फिल्म समीक्षा - स्वातंत्र्यवीर सावरकर
“ स्वातंत्र्यवीर सावरकर “ इसी वर्ष मार्च के महीने में रिलीज हुई हिंदी भाषा की फिल्म है . आजकल की पीढ़ी भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वालों में महात्मा गाँधी , जवाहर लाल नेहरू और कुछ हद तक नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में कुछ जानती होगी पर विनायक दामोदर सावरकर के बारे में नहीं जानती होगी या बहुत कम ही सुना होगा . BJP शासन काल में नेताजी और वीर सावरकर का नाम अब सुना जाता है . वैसे स्वतंत्रता संग्राम में वीर सावरकर का अच्छा योगदान रहा था हालांकि कुछ लोग उन्हें बदनाम भी करते हैं . गाँधी और नेहरू के पहले देश के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर संघर्ष करने वालों को इस फिल्म में दिखाने का प्रयास किया गया है . वे एक क्रांतिकारी , स्वतंत्रता सेनानी , इतिहासकार , नेता , समाज सुधारक और हिंदुत्व विचारधारा के समर्थक थे . वे अखंड भारत के समर्थक थे , उनका कहना था कि सिर्फ अहिंसा से आज़ादी नहीं मिल सकती है .
फिल्म की कथा स्वयं नायक रणदीप हुड्डा और उत्कर्ष नैथानी द्वारा लिखित है . इसका निर्माण रणदीप हुड्डा, आनंद पंडित , संदीप सिंह , एस खान और योगेश राहर द्वारा किया गया है जबकि फिल्म का निर्देशन भी स्वयं हुड्डा ने किया है . इस फिल्म में रणदीप हुड्डा ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा को दर्शाने का प्रयास किया है .
फिल्म की कहानी - “ स्वातंत्र्यवीर सावरकर “ फिल्म को समझने के लिए उनकी जीवनी की जानकारी होनी चाहिए अन्यथा अचानक पर्दे पर उनके किरदार को देखने पर मन कुछ भ्रमित हो सकता है . फिल्म का आरम्भ 18 वीं सदी के अंत से होता है जब देश के कुछ भाग में प्लेग का प्रकोप था . इस रोग में नायक सावरकर के पिता की मौत हो जाती है . ब्रिटिश राज में प्लेग रोग के दौरान रोगी और उसके परिवार को बहुत क्रूरता का सामना करना पड़ता था . ऐसे रोगी को अनजान एकांत स्थान में ले जा कर मरने दिया जाता था . उसका घर और पूरा सामान जला दिया जाता था जिसके चलते परिवार के पास कुछ शेष नहीं रहता था . इसके चलते लोग घर में प्लेग प्लेग रोग होने पर भी इसे गुप्त रखते थे . यह देख कर चापेकर बंधु क्रोधित होते हैं और ब्रिटिश अफसर W . C . Rand और उसके गार्ड पर जानलेवा हमला करते हैं . पिता की मौत के बाद वीर सावरकर के मन में भी क्रांतिकारी भावना जागृत होती है और उन्होंने अपने बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर ( अमित सियाल ) और अन्य युवकों को एकत्रित कर “ मित्र मेला “ और “ अभिनव भारत “ जैसी संस्थाओं की स्थापना की जो अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज उठाती और सशस्त्र विद्रोह में विश्वास करती थी .
1906 में कानून की पढ़ाई के लिए सावरकर लंदन जाते हैं . वहां उनकी मुलाकात क्रांतिकारी भारतीयों के संगठन से होती है . इस संगठन के मदन लाल ढींगरा ( मृणाल दत्त ) ब्रिटिश सीक्रेट सर्विस के प्रमुख कर्जन वायली की हत्या कर देते हैं . इस कारण सावरकर को गिरफ्तार कर भारत भेज दिया जाता है . यहाँ उन्हें दोगुने उम्र क़ैद की सजा काटने के लिए कालापानी भेजा जाता है .
फिल्म में जान तब आती है जब 1911 में वीर सावरकर को गिरफ्तार कर अंग्रेज उन्हें अंडमान द्वीप में “ कालापानी “ की सजा काटने के लिए ले जाते हैं . माना जाता है कि वहां से जिंदा लौटना लगभग असंभव था . वहां उनके साथ बहुत ही अमानवीय व्यवहार होता है . रहने , सोने , मल मूत्र आदि सब के लिए एक छोटा कमरा होता है . उन्हें लोहे की मोटी जंजीरों में बांध कर रखा जाता है और कोड़े पड़ते हैं . उन्हें कोल्हू के बैल जैसा इस्तेमाल कर तेल निकाला जाता है . कालापानी की यातनाओं से तंग आकर अनेक कैदी पागल हो जाते या आत्महत्या करते / आत्महत्या का प्रयास करते हैं . 1924 में सावरकर और अन्य कैदियों को कालापानी से मुक्ति मिली . इसके लिए उन्हें लिखित शपथनामा देना पड़ा है कि वे ब्रिटिश राज के विरुद्ध कुछ भी नहीं करेंगे या कहेंगे और राजनैतिक गतिविधियों में भाग नहीं लेंगे . उनका मानना है कि यह कोई ‘ मर्सी अपील ‘ नहीं होकर स्वयं के साथ अन्य कैदियों की रिहाई की दिशा में एक उचित कदम है .
भारत की आज़ादी सिर्फ शांतिपूर्ण तरीको से नहीं हुई थी बल्कि देश में अंग्रेजों के विरुद्ध आक्रोश और क्रन्तिकारी जागरूकता से अंग्रेजों को डर होता है कि कहीं 1857 जैसा सशत्र विद्रोह और बड़े पैमाने पर न फ़ैल जाए . ऐसे किसी बड़े विद्रोह का सामना करना उनके लिए असम्भव है .
100 वर्ष से भी ज्यादा पुरानी घटनाओं को पर्दे पर जीवंत दिखाना आसान काम नहीं है . फिल्म के हर क्षेत्र में रणदीप हुदा छाये रहते हैं . सावरकर की भूमिका में रणदीप का रोल सराहनीय है . उनकी पत्नी यमुनाबाई सावरकर की भूमिका अंकिता लोखंडे ने निभायी है . दूसरों को कुछ खास करने के लिए इस फिल्म में ज्यादा स्पेस ही नहीं है . हालांकि इस फिल्म में रणदीप ने निःसंदेह अथक परिश्रम किया है पर यदि वे अत्यधिक बोझ अपने ऊपर न लेते तब शायद फिल्म और बेहतर होती .
फिल्म दर्शकों को लुभाने में शायद उतनी सफल नहीं हो सकी जितनी कि इस से अपेक्षा थी . हालांकि फिल्म आजकल के दर्शकों के मनोरंजन के लिए नहीं है फिर भी इसे सब को , खास कर आज की पीढ़ी , को इसे देखनी चाहिए . विशेष कर इतिहास में रुचि रखने वालों को यह फिल्म अच्छी लगेगी .
मूल्यांकन - व्यक्तिगत रूप से यह फिल्म 10 में 6 अंक के योग्य है .