स्त्री २ - फिल्म समीक्षा Dr Sandip Awasthi द्वारा फिल्म समीक्षा में हिंदी पीडीएफ

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स्त्री २ - फिल्म समीक्षा

फिल्म आलोचना ;
स्त्री २: भारतीयों का आइना : अंधविश्वास और बेवकूफी का संगम
____________________________
आपसे कहा जाए आपके शहर के पास एक भूतनी रहती है !!
और वह पुरुषों को उठाती है?

फिर और यह भी कहा जाए फेसबुक और व्हाट्सएप चलाती भारत की जनता से की सरकटा भूत भी है जो आधुनिक लड़कियों को, जो आधुनिक कपड़े पहनती हैं, सिगरेट कभी कभी बीयर पी लेती हैं, दोस्ती करती हैं, को उठाकर ले जाता है।तो क्या कहेंगे आप?

मिशन मंगल कर रहा भारत, बुलेट ट्रेन चला रहा भारत और कंप्यूटर, सिलिकॉन वैली, साइबर सिटी वाला भारत है या अंग्रेजों के भी पहले वाला भारत है ?

जहां फिल्म में कोई भी यथार्थ की, आज की झलक तक नही।

हम बात कर रहे हैं स्त्री दो फिल्म की। पूरी फिल्म बेसिर पैर की बातों और दृश्यों से भरी है।

इस अंधविश्वास को मनोरंजन के नाम पर जाने भी दें पर इंटरवल के बाद स्त्रियों की आधुनिकता को सहन नही करने का नेरेटिव लेकर निर्देशक अमर कौशिक, ले आते हैं। उनकी और कथाकार की बुद्धि पर तरस आता है, जो कमजोर स्क्रिप्ट को बताता है। स्त्रियों की आजादी और उन्हे बचाने का कार्य भी चार पुरुष ही करते हैं। जो कतई हीरो नही बल्कि ठेठ गांव के भोमट भट्ट हैं।

ऊपर से आतंक के साए में जी रहे चंदेरी कस्बे, जिसकी आबादी किसी भी हालत में एक लाख से कम नही दिखती, के लोग मुक्ति के मिशन में तमन्ना भाटिया का हॉट नृत्य के साथ खुशी खुशी नाचते हैं ।
गांव कस्बों की नोटंकीनुमा फिल्म, जिसे आधा घंटा भी झेलना मुश्किल किसी भी समझदार के लिए। परंतु यह भारत है जिसे बुधु बनाना और सिर घुमाना बड़ा आसान है।

औसत फिल्मांकन और मामूली अभिनय :_

_____________________ रामसे बंधु होते हैं भारत में भूतिया फिल्मों के गॉडफादर । उनकी फिल्में पुराना मंदिर, तहखाना, सामरी आदि आपको याद होंगी। वह स्त्री से बेहतर डराती हैं और सिनेमेटोग्राफी में भी बेहतर हैं l

स्त्री टू हर विभाग अभिनय, संवाद, निर्देशन, सिनेमेटोग्राफी सभी में निराश करती है।

पहले कहानी समझें, बिना रोए और हंसे। जम्बूदीप, यानि भारत में एक कस्बेनुमा शहर है, जहां आधुनिक रेस्तरां, एफबी, व्हाट्सएप, इंटरनेट है। इतनी आजादख्याल, आधुनिक छोटे कपड़ों में सिगरेट पीती और दोस्त को बेडरूम में बुला लोरी सुनती लड़कियां, जिनके मां पिता कुछ नही कहते, इतना आधुनिक और खुलापन है।जहां एक भी पुरुष पात्र, पिता, भाई, बेटा, पुत्र से न तो इस जगह की स्त्रियां कुछ पूछती हैं न मानती हैं ।

जबकि मिथ्या प्रचार किया की यह पुरुषवाद के खिलाफ है। बीच बीच में बिना वजह दृश्य ठूंस दिए हैं की लड़कियों को पढ़ाना नही, वह पूरे कपड़े पहनें बिना लॉजिक के। जबकि पहले जो वह अर्धनग्न, बोल्ड व्यवहार कर रहीं थी अपने घर, शहर, रेस्टोरेंट में वह अपनी मर्जी से कर रहीं थीं। तो अब क्यों? यह निर्देशक अमर कौशिक, फिल्मी नाम, ज्यादा सुना नही, जरूर यह भला आदमी पहले कई धारावाहिकों का निर्देशन किया है, का लचर निर्देशन और लेखक की बेहद कमजोर पटकथा के कारण कमजोर दृश्य और सामान्य से भी बेकार अभिनय।

