गोमती, तुम बहती रहना - 6 Prafulla Kumar Tripathi द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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गोमती, तुम बहती रहना - 6

                 ज़िंदगी क्या है ? पानी का बुलबुला ?लेखक द्वारा लिखी जा रही किसी कहानी का कोई बनता -बिगड़ता  हुआ किस्सा ? किसी सागर की तरह उठती गिरती लहरें ? या ,कुदरत का दिया हुआ अनमोल उपहार ? ज़िंदगी के बारे में कुछ शब्दों मे लिखना या समझना नामुमकिन है | किसी ने ठीक ही कहा  है कि किताब से सीखो तो नींद आती है लेकिन ज़िंदगी जब सिखाती है तो नींद उड़  जाती है | कोई कहता है कि ज़िंदगी महज एक भ्रम है | मुझे ऐसा लगता है कि यह (जीवन) एक सच है लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है | इतना अवश्य ही है कि यह जीवन कुदरत या प्रकृति का दिया हुआ अनमोल उपहार है |यहाँ मैं “कुदरत” का मतलब उस अदृश्य किन्तु अवश्य ही होने वाली सत्ता से रखता हूँ जो कण -कण में विद्यमान है |जिसे विज्ञान भी आज तक चुनौती नहीं दे सका है और शायद दे भी नहीं पाएगा | सवाल यह उठता है कि फिर इस ज़िंदगी के लिए इतनी आपा- धापी क्यों ? झूठ -फरेब क्यों ? अकूत धन संचय     क्यों ?.. और इस सवाल का उत्तर आज तक कोई नहीं दे सका है | मैं भी नहीं दे पाऊँगा | बस, ज़िंदगी मिली है तो जिये जा रहा हूँ | इस अमृत समझ कर इसके एक एक बूंद को पिए जा रहा हूँ |रुला रही है तो रो रहा हूँ , हंसा  रही है तो हंस रहा हूँ ,गुनगुना रही है तो बस गुनगुनाता ही चला  जा रहा हूँ |                        

आत्मकथा की पिछली कड़ी में बात कहाँ छूटी थी , याद नहीं | .. .. शायद मेरी ज़िंदगी मे आए खत -ओ -किताबत पर | सच मानिए कागज के उन ढाई आखरों  ने न सिर्फ़ उस समय जब मैं संकट में रहा , तनाव में रहा दिशाहीन सा रहा तब तब , समय- समय पर उन पत्रों ने मेरी ज़िंदगी को  सही दिशा दिखाई है |इसीलिए इस डिजिटल युग में भी वे ढाई आखर मेरे लिए अपना महत्व बनाए हुए हैं |लेकिन पत्रों का आपके लिए कितना महत्व है, पता नहीं |                       वर्ष 2003 में लखनऊ आकर अब मैं  धीरे धीरे लखनऊ का होने लगा  था |गोरखपुर क्रमश: धीरे धीरे पीछे छूटता जा रहा था | लखनऊ की चकाचौंध प्रथम दृष्टया तो अच्छी लगी लेकिन आगे चल कर  मैने यह पाया कि जो बात गोरखपुर में है,गोरखपुर की मिट्टी और संस्कृति में है  वह यहाँ ,लखनऊ  में नहीं |सच यह है कि कल तक  जिस लखनऊ को लोग जानते मानते रहे हैं आज का  लखनऊ वैसा नहीं रहा |इस शहर ने अपने अतीत पर कालिख पोत रखा है और इस शहर पर आधुनिकता के अच्छे बुरे सभी रंग चढ़ चुके         हैं |”पहले आप” का जुमला अब किताबों के पन्नों तक सिमट कर रह गया है |असलियत यह है कि अगर मौका मिल जाए तो लखनऊ के लोग पहले मैं को साकार करने के लिए आपके ऊपर चढ़ कर अपना मतलब साध लेंगे |अगर आपसे मतलब नहीं है तो वे आपको देख कर भी अनदेखा कर जाएंगे ,कन्नी काट लेंगे | वहीं दूसरी ओर गोरखपुर ? अगर आप कुछ दिन भी वहाँ रहे हों तो गोरखपुर के लोग तो अब भी आपको बेवजह रोक कर सलाम- दुआ और हाल चाल पूछा करते हैं  | इसीलिए मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि आज भी अपनी मिट्टी और अपनी शालीन संस्कृति और संस्कार से जुड़े हुए हैं बहले ही पश्चिम के लोग उनको गोरखपुरिया कह कर उन पर व्यंग्य कसते हैं !इस शहर ने खामोशी से आधुनिकता को अपने जीवन में आने दिया है लेकिन मुखर होकर इसने अपनी परंपरा और संस्कृति को जीवंतता दे रखी है | साहित्य में फ़िराक़ इसकी थाती हैं,मुंशी प्रेमचंद इसके पौरुष ,वीर बहादुर सिंह,महावीर प्रसाद  और अब योगी आदित्य नाथ इसके राजनीतिक बाहु- बाल,पंडित सुरति नारायण मणि त्रिपाठी और सुरजीत सिंह मजीठिया इस शहर को  उच्च शिक्षा प्रदान करने वाले अनमोल रत्न  और हठ योग (योगी गोरक्षनाथ ),शांति मार्ग(बौद्ध ) और समरसता और फक्कड़पन (कबीर दास) देने वाले इस शहर की राप्ती नदी और रामगढ़ ताल के अथाह जल  ने इसकी आँख को पानी दे रखा है |शायर राहत इन्दौरी ने शायद इसी शहर के लिए ठीक ही लिखा हो : 

