गोमती, तुम बहती रहना - 1 Prafulla Kumar Tripathi द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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गोमती, तुम बहती रहना - 1


अपने जन्म वर्ष 1953 से अपने जीवन की युवावस्था और दाम्पत्य तथा नौकरी शुरुआत तक की अवधि का आत्मगंधी लेखा- जोखा मैंने अपनी आत्मकथा के पहले खंड “ आमी से गोमती तक “ में दे दिया है जिसे आप पाठकों ने “मातृ भारती " के इन पृष्ठों पर पढ़ा है| इसे अब पुस्तक का रूप दे दिया गया है | इस पुस्तक की अंतिम प्रूफ रीडिंग और कवर पेज चयन के काम को मैंने रविवार 11 फरवरी 2024 को अपने पैतृक और अब लगभग उजड़ रहे घर अरविन्द आवास,बेतियाहाता गोरखपुर (उ.प्र.) में सम्पन्न कर दिया था |लखनऊ से लैपटॉप साथ लाने और अपने मोबाइल में पर्याप्त इंटरनेट डाटा होने के कारण ही यह काम सम्पन्न हो सका था | जिस समय यह काम सम्पन्न हुआ मुझे लगा जैसे मैंने अपनी बिटिया को शादी उपरांत विदा करने का शुभ काम सम्पन्न कर दिया है | चूंकि लैपटॉप पर मुझ नाचीज़ को काम चलाऊ ज्ञान है इसलिए थोड़ी दिक्कतें अवश्य हुईं लेकिन जूझता रहा और तगादा कर रहे प्रकाशक को अपनी विवशता बताते हुए अंतत: यह काम निपटा दिया | यह पुस्तक अब अमेजन पर उपलब्ध है |
पाठकों, आपको बता ही चुका हूँ कि उम्र के 72 वें सोपान पर पहुँच चुकने के बावजूद लेखन अब मेरा “पैशन” बन चुका है और जब कुछ
लिख लेता हूँ तो उसे पाठकों तक पहुंचाने के लिए बेचैन होना भी स्वाभाविक ही रहता है ! यह भी बताना चाहूँगा कि बावजूद अपने विपरीत स्वास्थ्य, मनोरोगी जीवन संगिनी की देखभाल में व्यस्तता और परिवार में प्रतिकूल परिवेश की चिंताजनक परिस्थिति के मैं लगातार अपनी लेखन प्रक्रिया जारी रख सका हूँ इसके लिए प्रभु और आप हितैषियों के प्रति कृतज्ञ हूँ |
आपको याद होगा कि आत्मकथा के पहले खंड के समापन में मैंने लिखा था – “ इसी के साथ मैं अपनी आत्मकथा के इस खंड का समापन कर रहा हूँ |अपनी ज़िंदगी की इसके आगे की कहानी आप तक पहुंचाने के लिए मैंने अभी से पुस्तक का नाम चुन लिया है – “गोमती, तुम बहती रहना |” लखनऊ, जहां मैं रह रहा हूँ , आप जानते ही हैं कि उसकी जीवन धारा है गोमती |यदि स्थितियाँ सामान्य रहीं और मैंने अपना शरीर प्राकृतिक रुप से लखनऊ में ही छोड़ा तो मैं माँ गोमती के तट पर ही पंचतत्व में विलीन होना चाहूँगा | ज़िंदगी का यह संयोग देखिए कि एक नदी तुल्य माँ आमी ने मुझे जन्म दिया और अब दूसरी माँ गोमती अपनी गोद में लेकर मुझे विराट प्रकृति माँ के उस पुण्य लोक में पहुंचाएंगी जहां जाना सभी का अभीप्स होता है | लेकिन उसके पहले अपनी कथा – अपनी व्यथा आप तक पहुंचाने की पुरजोर कोशिश होगी इस आत्मकथा “गोमती ,तुम बहती रहना ” के दूसरे और अंतिम खंड के माध्यम से | तो तब तक के लिए लेते हैं एक छोटा सा ब्रेक !” आपके मन में कौतूहल उठ सकता है कि आखिर मैंने अपनी इस आत्मकथा का यह नाम क्यों रखा ?