इसी टाइम लाइन में स्त्री नामक भूतनी को गढ़ा है पिछली फिल्म में तो इसमें एक सरकटा भूत ले आए हैं। जिसे देखकर अफसोस हुआ की क्यों फिल्म में आए? वह वीएफएक्स के द्वारा कभी भी कहीं भी आ जाता है और लड़कियों को खींच ले जाता है। स्क्रिप्ट की कमजोरी देखें, आधुनिक दिखती, होती शहर की लड़कियों के अचानक गायब होने पर कोई पुलिस कंप्लेन, खोजबीन नही? पुलिस को तो दिखाया तक नही। एकाध दृश्य में दिखा देते तो कुछ निर्देशन का सिर पैर बनता, पर नही।

वहीं दूसरी ओर टपोरी से, वेले, आवारा घूमते लड़के विक्की (राजकुमार यादव), बिट्टू (अपारशक्ति खुराना), जेना(अभिषेक बैनर्जी) और न जाने क्यों की भूमिका में पंकज त्रिपाठी, जो एनएसडी की पढ़ाई के बाद भी ऐसा अभिनय करते हैं मानो नौटंकी हो रही। इनके गुरु, प्रोफेसर रामगोपाल बजाज, मनोहर सिंह, उत्तर बाओकर इनके अभिनय को देख जरूर सिर पकड़ रोते होंगे।

यह सब लगते हैं पैंतीस वर्ष से अधिक के पर व्यवहार करते हैं बीस बाइस वर्ष के चिछौरे युवकों सा।जो हम आप गली, मोहल्ले में रोज फेरी लगाते या पान की दुकान पर लड़कियां छेड़ते या घूरते देखते हैं। इनके मध्य पंकज त्रिपाठी का किरदार, जिनकी प्रेमिका दो दशक पूर्व थी, जो आयु से पचपन वर्ष के हैं, वह सींग कटाए बछड़े की तरह इनके मध्य में जुगाली करते रहते हैं न जाने क्यूं? उनकी उम्र के आदमियों से संवाद का एक भी दृश्य नही। नायिका श्रद्धा कपूर, जो चुड़ेल प्ले की हैं फिल्म में, को अभिनय करने के लिए कुछ नही है। पिछली फिल्म में जो चुडेल आदमियों को पकड़ती तंग करती थी, वह इनकी मां है, सैंकड़ों वर्ष पूर्व की। और यह उनकी बेटी पर अच्छे दिल वाली भूतनी। छोड़ो, क्या क्या लिख रहा हूं इस फिल्म के बेकार और एंटी सोशल, एंटी संस्कृति और सदियों पीछे बिना आधार के धकेलने पर। 

अर्थ यह के बेसिर पैर, एक भी दृश्य, जी हां, एक भी दृश्य ऐसा नही जिसे तसल्ली से अच्छा कहा जाए। अभिनेताओं ने अभिनय के नाम पर घास काटी है। दुख होता है की कॉमनमैन के नाम पर सड़कछाप, आवारा लड़कों को नायक जैसा बनाया जा रहा। इससे और अपराधी मानसिकता और लड़कियों से दुर्व्यवहार की घटनाएं बढ़ेंगी। वैसा ही बेकार निर्देशन हैं। केवल सचिन जिगर का बैकग्राउंड संगीत ठीक है। और एक गाना जो है बेहद गंभीर ग़ज़लनुमा उसे आइटम सॉन्ग का संगीत देकर फिल्माया है तो उसे सुनने में तकलीफ होती है।
   
वर्डिक्ट _फिल्म समीक्षक का
________________________लेकिन फिल्म सुपर हिट हो गई। कैसे? वजह दो हैं ।पहली फिल्म का भाग्य अन्यथा दक्षिण की फिल्मों कांचना, और कांचना रिटर्न के मुकाबले यह बेहद खराब फिल्म हैं। दूसरे हम भारतीयों का एक बड़ा तबका लगभग सत्तर प्रतिशत ग्रामीण, कस्बेनुमा सोच का है। तो वह चुडैल, भूत को देखने आया। लेकिन यही फिल्म विदेश में, जहां साक्षरता सौ प्रतिशत है, बुरी तरह पिटी है।

और बाकी आधे लोग हवा देखकर एक बार देखने चले गए। अन्यथा किसी भी दृष्टि से यह फिल्म आज के भारत में देखने जाने की नही। बस पैसे की बरबादी है। ओटीटी पर भी फिल्म आए तो उसे देखने में समय बर्बाद करने की कोई जरूरत नही ।
मेरी तरफ से इसे फाइव में से एक स्टार।

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समीक्षक : डॉक्टर संदीप अवस्थी, फिल्म लेखक हैं और आपकी कई किताबों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं ।