिंता मत करो मैं उनका ख़्याल रखूँगा। पापा मम्मी हमारे प्यार के बारे में तो सब जानते ही हैं। सोचता हूँ तुम्हारे घर के बाजू में जो खाली कमरा है उसे किराये पर ले लूँ।”
अनन्या ने खुश होते हुए कहा, “हाँ वीर यह ठीक रहेगा। तुम उनके पास रहोगे तो मुझे किसी तरह की चिंता नहीं होगी और मैं वहाँ मन लगाकर अपना काम कर सकुंगी।”
कुछ ही दिनों में दिग्विजय के साथ सभी बातों पर सहमति बन जाने के बाद, अनन्या ने उसका ऑफर स्वीकार कर लिया और वह दो हफ्ते के अंदर ही हवेली पहुँच गई।
हवेली के प्रांगण में आते ही उस हवेली की भव्यता देखकर अनन्या की आंखें फटी की फटी रह गईं। वह अपनी पलकें झपकना तक भूल गई। हवेली की शानो शौकत देखकर वह हैरान थी। इतने अमीर लोगों के बीच रहने का मौका जो उसे मिल रहा था। अनन्या हवेली की खूबसूरती को देखते हुए आगे बढ़ने लगी।
आज उसने लाल रंग की मिडी पहनी थी और बाल खुले संवारे थे। उसकी आंखों पर सनग्लास, होंठों पर लिपस्टिक, कानों में बड़े-बड़े रिंग थे। उसने अपने सुंदर पैरों में लाल रंग की ऊँची हील की सैंडल पहनी थी। उसकी त्वचा पर ऐसी चमक थी जो छुपाए नहीं छुप रही थी। वह बड़ी तैयारी के साथ आई थी। वैसे भी वह बहुत सुंदर थी और रहन सहन ने उसके व्यक्तित्व को और भी प्रभावशाली बना दिया था।
उसी समय दिग्विजय हवेली से बाहर आ रहे थे। अपने सामने इतनी ज़्यादा अनुपम स्त्री को आता देख उनकी आंखें बर्फ की तरह एक ही जगह पर मानो जम गईं। वह ख़ुद की आंखों पर विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे। बस सोच रहे थे कि कोई सच में इतना खूबसूरत कैसे हो सकता है।
तभी उन्होंने एक आवाज़ सुनी, "नमस्ते सर।"
वह हड़बड़ा कर मानो सपने से बाहर आये और बोले, "नमस्ते। क्या आप अनन्या हैं?"
"जी हाँ सर, आपने बिल्कुल सही पहचाना। क्या आप दिग्विजय सिंह हैं?"
"जी हाँ, आपने भी बिल्कुल ठीक पहचाना।"
अनन्या सोच रही थी इतनी बड़ी हवेली का मालिक तो ये ही हो सकता है। कितना प्रभावशाली है रईसी उनके चेहरे पर स्पष्ट झलक रही है।
अनन्या को देख उसकी हर अदा पर दिग्विजय का दिल फिसलता चला जा रहा था। इतनी ज़्यादा आकर्षक स्त्री तो उन्होंने जीवन में कभी नहीं देखी थी। हाँ सपनों में कल्पना करने की कोशिश ज़रूर की थी।
अनन्या के पास आते हुए दिग्विजय ने कहा, "चलिए अंदर चलते हैं।"
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः