गोमती, तुम बहती रहना - 5 Prafulla Kumar Tripathi द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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गोमती, तुम बहती रहना - 5

            गीतकार इंदीवर ने फिल्म “मैं चुप रहूँगी” के अपने एक लोकप्रिय गीत में लिखा है –“ सबके रहते लगता है जैसे कोई नहीं है मेरा , सूरज को छूने निकला था आया हाथ अंधेरा | जाने कहाँ ले चली है मुझको समय की धारा,रास्ता ही रास्ता है आगे न मंजिल है न किनारा | “ मैनें अपनी उम्र के लगभग हर मोड़ पर अपने जीवन को ऐसी ही समय की धारा में बहते हुए पाया है |मानो ज़िंदगी “आटो मोड” पर बही चली  जा रही हो |                   

        वर्ष 2005 में पत्नी के साथ मैं 27 मई को पुणे के लिए निकला |वहाँ मेरे दूसरे पुत्र (पुकार नाम प्रतुल) यश आदित्य एन. डी. ए. में चयनित होकर खड़गवासला में ट्रेनिंग ले रहे   थे | पुणे शहर से लगभग 16 किलोमीटर दूर यह राष्ट्रीय संस्थान अपनी कठिन ट्रेनिंग के लिए विश्व प्रसिद्ध है | हमें गर्व हो रहा था कि हमारा  दूसरा बेटा  भी देश की रक्षा के लिए तैयार हो रहा है | बेटे से मिल कर पहली जून 2005 को हमलोग वापस लखनऊ आ गए |                                              इधर उस दौरान हम गोरखपुर वाले  लखनऊ शहर  और लखनऊ शहर  वाले हमको समझ रहे थे  |ढेर सारी खूबियाँ जो अपने गोरखपुर में थीं वे लखनऊ में नहीं थीं लेकिन पुरातात्विक,सामाजिक आचार-  विचार, संस्कृतियों और ऐतिहासिक दृष्टि से लखनऊ सुसम्पन्न था | इस संदर्भ में नज़ीरन लखनवी का यह शेर याद आता है- “क्या कहें तुमसे हम कि क्या हैं हम , पाक दामन हैं पारसा हैं हम ! ” सच तो यही है  कि एक सौ चौंतीस वर्ष के अवध के शासकों ने देश को अति  मूल्यवान उपहार दिए हैं उन सबमें सबसे अधिक मूल्यवान अवध की वह संस्कृति है जिसे गंगा जमुनी तहज़ीब  कहते हैं|इसीलिए डा. राही मासूम रज़ा  ठीक ही फरमाते हैं –“सियाह रात भी आए तो सुबहे गुलशन है ,तिलस्में शामे अवध का चिराग रौशन है |” रंगीनियों से भरी इन खूबसूरत शाम का दीदार करना हो तो हजरतगंज  में पहुँच जाएँ ! बावजूद इन सभी लुभावने आकर्षण के मुझे लखनऊ रास नहीं आ रहा था |मैंने विज्ञानपुरी कालोनी  महानगर में जो नया मकान बनवाया था उसके लिए कुछ नजदीकी लोगों और बैंक का कर्ज मुझे उतारना था | इसलिए उस दौर में बावजूद इसके कि मेरी पत्नी भी सरकारी सेवा (केन्द्रीय विद्यालय) में थीं मुझे आर्थिक दबाव में रहना पड़ रहा था |लखनऊ के कल्याणपुर मुहल्ले के पुराने मकान के लिए कोई ठीक ठाक किराया देने वाला किरायेदार नहीं मिल रहा था इसलिए आमदनी का वह स्त्रोत भी बंद था |बहरहाल मैं अपने खाली समय में अपनी फ़ाइलों को , अपनी डायरियों को और पुराने पत्रों को पढ़ता ,उनसे बातें करता और लिखता रहा |         