“आँख में पानी रखो,होंठों पे चिंगारी  रखो ,

जिंदा रहना है तो तरक़ीबें  बहुत सारी रखो |

एक ही नदी के हैं ये दो किनारे दोस्तों ,

दोस्ताना ज़िंदगी से मौत से यारी रखो |

राह के पत्थर से बढ़ के ,कुछ नहीं हैं मंजिलें,

रास्ते आवाज़ देते हैं ,सफ़र  जारी रखो |”                        

शहर तो शहर , उन दिनों लखनऊ के रेडियो का तो और भी बुरा हाल था | अव्वल तो यहाँ का रेडियो किसी  नए का स्वागत नहीं करता | उसे लगभग दुत्कारता है कि वह हतोत्साहित होकर भाग जाए | दूसरे, अगर अगला आदमी “बेहया” (अच्छे संदर्भ में ) निकला और डटा रहा तो उसको भरपूर “इग्नोर” किया जाता  है |लखनऊ में दो बार हुई पोस्टिंग के दौरान मेरे साथ भी यही सब कुछ घटित हुआ, होता ही रहा, आज भी होता चला आ रहा है |वर्ष 1991 रहा या वर्ष 2003 , मुझे ज्वाइन कराने ,विभाग आबंटित करने , औपचारिक और आवश्यक सुविधाएं देने या मेरे किये गए योगदान को स्वीकार करने में लखनऊ रेडियो उदासीन बना  रहा | लेकिन मैं भी हार नहीं मानने वाला निकला और मैंने  भी शरीर और मन से बेहयापन निकाल कर रेडियो में कुछ ऐसे काम किये कि  ढेर सारी उपलब्धियां अपने खाते में जमा गई हैं |रेडियो वालों सुन लो ,आप बेशक मुझे इग्नोर कर सकते हो लेकिन मेरे ऑन रिकार्ड काम को तो नहीं ?            

मुझे याद आते हैं मेरे द्वारा बनाए गए कई कई एपिसोड के  रेडियो कार्यक्रम | मुझे याद आते हैं रेडियो के संगीत विभाग के एडमिनिस्ट्रेशन को देखते हुए बिगड़ैल कलाकारों को सुधारने  के उद्देश्य से  उन पर बिना किसी संकोच या डर के चलाए गए चाबुक | इसी के चलते एक टॉप ग्रेड के बदतमीज़ वादक कलाकार को तो रिटायरमेंट के बाद लगभग पाँच लाख की चपत भी लगी थी | या केंद्र के वर्षों सुरक्षा अधिकारी बने रहने के रुप में किये गए कार्य और निर्णय |एक बार तो उप महानिदेशक पद पर बैठे और उन दिनी केंद्र निदेशक की अनुपस्थिति में केंद्र का भी काम देख रहे एक अधिकारी से मकान बनाने वाले उनके ठीकेदार को उनके द्वारा रोक रखे गए लाखों रूपये के पेमेंट भी मैंने अपने कार्य चातुर्य से दिलवाए थे |सुनना चाहेंगे वह रोचक किस्सा ?