शून्य से शून्य तक - भाग 14 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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शून्य से शून्य तक - भाग 14

14===

आशी को याद आ रही थी अपनी माँ और साथ ही वह बच्चा जो उसका भाई था लेकिन जैसे माँ को ले जाने आया था| गुज़री हुई गलियों को उकेरते हुए उसकी कलम काँप रही थी| उसके पिता उस दिन किसी और घटना को भी याद कर रहे थे जो उनके बचपन से बाबस्ता था| 

उस दिन फिर दीना जी को अपने बचपन का वह मनहूस दिन कुछ ऐसे याद आ गया मानो अचानक ही कोई तूफ़ान उनके घर में प्रवेश कर गया हो| यूँ भी यह तूफ़ान उनके घर में प्रवेश कर ही चुका था| सोनी और नवजात शिशु की मृत देह कोठी के आँगन में पड़ी थी और उन्हें अपने गाँव के सेठ विक्रम, उनके पुत्र सुधीर और उन की पत्नी की मृत देह देखाई दे रही थी| सुधीर की मौत की खबर सुनकर पिता का हृदय शांत हो गया था और अपने सामने पिता-पुत्र की मृत देह देखकर विक्रम की पत्नी का भी हृदय का दौरा पड़ने से वहीं का वहीं दम निकल गया था| 

एक ही समय में तीन-तीन अर्थियों का एक घर से निकलना, उनकी बालपन की दृष्टि में समा गया थाऔर कभी भी उनकी आँखों में वे तस्वीरें उभर आतीं और उनके जेहन में भी घबराहट पैदा कर देती| कई बार उन्होंने सोनी से भी अपनी इस घबराहट के बारे में चर्चा की थी | पर सोनी सदा हँसकर टाल देती थीं---

“क्या आप भी---! अरे ! जीवन में जो घटित होना होता है, वह तो ऊपर वाले ने हमारे साथ लिखकर भेजा है—यहाँ, हमारे ललाट पर ---| ”वे अपने दाहिने हाथ की ऊँगालियाँ अपने माथे पर फिराते हुए कहतीं---

“फिर आप क्यों इतना घबराते हैं ? क्यों उन लोगों की बात याद नहीं रखते जिनके जीवन खुशी से बीते हैं ? जो अंत तक सब साथ रहे हैं ! ”

“लोग अर्थी उठाने की बात कर रहे थे और वह कह रहे थे ---

“सोनी! तुम तो अंत तक साथ रहने की बात करती थीं! खुशी और गम में रहने की बात करती थीं? अब मैं---मैं” ”वे सुबकियाँ लेते जा रहे थे, उनकी आँखों से आँसू झरते जा रहे थे जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे| 

उधर आशी चिल्ला रही थी;

“आई वॉन्ट लीव यू डैडी, यू हैव किल्ड माय मदर ---आई हेट यू –आई हेट यू –हेट—”

कुछ लोगों ने उस बच्ची को कसकर पकड़ रखा था और दीनानाथ को खड़े होने के लिए कह रहे थे | डॉक्टर सहगल ने उन्हें अपना सहारा देकर उठाया और वह लड़खड़ाते हुए लोगों के पीछे चलने लगे थे| 

“मम्मी---”आशी की चीखें घर भर में गूंजने लगी थीं| यह इतना हृदय विदारक दृश्य था कि वहाँ उपस्थित हर आदमी जैसे मन से टूटकर बिखरने लगा था| 

सात साल की बच्ची की जैसे दुनिया उजड़ गई थी| वह बिफरी पड़ रही थी। महसूस करने लगी थी कि उसका भाई आखिर आया ही क्यों जो खुद तो उसके पास रहा ही नहीं, माँ को भी अपने साथ ले गया| सबके प्रति उसके मन में नेगेटिव विचार ही आ रहे थे| वह इतनी छोटी थी कि परिस्थिति को पूरी तरह नहीं समझ सकती थी लेकिन उसने अपने माता-पिता के बीच में कई बार कुछ ऐसे संवाद सुने थे जो उसके दिमाग में सब कुछ उल्टा-पुलटा भर गया था| 

क्यों भेजता है इस दुनिया में भगवान? और है कौन वह? न रूप-रंग का पता, न ही आकार का और दुनिया उसके अपनी-अपनी सोच और कल्पना से चित्र बनाए जा रही है| कहीं जातियाँ हैं तो कहीं संप्रदाय, कहीं धर्म है तो कहीं अधर्म, कहीं अपने को आस्तिक कहने वाले हैं तो कहीं अपने को नास्तिक कहने वाले भी कम बबाल खड़ा नहीं करते----और जिसने दुनिया बनाई वह न जाने कहाँ बैठा अपनी बनाई दुनिया पर ही ज़रूर हँसता होगा| वो सब भी ठीक लेकिन मोह के इन बंधनों में जकड़कर क्या करना चाहता है वह? 

जो कुछ होना होता है, वह होता ही है तो पीछे मोह क्यों रह जाता है? अगर ऐसी दुनिया बनती कि जब तक ज़िंदा हैं, मोह तभी तक है तब भी इंसान किसी न किसी तरह जीने का साहस कर लेता लेकिन जाने के बाद भी उसी बीते मोह में फँसाए रखना, क्या ज़्यादती नहीं है? 

दीना जी सोनी के बाद उसकी स्मृतियों में और भी उलझ गए थे। उपरोक्त प्रश्न उनके मन के आँगन में टहलते ही रहते!