       अरे , यह क्या ? इतने ढेर सारे पत्र.. .. मुझे पढ़ो ,मुझे पढ़ो का मानो गुहार लगा रहे हों ! और यह टेढ़ी मेढ़ी लिखावट वाली चिट्ठी  किसकी है? ओह , ये मेरे बड़े पुत्र की राइटिंग में गोरखपुर से लिखा  गया पत्र है जिसमें वे लिखते हैं-“ प्रिय डैडी,नमस्ते |कैसे हैं, सब ठीक ठाक है या नहीं ? मेरे सभी exam  अच्छे गए हैं सिर्फ़ maths  बचा है | मम्मी  मेरा जूता खरीदी हैं |प्र तुल  के बर्थडे पर आप अनुपस्थित थे इसलिए मैं थोड़ा गुस्से में हूँ|.. आपका पुत्तर रूपल|”                             सचमुच ,यह तो आप भी मानेंगे कि जबसे लैपटाप और मोबाइल युग आया है हम सभी के जीवन से पत्र लेखन , पत्र मनन और पत्र वाचन की विधा धीरे धीरे विदा हो रही है । अपने  सेवाकाल से वर्ष 2013 में रिटायरमेंट के बाद फुर्सत के क्षणों में मैने पाया है कि ढेर सारे पत्रों का खजाना मेरे पास जमा पड़ा है।पत्र जिसमें प्यार है, गुस्सा है , संस्मरण हैं, रिश्तों की मिठास या कड़वाहटें भी समाहित हैं । प्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्चन, भूदान प्रणेता विनोबा भावे, पं० विद्यानिवास मिश्र, साकेतानन्द, जस्टिस एच० सी० पी० त्रिपाठी, के० पी० सक्सेना, विवेकी राय  आदि के लिखे पत्र और हां हिन्दी फिल्मों के हास्य कलाकार महमूद का वह अजूबा पत्र भी ....जिसमें उन्होंने हस्ताक्षर की जगह अपने अंगूठे का निशान लगाकर पत्र रवाना कर दिया था और यह संदेश भी दिया था कि वे सिर्फ सिनेमा के पर्दे पर ही नहीं सामान्य जीवन में भी हास्य बिखेर कर आपके चेहरे पर मुस्कान ला सकते हैं । ढेर सारे लोगों के फाइलों में लगे  ये ढेर सारे पत्र मेरे एकांतिक क्षणों में अब भी मुझसे बातें करते रहते हैं । इन्हीं में हैं कुछ परिवारीजनों के भी पत्र ,ख़ासतौर से मेरे पिताजी के पत्र जो उनके न रहने पर आज भी मेरे सम्बल बने हुए हैं ।           

       आधुनिक दौर में भले ही पत्र लिखना पढ़ना कम हो चला है या यूं भी कह सकते हैं कि पत्र लेखन विधा के अस्तित्व पर ही संकट आ चुका हो किन्तु अभी कुछेक वर्ष पूर्व पत्र लिखना पढ़ना और उसके अनुसार अपनी भावाभिव्यक्ति करना और आगे की योजनाएं बनाना प्रचलन में रहा है ।फिल्मों में इन्हीं चिट्ठियों को लेकर अनेक गीत लिखे गए हैं ।याद कीजिए "तीसरी कसम" का वह दार्शनिक "गीत-चिठिया हो तो हर कोई बांचे, भाग न बांचे कोय.".  आदि ।       

       मैंने भी पत्र लेखन और वाचन के शौक में भरपूर डुबकियां लगाई हैं ।रिश्तों की मिठास या उनकी कड़वाहट उनमें महसूस की हैं और कभी कभी मुश्किल समय में उन्हीं पत्रों से मुझे सम्बल भी मिलता रहा है ।आदरणीय आचार्य प्रतापादित्य ,जो मेरे पिता और आचार्य भी थे, ने पत्रों को संवाद और अभिव्यक्ति का शक्तिशाली माध्यम माना था और उनसे जुड़े तमाम लोगों ने भी ऐसा अनुभव किया है कि उन सबके कठिन दिनों में ये पत्र उनके सम्बल बने हैं ।मेरे सामने उनके पत्रों का जखीरा पड़ा उनके हृदय की विशालता और औदार्य का सप्रमाण किस्सा बयान कर रहा है ।बहुजन हिताय के लिए उन्हें साझा करना प्रासंगिक समझ रहा हूं ।       

      बीसवीं सदी के एक आध्यात्मिक संगठन "आनन्द मार्ग"के प्रवर्तक आनन्दमूर्ति जी ने कहा था- "मेरी जीवनी तो बहुत थोड़े शब्दों में लिखी जा सकती है - I came, I loved ,I punished, I got my work done and gone. " उनका आना, काम करना और चले जाना सम्बन्धित था उन अनेक बिन्दुओं से जिनकी समष्टि वे थे । उसी प्रकार उनसे जुड़े अनेकानेक आचार्य, अवधूत, सन्यासी गण,साधक और साधिकाएं उन्हीं तारक ब्रह्म की समष्टि की विभिन्न भूमिकाओं में इस पंचभौतिक शरीर में अपनी भूमिका निभा रहे हैं ।उनकी लीलाओं के हम सभी पात्र थे ,हैं और रहेंगे । एकाधिक सम्बोधनों में आनन्दमूर्ति जी ने मेरे पिता ,मेरे आचार्य को Naughty Boy कहकर पुकारा था ।जिस प्रकार अपने सरयूपारीण ब्राह्मण परिवार की कुल परम्पराओं को एक क्षण में छोड़कर मेरे पिताजी ने आनन्द मार्ग के क्रांतिकारी मार्ग का चयन किया था ,उससे गुरु जी से उनका प्रिय बनना स्वाभाविक ही था ।मेरे पिता , मेरे आचार्य का बहुआयामी व्यक्तित्व था ,इसे उन्हें जानने वाला हर व्यक्ति मानता है ।वे मेरे जीवन के पहले और अंतिम नायक थे ।वे एक कुशल आपराधिक अधिवक्ता, विधि प्रवक्ता,कुशल लेखक, आध्यात्मिक योगी, ज्योतिष-आयुर्वेद-होम्योपैथी चिकित्सा आदि विधाओं के जानकार तो थे ही,पत्रों, साक्षात्कार और टेलीफोन द्वारा लोगों की समस्याओं और भौतिक वेदनाओं की "हीलिंग थेरेपी "भी किया करते थे ।वे अपने भौतिक देह से मुक्त होकर अब भी सूक्ष्म शरीर में अपने साथ मौजूद हैं ,ऐसा मै ही नहीं उनसे जुड़े अनेक लोग मानते हैं ।वे अंग्रेज़ी भाषा में उस अनुच्चरित वर्ण (silent letter) की तरह अब भी मेरे साथ हैं जिसके शब्द मे जुड़े होने से ही शब्द की सत्ता संभव होती है ,भले ही ध्वनि में वह व्यक्त नहीं हुआ करता है , उच्चरित नहीं हुआ करता है ।यह एहसास अदभुत और रहस्यमय हो सकता है लेकिन यह एक कठोर सच है ।मेरे परिवार और उनके दीक्षा भाइयों की जमापूँजी हैं उनके ढेरों पत्र जिनमें आदर्श जीवन के मूलमंत्र दिए गए हैं ।उनके पत्रों में समूचे आदर्श जीवन का सार छिपा रहता था ।पारिवारिक सदस्यों से भी उनका ऐसा ही व्यवहार रहा और कुछ प्रसंगों में तो पत्राचार की कापी भी वे सहेज कर रखा करते थे । उनकी बौद्धिक साहित्यिक सम्पदा की थाती सहेजते हुए मुझे ढेरों जानकारियाँ मिलीं ।

       15 नवम्बर 1971 को अपने पिता, पं० भानुप्रताप राम त्रिपाठी जो उन दिनों काशीवास कर रहे थे ,को सम्बोधित करते हुए उन्होंने लिखा था" ...मैं यहाँ की कठिनाइयों की चर्चा आपलोगों से नहीं करना चाहता हूं फिर भी आप स्वयं यहाँ की परिस्थितियों का अनुमान लगाकर मेरे योग्य जो आदेश हो दें.."मतलब यह कि विपरीत परिस्थितियों के बावज़ूद पिता के हर आदेश का पालन करने को वे तत्पर रहा करते थे । 12 जून और फिर 13 जून 1984 को मुझे आकाशवाणी इलाहाबाद भेजे गये दो पत्रों में उन्होंने मेरे गोरखपुर स्थानान्तरण विषयक प्रगति पर प्रकाश डालकर मेरे धैर्य बल की वृद्धि की थी ।जिन दिनों मैं आकाशवाणी रामपुर में नियुक्त था , 21नवम्बर 1991 को लिखा उनका एक पत्र एक बार फिर मेरी गोरखपुर वापसी के लिए संतोष दिलाने वाला था ही ,मेरी सेहत के लिए उनकी फिक्रमंदी का भी परिचायक था ।रामपुर से मेरा स्थानान्तरण आकाशवाणी लखनऊ हो गया था और लखनऊ वाले जल्दी गैर लखनऊवा को अपनाया नहीं करते थे ।मेरे लिए कुर्सी पर बैठकर सिर्फ आराम फ़रमाना था । 30जनवरी 1992को मुझे लिखे पत्र में उन्होंने लिखा "....आज मुक्ता(शुक्ल) जी को पत्र लिखा है..तुम्हें कुछ काम देने के विषय में..तुम्हें साहित्यिक क्रियाकलाप जारी रखना चाहिए, अभी तुम्हारे लिए काम बढ़ाने का अवसर है.. शर्मा जी(श्री ब्रज भूषण ,कृषि रेडियो अधिकारी जो उन दिनों मेरे साथ ही रहते थे) को यथोचित कहना.. शुभाकांक्षी.. प्रतापादित्य "। और सचमुच मैने उन दिनों अपने कार्यालयी खालीपन का सदुपयोग करते हुए लेखन कार्य को त्वरित गति दे दिया था । उन  खाली दिनों में "आज" के साप्ताहिक अंक में छपी मेरी चर्चित कहानी "पिंजरे का पंछी" , "नवभारत टाइम्स (दिल्ली) में छपी लम्बी कहानी "परकाया प्रवेश" और न० भा० टा० दिल्ली में ही मेरे "तिकड़म तिवारी "के उपनाम से छपते रहने वाले साप्ताहिक कालम पढे और सराहे गये ।                                                       मुझे अभी  तक याद है कि न० भा० टा० ने पारितोषिक भी तिकड़म तिवारी नाम से चेक भेजकर  दे दिया था जिसके लिए आज भी आकाशवाणी लखनऊ के सीनियर लाइब्रेरियन श्री विजय कुमार गुप्त का आभार व्यक्त करना चाहूँगा जिन्होंने प्रयास कर  के उसी नाम से बैंक खाता खुलवाया था ।पिताजी के पत्र मेरे सम्बल ही नहीं मेरी ख्याति के सबब भी बनते रहे ।परिवार में स्पष्ट कहना चाहूँगा कि बहुत मधुर माहौल नहीं रहा ।पितामह के रहते ही हम भाइयों का चौका चूल्हा और आवास पिताजी को अलग करना पड़ा था ।फिर भी छिटपुट तनाव बन जाया करता था ।मैं लखनऊ में ही था और कुछ दिनों के प्रवास पर परिवार के एक वरिष्ठ सदस्य का साथ रहना हुआ था ।न चाहते हुए भी कुछ वाद -प्रतिवाद भी हुए थे । पिताजी को जब पता चला तो उन्होंने मुझे 3 फरवरी 1993 को एक सख़्त पत्र लिखा .."तुम एक उच्च कुल के सदस्य हो जिसकी अपनी स्वस्थ परंपराएं थीं ।यथाशक्ति मैने अपने जीवन में उनका पालन भी किया जो तुम सबके सामने है ।कुछ व्यवस्थाओं में समयानुकूल परिवर्तन भी विवशता में करना पड़ा जो शायद अच्छा ही  रहा ।हम दोनों का तुम सभी बच्चों से अधिक किसी अन्य क्षेत्र में लगाव नहीं है और हम दोनों ही तुम सबका आत्यंतिक हित ही चाहते हैं...तुमसे ...... बड़ी आशाएं थीं । ख़ैर ,उनसे क्षमा मांगकर तुम्हें उन्हें प्रसन्न कर लेना ही उचित है...।" और यही हुआ, मैने अपने उन रूठे परिवारी जन को मना ही  लिया ।                                 

           किन्तु राख में कुछ आग दबी ही रह गई थी जो 12 फरवरी 1993 को पिताजी द्वारा मुझे लिखे एक और पत्र से भड़क सी उठी थी ।उन्होंने लिखा "...मैने तुम तीन भाइयों से ऐसी कोई अपेक्षा नहीं की है । यदि कभी मेरे लिए ऐसी किसी सहायता की आवश्यकता हो तो 'तरस खाकर', 'दया दिखाकर' या 'सहानुभूति प्रदर्शन' के लिए कोई काम मत करना क्योंकि ऐसी भावनाओं से काम करना पुत्रत्व और पितृत्व दोनों को कलंकित करने जैसा होगा ।मनुष्य पेट पालना अवश्य चाहता है किन्तु आदर और स्नेह सहित ।आदर और स्नेह के बिना उसका आत्मसम्मान कोई भी सुख सुविधा नहीं चाहता ।" उन दिनों मेरी मन: स्थिति पर इस पत्र की क्या और कैसी प्रतिक्रिया हुई, याद नहीं किन्तु आज मैं उन्हें उल्लिखित करते हुए शर्मशार हूँ और दिवंगत से बार बार माफ़ी मांगता हूं ।                                       