असल में वर्ष 1991 और फिर 2003 में जब मैं अपने उन दिनों के छोटे शहर गोरखपुर को छोड़कर नवाबों के इस शहर लखनऊ में आया तो पहचान के मामले में लगभग एक फकीर जैसी अपनी हालत थी | मेरी जो भी जमा पूंजी थी (साहित्य-रेडियो कार्यक्रम-जान पहचान आदि की) उस गठरी को तो मैं गोरखपुर ही छोड़ आया था | लखनऊ वाले कहते तो अपने को बहुत तहज़ीब ओ अदब वाले हैं लेकिन यहाँ आकर मुझे असलियत कुछ अलग ही लगी |यहाँ दूसरों को “पनाह “ या सोहबत देना , उनकी योग्यताओं को प्रथम दृष्टया सम्मान देना उन्हें अच्छा नहीं लगता |यहाँ के लोगों के व्यावहारिक जीवन में भी राजनीति पैठ गई है |अब ऐसे में अपने स्वाभिमान के कौमार्य की रक्षा करते हुए लखनऊ में अपनी पैठ बनाना और लखनऊवा लोगों की मान्यता पाना मेरे लिए टेढ़ी खीर थी |
लेकिन “हार नहीं मानूँगा रार नहीं मानूँगा” की तर्ज पर मैं चलने लगा | लखनऊ में अपने को स्थापित करने के लिए मैंने लखनऊवा लोगों की कमजोर नब्ज टटोली और उन पर रेडियो की सेवा में रहते हुए काम करना शुरू कर दिया |उसी क्रम में गोमती नदी के सांस्कृतिक महत्व और उसकी शुचिता पर मैंने 13 एपिसोड में एक संगीत रूपक बनाया –“गोमती,तुम बहती रहना !” रेडियो की दुनियाँ में उन दिनों यह सुपर हिट साबित हुआ | फिर क्या था- मानो माँ गोमती का मुझे भरपूर स्नेह और आशीर्वाद मिलने लगा |लखनऊ के प्रतिष्ठित लेखकों ,संगीत के कलाकारों , साहित्यकारों से मेरी गहरी निकटता होने लगी | पद्मश्री डा०योगेश प्रवीण,एच० वसंत ,विनोद कुमार चटर्जी ,नवीन जोशी ,उत्तम चटर्जी,उ०प्र० के पूर्व पुलिस प्रमुख श्रीयुत श्रीराम अरुण, के० एल० गुप्ता,पुलिस दूरसंचार के पूर्व निदेशक प्रोफेसर आर०जी० गुप्ता आदि | फिर तो लखनऊ में वर्ष दो हजार तीन से दो हजार तेरह (ध्यान दें तीन – तेरह का प्रचलित मुहावरा जिसका अर्थ होता है तित्तर बितर होना या कहीं का ना होना लेकिन मेरे मामले में यह उल्टा साबित हुआ) तक का सेवाकाल कुछ निजी परेशानियों को छोड़कर बहुत अच्छा बीता |
मेरी पत्नी मीना का केन्द्रीय विद्यालय में स्थानांतरण हो चुका था |मैं लगभग एक वर्ष देर से आया | हम लोगों ने अपना आशियाना रिंग रोड कल्याणपुर के अपने पहले के बने मकान को बनाया | कदाचित पत्नी के मितव्ययी होने के कारण ही यह संभव हो सका था कि हमने पहली जून 1985 को गोरखपुर में रुस्तमपुर ढाले के आगे स्थित महुई सुघरपुर मुहल्ले में 2834 स्क्वायर फिट की जमीन मात्र चालीस हजार रूपये में खरीदी थी और आगे चल कर उसी जमीन को 20 फरवरी वर्ष 2003 को चार लाख पंद्रह हजार पाँच सौ रुपये में बेंच दी | याद आ रहा है कि इसके लिए सात जनवरी 1985 को जब मेरी एक रेकरिंग डिपाजिट मेच्योर हुई थी और उससे रु 24,592 रूपये प्राप्त हुए थे तो एक नई जमीन लेने के लिए शेष रकम उधार लेकर जुटाई गई थी |इस चार लाख रुपये को फिर से हमने न्यू राजीव नगर (बशारतपुर) मुहल्ले में एक प्लाट खरीदने में लगा दिया |इसके अलावे 5 जुलाई 1986 को यू. पी. सी. आई. डी. सहकारी आवास समिति लखनऊ से हमने रिंग रोड