रेत होते रिश्ते - भाग 12 ( अंतिम भाग ) Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

रेत होते रिश्ते - भाग 12 ( अंतिम भाग )



जोसफ नादिर से मेरा परिचय बिना किसी शक-शुबहे के परवान चढ़ गया। मैं एक विशुद्ध कारोबारी ग्राहक के तौर पर ही उससे कई बार मिल लिया था और वह अब मेरे प्रति पूर्ण आश्वस्त था। अपने गैरकानूनी और अमानवीय धन्धे के कई पहलू उसने मेरे सामने बेझिझक रख दिये थे। अपनी ओर से कोई विशेष जानकारी दिये बिना मैं उसके बारे में काफी कुछ जान लेने में कामयाब हो गया था।
जोसफ एक पुराना खिलाड़ी था जो लगभग दो-तीन दशकों से इन गतिविधियों में लगा हुआ था। विज्ञापन एजेन्सी, ट्रेवल एजेन्सी और फोटोग्राफी की आड़ में उसका और उसके साथी ग्लोबवाला का कुचक्र बड़े व्यापक पैमाने पर फैल चुका था और अब वे लोग इस अजीबोगरीब तरीके से पैसा बना रहे थे और अनैतिक कामों को पोस रहे थे।
इस काम में मुझे संजय से भी भरपूर मदद मिली थी और हम इस गिरोह—हाँ, एक तरह से इसे गिरोह ही कहा जा सकता था, की कार्यप्रणाली की बारीकियाँ जान चुके थे। इन्सान की मूलभूत कमजोरियों का एनकैशमेंट की मिसाल था यह धन्धा। यह परम्परागत वेश्यावृत्ति से भी एक कदम आगे की चीज़ थी और देशी-विदेशी ग्राहकों से जमकर चाँदी काटी जा रही थी।
वैसे देखा जाये तो मुझे इस गोरखधन्धे में एक खास तरह की दिलचस्पी होती जा रही थी। अपने नितान्त एकांतिक क्षणों में सोचते हुए मुझे जोसफ व राज्याध्यक्ष साहब के काम में एक बुनियादी समानता नजर आती थी। वह मशहूर मॉडल लड़का, कमाल, शाबान या संजय सब मुझे इसी कड़ी के अलग-अलग मुकामों पर खड़े मनके नजर आने लगे थे।
शरीर इन्सान की मूलभूत ताकत होने के साथ-साथ शाश्वत कमजोरी भी है। एक सुन्दर जिस्म को दिखाकर मॉडल लोगों की एक आदिम प्यास को ही तो शान्त करते हैं। सिनेमा में इस वृत्त को कुछ और बढ़ाकर स्थितियों-संवेदनाओं और चरित्रों के माध्यम से कहने की बात शायद राज्याध्यक्ष साहब करने जा रहे थे और इससे भी ज्यादा शॉर्टकट अपनाया था ग्लोबवाला और जोसफ ने। मानव अंगों की नुमाइश और गुप्त प्राकृतिक क्रियाकलापों को किशोर नौजवान और विकृत मस्तिष्क अधेड़ों के हाथों बेचकर पैसा कमाना और क्या था?
सामाजिक वर्जनाओं के बीच इस तरह के किसी भी बाजार को पनपने में भला कितनी देर लगती है। बहरहाल जोसफ से कई बार मिलने के दौरान मेरी रुचि उसके बारे में और-और जानने में लगी रही। सम्भवत: मैं उसके अतीत के बारे में ज्यादा-से-ज्यादा जानने की इच्छा रखने लगा होऊँ। मन की किसी परत में छिपी बात यह भी थी कि इस चरित्र के माध्यम से मैं राज्याध्यक्ष साहब के लिए लिखी जा रही कहानी में किसी निर्णायक चरित्र के सृजन की सम्भावनाएँ भी देखता था।
जोसफ के पास विभिन्न चित्रों, रीलों, कैसेटों का विपुल भण्डार था जिन्हें देशी-विदेशी बाजारों में ऊँचे दामों पर कई-कई बार बेचा गया था और माँग बराबर बनी रहने के कारण कई-कई प्रिण्टों व संस्करणों में सहेजकर रखा गया था।
जोसफ भी मुझे मालदार असामी समझकर मुझसे घनिष्ठता बढ़ाना चाहता था, इस बात का अहसास मुझे तब हुआ जब जल्दी ही मुझे एक दिन जोसफ की ओर से बम्बई के मशहूर फाइव स्टार होटल में एक पार्टी का आमन्त्रण मिला। मैं अचम्भित था; क्योंकि जोसफ को मैं जिन-जिन हालात में, जिन-जिन गतिविधियों में संलग्न देख चुका था, उसका कोई तारतम्य उस मशहूर आलीशान होटल की दावत से नजर नहीं आता था। पर कार्ड स्वयं जोसफ ने दिया और अवश्य आने की ताकीद भी की। उसने बताया कि शायद इसी पार्टी में पहली बार मुझे उसके साथी ग्लोबवाला से मिलने का अवसर भी मिले।
कार्ड में डिनर का समय दस बजे दिया गया था परन्तु मैं नो बजते-बजते ही होटल में पहुँच गया। दरअसल मेरा एक मित्र कुछ समय पूर्व नजदीक ही किसी काम से आनेवाला था। मैं साथ के लालच में उसी के साथ चला आया। वह मुझे होटल के गेट तक छोड़कर वापस लौट गया।
पार्टी शुरू होने में अभी देर थी, इसलिए मैं बाहर लॉन में पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया। जिस हॉल में पार्टी थी, वह पिछवाड़े की ओर था, परन्तु वहाँ तक जाने वाला रास्ता इसी लॉन से गुजरता था। वहीं लगभग सन्नाटा-सा होने के कारण मेरा अनुमान था कि पार्टी के लिए लोगों की आवाजाही अभी शुरू नहीं हुई है, मैं पार्टी में आने वालों और बुलाने वालों की जमात में से मात्र जोसफ को ही जानता था, इसलिए मेरी निगाहें उसी के इन्तजार में गेट की ओर लगी हुई थीं। मैं नहीं जानता था कि जोसफ यहाँ कार से आयेगा, टैक्सी से अथवा पैदल। इसलिए मेरी निगाह हर आने-जाने वाले की ओर अनजाने ही उठ जाती थी। गेट के पास खड़ा दरबान और फिर उसके बाद एक-दो वेटर उड़ती-सी नजर मुझ पर डालकर वापस लौट लिये थे।
मुझे काफी देर से बैठे-बैठे थोड़ी प्यास लग आयी थी और इसलिए अब मैं बीच-बीच में हॉल के प्रवेशद्वार वाले अहाते की ओर भी देख लेता था कि कोई वेटर दिखायी दे जाये तो हाथ के इशारे से उसे बुला लूँ। उस दरवाजे पर तो वेटर मुझे नहीं दिखा परन्तु पिछवाड़े की ओर से एक युवती अवश्य आती हुई दिखायी पड़ी। यह युवती अकेले होने पर भी जोर-जोर से कुछ बड़बड़ाती-सी जा रही थी, जिससे स्पष्ट था कि वह भीतर से ही किसी बहस में शरीक होती हुई निकली थी। वह वस्त्रों से साफ-सुथरी दिखायी देती थी किन्तु फिर भी उसके स्तर के बारे में कोई अनुमान लगाना सम्भव न था, क्योंकि वह एक पंचसितारा होटल का माहौल था जहाँ वह फर्श साफ करने वाली से लेकर ऑर्केस्ट्रा में गाने वाली तक कोई भी हो सकती थी।
जब वह करीब से गुजरी तो मुझे उसके बुदबुदाये हुए कुछ शब्द भी सुनने को मिले जिनसे स्पष्ट था कि वह कन्नड़ भाषा में कुछ बोलती हुई जा रही थी। तभी सामने की ओर से एक और वेटरनुमा आदमी उसे आता हुआ दिखायी दिया और वह लगभग रुककर जोर-जोर से उसे कुछ बयान करने लगी। सुनते ही चन्द पलों में वह वेटरनुमा आदमी पिछवाड़े की ओर भागा। औरत का उत्साह इससे दुगुना हो गया और उसने और भी जोर से बड़बड़ाना जारी रखा।
मैं भी धीरे से उठकर टहलने के अन्दाज में वेटरनुमा आदमी की दिशा में चल पड़ा। एक लम्बा गलियारा पार करके जब हम लोग दूसरे सिरे के करीब पहुँचे तो वहाँ दो-तीन लोगों को तमाशबीन की मुद्रा में खड़े पाया और उन्हीं के घेरे के बीच में और दो व्यक्ति एक-दूसरे से गुँथे-से खड़े थे। नीम-अँधेरे में भी मुझे पहचानते देर न लगी कि दोनों व्यक्तियों में से एक जोसफ नादिर ही है जो क्रोध में पागल-सा दूसरे आदमी को डाँट रहा था। लोगों के बीच-बचाव के कारण दूसरा आदमी अब जोसफ से जरा दूर खड़ा था पर दोनों के अस्त-व्यस्त कपड़ों व बालों से प्रतीत होता था कि कुछ देर पहले दोनों में हाथापायी की नौबत आकर चुकी है।
जोसफ अपने कॉलर को ठीक-ठाक करने की कोशिश कर रहा था। स्पष्ट था कि कुछ देर पूर्व दूसरे आदमी द्वारा उसका गिरेबान पकड़ा गया था। दूसरा आदमी हट्टा-कट्टा था और बहुत कम बोल रहा था; जबकि जोसफ मिली-जुली अँग्रेजी और बम्बइया हिन्दी में बड़बड़ाता जा रहा था। लोगों ने उन्हें हाथापायी से छुड़ा अवश्य दिया था पर अब वे भी चुपचाप घेरा बनाकर खड़े उनकी बातें सुन रहे थे। मुझे जबरदस्त झटका लगा जब मैंने टूटी-फूटी भाषा में हट्टे-कट्टे आदमी के दो-एक वाक्य सुनने की चेष्टा की। वह जोसफ से किसी पार्टनर की तरह बात कर रहा था—‘‘मैं तुझे जान से मार डालूँगा...’’ यह पैंतीस चालीस साल के हट्टे-कट्टे आदमी से सत्तर वर्षीय जोसफ कह रहा था। वह कोहनी से फट गयी अपनी कमीज को सँभालता हुआ अपनी खुरसट पर से खून पोंछने की कोशिश कर रहा था।
‘‘अरे, जा-जा भड़वे...साले अपनी बेटी से धन्धा करवाने वाला आदमी ईमानदारी की बात करता है!’’
हट्टे-कट्टे आदमी के इतना कहते ही बूढ़े जोसफ ने सचमुच जेब से चाकू निकाल लिया और बाज की-सी फुर्ती से उस पर झपट पड़ा। आदमी फुर्ती से ही वार बचाकर एक ओर को पलटा और तेजी से भागने लगा। जोसफ ने झल्लाकर चाकू जेब में रख लिया और पलटकर मेनगेट की ओर दौड़-सा पड़ा।
जाते-जाते उसकी निगाह मुझ पर पड़ी। वह झटके से मेरे करीब आया और हाथ मिलाते हुए बोला—‘‘सॉरी जेण्टलमैन...मुझे जाना होगा, पर तुम रुको।’’
‘‘लेकिन...मैं...मुझे यहाँ...’’
‘‘नहीं-नहीं...तुम खाना खाओ...मैं वापस आऊँगा। प्लीज!’’ कहता हुआ जोसफ पलटकर चला गया। मैं भौंचक्का-सा खड़ा रह गया। जब पार्टी में मेरा मेजबान ही नहीं ठहरा था तो मेरे रुकने का सवाल ही नहीं था। फिर भी मैं डिनर वाले हॉल में न जाकर बाहर लॉन के एक कोने की ओर बढ़ गया। साथ ही मैंने इशारे से उस वेटर को बुलाया जो तमाशबीनों के बीच खड़ा उन दोनों के झगड़े को शुरू से देख रहा था।
मैंने जेब से पचास रुपये का एक नोट निकालकर वेटर की मुट्ठी में डालते हुए कहा—‘‘तुमने उन दोनों की बात पूरी सुनी है न...मुझे सब बताओ।’’
वेटर पहले जरा-सा झिझका। मगर मेरे जरा जोर देने पर उसने मुझे झगड़े के दौरान जोसफ और दूसरे आदमी के बीच हुई बातचीत के कुछ टुकड़े ज्यों के त्यों सुना दिये। कन्नड़, हिन्दी और अँग्रेजी में मिश्रित उन वाक्यों से जो लब्बो-लुआब निकलता था, वह कम-से-कम मुझे तो चौंकाने वाला था।
वेटर ने बताया कि जब बूढ़े ने दूसरे आदमी को चाँटा मारा तो उसने पलटकर जवाब दिया कि उसे अपने ‘सन इन-लॉ’ से इस तरह व्यवहार करने का कोई हक नहीं है। बूढ़े ने गुस्से में उससे कहा कि उसकी लड़की मर चुकी है इसलिए दामाद से भी उसका अब कोई रिश्ता नहीं है। लेकिन वह आदमी, जो अपने को बूढ़े का दामाद बता रहा था, बोला, ‘‘लड़की मरी नहीं है बल्कि वह घर छोड़कर चली गयी है। वह देवदासी बन गयी है और इसके लिए वही बूढ़ा जिम्मेदार है। वह आदमी क्रोध से बूढ़े का गिरेबान पकड़कर कह रहा था कि तुम कैसे बाप हो...तुमने अपनी बेटी को उजाड़ दिया। मैं भी तुम्हारे कहने में आ गया। तुम्हारे ही व्यवहार ने उसे जबरन मन्दिर में रहने को विवश किया। वहाँ से तंग आकर वह भाग गयी। मैंने उसे सारे में ढूँढ़ा है। आज छ: साल से उसका कोई पता नहीं है...आदि-आदि।
कन्नड़ बोलने वाले उस वेटर से टूटी-फूटी हिन्दी में बातचीत का तर्जुमा सुनने के बाद मेरी शिराओं में जैसे खून की जगह उबलता पानी बहने लगा। मैं अजीब-सी सकते की-सी स्थिति में आ गया। हट्टा-कट्टा आदमी पहले ही वहाँ से जा चुका था। मैं उससे न मिल सका। मैंने बदहवासी में जेब से पचास का एक नोट और निकालकर वेटर के हाथ पर रखा और बेतहाशा वहाँ से दौड़ पड़ा। वेटर भी भौंचक्का-सा मुझे जाते देखता रहा!
कुछ ही देर में मैं बोरिवली जाने वाली एक टैक्सी में बैठा हुआ हाईवे की ओर जा रहा था। मेरा दिमाग अजीब-सी संज्ञाशून्य स्थिति में था और मुझे इस बात का कतई अहसास नहीं था कि मैंने रात के ग्यारह बज जाने के बावजूद अब तक खाना नहीं खाया है। जेब में पड़े जोसफ के निमन्त्रण कार्ड का खयाल आते ही मैंने फिर से जेब से उसे निकालकर देखा और उलट-पलटकर वापस रख दिया।
मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। मैं थोड़ी देर पहले हुई घटना को सचमुच किसी कहानी-उपन्यास का अंश समझकर झटक देना चाहता था। मुझे लग रहा था कि यदि वास्तव में जोसफ की कोई बेटी उसी की लापरवाही से घर छोड़कर भागने पर विवश हुई हो तो इस सारी घटना से कम-से-कम आरती का कभी कहीं कोई सम्बन्ध न निकले। मैं आरती की पृष्ठभूमि में जोसफ या उस हट्टे-कट्टे आदमी का होना दिमाग से कतई बरदाश्त नहीं कर पा रहा था।
घर पहुँचा तो दरवाजा आरती ने ही खोला। वह हाथों में ऊन और सलाइयाँ लिये हुए कुछ बुनने में व्यस्त थी। इस बात से पूरी तरह बेखबर कि मेरे मस्तिष्क में न जाने क्या-क्या उधड़कर फैलता जा रहा है। उसके पवित्र हाथ तो बुनने-सृजन करने में लगे थे।
आरती के पेट में जो बच्चा था उसके बाहरी दुनिया में आने के लगभग तीन माह बाकी रह गये थे। इस बीच आरती ने एकाध बार डॉक्टर के पास जाकर जो परीक्षण करवा लिये थे उनसे यह भी तसल्ली हो गयी थी कि आरती के गर्भ में पल रही सन्तान पूरी तरह स्वस्थ व सुरक्षित है। प्रसव के लिए किसी-न-किसी डॉक्टर के पास रजिस्ट्रेशन करवाना ही था, इसी विचार से जिस डॉक्टर को आरती अब तक दिखाकर चेकअप करवाती रही थी उससे मैं और अरमान भी जाकर मिल लिये थे। किन्तु वह डॉक्टर वास्तविकता से पूरी तरह अनभिज्ञ थी। अपने बारे में आरती ने उसे कुछ भी नहीं बताया था।
आरती की अच्छी-खासी सहेली बन चुकी पड़ोस की नीलम भी नहीं जानती थी कि आरती का पति कौन है। आसपास रहने वाले लोगों ने अरमान और शाबान को मेरे साथ में यहाँ आते-जाते देखकर किसी तरह का सन्देह या शंका कभी नहीं की थी। लेकिन अब जैसे-जैसे समय बीत रहा था, हम सभी चिंतित थे कि यह विचित्र अनुभव कहीं हम सबको किसी अनिष्ट का मुँह न दिखाये। हम लोगों को डॉक्टर आरती के पारिवारिक मित्र व निकट सम्बन्धी समझती रही थी अत: उसने कभी इस बारे में कोई जिज्ञासा नहीं दर्शायी थी कि आरती का पति कौन है और कहाँ है। किन्तु मामले की सारी पेचीदगी को समझते हुए मेरे दिमाग में उधेड़बुन शुरू हो गयी थी। मैं, अरमान व शाबान तीनों ही इस मामले में अनुभवी नहीं थे और हमारे अनुभव-संसार में इस तरह की व्यवस्था एक चुनौती के रूप में ही उपस्थित हुई थी।
आरती के साथ हमारा न तो खून का रिश्ता था और न ही पारिवारिक सूत्र। इस बात का अपने आप में लाभ कम था और हानि ज्यादा। क्योंकि कुछ भी ऊँच-नीच हो जाने की दशा में हम सभी अपराधी की श्रेणी में रख दिये जाने वाले थे और इस बात ने हमें तनाव में लाना शुरू कर दिया था।
यदि आरती वास्तव में शाबान या अरमान की ब्याहता होती तो बड़े भाई की हैसियत से अनेक आत्मीयता भरे उलाहने-आदेश दिये जा सकते थे। लेकिन यहाँ तो जिम्मेदारी भी सँभालनी थी और तलवार की धार पर भी चलना था। जब डिलीवरी के लिए रजिस्ट्रेशन करवाने से पूर्व एक बार फिर हम लोगों ने आरती से उसके होने वाले बच्चे के पिता का नाम जानना चाहा तो वह खासी तनाव में आ गयी।