       सचमुच ,एक अदभुत व्यक्तित्व था उनका ।वह समय पर डांट डपट करते तो समय पर प्यार - दुलार भी देते ।मेरे शरीर पर शल्य चिकित्सकों के चीर टांका कुछ ज्यादा ही लगे हैं और मेरे हिप ज्वाइंट के कई आपरेशन हुए हैं ।23 अक्टूबर 2004 के लिखे पत्र में पिताजी ने कहा-..."दिल्ली यदि इन कारणों से नहीं आ सका तो भी मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ रहेगा  ही ।"बाबा" (गुरुदेव) पर पूरा पूरा विश्वास रखो -उनपर निर्भर रहो ,वे सदा हम लोगों का कल्याण करते रहे हैं और आगे भी करेंगे ।" यह वचन एक पिता ,एक आचार्य ने दिया था और जिन "बाबा" का संदर्भ आया है उनकी अहैतुकी कृपा हमेशा बनी रही है ।जीवन में मैने जितना कुछ और जो गंवाया उस पर दुख तो ज़रूर हुआ किन्तु उसमें भी उनका कोई निहितार्थ रहा होगा यह सोचकर सन्तोष करना पड़ा ।                 पाठकों के मन में एक जिज्ञासा उठ सकती है कि किसी के निजी पत्र या उसके उत्तर पढ़ने से उन्हें क्या लाभ मिल सकता है जो इन्हें पढ़ा जाय ।यह स्वाभाविक है । इसका समाधान मेरे हिसाब से यह है कि प्रायः हम सबके जीवन में कुछ मिलती जुलती परिस्थितियों का आमना सामना हुआ करता है और ऐसे में ये पत्र दृष्टांत बन सकते हैं और तदनुसार व्यक्ति अपने विवेक का उपयोग करके उन चुनौतियों का दृढ़तापूर्वक सामना कर सकता है ।                                            एक और रोचक प्रसंग |उन दिनों साहित्य में भोगे हुए यथार्थ लेखन का दौर चल रहा था । मेरी भी एक कहानी "पिंजरे का पंछी" शीर्षक से कुछ इसी परिवेश  की "आज" के साहित्य परिशिष्ट में छपी थी ।वैसे तो प्रायः मैं अपने आलेख पिताजी को प्रथम पाठक / संपादक मानकर उन्हें पढ़ा कर ही भेजता था किन्तु उन दिनों लखनऊ पोस्टिंग होने के कारण वह कहानी मैने सीधे भेज दी थी जो छप भी गई । 03 मार्च 1993 को इसी कहानी के बारे में पिताजी ने एक पत्र मुझे लिखा-.."साहित्य "स-हित “ होना चाहिए। निराशा, कुंठा और प्रतिक्रिया को जो प्रोत्साहित करे वह साहित्य नहीं होता । यथार्थ कितना भी कटु हो मनुष्य के लिए आदर्श जीवन जीने की दिशा में सहायक होना चाहिए -बाधाएँ मनुष्य को प्राप्त शक्ति से अधिक बलशाली नहीं  होतीं । वे सदा प्रेरणा, सीख और दिशा निर्देश के लिए आती हैं-आदर्श स्पष्ट होना चाहिए । तुम लोगों के सौभाग्य से तुम्हें आदर्श और आश्रय दोनों मिला है ।उसके लिए, उसके अनुसार स्वयं चलने और दूसरों को भी चलाने का नाम ही मनुष्यता है-यही वास्तव में सर्जना है ।“  उन्होंने आगे लिखा – “ सम्पूर्ण जीवन ही साहित्य है, मिर्च और खटाई के समान । जीवन में तिक्तता रसता के निर्माण के लिए मिलती है ।इस दिशा में सोचो और चलो । आशुतोष शिव हमारे साथ कल्पवृक्ष के रूप में सदैव अपना परमाश्रय देते चल रहे हैं |”  अपने आगे के लेखन में मैने इन सन्दर्भों का  हमेशा ध्यान रखा ।