दिग्विजय की नगर हवेली, जहाँ सूर्यास्त होते से ही बिजली की ऐसी रौशनी फैलती मानो सूर्योदय हो रहा हो। ऐसा लगता कि सूर्य की पहली किरणें सीधे उनकी हवेली पर ही अपनी छटा बिखेर रही हों। केसरी रंग की किरणों से लिपटी हवेली झिलमिल सितारों की भांति जगमगाने लगती। हवेली की सुंदरता ऐसी अद्भुत कि आंखें चुंधियाँ जाएँ। दिग्विजय की इस हवेली का मूल्य करोड़ों में आंका गया था। तीन मंजिला इस खूबसूरत हवेली में कहीं झरोखे थे, तो कहीं पंछियों के बैठने के लिए मुंडेर बनी हुई थी। कहीं गुंबद के आकार की छत थी तो कहीं सपाट छत जो कहती, 'मैं भी यहाँ हूँ, मुझे भी देखो, मैं भी किसी से कम नहीं।'
हवेली के चारों तरफ़ जहाँ उनकी ज़मीन की सीमा समाप्त होती वहाँ बड़े-बड़े घने वृक्षों ने हवेली को मानो सुरक्षित कर रखा था। हवेली के चारों तरफ़ बहुत ही सुंदर बगीचा था। वृक्षों को इस तरह से लगाया गया था कि सूर्य की किरणों को हवेली तक पहुँचने में किसी भी तरह की मुश्किल ना हो। प्रकाश का आगमन अच्छी तरह से हो सके। पूरे गाँव में यह एक ही हवेली तो थी जिसे देखने के लिए आसपास के छोटे-बड़े गाँवों से भी लोग आते थे।
हवेली की लोकप्रियता से उसमें रहने वाले सभी सदस्य बहुत ही खुश थे और ख़ुद को भाग्यशाली मानते थे कि उन्हें इतनी भव्य हवेली में निवास का मौका मिला। वहाँ शान और शौकत की कोई कमी नहीं थी। बच्चे, बूढ़े, जवान सभी ख़ुद को राजा महाराजा के समान ही मानते थे, लेकिन पिछले कुछ महीनों से लगता है कि वहाँ ऐसा सूर्यास्त हुआ है कि सूर्य उदय होना ही भूल गया हो। एक ऐसी अमावस की रात आई है जो शायद भूल गई कि वह तो महीने में केवल एक बार ही मेहमान बनकर आ सकती है, लेकिन उसने तो मानो इस नगर हवेली पर अपना डेरा ही डाल दिया था। उस हवेली में जहाँ कभी खुशियों की बौछारें होती थीं, अब गमों की बारिश हो रही थी।
सुबह से रात तक की चहल-पहल अब मानो डर के साए में गुमसुम होकर कहीं खो गई थी। जहाँ कभी लोग उस हवेली को देखने आते थे, अब वहाँ आने से भी कतराते हैं। हवेली का मालिक दिग्विजय दुनिया के किस कोने में है कोई नहीं जानता। वह अकेला है या परिवार के साथ, यह भी किसी को नहीं पता। यहाँ तक कि वह जीवित भी है या नहीं, इसका भी कोई अता-पता नहीं है।
इस हवेली में दिग्विजय सिंह, उनकी पत्नी यशोधरा और उनके तीन छोटे बच्चों के साथ-साथ दिग्विजय के माता-पिता परम्परा और भानु प्रताप भी रहते थे। ये सभी लोग बड़े ही प्यार से मिल जुलकर हंसी ख़ुशी के साथ रहते थे। दिग्विजय अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए शहर नहीं भेजना चाहता था और गाँव के स्कूल कुछ ख़ास अच्छे नहीं थे। वह किसी बोर्डिंग स्कूल में परिवार से दूर भी बच्चों को नहीं रखना चाहता था। लेकिन उसकी इच्छा थी कि उसके बच्चे अच्छी शिक्षा प्राप्त करें और जीवन में आगे बढ़ें। इसी विचार के साथ, उसने एक ऐसा निर्णय लिया कि वह पास के किसी शहर से ही एक पढ़ी-लिखी लड़की को बुला लेगा, जो उसके तीनों बच्चों को पढ़ाएगी और उन्हें अंग्रेज़ी बोलना भी सिखाएगी। यदि ऐसा हो गया तभी उसके बच्चों को पूर्ण रूप से शिक्षा प्राप्त हो पाएगी। इस विचार के आते ही, दिग्विजय ने सोचा कि सबसे पहले उसे अपनी पत्नी यशोधरा से सलाह मशवरा कर लेना चाहिए।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः