गोमती, तुम बहती रहना - 4 Prafulla Kumar Tripathi द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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गोमती, तुम बहती रहना - 4

आत्मकथा अंश (4): गोमती , तुम बहती रहना !:आदर्श समाज बनाने का बिखरता सपना

कवि और साहित्यकार “अज्ञेय” कहते हैं कि “वह क्या लक्ष्य जिसे पाकर फिर प्यास रह गई शेष बताने की, क्या पाया ? ” अर्थात आपकी जीवनोपलब्धि ऐसी होनी चाहिए कि जिसके बाद कुछ और पाने की अभिलाषा समाप्त हो जाए और आपकी उपलब्धि को लोग स्वयं महसूस करें न कि आप उसको दुनियाँ को बताते फिरें |उनकी यह बात सिद्धांतत: सही लगती है किन्तु व्यावहारिक स्तर पर ऐसा संभव नहीं। है | सफल और आदर्श व्यक्तित्व की उपलब्धि ही क्यों असफलता,कमजोरी भी तो सबके सामने आनी चाहिए जिसे उसे खुद बताना होगा | इंसान का मन भी किसी समुद्र से कम नहीं होता है | यदि सामने ना आए तो कोई समझ नहीं सकता है कि उसमें कितने हादसे और कितनी यादें समाई हुई हैं |इसलिए मेरा व्यक्तिगत विचार है कि सफल या सफल व्यक्तियों को अपनी आत्मकथाएं लिखनी ही चाहिए |आलोचनाओं से डर कर यदि आप अपने सफल या असफल जीवन को शेयर नहीं करते हैं तो यह आपके व्यक्तित्व का एकांगी पहलू है | आप परिवार या समाज के मूल्यवान  अंग हैं |महात्मा गांधी आज भी लाखों लोगों के प्रेरक हैं क्योंकि उनके जीवन को आईने की तरह देखा जा सकता है |उनकी आत्मकथा के पन्नों को पलट कर देखिए तो सही जिसमें एक आम इंसान की गलतियाँ हैं, सफलता- असफलताऐं हैं, उसका बनना और बिगड़ना है |

गोरखपुर छूट चुका था लेकिन दिल और मन में अभी भी वही शहर और उसके लोग बसे हुए हैं |वहाँ के माटी की सुगंध अब भी मुझे जीवंत किये रहती है |अब अपने बेतियाहात के घर में मेरे सिवाय सभी थे | बडे भाई प्रोफेसर एस. सी. त्रिपाठी अब दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में बॉटनी के हेड बन गए थे |छोटे भाई दिनेश चंद्र त्रिपाठी इलाहाबाद बैंक में कार्यरत थे |दोनों का परिवार वहीं था |अम्मा पिता जी भी वहीं थे | पिता जी ने गाँव की खेती बारी का कुछ हिस्सा ईंट के भट्ठे के लिए और शेष अधिया बंटाई पर दे दिया था और उससे मिलने वाली धनराशि का कुछ हिस्सा राशन पानी खरीदने के लिए हम तीन भाइयों को भी दे दिया करते थे | उन्होंने विश्वविद्यालय के लॉ विभाग में पढ़ाने का काम छोड़ दिया था और पूर्णतः कचहरी के लिए समर्पित हो गए थे | कचहरी में अब जो नए लोग आ रहे थे वे मुकदमें जीतने के लिए हर तरह के तरीके आजमाने लगे थे |अपराध तो बढ़ रहे थे ,अपराधियों की धर - पकड़ भी हो रही थी किन्तु व्हाइट कॉलर क्रिमिनल होने के नाते उनको राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ था |गिरफ़्तारी के बाद अव्वल तो थाने से ही जमानत ले लिए जाने की कोशिशें होने लगी थीं और जमानत पाकर बाहर आने पर गवाहान तोड़ने फोड़ने का सिलसिला चलता था | अजीब दौर से गुजर रहा था उन दिनों का पूर्वाञ्चल | इसलिए पुराने वकीलों को बहुत ज्यादा काम नहीं मिल रहा था |फिर भी पिताजी के कुछ पुराने मुवक्किल अब भी अपना मुकदमा इनको ही देते थे और पिताजी अत्यंत निष्ठापूर्वक उसकी पैरवी किया करते थे |

पिता जी आचार्य प्रतापादित्य अपनी वकालत ,यूनिवर्सिटी में कानून पढ़ाने और आध्यात्मिक संगठन आनंद मार्ग के चलते गोरखपुर के बुद्धिजीवी वर्ग में लोकप्रिय हो गए थे |गोरखनाथ मंदिर, थियासोफिकल लॉज ,गांधी आश्रम आदि से जुड़ गए थे | उनका पत्र पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन जारी था |वर्ष 1955 में स्थापित आनंद मार्ग संगठन के वे गृही आचार्य थे |
वर्ष 1990 में गुरुदेव ने अपना शरीर त्याग दिया था और तभी से इस संगठन में आपसी खींच तान चलने लगी थी जिसका प्रभाव लोकल इकाइयों तक होने लगा था |आचार्य श्रद्धानंद अवधूत के पुरोधा प्रमुख बनने पर लगा था की आपसी कलह पर विराम लगेगा किन्तु वर्ष 2008 में उनके निधन के बाद कलह ने विकराल रूप ले लिया |कुछ गृही आचार्यों ने मिलकर संगठन को एक करने के अनवरत प्रयास किये लेकिन वे असफल रहे |फलस्वरूप मेरे पिताजी ने संगठन में सक्रिय भूमिका निभाना बंद कर दिया |वे आनंद मार्ग के साधक और आचार्य बने रहे लेकिन संगठन से उन्होंने नाता तोड़ लिया |यह सच है कि उनका रुझान कुछ दिनों तक थियोसोफ़िकल चिंतन तक रहा किन्तु उससे भी उनका मोहभंग हो गया |आनंद मार्ग संगठन के बिखरने का दुख उनको आजीवन सालता रहा |
हम लोग विशेषकर मैं आनंद मार्ग की निकटता से धीरे धीरे दूर हो चले थे | इसका कारण वर्ष 1975 में इमरजेंसी लगना और आनंद मार्ग संगठन पर प्रतिबंध लगना भी था | हालांकि गुरुदेव में और साधना पद्धति में भरपूर आस्था थी |
गुरुदेव शरीर में थे तब भी और अब भी जब वे अशरीरी हैं . उनको भगवान नहीं तो महामानव की संज्ञा तो दी ही जानी चाहिए क्योंकि समय के हिसाब से वैज्ञानिक साधना पद्धति देना और सामाजिक आर्थिक राजनीतिक दर्शन सामने लाना मामूली काम नहीं है | जिन्होंने उनकी “वराभय मुद्रा” का साक्षात दर्शन किया है वे भला उस चमत्कृत क्षण को कैसे भुला पाएंगे ? जिन्होंने उनसे पर्सनल कान्टैक्ट का अवसर पाया है क्या वे उनको सामान्य मानव की श्रेणी में रख  पाएंगे ? गोरखपुर हो या लखनऊ , रांची, आनंद नगर या कोलकाता सभी जगह संगठन टूट रहा था, बिखर रहा था और हम सभी किंकर्तव्य विमूढ़ थे |
मेरे पिता जी भी अंदर से टूटते जा रहे थे |आगे चलकर उन्होंने कचहरी जाना भी बंद कर दिया लेकिन घर पर वे प्राय:दिन भर लोगों की आध्यात्मिक जिज्ञासा शांत करते रहे |ऐसे ही दौर में आजकल के चर्चित ज्योतिषी श्री शैलेन्द्र पांडे उनके संपर्क में आए , उन्होंने उनसे आनंद मार्ग की दीक्षा लिया और उन्होंने उनसे अध्यात्म और ज्योतिष की वैज्ञानिकता में भी दक्षता प्राप्त किया |आज वे शीर्ष पर हैं और आचार्य जी के प्रति कृतज्ञ हैं |
(क्रमश:)