शाबान की अनुपस्थिति में मैं और अरमान कई बार मौका-बे-मौका आरती को तरह-तरह से समझाते रहे थे। मैंने आरती से स्पष्ट कह दिया था कि यदि वह अपने शरीर में किसी दूसरे शरीर की कलम रोपने वाले व्यक्ति का नाम हमें नहीं बताना चाहती तब भी वह डॉक्टर को दिये जाने वाले माकूल जवाब के बारे में पहले से सोच-विचार कर ले, क्योंकि बिना पिता का नाम जाने कम-से-कम मेरी पहचान का कोई डॉक्टर तो यह केस लेगा नहीं, ऐसा मुझे विश्वास था। पहले से कोई परामर्श करके घर में ही मैं इस बारे में कुछ फैसला करने का आग्रह आरती से करता रहा ताकि अन्त समय की किसी नाटकीय परिस्थिति से बचा जा सके। आरती जिस सरल सहजता से मेरी बात सुन रही थी उससे मैं आश्वस्त हो गया कि वह या तो उस व्यक्ति का नाम-पता बता देगी जो विदेश में उसके मातृत्व का पथ प्रशस्त कर गया था अथवा यदि किसी भी तरह यह सम्भव न हो सके तो वह झूठ ही सही, एक नाम ऐसा तय कर लेगी जिसे डॉक्टर को बताया जा सके।
मैं उस समय अवाक् रह गया जब अरमान ने बिना कोई भूमिका बाँधे, सपाट तरीके से उससे यह कह दिया कि वह अपने बच्चे के पिता के रूप में शाबान को स्वीकार ले।
स्वयं आरती भी जैसे यह सुनकर किसी दूसरी दुनिया में जा खड़ी हुई। उसने एक बार अजीब-सी नजरों से अरमान की ओर देखा, फिर जैसे कहीं खो गयी।
एक पल के लिए अरमान को महसूस हो गया कि जैसे उसके मुँह से कोई गलत या अजब बात निकल गयी है किन्तु जल्दी ही वह सँभल गया और फिर अपनी बात पर दृढ़ता से कायम रहते हुए तरह-तरह के तर्कों से आरती को समझाने की कोशिश करने लगा। आरती मुँह फेरकर चुपचाप सब सुनती रही।
एकाएक आरती के मुँह से बोल निकले। सधी हुई गम्भीर आवाज में वह बोली— ‘‘भैया, क्या ऐसा सम्भव नहीं है कि मैं डॉक्टर को साफ-साफ बता दूँ कि मैं अविवाहित हूँ और अपनी मर्जी से पूरे होशो-हवास में अपने बच्चे को जन्म दे रही हैं। इसमें हर्ज ही क्या है, मैं आत्मनिर्भर हूँ, सीमित आय से ही सही, लेकिन अपने बच्चे के लालन-पालन की सामर्थ्य रखती हूँ।’’ कहते-कहते आरती की आँखों में एक विचित्र किस्म की चमक आ गयी।
‘‘लेकिन आरती, ऐसा है कहाँ! तुम अविवाहित सही, किन्तु बच्चे को जन्म तो तुम अकेली नहीं दे रही हो। यदि इसमें किसी दूसरे का हाथ है जो कि है ही, तो उसका नाम-पता बता दो। आखिर इसमें बाधा क्या है?’’ मैंने समझाते हुए कहा।
‘‘क्या यह जरूरी है?’’ आरती ने बुझे मन से कहा।
‘‘तुम्हीं सोचो, क्या यह जरूरी नहीं?’’
‘‘मेरे खयाल से तो बिलकुल जरूरी नहीं है। मेरा शरीर दुनिया में एक और शरीर उगा रहा है, क्या यही बात काफी नहीं है? क्या मेरे लिए यही अद्भुत अनुभव नहीं है। खेत में जब कोई सुन्दर पौधा उगता है तो उसे देखते हुए हमें कब यह ध्यान रहता है कि इसका बीज हम कहाँ से लाये थे?’’
‘‘आरती बीज, पेड़-पौधों ने समाज नहीं बनाये, उन्होंने सभ्यताएँ और संस्कृतियाँ नहीं गढ़ीं। वे कल भी कुदरत के मोहताज थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे। हम इन्सान हैं। हम समाज में रहते हैं। हम अपने बनाये अनुशासनों में रहते हैं। हम अपने रिवाजों के कवच में अपनी जिन्दगी सलामत रखते हैं, तो इसमें भला बुराई क्या है। खेत के पौधे को कल कोई गाय या बकरी आकर चर जायेगी तो न जमीन रोयेगी और न साथ के दूसरे पौधे। लेकिन तुम्हारी औलाद पर कल कोई भी संकट-कष्ट आयेगा तो! हिफाजत की जिम्मेदारी तुम लोगी या नहीं, बोलो? तो जिस समाज में तुम एक प्राणी का इजाफा करने जा रही हो, क्या उस समाज के प्रति तुम्हारा कोई दायित्व नहीं, कि तुम उसके नियमों को मानो, उसके रिवाजों की बेडिय़ों को महसूस करो, ताकि तुम अपने को सुरक्षित मान सको?’’ मैं बोलता चला गया।
बोलते-बोलते मेरे उत्तेजित हो जाने का आरती पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह पूर्ववत् दृढ़ता से खड़ी रही और उसी दृढ़ता से बोली—‘‘ये समाज उस समय कहाँ था जब मेरी देह जल रही थी और इस समाज का हर ऐरागैरा-नत्थूखेरा मेरी देह-अग्नि के अंगारों में हवन-समिधा डालने के उपक्रम में लिप्त था। क्या इस समाज को यह जानकर चैन नहीं है कि इसमें नारी माँ है और नर पिता? कौन मेरे बच्चे का पिता है, यह जानना किसके लिए जरूरी है? मेरे ही लिए न? तो जब मैं नहीं चाहती इस प्रश्न का उत्तर, तो बाकी लोगों को क्या पड़ी है!’’
मैं और अरमान घबराकर बात बदलने की सोचने लगे क्योंकि आरती अब भावावेश में ही नहीं आ गयी थी बल्कि उसका स्वर भी रुँधने लगा था। उसमें एक पूरे वेग की रुलाई का सैलाब बँध गया था और संवेग की यह डोर कभी भी टूट सकती थी।
थोड़ा-सा विराम देकर, जरा देर की चुप्पी के बाद मैं एकदम स्वर बदलकर बोला—‘‘आरती, देखो, मैं जानता हूँ कि जिस तरह का जीवन तुम्हें मिला है उसमें कड़वाहट के लिए बहुत गुंजाइश है। यह भी सही है कि तुम्हारे जीवन में जायज आत्महत्या के भी कई अवसर आये थे। किन्तु तुमने हर बार बहादुरी से यही सिद्ध किया कि आत्महत्या कभी भी जायज नहीं है। आत्महत्या पाप ही नहीं बल्कि कुदरत के प्रति घोर अपराध भी है। तुमने इतने जतन से जब सारी बात सँभाली, तो सिर्फ एक बार और उसी साहस का परिचय दो, हमें केवल यह बता दो कि तुम गर्भवती कैसे हुई। मेरा मतलब है कि तुम्हारे साथ कोई धोखा हुआ, जबरदस्ती हुई, दुर्घटना हुई या कुछ और हादसा...’’ मैं अपने प्रश्न पर ही सकपका गया था।
‘‘न धोखा हुआ है, न बलात्कार और न ही बेवफाई...न ही मुझसे प्रेम करके कोई स्वर्ग सिधार गया...’’ आरती ने थोड़ी कटुता से कहा।
‘‘तो फिर?’’ मैं और अरमान दोनों ही उसके इस साहस भरे बयान पर हतप्रभ थे। उसकी ओर गौर से देखने लगे।
‘‘मैंने ‘पितृत्व’ खरीदा है!’’
‘‘क्या?’’ हम हैरत से उसकी ओर देखते ही रह गये।
मुझे हैरत भरे असमंजस में देखकर आरती एक अजीब विचित्रता से मुस्कराई, फिर बोली—‘‘विश्वास नहीं हुआ न आपको?’’
‘‘अविश्वास की कोई बात नहीं है, आरती!’’
‘‘तो मैं मान लूँ कि आपको आपके सभी सवालों का जवाब मिल गया।’’ आरती ने आश्वस्त होते हुए कहा।
‘‘ऐसी कोई माकूल सीमारेखा नहीं है जहाँ कोई सवाल-जवाब मुकम्मल होकर खत्म हो जायें। जहाँ कोई जवाब खत्म होता है वहीं से नये सवाल फिर उगने लगते हैं। आदमी चाहे तो किसी भी सवाल पर चाहे जितनी देर बात कर सकता है।’’ मैं दार्शनिक-सा हो गया, किन्तु मुझे अपनी इस निस्सार व्यर्थता की अनुभूति से जबरन निजात पाने की कोशिश करनी पड़ी क्योंकि अरमान मेरे बात करने के इस तरीके पर उबासी-सी लेने लगा था।
अरमान ने बात का रुख एकदम से पलट दिया। तपाक से बोला—‘‘तो हम लोग डॉक्टर से क्या कहेंगे?’’
‘‘सच्चाई...’’ आरती ने कहा।
‘‘फिर तो डॉक्टर-वाक्टर का चक्कर छोड़कर कोई दाई ढूँढ़नी पड़ेगी।’’ अरमान ने इस भोलेपन से यह बात कही कि इतने गम्भीर माहौल में भी। मैं और आरती एक साथ हँस पड़े। और हमारे हँस पड़ने पर और भी चकित होता हुआ अरमान इधर-उधर देखने लगा।
‘‘इसका कोई-न-कोई हल हम ढूँढ़ेगे।’’ मैंने हल्केपन से कहा तो माहौल की बोझलता थोड़ी कम हुई। मैं मन-ही-मन समझ गया कि अब आरती की डिलीवरी के लिए हमें बड़ी रकम का खर्चा करके बम्बई का कोई ऐसा डॉक्टर ही खोजना पड़ेगा जो पेशे में रकम को ही अहमियत देता हो। अर्थात् पैसे लेकर गैरकानूनी या अनैतिक तरीके से भी प्रसव की सुविधा मुहैया करवा सके; यद्यपि आरती के इस प्रसव को किसी भी कोण से अनैतिक मानने के लिए कम-से-कम निजी तौर पर मैं तैयार नहीं था।
रात को जब सोने के लिए बिस्तर पर गया तो दिन में आरती से हुई बातचीत पर घंटों सोचता रहा। इसी उधेड़बुन में मेरे दिमाग में कुछ दिन पहले मरीन ड्राइव पर घूमते हुए मिले लड़के राजू की स्मृति कौंध गयी। राजू ने मुझे बताया था कि वह कुवैत जाना चाहता है और उसे थोड़े ही दिनों में आठ हजार रुपये जमा करने हैं। राजू ने यह रुपये एकत्र करने का बहुत ही विचित्र और खतरनाक तरीका अख्तियार किया था। वह इच्छुक औरतों को सिर्फ सौ रुपये में यौन-सुख उपलब्ध करवाता था। उसने बताया कि उसने कई बार एक ही दिन में चार-चार सौ रुपये कमाये हैं।
मैं सोचता रहा, भला आरती ने यह निर्णय कैसे लिया होगा और यदि ले ही लिया था तो इसे इस तरह गुप्त रखकर वह जिन्दगी-भर क्यों निभाना चाहती थी। वह सही तरीके से विवाह भी कर सकती थी, लेकिन संभवत: उसे जीवन में हुए कड़वे-तीखे अनुभवों ने यही सिखा दिया था कि पुरुष के मानमर्दन का यही एकमात्र तरीका है कि नारी भी उसे भोग करके भूल जाये। उम्रभर वह मर्द का बच्चा यह जान ही न पाये कि उसकी जरा-सी लरिकसलोरी ने क्या गुल खिलाया है। शायद इसीलिए आरती ने भी पैसे चुकाकर किसी पुरुष को भोग लिया और चाट के पत्ते की भाँति कचरे के ढेर पर फेंक दिया। उस भोग्या को इन्तकाम का सुकून शायद इसी से मिला हो। हजारों-हजार पुरुष युग-युगान्तरों से नारी के साथ जो करते चले आ रहे हैं, आखिर वही करने का साहस करोड़ों में एक कोई नारी तो दिखाये। मर्दों की दुनिया में मर्दों के मर्दन का भी कोई तो भला सुख लूटे। और यही किया था आरती ने।
मैं जितना सोचता जाता था, आरती के और नजदीक अपने को पाता जाता था। अब मैंने फैसला कर लिया था कि मैं आरती का दिल नहीं दुखने दूँगा और उसकी मर्जी के खिलाफ कुछ नहीं होने दूँगा। बम्बई में यह मुश्किल नहीं था। मैं कमाल से ही सुन चुका था कि यहाँ हजारों डॉक्टर ऐसे हैं जो हर तरह के काम कर सकते हैं। यहाँ पैसे के बल पर अस्पतालों में बच्चे बदले जाते हैं, अंग चुरा लिये जाते हैं, दवाओं से हत्याएँ तक करवा दी जाती हैं और यहाँ तक कि डॉक्टरी की आड़ में देह व्यापार तक यहाँ होता है। अनचाहे गर्भ गिरवाये जाते हैं, फिर क्या मुश्किल था कि एक पवित्र सोच वाली माँ की भोली इच्छा बरकरार रख ली जा सके। मैंने अगले दिन ही कमाल से इस समस्या का कोई हल निकालने के लिए कहने का इरादा कर लिया।
मुझे थोड़ी-सी भागदौड़ के बाद अपने कुछ मित्रों की मदद से एक प्राइवेट नर्सिंग होम में आरती के प्रसव की व्यवस्था करवा पाने में सफलता मिल गयी। यद्यपि डॉक्टर को सब कुछ सच सच बता देने के बाद मैं काफी हल्कापन महसूस कर रहा था परन्तु इस बात की चिन्ता भी थी कि डॉक्टर द्वारा इस काम को अंजाम देने के लिए मोटी रकम की माँग की गयी थी। हम सभी एक अजीब-सी स्थिति में अपने आपको पा रहे थे। अरमान और मैंने आपस में बातचीत करके तय कर लिया था कि हम आरती पर न तो यह खर्च डालेंगे और न ही किसी और तरह के मानसिक या सामाजिक तनाव में उसे पड़ने देंगे। डॉक्टर द्वारा सारी बात जानने के बाद भी प्रसव के लिए तैयार हो जाना और अपने नर्सिंग होम में उसकी सारी व्यवस्था कर देना इस समय हम लोगों को एक बड़ी उपलब्धि के समान लग रहा था।
आरती से अब किसी बहस या मशविरे की आवश्यकता नहीं रह गयी थी। शाबान तो वैसे भी अलग-अलग-सा ही था। अरमान जरूर अपनी उलझन से निजात पाने लगा था।
मैं जब इस सारे प्रकरण पर सोचता तो एक अजीब किस्म के खालीपन से भर जाता था। तेज रफ्तार, मशीनी जिन्दगी और महानगरीय जीवन का अनियंत्रित बिखराव आखिर हमें और हमारे समाज को क्या दे रहा है? परम्परागत रिश्तों और सम्बन्धों से छिटककर हम जिस नयी जमीन पर गिर रहे हैं वह भी कोई बहुत सुखद अनुभव तो नहीं ही कहा जा सकता। एक फ्लैट में एक छत के नीचे रहते हुए पाँच लोग और इतनी अलग-अलग जिन्दगी, इतने अलग-अलग अनुभव! किसी का किसी से कोई तारतम्य नहीं।
कुछ ही दिनों में आरती का प्रसव ठीक-ठाक निबट जायेगा और वह शायद स्वयं ही अपनी सन्तान को लेकर अपनी नौकरी पर विदेश चले जाना पसन्द करेगी। यह मैं सोचता अवश्य था पर आरती को अपने पर किसी प्रकार का बोझ मानकर नहीं, बल्कि सब कुछ ठीक से बीत जाने की आकांक्षा में ही।
आरती को जो नया अनुभव होने जा रहा था उससे हम लोग बेहद अचम्भित थे। यहाँ बम्बई में भी कृत्रिम गर्भाधान और स्पर्म बैंक के बारे में हम लोग सुन- देख चुके थे लेकिन ‘पितृत्व’ खरीदने वाली बात अब तक अजूबा-सा ही जान पड़ती थी। कभी-कभी लगता था, आरती ने जिस डगर पर पाँव रख दिया था, उसके पड़ाव जीवनभर उसका इम्तहान लेने वाले थे। लेकिन दूसरी ओर आरती के अपने जीवन के बारे में जो अनुभव रहे थे, उन्हें देखते हुए यह सब अस्वाभाविक भी नहीं कहा जा सकता था।
परम्परागत भारतीय परिवारों में तो हम यही देखते-सुनते आये थे कि बच्चा जब बीमारी-बेचैनी से छटपटाता है तो माँ-बाप के मिलकर पुचकारने-दुलारने पर ही सहज हो पाता है। यहाँ तो पिता नाम का साया जन्म से पूर्व ही झाड़ दिया गया था। बड़े जीवट और विश्वास से एक माँ अपने बूते पर जिन्दगी उगाने के रास्ते पर थी।
खैर, एक सुनहरी मछली यदि पानी के गंदलेपन से ऊबकर पानी के किनारे-किनारे रेत पर तैरने निकली थी तो सारा खेल चुपचाप देखने के अलावा हमारे हाथ में और था भी क्या? निस्बत वहाँ होती है जहाँ दो जिस्म होते हैं। जहाँ एक ही जिस्म में दिल और दिमाग के बीच निस्बत पनप गयी हो, वहाँ का नजारा कैसा होगा—आने वाले दिनों में यही जोहना था हमें।
आरती का दो बार पूरा चैकअप कर चुका था डॉक्टर और दवाओं आदि के बारे में पूरी तरह ताकीद कर दी गयी थी। यह बात हमें भी उलझन में डालती थी कि ऐसे समय आरती की साज-सँभाल करने के लिए हम किसी महिला का बन्दोबस्त नहीं कर पाये थे। मेरे मित्रों या परिचितों में बम्बई में कोई ऐसा नहीं था जहाँ से अपना घर-परिवार और बच्चे छोड़कर कोई महिला आरती के पास आकर रह सके। एक नर्स के लिए हमने एक बार आरती से आग्रह किया भी तो उसने विनम्रता से इनकार कर दिया। शायद वह आत्मनिर्भरता की कठोर जमीन के लिए अपने पैरों को अभी से अभ्यस्त कर लेना चाहती थी। आरती आजकल बहुत कम बोला करती थी किन्तु ऐसा प्रतीत होता था कि वह प्रसन्न रहती थी। उसे किसी किस्म की चिन्ता नहीं रहती थी। यदि मन-ही-मन रहती भी हो तो वह कम-से-कम हम लोगों पर उसे जाहिर तो नहीं करती थी।
शायद कभी-कभी आरती को यह भी महसूस होता था कि उसकी वजह से हम लोगों का काफी पैसा खर्च हो रहा है। वह छोटी-छोटी चीज़ों और घर के खर्च में जिस तरह से किफायतें करने लगी थी, उससे इसका आभास मिलता था। किन्तु इस बाबत न हम कुछ पाते थे और न ही आरती सीधे कुछ पूछ पाती थी। शायद वह अपने मुँहबोले भाई को इस तरह की बातें करके संकोच में न डालना चाहती हो।
डॉक्टर ने नर्सिंग होम के सब वास्तविक खर्चों के अलावा जिस रकम की माँग की थी उसका बन्दोबस्त फिलहाल मैंने और अरमान ने मिलकर किया था। मेरे मना करने के बावजूद अरमान ने अपने हाथ में पड़ी हीरे की दो अँगूठियों को बेच डाला था। एक बार गाँव में पिताजी को खत लिखकर भी उसे कुछ रकम मँगवानी पड़ी थी। मुझे भी कुछ दिन पूर्व बुक करवाये गये फ्लैट के लिए जमा किये गये रुपयों को निकलवाना पड़ा था। बम्बई की जिन्दगी ने एक बात तो मुझे सिखा दी थी कि यहाँ कुछ भी किसी की मिल्कियत नहीं होता। वक्त पर जो जिसके काम आ जाये, वही उसका नसीब होता है। इस मायानगरी में हम जिस कार्य से जुड़े थे, उसमें रोज लोगों को कुबेर और कंगाल बनते देखते। इसलिए आम शहरों की भाँति पैसे को अपनी स्थायी सम्पत्ति समझना मेरी आदत में नहीं रह गया था। यहाँ चार दिनों में किसी गैराज पर बिकने के लिए खड़ी विदेशी गाड़ी किसी की ड्योढ़ी पर खड़ी होते भी देर नहीं लगती थी तो घर के बर्तन नीलामी में उतर आने से भी परहेज नहीं करते थे।
इस समय हमारी समस्या थी आरती की सकुशल डिलीवरी। डॉक्टर द्वारा बतायी गयी सम्भावित तारीख नजदीक आती जा रही थी। मैंने घर से बाहर जाना जरा कम कर दिया था ताकि उसकी देखभाल खाने-पीने आदि में कोई कमी न रह जाये। अरमान भी ज्यादातर घर ही में रहता था। घर भी आरती का अभ्यस्त हो गया था। ईंट-पत्थर की दीवारें किसी औरत को पाकर ही इत्मीनान से खड़ी रह पाती हैं, यह मुझे अपने घर के कायाकल्प को देखकर मालूम होने लगा था। बरसों से नौकर के भरोसे छूटा हुआ घर आरती के आने के बाद से अलग ही रंगों से चहकने लगा था।
आखिर आरती नर्सिंग होम में दाखिल हो गयी। मैं, अरमान व शाबान तीनों ही उसे वहाँ लेकर गये। अहाते में टैक्सी से उसे उतारते समय नर्सिंग होम की एक नर्स ने अजीब-सी निगाह से हम तीनों की ओर देखा था, फिर तत्परता से आरती की मदद करने लगी। सारा सामान उतरवाकर भीतर रखवाया गया। नर्स बेहद आत्मीयता से पेश आ रही थी। हम लोग सहज ही यह अनुमान नहीं लगा पा रहे थे कि नर्स को आरती की असलियत बता दी गयी है अथवा नहीं; क्योंकि नर्स ने एक बार भी हमसे इस बारे में कोई सवाल नहीं किया था कि मरीज को सँभालने के लिए वहाँ पर कौन उसके साथ रहेगा। लेकिन इस उलझन से स्वयं डॉक्टर ने ही हमें उबार लिया था। उसने नर्स की उपस्थिति में ही जोर से बोलकर हमें बताया कि आप लोगों को यहाँ रहने की कोई जरूरत नहीं है, यहाँ सब इन्तजाम हो जायेगा। आप लोग सुविधा से मिलने के लिए आते रहिये।
आरती को भरती करवाकर हम बेहद हल्कापन महसूस कर रहे थे। यद्यपि सुबह से ही आरती को हल्का-हल्का दर्द उठ रहा था पर डॉक्टर को पूरी उम्मीद थी कि प्रसव में अभी भी दो-एक दिन का समय बाकी है। कुछ देर तक जाँच आदि होने तक हम लोग वहाँ ठहरे, फिर डॉक्टर ने शाम को आ जाने की हिदायत के साथ हमें वापस भेज दिया।
हम तीनों ने घर आकर दोपहर का खाना खाया और उसके बाद थोड़ी देर आराम करने के इरादे से लेट गये। तीनों में से कोई कुछ बोल नहीं रहा था। नपे-तुले शब्द केवल तुकाराम के ही सुनायी दे रहे थे जो हम लोगों को खाना खिलाने के बाद बरतन समेट रहा था। भीतर बरामदे में आरती के कपड़े टँगे हुए थे। सारे घर से आरती की गन्ध आ रही थी। घर की एक-एक चीज़ पर आरती की अँगुलियों के अदृश्य निशान दिखायी दे रहे थे। यह कल्पना करना भी मुश्किल था कि आरती के आने से पूर्व इस घर का हुलिया कैसा था। देखते-देखते अस्त-व्यस्त पड़ा रहने वाला बिखरा-बिखरा-सा यह घर कब इतना व्यवस्थित हो गया था। यह पता ही नहीं चल पाया था। इसका अहसास अब हो रहा था, जब आरती यहाँ नहीं थी।
हम लोग लेटे अवश्य थे मगर नींद तीनों में से किसी को भी नहीं आयी थी। सबका ध्यान घड़ी पर ही लगा रहा जिसमें शाम के पाँच बजते ही हमें फिर से नर्सिंग होम पहुँचना था।
यद्यपि डॉक्टर ने खाने-पीने की किसी भी चीज़ के लिए बाहर से लाने के लिए मना कर दिया था, फिर भी रास्ते में हम लोगों ने आरती के लिए कुछ फल और एक-दो पत्रिकाएँ खरीद लीं।
आरती हमें देखते ही बैठने की कोशिश में अधलेटी-सी हो गयी। उसके चेहरे पर ताजगी थी और सुबह के दर्द की कोई झलक भी चेहरे पर नहीं थी। इस समय की उसकी तरोताजगी बता रही थी कि प्रसव में अभी कम-से-कम एक-दो दिनों का समय शेष था। पत्रिकाएँ देखकर आरती का चेहरा खिल गया, उसने फौरन उन्हें लेकर उलटना-पलटना शुरू कर दिया।
कुछ देर बाद एक नर्स ने आकर मुझे बताया कि आपको डॉक्टर साहब अपने कक्ष में बुला रहे हैं। शाबान व अरमान को वहीं छोड़कर मैं नर्स के पीछे-पीछे चला आया। डॉक्टर अपने कमरे में अकेले थे। मगर वे किसी कागज में उलझे-उलझे से गम्भीर मुद्रा में बैठे थे। मेरे पहुँचने के बाद भी काफी देर तक वह गम्भीर बने रहे। मैं प्रश्नवाचक मुद्रा में कुछ देर उनके चेहरे की ओर देखता रहा। कुल पल बाद उन्होंने मेरी ओर देखा और धीमे से मुझे बैठने का इशारा किया।
...‘‘देखिये, मुझे आपको बताना था...ये मिस आरती का केस इतना सीधा नहीं है जितना हम लोग समझ रहे थे।’’ कहकर किसी रहस्यभरी मुस्कान के साथ डॉक्टर ने मेरी ओर देखा।
उनका देखने का अन्दाज ऐसा था कि मैं उनका आशय समझ नहीं सका। फिर भी मेरे मन में किसी शंका के बीज पड़ गये।
‘‘कुछ साफ तौर पर बताइये, डॉक्टर...’’ मैं इतना ही कह सका।’’
‘‘अभी मैं एकदम विश्वास से तो नहीं कहूँगा मगर मुझे इनकी ब्लड-टेस्ट की रिपोर्ट से अन्देशा है...’’
‘‘क्या अन्देशा है, डॉक्टर साहब...?’’ मैं उतावला हो उठा।
‘‘धैर्य रखिये। स्पष्ट तौर से मैं दो दिन बाद ही कहूँगा। लेकिन मुझे लगता है कि इनके कुछ टेस्ट पॉजिटिव आ रहे हैं। जब तक मैं पूरी तरह निश्चित न हो जाऊँ, कुछ नहीं कहूँगा। मगर अभी सिर्फ इतना कहने के लिए मैंने आपको बुलवाया है कि आप लोग मानसिक रूप से कुछ बुरे के लिए भी तैयार रहें। ईश्वर न करे कि ऐसा कुछ हो...फिर भी इन्सान दिमागी तौर पर तैयार रहे तो बुरे में भी अच्छा ढूँढ़ लेता है। ठीक है?’’
डॉक्टर किस बात पर मुझे ठीक होने की हामी भरवा रहा था, यह मैं अन्त तक समझ नहीं सका। किन्तु मन-ही-मन मेरे पाँवों के नीचे से जमीन खिसकती-सी मुझे महसूस होने लगी। किसी अनिष्ट की आशंका से भीतर तक उदास बेचैनी फैल गयी और उसमें डूबता-उतराता मैं उठ गया।
रात को देर तक हम लोग आरती की हालत के बारे में सोचते रहे। अरमान ने तो एक बार यह शक भी व्यक्त किया कि यह डॉक्टर हमारी मजबूरी का नाजायज फायदा उठाकर शायद और पैसे ऐंठने के लिए हमें डरा रहा है।
‘‘लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है? हम तो उसकी मुँहमाँगी रकम देने के लिए पहले ही तैयार हो चुके हैं।’’
‘‘हाँ। लेकिन उसे मालूम है कि हम उससे अनैतिक काम करवा रहे हैं और शायद वह हम लोगों की हैसियत ताड़कर और मुँह फाडऩा चाहता है।’’
‘‘तुम अपनी शंका अपने पास रहने दो।’’ यह स्वर शाबान का था जो इतनी देर की चुप्पी के बाद एकाएक बोल पड़ा। हम दोनों का ध्यान शाबान की ओर चला गया। शाबान कह रहा था—‘‘मुझे तो काफी पहले से ही शक था कि आरती को कोई गम्भीर बीमारी है। वह तुम लोगों के सामने हँसमुख और स्वस्थ बनी रहने की कोशिश जरूर करती थी, मगर मैंने देखा है कि उसे कोई गम्भीर किस्म की तकलीफ जरूर है। वह कभी-कभी बहुत ही बेदम-सी होकर कमरे में बन्द हो जाया करती थी। उसका चेहरा कभी-कभी अचानक खिंचाव का शिकार होकर पीला-सा पड़ जाता था। वह दवाएँ भी लेती रही है।’’
इस बात की पुष्टि तुकाराम ने भी की कि हम लोगों की अनुपस्थिति में कभी-कभी आरती की तबीयत काफी बिगड़ जाती थी मगर वह हम लोगों से कुछ न कहने की ताकीद तुकाराम से करती थी। कम-से-कम दो बार उसे भयानक उल्टियाँ भी हुई थीं।
ये सब बातें आज हमें मालूम पड़ीं। हैरत थी कि इस बारे में पहले कभी आरती ने जिक्र क्यों न किया। मैंने डाँटने के अन्दाज में तुकाराम से भी कहा कि उसे यह सब हमें पहले ही बताना चाहिए था।
इस बारे में हम लोग जितना सोचते, उलझन बढ़ती ही जाती थी। लेकिन हमारे पास अगली सुबह तक इन्तजार करने और डॉक्टर से पूरी बात जानने के अलावा और कोई चारा भी नहीं था। मैं और अरमान रात को काफी देर तक सारी स्थिति पर बात करते रहे। हमें देर तक नींद नहीं आयी। अरमान बार-बार इसी बात पर जोर दे रहा था कि वह डॉक्टर केवल हम लोगों से और अधिक पैसे की माँग करने के उद्देश्य से ही हमें डरा रहा है, क्योंकि आरती पहले भी चैकअप के लिए दूसरे डॉक्टर के पास जाती रही थी और इस तरह की बात पहले कभी सामने नहीं आयी थी, इसलिए मुझे भी अरमान की बात पर कुछ-कुछ यकीन होने लगा था। पर फिर भी किसी डॉक्टर का कहा एकाएक अनदेखा करने को भी मन सहसा तैयार नहीं था।
डॉक्टर ने जिस तरह से ब्लड-टेस्ट में कोई संकेत मिलने की बात कही थी, उससे कुछ भी सम्भव था।
अगली सुबह नहा-धोकर जब हम लोग निकलने के लिए तैयार होने लगे, शाबान को हमने एक नये ही रंग में देखा। वह सुबह बहुत ही जल्दी उठकर बाहर गया था और उसका चेहरा देखकर लग रहा था कि वह बेहद खुश है। उसने अपने बाल भी एक पार्लर में जाकर सेट करवाये थे और इस समय एकदम नयी ड्रेस में चुस्त-दुरुस्त खड़ा था। शाबान ने बताया कि वह आज हमारे साथ नहीं जा सकेगा; क्योंकि उसे एक फिल्म प्रॉडक्शन के ऑफिस में मिलने के लिए बुलाया गया है। यह सब तैयारी भी इसी निमित्त थी। आज जैसा खुश और आशान्वित शाबान को हम लोगों ने बहुत कम देखा था।
नाश्ता करने के बाद हम तीनों घर से साथ-साथ निकले। शाबान ऑटोरिक्शा पकड़कर दूसरी दिशा में चला गया और मैं व अरमान आरती को देखने के लिए डॉक्टर के पास चल पड़े।
डॉक्टर ने आज भी साफ कुछ नहीं कहा पर इस बात की आशंका से इनकार भी नहीं किया कि आरती के खून में एच.आई.वी. जीवाणु हो सकते हैं।
एक दिन पूर्व बता दिये जाने के बावजूद यह सुनते ही मैं सिर से पाँव तक काँपकर रह गया। एड्स के नाम से जिस भयानक बीमारी के बारे में अब तक पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ा-सुना ही था, उसे इतना करीब महसूस करके दिल दहल-सा गया। एक पल के लिए तो मैं किंकत्र्तव्यविमूढ़ हो गया। समझ में नहीं आया कि किससे क्या कहा जाये, क्या किया जाये। लगभग यही हालत अरमान की भी थी।
अरमान एकदम उत्तेजित हो गया। उसे यह भी खयाल नहीं रहा कि सामने बैठा व्यक्ति डॉक्टर है और हम से ज्यादा जानता है। वह उत्तेजना में लगभग चीखकर बोला—‘‘ऐसा कैसे हो सकता है, डॉक्टर साहब! आरती का चैकअप पहले भी दो-तीन बार हो चुका है। पहले तो कभी किसी ने ऐसी बात नहीं कही।’’
डॉक्टर अचम्भित-सा हमें देखने लगा। उसे शायद ऐसा अनुभव नहीं था कि रोग के बारे में बताने से रोगी के अभिभावक ऊँची आवाज में, अविश्वास से बात करें। उसने संयम से कहा—‘‘धीरज रखिये। अभी मैंने भी आपको यह नहीं कहा है कि आरती को यह रोग है ही। मुझे केवल अंदेशा है। और रही पहले चैकअप की बात...तो यह केवल ब्लड-टेस्ट से ही पता चलता है, अन्य किसी तरह की जाँच से नहीं। टेस्ट में भी एक बार जो परिणाम निकले, वही पूर्णत: सत्य न हो, ऐसा भी कभी-कभी हो सकता है। मैं रोग को न्यौता नहीं दे रहा हूँ। लेकिन यदि मरीज की शिराओं में वह है तो सामने भी आयेगा।’’
अरमान झेंपकर चुप हो गया। हम दोनों ही कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं थे। सबसे खतरनाक बात तो यह थी कि एड्स की यह सम्भावित मरीजा चंद घंटों बाद एक और शिशु को जन्म देने जा रही थी।
‘‘लेकिन डॉक्टर, आरती तो खुद एक अस्पताल में ही नौकरी करती है...नर्सों व डॉक्टरों के बीच उसका उठना-बैठना रहा है, ऐसा रोग उस तक कैसे पहुँच सकता है?’’ मैंने भी एक व्यर्थ-सा तर्क लेकर स्थिति के प्रति अपना अस्वीकार जताने की कोशिश की।
डॉक्टर गम्भीरता छोड़कर हल्के से मुस्करा उठा। बोला— ‘‘ये आपने कैसे मान लिया कि डॉक्टर या नर्स स्वयं कभी रोगी नहीं हो सकते। किसी शिक्षक से पूछिये, क्या वह कभी जिन्दगी में किसी इम्तहान में फैल नहीं हुआ। जो जहाज गिर जाते हैं, उन्हें भी वही चला रहे होते हैं जो पायलट होते हैं...’’
डॉक्टर के तर्कों से हम चुप होकर एक-दूसरे की ओर देखने लगे।
‘‘लेकिन डॉक्टर, यह कब तक और कैसे निश्चित होगा कि वास्तव में आरती को यह रोग है या नहीं?’’ मैंने कहा।
‘‘इसमें समय लग सकता है। मैंने सारे परीक्षण दोबारा किये हैं और फिर भी मैं रिपोर्ट को अपने एक मित्र के साथ दूसरी जगह भिजवा रहा हूँ। दो-तीन डॉक्टर्स से परामर्श के बाद ही हम आपको निश्चित रूप से बता पाने में समर्थ होंगे।’’
‘‘लेकिन तब तक...’’
‘‘सब ईश्वर की मर्जी है। धीरज रखिये और जिस तरह से इस लड़की ने अपने जीवन में अब तक साहस रखा है, उसका एक तिहाई धैर्य भी आप लोग रखेंगे तो सब ठीक होगा। अभी स्थिति जैसी है उसमें तो प्रसव के इन्तजार के अलावा और कोई चारा भी नहीं है। आप लोग आने वाले बच्चे के स्वागत की तैयारी कीजिये...’’ कहते-कहते डॉक्टर के चेहरे की बनावटी मुस्कान उजागर हो गयी। इंसानी जीवन की व्यर्थता और एक विराट शून्य के हर तरफ फैल जाने के अहसास देता एक इश्तहार-सा बन गया डॉक्टर का कक्ष। भारी कदमों से हम लोग बाहर निकले।
हम लोग घर लौटे तो ऐसा लग रहा था कि जैसे किसी श्मशान से किसी को जलाकर लौटे हों। मैं और अरमान अपने आप में खोये हुए थे और बोलने के लिए हमारे पास कुछ नहीं था। खाना भी बेमन से खाया हमने।
शाम को सोकर उठने के बाद किसी काम से मैं बगल वाले कमरे में गया तो कमरा कुछ बदला-बदला-सा लगा। गौर से देखने पर अन्तर समझ में आया। अरमान ने खूँटियों पर, अलमारी में से तथा पलंग पर फैले बिखरे कपड़ों में से चुन-चुनकर अपने कपड़े अलग कर लिये थे। आरती के कपड़े उपेक्षित-से एक ढेर की शक्ल में एक ओर पड़े थे। अरमान का बैग ब सूटकेस भी आरती के सामान से अलगाया जा चुका था और यहाँ तक कि मुँह-हाथ पोंछने के लिए टँगे छोटे दोनों तौलिये भी लापरवाही से आरती के सूटकेस पर डाल दिये गये थे। ड्रेसिंग टेबल पर पड़ी आरती की प्रसाधन सामग्री व दो-तीन कंघे भी आरती की अनुपस्थिति में शायद अरमान ने ही सरकाकर एक ओर कर दिये थे। एक पुराने अखबार से इन सब वस्तुओं के ढेर को ढकने की कोशिश भी की गयी थी।
मैं बिना कुछ बोले बाथरूम की ओर चला गया। वहाँ भी आये परिवर्तन को मैं देखते ही ताड़ गया। आरती का शिकाकाई व लेसांसी साबुन रैपर में लपेटकर एक कोने में रख दिया गया था।
तुकाराम ने मेज पर चाय रखकर जब हम लोगों की पुकारा तो मन अजीब-सा हो चुका था। गर्म चाय से उठती भाप मुझे किसी श्मशान की बुझी चिता से उठे धुएँ की भाँति लगी। चाय का स्वाद भी मालूम नहीं पड़ा। शायद जिह्वा की स्वाद-ग्रंथियाँ विचार ग्रंथियों में उलझकर रह गयीं। मुझे अरमान पर अजीब-सा क्रोध आया। एक पल के लिए यह खयाल भी आया कि यदि आरती वास्तव में अरमान की पत्नी होती तो भी क्या उसकी बीमारी के बारे में जानने के बाद उसकी मूक प्रतिक्रिया यही होती?
मुझे याद नहीं कि चाय पीने के दौरान मेरी व अरमान की कोई बातचीत हुई हो। लेकिन एक जबरदस्त परिवर्तन मैं अपने भीतर भी उगता पा रहा था। न जाने कहाँ से मेरे दिमाग में यह विचार आने लगा था कि नर्सिंग होम से लौटने के बाद आरती को रखने की व्यवस्था कहाँ की जाये। मेरे मन में भी एक चोर आ बैठा था जो अब अरमान की भाँति मुझे पल-पल शंकित किये जा रहा था। मैंने भरसक कोशिश की कि मुझे अपने भीतर के इस वाहियात खयाल से उबरना है किन्तु कहीं भीतर मैं भी अपने को कमजोर पड़ता पा रहा था। एक चिन्ता यह भी सताने लगी थी कि यह खबर जैसे ही यहाँ आसपास रहने वालों को पता चलेगी, हमारा जीना दुश्वार हो जायेगा। लोग न जाने क्या-क्या बातें करेंगे। इस सबसे बढ़कर चिन्ता यह थी कि स्वयं अपने भीतर की कमजोरी से कैसे निजात पायी जाये। किसी भी तरह से आरती के साथ भाई का सम्बन्ध कहीं ताश के पत्तों की तरह भरभराकर ढह न जाये। मेरे मन में उथल-पुथल चलने लगी। मैं दृढ़ता से यही सोचने का प्रयास करता कि आरती आरती नहीं बल्कि दिल्ली में विवाह के बाद रह रही मेरी सगी बहन अनीता ही है। मैं मन को हौसले के साथ तैयार करता कि मुझे सारे निर्णय इसी बात को मन में रखकर लेने हैं कि आरती मेरी अपनी है, मेरी सगी बहन है—चाहे अरमान का रुख कुछ भी क्यों न हो। यह सच था कि मेरा परिचय आरती से अरमान के माध्यम से ही हुआ था। मगर अब आरती पूरी तरह मेरी जिम्मेदारी थी। अपनी जिन्दगी को असली जिन्दगी साबित करने का इंसान के पास इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता था? वरना तो नि:सर्ग की कठपुतलियों के रूप में बाकी जानवरों की तरह हम भी जी ही सकते हैं।
शाम को शाबान आया तो बहुत खुश था। आते ही मुझसे लिपट गया। अरमान को भी कंधे से पकड़कर उसने झिझोड़ डाला। इतना ही नहीं बल्कि उसके लिए पानी का गिलास लेकर आये खड़े तुकाराम को भी स्नेह से गले लगा लिया। फिर पानी का गिलास एक साँस में खाली करके जेब से एक कागज निकालकर मेरे सामने फैला दिया।
निशात फिल्म्स की अगली फिल्म के लिए उसे चुन लिया गया था, जिसके लिए वह पिछले काफी दिनों से प्रयासरत था। उसे हीरो के बराबर का ही रोल मिला था और फिल्म में कई नामी कलाकार काम कर रहे थे।
पलंग पर बैठते हुए शाबान ने दस हजार रुपये की नोटों की गड्डी भी हाथ में लहराकर दिखायी जो उसे कॉन्ट्रेक्ट साइन होने के बतौर मिले थे। अगले कुछ ही दिनों में शूटिंग शुरू होने वाली थी।
शायद शाबान ने भी यह महसूस किया कि उसके इतना प्रसन्न होकर यह खुशखबरी देने के बावजूद माहौल में उतनी खुशी नहीं बिखरी है जितनी उसने उम्मीद की है। वह भी समझ गया कि कहीं-न-कहीं कोई गड़बड़ है। इससे पहले कि वह कुछ पूछता, अरमान ने एकदम से उत्तेजित होकर कहा—‘‘डॉक्टर ने आरती को एड्स बता दिया है।’’ उसे जोर से बोलते वक्त यह भी ध्यान नहीं रहा कि पास खड़े तुकाराम ने भी यह बात सुन ली है।
मैंने तुरन्त आँख के इशारे से उसे सचेत करना चाहा पर अब तक देर हो चुकी थी। तीर की तरह बात अरमान के मुँह से निकल चुकी थी। तुकाराम विस्मित नेत्रों से हमें देखता रसोई की ओर चला गया।
पलभर के लिए शाबान भी गम्भीर हो गया किन्तु गम्भीरता उसके चेहरे से वैसे ही ढुलक गयी जैसे कमलपात पर से पानी की बँूद ढुलक जाती है। चेहरा फिर से अनछुआ हो गया। वह हमें गम्भीर देखकर पलटा और ड्रेसिंग टेबल के सामने हेयरब्रश लेकर खड़ा हो गया। वह शीशे से सटकर अपना चेहरा इस तरह निहार रहा था, मानो बुरी खबर ने कहीं उसके चेहरे पर कोई दाग-धब्बा तो नहीं छोड़ा। वह अँगुली से छू-छूकर अपने गाल व पलकों को निहारने लगा।
अगली सुबह वही हुआ जिसका हमें, कम-से-कम मुझे, अंदेशा था। तुकाराम काम पर नहीं आया। कुछ देर बाद एक लड़का आकर खबर दे गया कि तुकाराम गाँव गया है और बाद में हिसाब के लिए आयेगा। मैं सारी बात समझ गया। मेरा नौकर पहले भी बीच-बीच में छुट्टी जाता था मगर इस बार वह अपने साज-सामान को भी बीन-बटोर ले गया था। एक नयी चिन्ता जेहन में आ बसी। अब तीनों के लिए नाश्ते-खाने का प्रबन्ध पास के होटल से करना था अथवा किसी मित्र के घर।
वह दिन परीक्षा की फेहरिस्त लेकर आया था। सुबह से ही मन उचाट था। रही-सही कसर शाबान ने पूरी कर दी। बोला—‘‘भैया, कुछ दिन बाद शूटिंग शुरू हो जायेगी। मुझे बाहर भी जाना पड़ेगा, इसलिए मैं कुछ दिन गाँव रहने के लिए आज ही जाना चाहता हूँ, शाम की ट्रेन से।’’
