शून्य से शून्य तक - भाग 7 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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शून्य से शून्य तक - भाग 7

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आशी ने लिखते-लिखते एक लंबी साँस भरी| इस समय वह कमरे में बैठी थी लेकिन खिड़की के पास मेज़ व कुर्सी की व्यवस्था होने से खिड़की से अरावली की पहाड़ियाँ धीरे-धीरे धुंध की चपेट में दिखाई देने लगीं थीं| वह उठी, कमरे की बत्ती जलाई और बाहर बरामदे में आ खड़ी हुई| उसे कभी अपना बीता हुआ समय याद आता तो कभी बीते हुए वे क्षण जिनसे वह ही नहीं, न जाने कितने और जुड़े थे| 

वास्तव में दीनानाथ का वर्तमान व्यक्तित्व अब यही रह गया था | घुटन और एकाकीपन से भरा! समय-समय की बात होती है| कभी यही दीनानाथ जिधर से गुज़र जाते थे, लोग इनके सामने नतमस्तक हो जाते थे | खैर---वो लोग तो अब भी इनका वैसा ही सम्मान करते हैं, घर के सभी नौकर-चाकर, इंडस्ट्री के मैनेजर यहाँ तक कि वहाँ का पूरा का पूरा कर्मचारी वर्ग| सभी उन्हें पहले जैसा ही सम्मान देते थे बस कमी तो अपने घर में ही थी | घुटन तो अपने घर से ही शुरू होती है| समझ में ही नहीं आता बात कहाँ से शुरू की जाए ? आशी को आखिर कैसे समझाएँ ? क्या—क्या करें? सोनी होती तो---पर होती तब न ? सारी समस्या सोनी के चले जाने से ही तो पैदा हुई है न ! अब क्या करें दीनानाथ? 

आज फिर दीनानाथ जी के ‘रूटीन चैक अप’की बारी थी| डॉ. सहगल दीनानाथ के ‘पारिवारिक डॉक्टर’ थे बल्कि उनके परिवार के सदस्य जैसे ही थे | दोनों में बहुत गहरी दोस्ती थी इसलिए दीनानाथ डॉक्टर को मज़ाक में’घरेलू डॉक्टर’कहकर पुकारते | 

“यार दीना! मैं तुम्हारा ‘घरेलू डॉक्टर’ हूँ न इसीलिए तुम मेरा कहना नहीं मानते| हाँ, ’फैमिली डॉक्टर’ होता तब तुम मेरी हर बात मानते, मेरी इज़्ज़त करते ---पर, मैं ? मै तो तुम्हारे खेत की मूली हूँ न---सो---”

“साब ! घरलू और परिवार में क्या फ़र्क पड़ता है ? घरेलू से तो और भी करीब का रिश्ता लगता है | हैं न? ”माधो का मुँह भी खुल जाता | 

“अरे ! तभी तो-–तभी तो माधो, यह जो पास का, नजदीक का रिश्ता होता है न, यही तो घरेलू हो जाता है| कुछ करो या न करो, मानो या न मानो----यानि घर की मुर्गी दाल बराबर---ही—ही—ही---”

“अच्छा ! घर की मुर्गी ! ज़रा बताओ तो, मुझ गरीब को इतने ताने क्यों दिए जा रहे हैं ? ” दीना डॉक्टर साहब से पूछते | 

“हाँ, गरीब भाई ! मुझे बताओगे, आखिर तुम्हें हुआ क्या है जो इस कुर्सी से चिपककर बैठ जाते हो ? फर्स्टक्लास हो, पर आदत पड़ गई है इस पर चिपककर बैठने की, तो मन ही नहीं करता शरीर को थोड़ा सा भी कष्ट दे लें --”

“सहगल ! ”दीनानाथ छटपटाकर कर बोलते| 

“क्या सहगल –छह महीने से कह रहा हूँ कुछ नहीं है उठकर इस लॉबी में ही ज़रा सा घूम लिया करो–पर, नहीं कसम खा रखी है कहना न मानने की ---और तुम माधो --! तू क्यों पकड़कर नहीं घुमाता इन्हें ? बिलकुल ठीक हैं ये | मैं तेरे कान खींचूँगा अगर अब---”

“जी---माई-बाप –”माधो खुद अपने कान पकड़ लेता| ऐसा नाटक चलता ही रहता और फिर सब ठठाकर हँस पड़ते| 

डॉक्टर के आने से मानो यह घर आबाद हो जाता है | वैसे डॉक्टर साहब प्रयास तो यही करते हैं कि यह घर पहले जैसा घर हो जाए लेकिन जीवन की वास्तविकता तो यह है न कि जो चीज़ चली जाती है, वह लौटकर वापिस कहाँ आती है ? तभी तो उन्हें ‘भूत’ कहा जाता है यानि गुजर गया और इस भूत का साया भी जाने-अनजाने कभी न कभी वर्तमान पर पड़ता ही रहता है| 

डॉक्टरी पेशे में संलग्न डॉ.सहगल एक सहृदय इंसान थे अत:अधिक संवेदनशीलता के कारण अपने मित्र और पेशेंट दीनानाथ के बारे में बहुधा चिंतित भी हो जाते थे | उन्हें ज्ञात था कि उनका मित्र दीना अपनी कमज़ोर इच्छाशक्ति से पीड़ित है| जब पाँच वर्ष पहले उन्हें फ़ालिज पड़ा था, तब की और आज की स्थिति में बहुत अंतर था| उस समय दीना का मन और शरीर दोनों ही कमज़ोर थे | अब मन और अधिक कमज़ोर हो गया था| डॉक्टर जानते हैं कि यदि वह उठने का प्रयास करें तो कुछ ही दिनों में इस योग्य हो सकते हैं कि अपने घर से बाहर निकल सकते हैं और अपने मन के आँगन में फिर से चहल-पहल देख सकते हैं| 

जब डॉक्टर सहगल दीनानाथ के पास आते, वातावरण में कुछ चहल-पहल सुनाई देती, हवा के झौंकों में भीनी सी खुशबू भर उठती पर उनके वापिस जाने के पश्चात् सब कुछ शांत, स्तब्ध ! 

समय मिलने पर डॉक्टर अक्सर दीनानाथ के साथ चैस खेलने आ जाया करते थे और कभी-कभी अपनी पत्नी और बच्चों को लेकर भी| मिसेज़ सहगल यानि रीना आशी के कमरे में जाकर उसकी खैर-खबर पूछतीं| आशी के उत्तर टालमटोल वाले ही होते | 

“आशी ! आओ, थोड़ी देर बाहर बैठो | देखो, मनु भी आया है ---”

“नो, थैंक्स आँटी –आई वॉन्ट टु गो फॉर ए लॉंग ड्राइव –” आशी बेमन से कहती | 

“मनु कैन गिव यू कंपनी---वह तुम्हारे लिए ही आया है ---| ”

“क्यों–क्यों आया है वह मेरे लिए ? मैंने बुलाया था क्या उसे ? ”

वे अपना सा मुँह लेकर वापिस आ जातीं | उनके वापिस लौटने पर सबकी दृष्टि उनसे कुछ पूछती, उन सबके चेहरे उनकी ओर उठ जाते और उनका लटका हुआ चेहरा देखकर जैसे कठपुतली की डोरी अचानक ढीली होकर उनके चेहरे लटका देती है, ऐसे ही सबके चेहरे लटक जाते | रीना अपने चेहरे पर एक ज़बरदस्ती की मुस्कान ओढ़ने का प्रयत्न करती नज़र आतीं| 

“शी इज़ बिज़ी---”सब चुप्पी साध लेते, सबको ज्ञात ही होता था कि उनके प्रश्न का यही उत्तर मिलेगा| सब अपनी-अपनी चाय की प्यालियों को उठाकर मुँह से लगाकर अपने मनोभावों को छिपाने का प्रयास करते| रीना सामने रखी नाश्ते की प्लेटों में से कुछ भी उठाकर चबाने लगतीं | यह कोई खास बात नहीं थी उन सबके लिए | सब यही सोचकर बैठते थे कि यही होने वाला है| मगर अब मनु को इस सबसे तकलीफ़ होने लगी थी | अरे ! ठीक है कि माँ-बाप की इज़्ज़त और दीनानाथ अंकल की खुशी के लिए वह आ जाता है पर वह भी नौजवान है| उसका अपना दायरा है, मित्र हैं| इंग्लैंड से एमबी.ए करके वहाँ नौकरी कर रहा था, अभी लौटा है| वह अपनी कंपनी को छोड़कर यहाँ बैठकर आखिर करे क्या ?