कल्याणपुर लखनऊ में लगभग 2425 स्क्वायर फिट जमीन लगभग 24 हजार रुपये देकर रजिस्ट्री कराई थी |इसके लिए मेरी सास ने ढाई हजार, साले श्याम चंद्र मिश्रा ने बीस हजार और छोटी बहन प्रतिमा ने 15 हजार रुपये उधार दिए थे | लखनऊ में जब जमीन खरीद ली गई तो उसकी चहारदीवारी और उसमें कुछ निर्माण कराना भी आवश्यक हो चला | लक्ष्मी मिस्त्री को लेबर का ठेका दिया गया |फलस्वरूप 19 जनवरी 1989 को नीव पूजन सम्पन्न हुआ और 1500 स्क्वायर फिट पर मकान बनाए जाने का काम शुरू हुआ |24 जनवरी को हैंडपंप लगाया गया |उन दिनों 1250 रुपये प्रति ट्रक ईंटें, 66 रुपये बोरी सीमेंट और मात्र 920 रुपये कुंतल सरिया मिला करती थी मिला करती थीं |गृह निर्माण का काम “फुल स्विंग” में शुरू हो गया |14 फरवरी तक नीव तक की जुड़ाई हो चली |इसके लिए मेरी डायरी में अब स्मृति शेष साले श्याम चंद्र मिश्र द्वारा पहली मार्च 1989 को फिर से दिया गया 30 हजार रुपये का भी जिक्र है| 11 मार्च 1989 को डोर लेवल तक के निर्माण कार्य होने का जिक्र है |अप्रैल माह में मेरे चंद्रपुर जाने (उन दिनों पत्नी मीना वहीं पर पोस्टेड थीं ) और वहां से मीना और एक शिक्षिका शीला वाडगामा के मार्फत सात हजार रुपये लाने का जिक्र है |बीच बीच में मैं गोरखपुर आता जाता रहा |मई में ससुर जी ने चार हजार रुपये दिए और मैं 12 हजार लेकर आया |मेरे साढ़ू ओ.पी. मणि त्रिपाठी और उनकी पत्नी ममता का लगातार योगदान हर तरह से मिलता रहा | मीना की मित्र किरण वैश्य और उनके पति अविनाश से भी आर्थिक मदद मिलता रहा | अंतत:12 फरवरी 1991 को आनंद मार्गी ढंग से गृह प्रवेश सम्पन्न हुआ जिसमें मेरे माता पिता जी भी सम्मिलित हुए थे |इस आयोजन में मात्र 3,312 रुपये के खर्च होने का विवरण है | इस प्रकार लखनऊ में एक घर बनाने का सपना सच साबित हो गया भले ही वह आधा ही बन पाया हो |आधा मकान मेरी लखनऊ की अनचाही पोस्टिंग के दौरान जून वर्ष 1992 में बनना शुरू हुआ | उन दिनों आधे पोर्शन में मैं और मेरे एक कार्यालय सहयोगी बी.बी.शर्मा रहते थे और निर्माण कार्य भी चलता रहा था |17 मार्च 1992 को एक हार्स पावर की मोटर 3850 रुपये में और 1790 रुपये में 500 लीटर की टंकी खरीदे जाने का जिक्र है |अप्रैल 1992 में जी. पी. एफ. से 28,000 रुपये निकाले जाने का विवरण है जो इसी काम के निमित्त था |लखनऊ के इस पहले मकान के पीछे के पोर्शन की छत 19 जून 1992 को पड़ी |अब प्लास्टर का काम बाकी था जो अक्टूबर से शुरू हो सका |अंतत:वह काम भी सम्पन्न हो गया और पीछे का पोर्शन एक किरायेदार तिवारी जी के जिम्मे कर दिया गया |

लखनऊ के रिंग रोड के किनारे स्थित इस कल्याणपुर के मेरे मकान के आगे के पोर्शन में कार्यालय सहयोगी शर्मा जी पहले से रह ही रहे थे | इस बीच एक बार पहले से लिया गया बिजली कनेक्शन कट जाने की स्थिति में मेरे साढ़ू साहब ने जून 1998 में फिर से एक नया कनेक्शन किन्ही श्यामा चरण पांडे के मार्फत दिलवा दिया था जो आगे चल कर मेरे लिए सिरदर्द साबित
हुआ | उसकी कहानी अगले अंक में |