‘‘मगर...आरती...’’ मेरे मुँह से निकला। लेकिन तुरन्त ही मुझे अपनी भूल का अहसास हुआ। शाबान ने तो वैसे भी आरती को अपनी जिम्मेदारी कभी माना ही नहीं था। उसे इस बात से कोई मतलब नहीं था कि आरती किस हाल में है। तभी मुझे यह भी ध्यान आया कि पिछले कई दिनों से काम पर न जाने व आरती के लिए बन्दोबस्त करने के लिए पैसे की भी खासी तंगी घर कर चुकी है। शाबान के पास नोटों की गड्डी है, यह जानने के बाद मैंने उसी का लाभ लेना चाहा। कहा—‘‘शाबान, तुम्हें जाना है तो जाओ, लेकिन क्या इस समय कुछ रुपयों का बन्दोवस्त हो सकता है? आरती भी प्राइवेट नर्सिंग होम में है। क्या पता, कब क्या खर्च आ पड़े।’’
शाबान अनमना-सा हो गया। जबरदस्त अभिनेता होने का दावा करने वाला शाबान भी अभिनय ही के बूते पर अपने चेहरे पर आये भावों को छिपा नहीं सका। साफ झलकने लगा कि उसे मेरा प्रस्ताव जँचा नहीं है। वह बोला—‘‘यहाँ अरमान तो है ही। असल में मेरे पास केवल वही दस हजार रुपये हैं जो मेरी पहली फिल्म की कमाई के हैं। मैं इन्हें अम्मी को ले जाकर देना चाहता हूँ।’’ शाबान ने असमंजस से कहा।
मुझे फिर अपनी भूल का अहसास हुआ है। मैंने कहा—‘‘अच्छा चलो, कोई बात नहीं, यहाँ तो कोई-न-कोई बंदोबस्त हो ही जायेगा।’’ अनमने-से शाबान ने दूसरे कमरे में जाकर बैग में अपने सामान को समेटना शुरू कर दिया।
मैं अपने आपको बेहद अकेला पड़ता महसूस करने लगा। मैंने अरमान से कहा—‘‘चलो, हम होटल से कम-से-कम खाने का प्रबन्ध तो करें।’’
शाबान तपाक से बोला—‘‘आप खाने की फिक्र मत कीजिये। आप हॉस्पिटल हो आइये। आज खाना मैं खुद पकाऊँगा। देखिये क्या लज़ीज खाना खिलाता हूँ। मछली लाऊँगा जाकर।’’ शाबान ने वातावरण को हल्का-फुल्का बनाने की गरज से कहा।
नाश्ते के बाद मैं और अरमान अस्पताल चले गये। आरती हमें देखकर हमेशा की तरह बेहद खुश हुई। उसका चेहरा तरोताजा दिखायी दे रहा था पर मस्तिष्क पर दिखायी देने वाली रेखाएँ और दिनों के मुकाबले थोड़ी गहरी थीं। आँखों में भी उनींदापन झलक रहा था। डॉक्टर को पूरी उम्मीद थी कि प्रसव आज देर रात तक हो जायेगा।
जब हम चलने लगे तो डॉक्टर से हमारी बातचीत हुई। डॉक्टर का कहना था कि इस समय आरती के दिमाग पर कोई जोर नहीं पडऩा चाहिए। उसे किसी भी तरह की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष चिन्ता से भी इस समय बचाना होगा।
जिस आरती की नस-नस में जीने की अदम्य चाह कूट-कूटकर भरी थी, जो पल-पल छले जाने के बाद भी जीवन से निराश नहीं हुई थी, उसी को ऐसे रोग द्वारा घेर लेने का अन्देशा था जिसमें इन्सान की रोग-प्रतिरोधक क्षमता समाप्त हो जाती है। आदमी जीने के प्रति निराश होने लगता है। शरीर की धमनियों में बहता खून चुकने लगता है। कैसा अजीब विरोधाभास था! आरती तो उस मछली की तरह थी जो पानी सूखने पर भी रेत पर तैरने का प्रयास कर रही थी। वह पंछी जो आकाश छिन जाने पर भी डैने तौलने को दोबारा उद्यत हो उठे।
आखिर ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है कि कुदरत ने संसार बनाकर इन्सान की देखरेख में ही छोड़ा है—पाँच तत्त्व से मिलकर बना ब्रह्माण्ड और पाँच तत्त्व से मिलकर ही बना इन्सान। दोनों महाशक्तिशाली। यदि इन्सान तभी तक है जब तक प्रकृति चाहे, तो प्रकृति भी तभी तक है जब तक इन्सान चाहे। प्रकृति अपनी बनायी इन्सानी-दुनिया की अग्नि-परीक्षा लेने के लिए जब तक अपने बाजुओं को तोलती है तो भला इन्सान इस जीवट-भरे इम्तहान में खरा क्यों न उतरे? बन्दे के बाजुओं का बल खुदा का रुतबा ही बढ़ाता है।
मुझे इस चिन्ता ने भी घेर लिया था कि डॉक्टर ने धैर्य रखने, सब्र से काम लेने के साथ किसी होनी-अनहोनी के लिए तैयार रहने को भी कह दिया था। साथ ही पाँच-दस हजार रुपयों का बन्दोबस्त भी रखने की हिदायत दी थी।
आखिर आरती को दिमागी तौर पर सुकून देने का जरिया क्या हो सकता था। कहीं अवचेतन में मेरे दिमाग में कुछ दिन पूर्व की घटना भी कौंध गयी थी। मैं सचमुच चाहने लगा था कि जोसफ नादिर का सचमुच कोई सम्बन्ध आरती से निकल आये। जोसफ के साथ देखे गये उस आदमी को आरती के पति के रूप में यद्यपि अब तक भी मैं स्वीकार नहीं कर सकता था, पर मेरा दिल कहता था कि मैं जोसफ नादिर को सारी बात बताकर एक बार आरती से मिलवाने का प्रयास अवश्य करूँ।
पर दूसरी ओर मुझे यह खयाल भी परेशान करता था कि जोसफ की कमाई जिस जरिये से थी, उसका एक पैसा भी यदि आरती के इलाज में लगा तो सचमुच उसके रक्त के जीवाणु उसकी प्रतिरोधक क्षमता को समाप्त कर देंगे। अच्छे खून को गन्दी कमाई से भला कैसे पोसा जा सकता है! और यदि पोसा भी जा सकता हो तो सवाल यह है कि क्यों पोसा जाये?
रात काफी देर तक अस्पताल में रहने के बाद मैं और अरमान जब बाहर निकले तो सन्नाटा-सा था। इक्का-दुक्का सवारियाँ व लोग ही वहाँ दिखायी दे रहे थे। हम लोग टहलते हुए पैदल ही घर की ओर चल पड़े।
लम्बी चुप्पी मैंने ही तोड़ी अरमान से कहा—‘‘आखिर क्या होगा आरती का! प्रसव ठीक-ठाक हो जाने के बाद भी तो मुश्किलें हल नहीं हो जायेंगी।’’
‘‘आरती की इच्छा भी तो यही है। वह विदेश...’’
‘‘उस बेचारी निर्दोष भोली-सी लड़की की क्या इच्छा और अनिच्छा!’’ मैंने दार्शनिक के-से अन्दाज में कहा—‘‘जिन्दगी ने उससे उसकी इच्छा कभी पूछी ही कहाँ है?’’
‘‘आप उसे लेकर परेशान हो रहे हैं, मगर मेरा दिल कहता है कि सारी मुश्किलें हल हो जायेंगी। शाबान भाई उससे विवाह के लिए तैयार हो जायेंगे।’’
‘‘क्या?’’ मैं जैसे आसमान से गिरा। अविश्वास से मैंने कहा, ‘‘शाबान भाई ने महीनों में एक बार भी उसकी तरफ ढंग से कभी देखा तक नहीं, और तुम कह रहे हो वह आरती से विवाह...’’
‘‘मैं शाबान भाई को इतनी अच्छी तरह जानता हूँ, जितनी अच्छी तरह वह खुद भी अपने को नहीं जानते। मैं उन्हें बचपन से देख रहा हूँ, जीवन के प्रति उनका नजरिया, उनकी महत्त्वाकांक्षा...’’
‘‘मैं कुछ समझा नहीं।’’
‘‘शाबान भाई के लिए शादी का वह मतलब नहीं जो मेरे या आपके या किसी और के लिए होता है। अब...अब तो वे यही सोचेंगे कि एड्स-पीडि़त पत्नी होने से उन्हें अखबारों-पत्रिकाओं में सुखियों में जगह मिलेगी। जबरदस्त पब्लिसिटी मिलेगी।’’
‘‘क्या?’’
‘‘हाँ, भैया! आप उम्र और अनुभव में मुझसे बड़े हैं। दुनियादारी जानते हैं, मगर मेरी यह बात...कम-से-कम ये यह बात...देखियेगा, सौ फीसदी खरी उतरेगी।’’
बम्बई की उस काली रात ने मेरा बोझ हल्का कर दिया था। गगनचुम्बी इमारतों की खिड़कियों से फूटते रोशनी के जुगनू मुझे आने वाले दिनों की झलक दिखा रहे थे। तयशुदा सवेरे का आलम भाँपकर भी मेरा मन न जाने क्यों चाह रहा था कि बनी रहे यह अँधेरी काली रात!
(समाप्त) - प्रबोध कुमार गोविल