इसी तरह 23 मई 1993को छोटे भाई दिनेश को तीन पृष्ठ में लिखे(और हमें उसकी कार्बन कापी भेजे) पत्र में उन्होंने एक मन्त्र दिया था - -."...भूतकाल को भुलाकर भविष्य का निर्माण करो,निश्चय ही तुमलोगों को चतुर्दिक सफलता मिलेगी ।शारीरिक दुर्बलता को मानसाध्यात्मिक शक्ति से पूरा किया जा सकता है ।"                                            मेरी दो संतानें थीं । दोनों पुत्र ।बड़े दिव्य आदित्य ने आर्मी इंजीनियरिंग सेवा (10+2 टेक्निकल इन्ट्री स्कीम) चुनी और वे भारतीय सेना में लेफ्टिनेंट के रूप में कमीशन पाए ।उन्हीं का अनुकरण करते हुए दूसरे पुत्र यश आदित्य भी एन० डी० ए० की अखिल भारतीय सेवा उत्तीर्ण करते हूए वर्ष 2006 में भारतीय सेना मे लेफ्टिनेंट के रूप में कमीशन   पाए ।पहली पोस्टिंग कारगिल/लेह हुई । उस दुर्गम स्थान पर रहते हुए उनका पत्राचार हम सबके साथ अपने बाबाजी (आचार्य प्रतापादित्य जी) के साथ भी निरन्तर चलता रहा ।यदि संग्रह करूँ तो पुस्तक तैयार हो सकती है ।फिलहाल दो पत्रों की चर्चा करूंगा । 07 अगस्त 2006को लिखे एक पत्र में पिताजी ने उसे लिखा -..."कारगिल तो भारतीयों के लिए तीर्थ है ।अब तक हम जिन धार्मिक तीर्थों की बात करते हैं वह मात्र प्रतीक रूप में किन्हीं न किन्ही ऋषियों से जुड़े हैं जिन्हें हम भूल चुके हैं ।देश और सहयोगी सैनिकों के प्रति तुम्हारा प्रेम देखकर मुझे गर्व है क्योंकि सामाजिक क्षेत्र में मैने परम्परावादी जिस रूढ़िवादी व्यवस्था के प्रति जो थोड़ा बहुत विद्रोह किया था वह व्यापक रूप में मानवता के प्रति प्रेम ही था ।तुमलोग उसके प्रतिमूर्ति हो ।अवस्था में जो बड़े हैं, पद में चाहे छोटे ही हों निश्चय ही आदरणीय हैं किन्तु अनुशासन की दृष्टि से जो उचित है वह करना ही ठीक होता है-निग्रह (कन्ट्रोल) और अनुग्रह(प्रेम) दोनों का मिलित रूप ही अनुशासन है - हितार्थे शासनं इति अनुशासनम् ।."          पिताजी ,जो मेरे आचार्य भी थे, को मैने आनन्द मार्ग के कैम्प या सेमिनार में एक कठोर कमांडर के रूप में पाया था ।अनुशासन पालन के वे पक्के थे । भारतीय सेना में एन. डी. ए.  के प्रशिक्षण के दौरान पौत्र यश आदित्य को 18अगस्त 2006 को लिखे पत्र में उनका मंतव्य था - "...तुम लोगों का प्रशिक्षण man management नहीं बल्कि man makings है क्योंकि अपने सहकर्मियों के साथ वे चाहे छोटे हों या बड़े सदव्यवहार करने की प्रवृत्ति ही मनुष्य निर्माण अथवा समाज निर्माण में काम आती है ।इसी स्वभाव से समाज का निर्माण हो सकता है, होता है । प्रेम और अनुशासन का मिलित नाम ही अनुशासन है ।       

          पाठकों मेरे पास सुरक्षित ये ढेरों पत्र जीवन के राग -अनुराग, शंका- समाधान, मुक्ति- मोक्ष के प्रसंगों से अटे पड़े हैं ।यदि उनका संग्रह किया जाए  तो वे आने वाली पीढ़ियों के लिए पाथेय भी बन सकती हैं ।उन सभी पत्र लेखकों की स्मृतियों को इन पृष्ठों के माध्यम से  नमन  करता हूँ !

(क्रमश:)